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‘सरकार द्वारा तय की गई मज़दूरी मांगने पर मालिक ने बिजली-पानी किया बंद, पीना पड़ा नाले का पानी'

उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले के बगलई गांव के रहने वाले 28 वर्षीय कमलेश कुमार अपनी पत्नी और बच्चों के साथ पंजाब के मोगा शहर काम करने गए थे. इन्हें भट्टे पर ईट पाथने का काम करना था. कुमार को यहां उनके गांव के पास के ही रहने वाले ठेकेदार बिन्दा प्रसाद लेकर गए थे.

बिन्दा प्रसाद ने कुमार समेत इलाके के दूसरे लोगों को ले जाते हुए वादा किया कि जो भी मजदूरी की सरकारी दर होगी वही दी जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जब मज़दूरों ने सरकारी दर पर मेहनतने की मांग की तो उनको तरह-तरह से परेशान किया जाने लगा. कमलेश कहते हैं, ‘‘मालिक ने हमें धमकी दी. राशन के पैसे देना बंद कर दिया. वहां के एक दुकानदार ने हमारी मदद की. वो बिना पैसे के राशन दे दिया नहीं तो हम भूखे मरते. उन्होंने हमारी बिजली काट दी और पीने तक का पानी रोक दिया. ऐसे में हम लोगों को नाले से पानी निकालकर पीना पड़ा.’’

मज़दूर मोगा जिले के चोटिया गांव के बीबी ईंट भट्टे पर काम करते थे. परेशान मज़दूरों ने इसकी जानकारी असंगठित मज़दूर मोर्चा नामक संस्थान को दी. जिसके बाद इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष दलसिंगार ने एक्शन एड और बंधुआ मुक्ति मोर्चा के साथ मिलकर इन मज़दूरों को छुड़वाया. 12 जुलाई को मज़दूर अपने-अपने घर लौट चुके हैं. लेकिन अब भी इस बात से परेशान हैं कि उनका मेहनताना नहीं मिला.

क्या मज़दूरों को नाले से पानी पीना पड़ा? इसको लेकर कमलेश कुमार कहते हैं, ‘‘क्या करते. प्यासे रहते तो मर जाते. एक महिला भूख-प्यास से बीमार पड़ गई तो उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था. अस्पताल में मालिक गया और धमकी देकर वहीं से भगा दिया. एक महीने तक बिना बिजली पानी के रहना पड़ा. जब कुछ भी नहीं हुआ तो हम जैसे तैसे अपना हिसाब लेकर आ गए.’’

मज़दूर यहां से पीते थे पानी

साल 2020 के सितम्बर महीने में ईट-भट्टे पर काम करने चित्रकूट और बांदा जिले के 71 लोग, जिसमें पुरुष, महिलएं और बच्चे शामिल थे. इन सबको ले जाने वाले बिंदा प्रसाद ही थे. कमलेश ने बताया, ‘‘ठेकेदार ने कहा कि तुम्हें सरकारी दर से मेहनताना मिलेगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस बार सरकार ने एक हज़ार ईट पाथने का मेहनताना 753 रुपए किया है, लेकिन हमें सिर्फ 573 रुपए मिले. बाकी पैसे मालिक ने काट लिए. मैं और मेरे परिवार ने ढाई लाख के करीब ईंट बनाई थीं. हमें करीब 50 हज़ार का नुकसान हुआ.’’

मज़दूर बताते हैं कि मालिक ने यह पैसे मिट्टी तैयार करके देने के काटे हैं. दरअसल कई जगहों पर भट्टा मालिक मशीन से मिट्टी तैयार करके देते है. इससे मज़दूरों का समय बचता है और वे ज़्यादा से ज़्यादा ईट तैयार करते हैं. जिससे मुनाफा मालिकों को ही होता है. क्या भट्टा मालिक ये पैसे काट सकते हैं? इस सवाल पर बंधुआ मुक्ति मोर्चा के निर्मल गोराना बताते हैं, ‘‘नहीं. सरकार जो पैसे तय करती है मालिकों को वो मज़दूरों को देना होता है. जब तक सरकार मिट्टी बनाकर देने के बदले पैसे काटने का जिक्र नहीं करती, मालिक नहीं काट सकते हैं.’’

चित्रकूट के धौरही माटी गांव से चार परिवारों के 17 लोग काम करने गए थे. इसमें से एक 29 वर्षीय कलू हैं जो अपने दो भाई और पत्नी के साथ काम करने गए थे. ठेकेदार बिन्दा प्रसाद इनके ही गांव के रहने वाले हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कलू कहते हैं, हमें ले जाते हुए ठेकेदार ने कहा था कि जो भी पर्चा रेट (सरकारी) आएगा वो दिया जाएगा लेकिन कम से कम 628 रुपए तो मिलेंगे ही. अगर सरकारी रेट में लिखा होगा तो मिट्टी बनाने का पैसा कटेगा, नहीं तो पूरा पैसा मिलेगा.’’

कलू आगे कहते हैं, ‘‘सरकारी रेट में मिट्टी बनाकर देने का जिक्र भी नहीं था, लेकिन 175 रुपए मालिक ने काट लिए. इस तरह हमें एक हज़ार ईट पाथने के बदले सिर्फ 578 रुपए देने लगे. जब हमने इसका विरोध किया तो मालिक ने कहा कि तुमको जो करना है करो. जिस भी अधिकारी के यहां जाना हो जाओ, लेकिन मैं तो यही हिसाब दूंगा.’’

सरकार द्वारा तय मज़दूरी

कलू उदास होकर कहते हैं, ‘‘मेरा काफी नुकसान हो गया. जाते वक़्त मैंने 60 हज़ार का एडवांस लिया था. इसके साथ वे हमें खाने-पीने का देते थे. सब कटा दिया था, उसके बाद भी मुझे बेहद कम पैसे मिले. 753 रुपए के हिसाब से मेरा करीब डेढ़ लाख रुपए बन रहा था, लेकिन मुझे सिर्फ 55 हज़ार ही मिले. मैंने अपने परिवार के साथ मिलकर पांच लाख के करीब ईट बनाई थीं.’’

भट्टा मालिक का दावा दिया पूरा मेहनताना

एक तरफ जहां मज़दूरों का कहना है कि उन्हें सरकार द्वारा तय मेहनताना नहीं मिला वहीं भट्टा मालिक जसपाल सिंह का दावा है कि मज़दूरों को 753..80 रुपए दिया गया.

न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए सिंह कहते हैं, ‘‘तहसीलदार और एसडीएम साहब के सामने उनको पूरा हिसाब दिया गया. हमने गारा मिट्टी का पैसा नहीं काटा है.’’

मज़दूर कह रहे हैं कि उन्हें सिर्फ 578 रुपए मिले हैं. आप कह रहे हैं कि 753 रुपए का हिसाब दिया. ऐसा क्यों? इसपर सिंह कहते हैं, ‘‘आप मज़दूरों का सुनकर लिख दो. इन्वेस्टिगेशन का काम तो पुलिस का है. पुलिस अपना काम करेगी. आप अपना करो.’’

मज़दूर सतपाल सिंह के दावे को गलत बताते हैं. वे कहते हैं कि अगर हमें 753 रुपए का हिसाब मिला होता तो हम क्यों ही शिकायत करते और यूनियन वाले को क्यों बुलाते. हमसे मिट्टी बनाने के 175 रुपए लिए गए, तभी तो हम लड़े, जिस कारण हर महीने हमें दुर्दशा झेलना पड़ा.

कमलेश बताते हैं, ‘‘मिट्टी के पैसे के अलावा हमसे बिजली बिल भी पूरा लिया गया. जबकि जाते वक़्त बोला था कि आधा ही लिया जाएगा.’’

न्यूज़लॉन्ड्री ने मज़दूरों को लेकर जाने वाले ठेकेदार बिन्दा प्रसाद से भी संपर्क किया. प्रसाद भी सतपाल सिंह के दावे से इतफ़ाक़ नहीं रखते हैं. प्रसाद कहते हैं, ‘‘मैंने मज़दूरों से कोई वादा नहीं किया था. इनसे कहा था कि जो भी सरकारी रेट होगा वहीं दिलवाऊंगा. इस बार सरकारी रेट 753 रुपए था. इसमें से मिट्टी बनाकर देने का 175 रुपए काटकर दिया गया.’’

प्रसाद कहते हैं, ‘‘मज़दूर कह रहे थे कि मिट्टी बनाकर देने के बदले हमें एक भी रुपए नहीं कटवाना है. ऐसा इन्हें किसी कॉमरेड (मजदूर नेता) ने बताया था. ये लोग शिकायत दर्ज करा दिए. तब लेबर इंस्पेक्टर और तहसीलदार भट्टे पर आए. अधिकारियों ने बात करने के बाद कहा कि मंडी में बाकि भट्टों पर जो हिसाब मिल रहा वो तो मालिक दे ही रहे हैं तो आप क्यों नहीं ले रहे हैं. तब मज़दूरों ने पैसे नहीं लिए और पांच-सात दिन बैठे रहे. तब दिल्ली से दलसिंगार जी अपने दो साथियों के साथ वहां आए. उसके बाद फैसला लेकर आजकल-आजकल कर रहे थे. जब मज़दूरों का कोई नहीं सुना तो इन्होंने समझौता कर 175 रुपए कटवा दिए और अपना हिसाब लेकर चले आए.’’

बिन्दा प्रसाद से बात करने के बाद साफ़ जाहिर हो जाता है कि भट्टा मालिक सतपाल सिंह झूठ बोल रहे हैं.

सिंह के झूठ की तस्दीक मज़दूरों के साथ हिसाब के दौरान मौजूद रहे असंगठित मज़दूर मोर्चा के प्रमुख दलसिंगार भी करते हैं. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए वे कहते हैं, ‘‘हमारे पास वीडियो मौजदू है जिसमें साफ-साफ सुना जा सकता है कि मज़दूरों को 578 रुपए का हिसाब मिला ना की 753 रुपए का. जहां तक रही वहां के अधिकारियों की बात तो वे मज़दूरों से ज़्यादा ख्याल मालिक का कर रहे थे. वे मज़दूरों को उनका हक़ दिलाने के पक्ष में नहीं दिखे. हमने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में शिकायत दर्ज कराई है. हम इसको मज़बूती से लड़ेंगे.’’

मज़दूरों से ज़्यादा मालिकों के हित में सोच रहा स्थानीय प्रशासन

मज़दूरों को छुड़ाने और उनका हिसाब दिलाने के लिए दलसिंगार खुद मोगा जिले गए थे. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘जब लेकर गए तो सरकारी रेट पर मेहनताना देने के अलावा, रहने, खाने का भी इंतज़ार करने का वादा किया गया था.सरकारी दर से मज़दूरी देने से मालिक मना करने लगा. उसका कहना था कि 578 रुपए का हिसाब दिया जाएगा. नियम कहता है कि जो भी सरकार दर है उससे एक पैसा आप कम नहीं दे सकते हैं. आप मिट्टी बनाकर दे रहे हैं ताकि ज़्यादा से ज़्यादा ईट तैयार हो. मज़दूरों को अगर परेशानी नहीं हो तो वे शिकायत नहीं करते.’’

दलसिंगार बताते हैं, ‘‘इसके बाद मज़दूर हमारे तक पहुंचे. तब हमने वहां के जिला अधिकारी समेत सभी जिम्मेदार अधिकारियों को पत्र लिखकर इसकी जानकारी दी. हमने जिलाधिकारी से भी बात की. लेकिन पहले तो दो-तीन दिन तक उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि कर्मचारी हड़ताल पर हैं. दो-तीन दिन बाद तहसीलदार और एसएचओ समेत कई अधिकारी भट्टे पर आए. नियम के मुताबिक जब भी बंधुआ मज़दूरी की शिकायत आती है तो सबसे पहले मज़दूरों का बयान रिकॉर्ड किया जाता है. लेकिन अधिकारी सीधे मालिक के पास गए. वहां मज़दूरों को बुलाकर बयान दर्ज कराया. जबकि नियम यह कहता है कि जब मज़दूरों का बयान लिया जाएगा तब मालिक को मौजूद नहीं होना है.’’

अधिकारियों के साथ असंगठित मज़दूर मोर्चा राष्ट्रीय अध्यक्ष (सफेद टोपी में)

मोगा के एसडीएम राजपाल सिंह ये स्वीकार करते हैं कि जब मज़दूरों का बयान लिया जा रहा था तब वहां मालिक मौजूद थे. वे कहते हैं, ‘‘हमारे लिए तो सब बराबर है. मुझे तो पता भी नहीं था कि मालिक कौन है और दूसरे लोग कौन हैं.’’

इतना ही नहीं आगे भी नियमों की धज्जियां उड़ाई गईं. दलसिंगार बताते हैं, ‘‘जब मज़दूरों ने शिकायत कर दी तो नियमतः उन्हें रेस्क्यू करना होता है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मज़दूर जहां थे वहीं रहें. फिर मैं वहां पहुंचा और अधिकारियों से बात की. फिर टालमटोल करने लगे. एक रोज एसडीएम का फोन आया कि हम देख रहे हैं. आपको आने की ज़रूरत नहीं है. नहीं आने के लिए दो तीन दफा फोन आया. मुझे लगा कुछ तो गड़बड़ है. मैं अधिकारियों से नहीं आने की बात बोलकर थोड़ी देर बाद पहुंच गया. वहां देखा कि मज़दूरों को पैसे बांटे जा रहे थे. 578 रुपए के हिसाब से ही पैस दिया गया. हमने पूछा कि सरकारी रेट से इन्हें हिसाब नहीं मिल रहा. लेकिन कोई खास जवाब नहीं आया उनका. मज़दूर भी काफी परेशान थे तो हमने सोचा कि इन्हें जाने दिया जाए. वे मज़दूरों को आने जाने का किराया नहीं दे रहे थे. तो हमने जबरदस्ती करके किराया और खाने पीने का दिलवाया. अब हम इस मामले को लेकर एनएचआरसी में गए है.’’

मज़दूर भी अधिकारियों पर अनदेखी का आरोप लगाते हैं

न्यूज़लॉन्ड्री ने मोगा के लेबर इंस्पेक्टर करण गोयल से संपर्क किया तो उन्होंने इस मामले की जानकारी नहीं होने की बात की. गोयल कहते हैं, ‘‘मुझे इसकी जानकारी नहीं है. दरअसल मुझसे पहले जो इंस्पेक्टर मैडम (इंदरप्रीत कौर) थीं उन्होंने इस मामले को देखा था.’’

न्यूज़लॉन्ड्री ने तत्कालीन लेबर इंस्पेक्टर इंदरप्रीत कौर से भी बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया. हमने मोगा के जिलाधिकारी से भी बात करने की कोशिश की लेकिन इनसे भी बात नहीं हो पाई.

मोगा के एसडीएम राजपाल सिंह, मज़दूरों और मालिकों के बीच हुए समझौते में मौजूद रहे, लेकिन उन्हें नहीं मालूम की मज़दूरों को किस दर से मेहनताना मिला. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए सिंह कहते हैं, ‘‘मज़दूरों ने लिखित में दिया कि वे बंधुआ मज़दूर नहीं हैं. उनकी मांग थी कि सरकार द्वारा तय मेहनताना उन्हें मिले. जबकि यहां के मालिक मिट्टी तैयार करने का मशीन लाए हैं. इन्होंने आपस में ही तय किया है कि मज़दूरी में से 175 रुपए काटेंगे. मज़दूर ये पैसे कटवाना नहीं चाह रहे थे.’’

फिर मज़दूरों को किस हिसाब से पैसे मिले? इस सवाल के जवाब में सिंह कहते हैं, ‘‘मुझे नहीं पता. मैं उस वक़्त वहां नहीं था. वैसे मालिक का काफी ज़्यादा खर्च हो गया. करीब 50 हज़ार का ट्रक करके मज़दूरों को भेजा और खाने के लिए भी पैसे हमने दिलवाये. जहां तक रही बिजली और पानी नहीं देने की बात तो यह सही नहीं है. जब हम वहां गए तो देखा कि मज़दूर समोसे खा रहे थे. मालिक ने हमें बताया कि इन्हें कोई परेशानी नहीं हुई. मज़दूरों ने भी ऐसा ही कहा. मज़दूरों की नाराजगी सिर्फ पैसों को लेकर थी. उन्हें पैसे मिल गए और वे ख़ुशी-ख़ुशी घर चले गए.’’

अधिकारी कह रहे हैं कि मज़दूर खुशी-खुशी घर चले गए लेकिन जब हमारी बात कमलेश से हुई तब वे अपने गांव के तालाब से मछली पकड़कर वापस लौटे थे. वे कहते हैं, ‘‘पिछले छह-सात साल से मैं भट्टे पर काम कर रहा हूं. बारिश खत्म होने के बाद फिर जाना पड़ेगा क्योंकि यहां काम नहीं है. अपने जिले में काम मिल जाए तो कोई बाहर क्यों जाए.’’

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