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क्या भारत के कोविड डेटा पर विश्वास किया जा सकता है? देखिए यह आंकड़े

इस लेख में, हम हर दिन हर घंटे पैदा हो रहे कोविड से जुड़े डेटा को समझने का प्रयास करेंगे. लेकिन विस्तार में जाने से पहले आइए समझने की कोशिश करें कि इस लेख का उद्देश्य क्या है?

लक्ष्य

कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर लगता है कि बीत गई है. पिछले कुछ हफ्तों से, कोविड के रोजाना नए मामलों और प्रतिदिन होने वाली मौतों में कमी आ रही है. लेकिन दूसरी लहर का सामना करने के लिए सरकार के सभी स्तरों की अक्षमता किसी से छुपी नहीं है जबकि एक बड़ी संख्या में जान गंवाने वालों को बचाया जा सकता था.

प्रारंभ में दिए हमारे कारणों की वजह से सही डेटा को एकत्र करने में काफी मुश्किलें हैं. इसके बावजूद, सुधार के पहलुओं को पहचानने और भविष्य में आने वाली लहरों के लिए तैयार होने हेतु महामारी के प्रकोप और इसके जवाब में सरकार की प्रतिक्रिया का डेटा पर आधारित विस्तृत विश्लेषण ज़रूरी है.

यह लेख, बड़ी मात्रा में एकत्र होने वाले कोविड से संबंधित डेटा को समझने का एक प्रयास है. हम यहां पर दो मूलभूत आंकड़ों पर ध्यान देंगे: कोविड टेस्टिंग और संक्रमण पॉजिटिविटी की दर, और इन दोनों के बीच का संबंध.

कोविड का टेस्ट दो प्रकार से होता है, और दोनों ही को नाक के रास्ते से सैंपल लेकर किया जाता है: एक आरटीपीसीआर टेस्ट और दूसरा एंटीजन टेस्ट. इन दोनों में से आरटीपीसीआर टेस्ट कहीं ज्यादा विश्वसनीय है, लेकिन कोविड संक्रमण को पहचानने के लिए दोनों ही प्रकार के टेस्ट किए जा रहे हैं. रिपोर्ट किए जाने वाले डेटा में दोनों ही प्रकार के टेस्ट के परिणाम शामिल होते हैं. पॉजिटिविटी की दर, टेस्ट किए गए लोगों की कुल संख्या में से पॉजिटिव पाए गए लोगों का अनुपात है.

किसी राज्य में बड़ी संख्या में कोविड‌ के मरीज न होते हुए भी, किए गए टेस्टों की कुल संख्या एक महत्वपूर्ण आंकड़ा है. इससे संक्रमण में बढ़ोतरी को ढूंढ पाने की क्षमता का पता चलता है और संक्रमण बढ़ने की परिस्थिति में शुरुआत में आवश्यक कदम उठाने का थोड़ा समय मिल जाता है. जब टेस्टिंग की दर ज्यादा होती है तो स्वाभाविक रूप से अधिक लोगों का टेस्ट होता है. इससे कम संख्या में टेस्ट करने के विपरीत, संक्रमण बढ़ने की परिस्थिति में उसका जल्दी पता चलने के अवसर बढ़ जाते हैं. अर्थात किसी राज्य की टेस्टिंग दर को उस राज्य के सतर्क रहने के एक मापदंड के रूप में देखा जा सकता है, या फिर कोविड के फैलने पर उसे जल्दी पकड़ पाने की क्षमता की तैयारी के रूप में देखा जा सकता है.

हालांकि हर परिस्थिति में टेस्टिंग बढ़ाना एक अच्छा कदम है, बढ़ते हुए कोविड-19 के मामलों को देखते हुए यह कहीं ज्यादा आवश्यक हो जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि ज्यादा बढ़ी हुई पॉजिटिविटी की दर यह दर्शाती है कि संभवत: केवल उन्हीं लोगों का टेस्ट हो रहा है जिनमें संक्रमण के काफी ज्यादा लक्षण दिखाई दे रहे हैं. जिसके परिणामस्वरूप, काफी लोग जो संक्रमित तो हैं लेकिन उनको बहुत कम या फिर कोई लक्षण नहीं दिख रहा है, उनका टेस्ट नहीं हो पा रहा है. यह अज्ञात संक्रमण वायरस को तेजी से फैला सकता है क्योंकि संक्रमित लोग खुद को अकेले रखकर सभी से दूरी नहीं बनाते क्योंकि वे जानते ही नहीं कि वे संक्रमित हैं और वायरस के वाहक हैं.

अतः जैसा कि हमने भारत में दूसरी लहर के चरम को देखा, एक राज्य जिस तरह से पॉजिटिविटी की दर तेजी से बढ़ने पर प्रतिक्रिया देता है उससे हम यह जान सकते हैं कि प्रतिक्रिया देने में वह कितना सजग था. एक आदर्श परिस्थिति में, पॉजिटिविटी की दर में बढ़ोतरी होने के कुछ ही दिन के भीतर टेस्टिंग की दर भी काफी मात्रा में बढ़नी चाहिए. इससे हम यह जानते हैं कि सरकार मौजूदा परिस्थिति को लेकर सजग है और उसके विषय में कुछ करने का प्रयास कर रही है.

राज्यों से 1 जनवरी 2021 से 10 जून 2021 तक इकट्ठा हुए डेटा का इस्तेमाल कर हमने टेस्टिंग के आंकड़ों और पॉजिटिविटी की दरों का विस्तृत विश्लेषण किया. हमने राज्यों के बीच इन दो मापदंडों में बड़े अंतर पाए, चाहे वह कुल संख्या हो या उनमें समय के साथ होने वाली बढ़ोतरी, जिसपर हम आगे विस्तार से विमर्श करेंगे.

एक रोचक तथ्य यह है कि ऐसा नहीं की सभी राज्य जो सतर्क थे वह जवाब देने में भी चपल रहे, और वे सभी राज्य जिन्होंने तेजी से बढ़ते हुए मामलों का प्रत्युत्तर सजगता से दिया, ऐसा भी नहीं की वे बहुत सजग थे. इसमें कोई शक नहीं कि इतने विस्तृत और भूल-भुलैया जैसे आंकड़ों के आधार पर इतने बड़े वक्तव्य देना खतरे से खाली नहीं. विश्लेषण कुछ राज्यों के डेटा पर प्रश्नचिन्ह भी खड़ा करता है क्योंकि उसमें और राष्ट्रीय औसत में बड़ा अंतर है जो संभावित छेड़खानी की तरफ इशारा करता है. कोविड डेटा के मामले में, गलतियों को उजागर करना चाहे वह जानबूझकर हुई या नहीं, शायद इस प्रकार की आदतों को कम कर सकता है.

डेटा में गड़बड़ी करने के विषय पर हाल ही में कई बड़ी रिपोर्ट प्रकाशित हुई हैं, जिनमें कई राज्यों से कोविड से मरने वालों की संख्या को बड़े रूप से छुपाया जा रहा है. पत्रकार रुकमणी एस व आईआईएम अहमदाबाद के चिन्मय तुम्बे के द्वारा की गई जांच पड़ताल, राज्यों के द्वारा कोविड मौतों की संख्या में बड़े स्तर पर छेड़खानी उजागर करती है. इससे प्रेरणा लेकर कई और मीडिया रिपोर्ट आई हैं, जिनमें और कई राज्यों के द्वारा इसी प्रकार से आंकड़ों में गड़बड़ी उजागर हुई है. इसपर हमने एक पूर्व लेख, "लेकिन आप मौतों को छुपाएं कैसे?" में चर्चा की थी.

एक प्रकार से हमारा यह विश्लेषण मीडिया के द्वारा दूसरे डेटा और अन्य सबूतों के आधार पर बढ़ी हुई मौतों की पुष्टि करता है.

क्योंकि आखिरकार हमारे पास केवल डेटा ही है, आइये शुरू करते हैं.

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डेढ़ महीने से अधिक समय तक देश को पंगु बना देने वाली कोविड की दूसरी लहर अब कम होती जा रही है. पूरे देश में एक दिन में आने वाले नए मामलों की संख्या 6 मई 2021 को 4,14,280 के शिखर से घटकर 28 जून 2021 को 37,070 पर आ गई, जो कि Covid19india.org के अनुसार दो महीने से कम में 91 प्रतिशत की गिरावट है. दूसरी लहर की गंभीरता को समझने के लिए यह याद रखना आवश्यक है कि पहली लहर में एक दिन में अधिकतम मामलों की संख्या 17 सितंबर 2020 को 97,680 थी. पिछले कुछ हफ्तों के दौरान नए संक्रमणों की संख्या में आई तेज गिरावट उत्साहवर्धक है.

बहुत से लोगों के दिमाग में एक बड़ा सवाल है: क्या कोविड डेटा पर विश्वास किया जा सकता है? कोविड डेटा के प्रति कोई भी संशय और उसकी वजह से डेटा पर आधारित महामारी के विश्लेषण की उपयोगिता पर संशय, समझा जा सकता है. विभिन्न कारणों से, कोविड संक्रमण को लेकर डेटा एकत्रित करने की हमारी क्षमता में बड़ी कमियां हैं. उन्हें एक-एक करके सूचीबद्ध करते हैं.

पहला, जैसा कि अब तक हम सभी जान चुके हैं कि हर संक्रमित व्यक्ति रोग के लक्षण नहीं दिखाता. वे लोग जो संक्रमित होने के बाद कोविड के लक्षण दिखाते हैं उन्हें लक्षणयुक्त या लक्षण दिखाने वाले मरीज़ कहा जाता है, वहीं वे लोग जो संक्रमित होने के बावजूद रोग के कोई लक्षण नहीं दिखाते उन्हें लक्षणमुक्त मरीज़ कहा जाता है. संक्रमित होने के बावजूद लक्षण न होने की इस परिस्थिति की वजह से एक बड़ी संख्या में संक्रमण के मामले स्वत: ही पता नहीं चल पाते. वे लोग जो बीमार महसूस नहीं करते वे आमतौर पर अपना टेस्ट नहीं कराते और परिणामस्वरूप संक्रमितों की गिनती में नहीं आते.

हमारे लिए समझना बहुत आवश्यक है, क्योंकि बिना लक्षण वाले मरीज भी कोविड को फैलाते हैं. अनिर्बन महापात्रा कोविड-19: सेपरेटिंग फैक्ट फ्राॅम फिक्शन में लिखते हैं, "इस महामारी के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि वे लोग जो संक्रमित तो थे लेकिन बीमार नहीं थे, बीमारी को चुपके से फैला रहे थे. कोविड के वायरस SARS-CoV-2 के फैलाव में एक बड़ा हिस्सा लक्षणमुक्त वाहकों का है, जो वायरस के कण हवा में संक्रमित होने के 3 से 12 दिनों के बीच कभी भी फैला सकते हैं."

दूसरा, कोविड की दूसरी लहर से आई बीमारी की बाढ़ हमारे स्वास्थ्य तंत्र, जिसमें टेस्ट करने की क्षमता भी शामिल थी को‌ उसकी क्षमता से कहीं ज्यादा सराबोर कर दिया. व्यवस्था जिनको सेवा नहीं दे सकती, उनको वह दर्ज नहीं करती. यह बात कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है जब कुछ राज्यों में नौकरशाही नियमों के कारण अस्पताल में भर्ती होना तक मुश्किल हो गया था.

उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में अस्पताल में भर्ती होने के लिए, एक मरीज को मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी या सीएमओ से एक निर्देश पत्र लेना जरूरी था, "जो सरकार के द्वारा स्थापित किए गए संघटित कमांड और कंट्रोल सेंटर का नेतृत्व करता है." इस नियम की वजह से मरीजों को अस्पतालों से लौटा दिया गया. और अगर ऐसा कोई मरीज मर जाता है तो उसकी गिनती कोविड से हुई मौतों में नहीं गिनी जाएगी. जाहिर सी बात है, कि यह सब स्वास्थ्य व्यवस्था के ढांचे की उपलब्धता और मरीज के उस ढांचे तक पहुंचने की क्षमता से परे है.

तीसरा, जहां शहरी और उपनगरीय इलाकों में कोविड टेस्ट करने के ढांचे पर क्षमता से कहीं अधिक बोझ पड़ गया था, वहीं कई राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में यह व्यवस्था या तो बिलकुल अपर्याप्त थी या थी ही नहीं. इसकी वजह से भारत के अंदरूनी इलाकों में वायरस का फैलाव सही तरीके से आंकड़ों में नहीं दिखाई देता है.

जैसा कि दिल्ली के एक एपिडेमियोलॉजिस्ट या महामारी विशेषज्ञ और लोक नीति व स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ डॉक्टर चंद्रकांत लहरिया ने इंडिया टुडे को जून में बताया, "ग्रामीण भारत से विश्वसनीय कोविड निगरानी और डेटा के अभाव में, हम महामारी के प्रकोप के फैलाव और गंभीरता को सही तरीके से नहीं आंक सकते. महामारी के फैलाव का राष्ट्रीय औसत नगरीय व्यवस्था में भले ही कम दिखाई दे रहा हो, लेकिन यह संभव है कि वायरस अभी भी ग्रामीण भारत में फैल रहा है."

चौथा, उन जगहों पर भी जहां टेस्ट करने की व्यवस्था उपलब्ध है लोग पॉजिटिव पाए जाने के बाद लगाई जाने वाली पाबंदियों के डर से टेस्ट कराने से बचते हैं. इसके अलावा कई तरह के पूर्वाग्रह और विचारों पर असर डालने वाले व्हाट्सएप फॉरवर्ड भी इस समीकरण में शामिल हैं. इन सब चीजों के साथ, एक छोटी सी (लेकिन नगण्य नहीं) संभावना यह भी है कि संक्रमित ना होते हुए भी टेस्ट पॉजिटिव आ सकता है, जिसे फॉल्स पॉजिटिव कहा जाता है. यह सब मिलकर लोगों के बीच जब तक बिलकुल आवश्यक न हो तब तक टेस्ट करवाने का संकोच पैदा करते हैं.

और आखिर में, इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि प्राधिकारी वर्ग अपनी किरकिरी होने या सार्वजनिक और राजनैतिक गुस्से से बचने के लिए डेटा में गड़बड़ी कर रहे हैं. (जिसको हमने अपने पिछले लेख में उल्लेखित किया.)

इन सब वजहों से कोविड-19 के टेस्ट और संक्रमणों के डेटा पर आधारित विश्लेषण की अपनी कई सीमाएं हैं. फिर भी यह लेख ऐसा करेगा. हमारा एक सरल तर्क है. हालांकि आंकड़े शत प्रतिशत जमीनी सच्चाई नहीं दिखाते, लेकिन वह एक उपयोगी झलक है. डेटा को लेकर उपरोक्त सीमाएं समय के साथ ज्यादा नहीं बदलती हैं. इसलिए एकत्रित किया हुआ डेटा बीमारी के प्रकोप की गंभीरता, रोकथाम के लिए उठाए गए कदम, सरकार की प्रतिक्रिया की सफलता और शायद डेटा में गड़बड़ियों की घटनाओं, इन सब चीजों में एक उपयोगी दृष्टि देता है.

इतना सब कहने के बाद, आइये कुछ आंकड़ों को यह समझने के लिए देखें कि वह दूसरी लहर में विभिन्न राज्यों और इलाकों की परिस्थितियों के बारे में हमें क्या बताते हैं. खास तौर पर हम टेस्टिंग, पॉजिटिव संक्रमण और उन दोनों को जोड़ने वाली चीजों का विश्लेषण करेंगे.

आइए पहले कुछ सकल रूप में डेटा के विश्लेषण से शुरुआत करते हैं. वैसे तो कुल डेटा आंकने के लिए राज्यों को समूहों में रखने के कई तरीके हैं, लेकिन हमने दो चुने.

1 - भौगोलिक विभाजन: एक तरफ हमने देश के कम विकसित भागों उत्तरी और पूर्वी भाग, के डेटा को एकत्र किया. वहीं दूसरी तरफ देश के बेहतर विकसित क्षेत्रों दक्षिण और पश्चिमी भागों को एक साथ रखा.

2 - राजनैतिक विभाजन: एक तरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या एनडीए के प्रशासन वाले राज्य, वहीं दूसरी तरफ गैर एनडीए प्रशासन वाले राज्य. स्वाभाविक है कि बिहार को छोड़कर, जहां भाजपा सरकार में जनता दल यूनाइटेड के साथ गठबंधन में है, एनडीए के प्रशासन वाले सभी बड़े क्षेत्र भारतीय जनता पार्टी के द्वारा ही प्रशासित होते हैं.

इस तरह से बांटे जाने पर डेटा बहुत चौंकाने वाला है.

(1)- भौगोलिक विभाजन

उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, पश्चिम बंगाल, असम, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, झारखंड और छत्तीसगढ़ मिलकर उत्तर और पूर्व का समूह बनाते हैं.

महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटका, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना और केरला मिलकर दक्षिण व पश्चिम का समूह बनाते हैं.

दोनों ही उदाहरणों में हमने केवल उन्हीं राज्यों को गिना जिनकी जनसंख्या एक करोड़ से अधिक है.

सबसे पहले इन दोनों समूह के द्वारा 1 जनवरी 2021 से 10 जून 2021 तक की गई संपूर्ण टेस्टिंग को देखें.

जनसंख्या के हिसाब से समायोजित करने के बाद दक्षिण और पश्चिम की कुल टेस्टिंग उत्तर और पूर्व से कहीं ज्यादा है. इसे रोजाना टेस्टिंग के आंकड़ों में भी नीचे दिए गए चित्र क्रमांक एक में देखा जा सकता है.

जैसा कि चित्र क्रमांक एक में दिखाई पड़ता है, दोनों ही समूह के ग्राफ दूसरी लहर के जवाब में अप्रैल महीने की शुरुआत के दिनों में बढ़ती हुई टेस्टिंग को लेकर एक दूसरे के समानांतर चलते हैं. दक्षिण और पश्चिम भारत में मई की शुरुआत में अपने शिखर पर पहुंचने के बाद, रोजाना होने वाले टेस्टों में थोड़ी गिरावट आई और फिर तब से यह आंकड़ा स्थिर है.

अब इन दोनों समूहों में पॉजिटिव मामलों की कुल संख्या (प्रति एक लाख जनसंख्या पर) देखते हैं.

जैसा कि टेबल क्रमांक दो दिखाती है, दोनों समूहों में जनसंख्या के हिसाब से समायोजित करने पर कुल पॉजिटिव केसों की संख्या में बड़ा अंतर है. दक्षिण और पश्चिम में जनसंख्या के हिसाब से गणना करने पर पॉजिटिव मामलों की संख्या उत्तर और पूर्व की संख्या के दोगुने से भी ज्यादा है. इससे भी यही तथ्य पता चलता है कि देश के दक्षिणी और पश्चिमी भागों के राज्यों में टेस्ट ज्यादा किए गए जिसके परिणामस्वरूप ये राज्य कोविड के कहीं ज्यादा मामलों की पहचान करने में सफल रहे.

अब यह देखते हैं कि क्या यह बड़ा अंतर रोज के पॉजिटिव आने वाले आंकड़ों में भी दिखाई देता है.

चित्र क्रमांक दो दिखाता है कि दोनों ही समूह के क्षेत्रों में नए मामलों की बढ़ोतरी में तेजी से उछाल लगभग एक ही समय पर शुरू हुआ. लेकिन अपने शिखर पर रोजाना मामलों में दक्षिण और पश्चिम का समूह, उत्तर और पूर्व के दोगुने से भी ज्यादा था. यही दोगुना अंतर मई के अंत और जून की शुरुआत में बना रहा, जब रोजाना आने वाले नए मामले मई की शुरुआत के अपने शिखर से नीचे आ गए थे.

दक्षिण और पश्चिम के द्वारा कहीं ज्यादा टेस्ट किए जाने के तथ्य से परे, इस अंतर का एक संभावित कारण यह भी हो सकता है कि उत्तर और पूर्व के कुछ बड़े राज्य अपना डेटा शायद ठीक तरीके से जारी नहीं कर रहे थे. यह उस तत्व का नतीजा भी हो सकता है कि दक्षिण और पश्चिम में स्वास्थ्य व्यवस्था उत्तर और खास तौर से पूर्व (बिहार, झारखंड जैसे राज्य और उत्तर प्रदेश के बड़े इलाके) से कहीं बेहतर है. इससे यह संकेत मिल सकता है कि एक बार टेस्ट होने के बाद स्वास्थ्य व्यवस्था के द्वारा नए मामले पकड़ने की संभावना दक्षिण और पश्चिम में उत्तर और पूर्व के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं, साथ ही यह भी घूम कर उसी तथ्य पर आता है कि कुछ राज्यों से डेटा ठीक से जारी नहीं हो रहा. इसे इस तथ्य से भी देखा जा सकता है कि दोनों समूहों में कोविड के मामलों की संख्या का अंतर, दोनों के टेस्टिंग के आंकड़ों के अंतर से ज्यादा है.

निश्चय ही इस बात को पूरी विश्वसनीयता से कहने के लिए और शोध की आवश्यकता है, लेकिन इसकी सबसे सरल व संभव व्याख्या यही लगती है.

(2) प्रशासक दल

हमने राज्यों को, भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के द्वारा प्रशासित होने और नहीं होने वाले राज्यों के समूहों में अलग अलग रखा.

एनडीए वाले समूह में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, कर्नाटका, असम, उत्तराखंड और जम्मू व कश्मीर (क्योंकि केंद्र शासित प्रदेश का प्रशासन चुने हुए मुख्यमंत्री के बजाय राज्यपाल के हाथों में होता है) आते हैं.

गैर एनडीए समूह में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, राजस्थान, पंजाब, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना, झारखंड, दिल्ली, छत्तीसगढ़ और केरला आते हैं. यह तथ्य फिर से याद दिला दें कि एक करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले राज्य ही यहां पर गिने गए हैं.

पहले इन दोनों समूहों की 1 जनवरी से 10 जून तक किए गए टेस्टों की कुल संख्या देखते हैं.

जनसंख्या के हिसाब से नियमित कर, की गई कुल टेस्टिंग गैर एनडीए राज्यों में थोड़ी सी ज्यादा थी. यह अंतर हमें नीचे चित्र क्रमांक तीन में रोज़ होने वाले टेस्टों में भी दिखाई पड़ती है.

जैसा चित्र क्रमांक तीन में दिखाई देता है दोनों ही समूहों के ग्राफ एक दूसरे के साथ ही साथ चलते हैं जिसमें एक गैर एनडीए राज्यों की टेस्ट करने की कुल संख्या लगातार ज्यादा बनी रहती है.

अब इन दोनों समूहों में कुल पॉजिटिव मामलों (प्रति लाख) पर एक नजर डालते हैं.

जैसा उपरोक्त दिखाई पड़ता है, दोनों समूहों में कोई पॉजिटिव मामलों की संख्या में एक बड़ा अंतर है. जैसा कि पहले भी उल्लेखित किया गया, गैर एनडीए राज्यों में जनसंख्या के हिसाब से आंकड़ा नियमित करने पर, उनमें पॉजिटिव मामलों की संख्या एनडीए प्रशासित राज्यों के मुकाबले दोगुने से भी ज्यादा है.

यही अंतर हमें रोज के पॉजिटिव मामलों की संख्या में भी दिखाई पड़ता है.

चित्र क्रमांक चार दिखाता है कि मामलों में तेजी से बढ़ोतरी दोनों समूहों में एक ही समय पर शुरू हुई, उनके ग्राफ भी एक से ही दिखाई पड़ते हैं. अंतर यह कि गैर एनडीए राज्यों में मामलों की संख्या अपने शिखर पर एनडीए प्रशासित राज्यों से दोगुने से भी अधिक है. मई महीने की शुरुआत में आई तेजी के बाद भी, गैर एनडीए राज्यों में दैनिक मामले जनसंख्या के हिसाब से नियमित करने के बाद, एनडीए राज्यों के दोगुने से भी ज्यादा रिपोर्ट किए गए.

इसका एक छोटा कारण यह भी है कि गैर एनडीए राज्यों ने कहीं ज्यादा टेस्ट किए. लेकिन दोनों के बीच का अंतर इतना अधिक है कि वह केवल गैर एनडीए राज्यों के द्वारा ज़्यादा टेस्ट होने पर आधारित नहीं हो सकता. इसकी सबसे सरल व्याख्या यह है कि कुछ बड़े एनडीए राज्य संभवतः अपने डेटा में गड़बड़ी कर रहे थे, साथ ही शायद उनकी स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी विकसित ही न हो कि वह डेटा ठीक से एकत्रित कर सकें.

उदाहरण के लिए इस तथ्य को देखें कि काफी समय तक दिल्ली शहर में पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश से ज्यादा मामले थे जबकि उत्तर प्रदेश की जनसंख्या दिल्ली से 10 गुना ज्यादा है और वहां का स्वास्थ्य तंत्र बहुत ही कमजोर हालत में है. या फिर यह तथ्य कि महाराष्ट्र का शहर नागपुर, जो मध्य प्रदेश की सीमा के बहुत पास है, वहां पर कुछ समय के लिए कोविड के मामले पूरे मध्यप्रदेश से ज्यादा थे. यह डेटा साधारण सी जांच पर भी खरा नहीं उतरता.

गुजरात में मीडिया ने लगातार इस बात पर रोशनी डाली कि कैसे कोविड प्रोटोकॉल के अंतर्गत होने वाले क्रियाकर्म और दफन किए जाने वालों की संख्या सरकार के द्वारा जारी किए गए मृत्यु के आंकड़ों से कहीं ज्यादा थी.

या फिर बिहार के उदाहरण को देखें. 9 जून को, कोविड से संबंधित होने वाली मौतों के आंकड़े में पहले नहीं गिनी गई 3,951 मौतों को शामिल किया गया जिससे कुल मौतों की संख्या बढ़कर 9,429 हो गई. आंकड़ों में यह एक सुधार, राज्य में हुई कुल मौतों का 42 प्रतिशत इजाफा है. जैसा कि राज्य के स्वास्थ्य सचिव ने पत्रकारों को बताया, "हमने दो कमेटियां गठित की थीं, जिन्होंने कोविड से होने वाली मौतों की दोबारा गणना की, जिसमें पहले न गिनी गई प्राइवेट अस्पतालों और अन्य जगहों में हुई मौतों को भी गिना गया."

इसी प्रकार महाराष्ट्र में, मिलान की प्रक्रिया के पश्चात 1 मई से 7 जून के अंतराल के लिए 8,756 मौतें और जोड़ी गईं, जिससे इस अंतराल के लिए राज्य में मरने वालों की संख्या 22,099 और राज्य में हुई कुल मौतों की संख्या एक लाख पहुंच गई. लेकिन विसंगति जो ठीक की जा रही है, इसका सरोकार मौतों की देरी से हुई गिनती से है, न कि गलत या जानबूझकर की गई कम गणना से. और बिहार से अलग, जोड़ी गई मौतों की संख्या कुल संख्या के एक बड़े अनुपात में नहीं थी.

यह तथ्य एक साधारण सी जांच परख पर भी खरे नहीं उतरते. बिहार को छोड़कर जहां पर गठबंधन की सरकार है, उल्लेखित किए गए सभी एनडीए प्रशासित राज्य सीधे-सीधे भाजपा के द्वारा प्रशासित हैं.

अब राज्यों के डेटा को विस्तृत तौर पर देखते हैं.

टेस्टिंग

कोविड-19 का एक सजग जन स्वास्थ्य प्रत्युत्तर देने के लिए बड़े पैमाने पर टेस्टिंग आवश्यक है. स्वास्थ्य विशेषज्ञ बीमारी के फैलाव को समझने, उसके फैलने की दशा में सही प्रत्युत्तर निश्चित करने, यह जानने कि प्रतिरोधक कदम काम कर रहे हैं कि नहीं और आने वाली लहरों के लिए शीघ्र चेतावनी देने के लिए, इस डेटा पर निर्भर करते हैं. यह स्पष्ट है कि बीमारी के फैलाव कि सही परिस्थिति को समझने के लिए भी किसी समय पर सारी जनसंख्या का टेस्ट करना व्यावहारिक नहीं है. लेकिन जितनी ऊंचे डेटा पॉइंट होंगे, उतना ही अच्छा समाधान रहेगा.

तो पिछले महीनों में अलग-अलग राज्यों ने कितना ज़ोर टेस्टिंग पर डाला है?

नीचे दिए गए चित्र क्रमांक पांच में हर राज्य के द्वारा किए गए कुल टेस्ट दिखाए गए हैं (एक करोड़ से अधिक जनसंख्या)

इस डेटा से मिलने वाले कुछ स्वाभाविक निष्कर्ष

1. दिल्ली एक अपवाद है जिसमें अपनी जनसंख्या के सापेक्ष किसी भी और राज्य से ज्यादा टेस्टिंग की है. केरल एक दूसरा राज्य है जिसमें इस क्षेत्र में बहुत अच्छा काम किया है. और कई राज्य जहां पर टेस्टिंग की दर ज्यादा है उनमें उत्तराखंड, तेलंगाना और कर्नाटका शामिल हैं.

2. पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार और झारखंड राज्यों ने अपनी जनसंख्या के अनुपात में कम टेस्ट किए हैं.

पॉजिटिविटी की दर

जहां समग्र टेस्टिंग डेटा हमें एक समय सीमा में राज्यों के तुलनात्मक प्रदर्शन की समझ देता है, एक दूसरा और कहीं अधिक दर्शनीय मापदंड रोजाना होने वाली टेस्टिंग और संक्रमण का झुकाव है. यह स्वाभाविक है कि जब टेस्टिंग बढ़ेगी तो पॉजिटिव मामलों की संख्या भी बढ़ेगी. इसलिए किसी वर्ग में संक्रमण का स्तर जानने के लिए देखा जाने वाला मापदंड पॉजिटिव मामलों की कुल संख्या नहीं, बल्कि पॉजिटिविटी की दर या प्रतिशत पॉजिटिव है, जो कि कोई किए गए टेस्टों में से पॉजिटिव मामलों का अंश है.

जितनी ज्यादा पॉजिटिविटी की दर होगी, परिस्थिति उतनी ही गंभीर है.

फिर भी एक नियम की तरह, पॉजिटिविटी की दर के "बहुत ज्यादा" होने की एक सीमा पांच प्रतिशत है. उदाहरण के लिए, विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यूएचओ ने मई 2020 में यह सलाह दी, कि किसी भी सरकार के द्वारा स्थानीय अर्थव्यवस्था को दोबारा खोलने के बारे में सोचने से पहले, दो हफ्ते तक पॉजिटिविटी की दर पांच प्रतिशत से कम रहनी चाहिए. बढ़ी हुई पॉजिटिविटी की दर से बढ़े हुए संक्रमण के स्तर का पता चलता है और समाज में जिनका अभी तक टेस्ट नहीं हुआ ऐसे कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों की संख्या होने की संभावना अधिक होती है.

टेस्टिंग और पॉजिटिविटी की दर के बीच की कड़ी अत्यंत महत्वपूर्ण है. आइए इसे एक उदाहरण से समझने की कोशिश करें.

मान लीजिए हम एक दिन में 100 कोविड टेस्ट करें और उनमें से 20 पॉजिटिव आए, जिससे दैनिक पॉजिटिविटी की दर 20 प्रतिशत हुई. अगर हम रोज होने वाले टेस्टों को बढ़ाकर 1000 कर दें और पॉजिटिव पाए जाने वालों की संख्या बढ़कर 100 हो जाए, तो पॉजिटिविटी की दर गिरकर 10 प्रतिशत पर आ जाती है. इसी उदाहरण को देखते हुए, अगर हम केवल 100 लोगों को ही रोज टेस्ट कर रहे हैं, तो संभावना है कि केवल अधिक लक्षण दिखाने वाले मरीज़ ही टेस्ट किए जा रहे हैं और पॉजिटिविटी की दर ज्यादा रहेगी.

जैसा कि रायन ए बोर्न इकोनॉमिक्स इन वन वायरस में लिखते हैं, "ऐसा सोचने के उचित कारण हैं कि जैसे-जैसे टेस्टिंग की संख्या बढ़ती है, वैसे ही कोविड-19 के मामलों का ग्राफ उल्टे-U के आकार का होता है. शुरुआत में अधिक टेस्ट करने से अतिरिक्त मामले मिलते हैं."

स्वाभाविक है कि इस वजह से अल्पावधि में सरकारों की छवि खराब दिखती है. इस बात से यह स्पष्ट होता है कि क्यों कुछ सरकारें टेस्ट करने से हिचकती रहीं या कुछ सही नतीजों को बताने से हिचकती रही हैं. अल्प समय में, टेस्टिंग बढ़ने से पॉजिटिविटी की दर भी बढ़ती है. पॉजिटिविटी की दर केवल तब गिरती है जब टेस्ट किए जाने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती रहती है.

जब हम टेस्ट किए जाने वाले समूह का विस्तार करते हैं (जैसा कि उपरोक्त उदाहरण में 1,000 था), तो हल्के फुल्के लक्षणों वाले लोग भी टेस्ट किए जाते हैं. टेस्ट किए जाने वाले समूह के विस्तार से, जिसमें केवल रोग के लक्षण वाले ही लोग शामिल नहीं हैं, इसके दो फायदे हैं.

पहला, इससे उन मामलों का पता चलता है जो अभी तक पता नहीं चल पाए थे, जिसकी वजह से लोगों को अकेले रखकर संक्रमण के फैलाव को कम किया जा सकता है. जैसा कि बोर्न लिखते हैं, "जब टेस्टिंग पर्याप्त रूप से फैली हुई और नियमित होती है, तो ज्यादा टेस्ट करने से कोविड-19 के मामले कम होते हैं, क्योंकि संभावित संक्रमित लोग अपने आप को तुरंत एकांत में रख सकते हैं और जल्दी से अपने संपर्क में आए लोगों को सूचित कर सकते हैं. यह लोगों के संक्रमित होने और अंततः एकांत में जाने के बीच के संक्रमण फैलाने के अंतराल को कम कर देता है. वह समय जब संक्रमित व्यक्ति शायद बीमारी को बाहर फैला रहा होता है."

दूसरा, टेस्ट ज्यादा करने से असल में पॉजिटिविटी की दर कम होती है क्योंकि वह लोग जो बहुत कम या कोई लक्षण नहीं दिखा रहे हैं उनके पॉजिटिव आने की संभावना कम रहती है.

टेस्टिंग के दायरे को बढ़ाने के इस दोहरे फायदे की वजह से ही एपिडेमियोलॉजिस्ट्स या महामारी विशेषज्ञ इस बात पर कायम हैं कि अगर किसी क्षेत्र में पॉजिटिव मामलों की संख्या बढ़ना शुरू होती है तो टेस्टिंग के स्तर को भी बढ़ाना चाहिए.

टेस्टिंग और पॉजिटिविटी की दर पर राज्यों का डेटा

इस समझ को लेकर, आइए अलग-अलग राज्यों के दैनिक टेस्ट और दैनिक पॉजिटिविटी के झुकावों को उनकी महामारी के प्रति तैयारी और प्रतिक्रिया को आंकने के लिए देखें. दूसरी लहर के आने से पहले भी, हर राज्य के टेस्टिंग का विस्तार इस बात का सूचक है कि राज्य का प्राधिकारी व प्रशासनिक वर्ग महामारी को लेकर कितना सजग था.

इसके दूसरी तरफ, किसी राज्य के द्वारा एक बार पॉजिटिव मामले बढ़ने शुरू होने के बाद तेजी से टेस्टिंग की दर को बढ़ाना, दूसरी लहर के प्रति उसकी तेजी से प्रतिक्रिया करने की क्षमता व संवेदनशीलता का सूचक है. पॉजिटिविटी की दर और टेस्टिंग के बीच की कड़ी को, समय के साथ इन प्रवृत्तियों पर ध्यान देकर समझा जा सकता है.

स्वाभाविक रूप से एक आदर्श प्रतिक्रिया वह है जहां दूसरी लहर के शुरू होने से पहले ही टेस्टिंग का स्तर अधिक था और बढ़ते हुए मामलों के सापेक्ष टेस्टिंग की दर भी बढ़ गई. जैसा कि हम देखेंगे, वे राज्य जहां पर जनवरी और फरवरी में अपेक्षाकृत ज्यादा टेस्टिंग हो रही थी और जिसकी वजह से वहां चौकसी का स्तर भी बढ़ा हुआ था, मामले बढ़ना शुरू होने पर वे सभी सबसे तेजी से प्रतिक्रिया करने वाले नहीं थे.

हम अगले दो भागो में अलग-अलग राज्यों को देखेंगे. इस विश्लेषण को हमने पांच-पांच राज्यों के तीन समूहों में बांटा है.

नीचे दिए गए चित्र क्रमांक 6 और 7, सबसे अधिक टेस्टिंग की दर रखने वाले पांच राज्यों, दिल्ली, केरल, उत्तराखंड, तेलंगाना और कर्नाटक के रोजाना कोविड के मामले और पॉजिटिविटी की दर दिखाते हैं. कृपया ध्यान रखें के सभी दैनिक डेटा ग्राफ, 7 दिन के बदलते हुए औसत हैं, जिनका उपयोग यहां दिन पर दिन होने वाली अस्थिरता को सरल बनाने के लिए किया गया है.

चित्र क्रमांक 6 और 7 को देखते हुए हम इन कुछ महत्वपूर्ण चीजों को समझ सकते हैं.

  1. दूसरी लहर की शुरुआत होने से पहले ही दिल्ली की रोजाना टेस्टिंग का आधारभूत स्तर बहुत अधिक था, जो पॉजिटिविटी की दर के बढ़ने पर थोड़ा सा और बढ़ा.

  2. तेलंगाना के अलावा, बाकी चारों राज्यों में पॉजिटिविटी की दर बहुत तेजी से बढ़ी और बहुत ऊंचे स्तर तक गई. इस चार्ट में तेलंगाना की पॉजिटिविटी की दर का शिखर बाकी राज्यों के मुकाबले काफी कम है. यह राष्ट्रीय आंकड़ों के मुकाबले भी कम है, जो हम सभी राज्यों की पॉजिटिविटी की दर के शिखर की तुलना करते हुए लेख में आगे देखेंगे.

  3. केरल और कर्नाटक ही केवल ऐसे राज्य हैं जहां पॉजिटिविटी की दर बढ़ना शुरू होते ही दैनिक टेस्टिंग भी बढ़ी. इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि कम से कम टेस्टिंग को बढ़ाने के मापदंड पर इन दोनों राज्यों ने दूसरी लहर में अच्छी प्रतिक्रिया दी. यह आश्चर्य का विषय नहीं है क्योंकि इन दोनों राज्यों में स्वास्थ्य व्यवस्था देश के दूसरे भागों की तुलना में कहीं बेहतर है.

जैसा कि हमने पहले ज़िक्र किया, दिल्ली में पॉजिटिविटी में बड़ा उछाल आने पर भी टेस्टिंग थोड़ी ही बढ़ी. दिल्ली में मामलों की संख्या बढ़ने पर टेस्टिंग उस अनुपात में न बढ़ाने के लिए हमें दिल्ली की अधिक आलोचना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि देश के और भागों के मुकाबले वहां टेस्टिंग पहले से ही काफी ज्यादा थी.

  1. उत्तराखंड में 1 अप्रैल को रोजाना होने वाले टेस्टों की संख्या में बड़ा उछाल आया हालांकि पॉजिटिविटी में यह उछाल एक महीने से अधिक के बाद देखा गया. इसका कारण हरिद्वार में आयोजित हुआ कुंभ मेला हो सकता है जो 1 अप्रैल को शुरू हुआ था. आयोजन में शामिल होने के लिए निगेटिव आरटीपीसीआर टेस्ट आवश्यक था, जिससे टेस्टिंग में होने वाली बढ़ोतरी समझ आती है. यह बढ़े हुए टेस्ट असली थे या झूठे अब इस बात की जांच चल रही है. हाल ही में आई एक रिपोर्ट यह दावा करती है कि कुंभ मेले के दौरान रिपोर्ट किए गए करीब एक लाख टेस्ट जाली थे. कथित तौर पर, कुंभ मेले के दौरान कोविड टेस्ट के लिए जिम्मेदार एक प्राइवेट कंपनी ने अपने टेस्ट करने के रोज़ के कोटे को पूरा करने के लिए टेस्टों के झूठे नतीजे बनाए.

आइए अब सबसे कम टेस्टिंग की दर रखने वाले पांच राज्यों, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार और झारखंड के रोजाना टेस्टिंग और पॉजिटिविटी की दर को देखते हैं.

चित्र क्रमांक 8 और 9 को देखकर इन महत्वपूर्ण बातें को समझा जा सकता है.

  1. इससे पहले वाले समूह के मुकाबले इन सभी पांचों राज्यों में दैनिक टेस्टिंग की दर बहुत कम थी, जिनमें से थोड़ा अव्यवस्थित प्रतीत होते हुए भी झारखंड सबसे बेहतर था.

  2. ध्यान देने वाली बात है कि पांचों राज्यों में टेस्टिंग का बढ़ना, बढ़ती हुए पॉजिटिविटी की दर से मेल खाता है. इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि हालांकि ये राज्य टेस्ट करने की मात्रा में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे थे, लेकिन इन्होंने समय रहते टेस्टिंग को बढ़ा दिया.

आखिर में, इन दोनों मापदंडों पर पांच सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्यों को देखते हैं जो पहले के दोनों ही समूहों में नहीं आए, आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश.

चित्र क्रमांक 10 और 11 को देखकर इन कुछ मुख्य निष्कर्षों पर पहुंचा जा सकता है.

  1. गुजरात में टेस्टिंग की दर अधिक थी, जहां दैनिक टेस्टिंग दर की तुलना कर्नाटक से हो सकती थी. लेकिन टेस्टों की कुल संख्या पहले समूह में पांच सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों से कम थी. राज्य की पॉजिटिविटी की दर भी सबसे कम में से एक थी जहां पर पॉजिटिविटी की दर का शिखर 10 प्रतिशत से भी कम 9.71 था. इसके विपरीत पड़ोसी राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में पॉजिटिविटी की दर 25 प्रतिशत के पास पहुंच गई थी. यह कुछ आशंकाएं खड़ी करता है. गुजरात में कोविड संबंधित डेटा में हेर-फेर की कई घटनाओं को लेकर कई अखबारों ने खबरें प्रकाशित कीं. हालांकि उन कई रिपोर्टों का मुख्य उद्देश्य कोविड-19 से होने वाली मौतों को कम आंकना था, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है की संक्रमण के मामलों की संख्या से भी छेड़खानी हुई.

उदाहरण के लिए, 5 जून को अहमदाबाद के एक बड़े अस्पताल के सीईओ के कथन का हवाला दिया गया, "सभी आंकड़े, दैनिक मामलों की संख्या से लेकर दैनिक टेस्ट, अस्पताल में भर्ती होने के मामलों से मृत्यु तक, सभी असली संख्या से कम थे. इससे हमारा काम और कठिन हो गया क्योंकि आंकड़ों को जबरदस्ती कम रखा गया, लेकिन सच्चाई यह है कि शहर में कहीं भी बिस्तर उपलब्ध नहीं थे."

2. महाराष्ट्र का पॉजिटिविटी की दर का चार्ट विलक्षण है. बाकी सभी राज्य (जिनमें पिछले दोनों समूहों के राज्य में शामिल हैं) अपनी पॉजिटिविटी में मार्च के अंत और अप्रैल के शुरुआत में तेज बढ़ोतरी दिखाते हैं. इसके विपरीत महाराष्ट्र फरवरी के मध्य से शुरुआत कर एक सतत बढ़ोतरी दिखाता है, जो मार्च के अंत में अपने अधिकतम स्तर पर पहुंच जाती है. वहां से बाकी राज्यों की तरह पॉजिटिविटी में तेज बढ़ोतरी दिखाने के बजाय, महाराष्ट्र में यह आंकड़ा करीब 6 हफ्ते के लिए स्थिर रहा और मई महीने के मध्य में गिरना शुरू हो गया.

3. उत्तर प्रदेश इस बात में विलक्षण है कि अप्रैल के अंत में, पॉजिटिविटी की दर अपने शिखर पर पहुंचने के बाद कितनी तेजी से नीचे आई. इतना ही नहीं अर्थशास्त्री ओमकार गोस्वामी के द्वारा लिखे गए इस लेख में, उत्तर प्रदेश की उच्चतम पॉजिटिविटी की दर की महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों की दर से तुलना, उत्तर प्रदेश के अधिकारियों द्वारा डेटा में गड़बड़ी की तरफ इशारा करने के लिए की गई है.

हमारे विश्लेषण के दौरान सभी राज्यों की उच्चतम पॉजिटिविटी की दरों की तुलना में, उत्तर प्रदेश की शीर्ष दर 16 प्रतिशत, कई बड़े राज्यों जैसे महाराष्ट्र (24 प्रतिशत), राजस्थान (25 प्रतिशत), कर्नाटक (35 प्रतिशत) और पश्चिम बंगाल (30 प्रतिशत) से कम है, लेकिन कम पॉजिटिविटी की दर रखने वाले भी कई राज्य हैं जैसे बिहार (15 प्रतिशत), गुजरात (10 प्रतिशत) और पंजाब (14 प्रतिशत). इसीलिए, केवल पॉजिटिविटी की उच्चतम दर के आधार पर उत्तर प्रदेश को अकेले संदिग्ध अपवाद की श्रेणी में रखना डेटा से सिद्ध नहीं होता. यह संभव है कि काफी कम पॉजिटिविटी की दर रखने वाले सभी राज्य, डेटा में गड़बड़ी कर रहे हों.

इसके अलावा पॉजिटिविटी के शिखर से दर का बहुत तेजी से कम होना (चित्र क्रमांक 11 में नीला वक्र) विलक्षण है, और उत्तर प्रदेश में डेटा से संभावित छेड़खानी का शायद ज्यादा बड़ा सूचक है. राज्य में पॉजिटिविटी की दरों में विलक्षण गिरावट देश में कहीं और नहीं देखी गई. उत्तर प्रदेश में टेस्टिंग के नतीजों का डेटा एक सामान्य जांच पर खरा नहीं उतरता.

उच्चतम पॉजिटिविटी

एक मापदंड जिसे हमने ऊपर दिए ग्राफों को समझते हुए कई बार देखा है, उसकी देशभर में राज्यों के अनुसार तुलना मूल्यवान है. पॉजिटिविटी की उच्चतम दर नीचे दिए हुए चित्र में एक करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले सभी राज्यों में पॉजिटिविटी की उच्चतम दर और वह जिस तारीख को अपने शिखर पर पहुंची, दिखाई गई है.

उपरोक्त चार्ट से मिलने वाले कुछ बिंदु.

  1. देश के उत्तरी राज्यों में पॉजिटिविटी की दर अपने उच्चतम स्तर पर दक्षिण के राज्यों से पहले पहुंची, जहां तेलंगाना के अलावा सभी दक्षिणी राज्य 15 मई से 30 मई के बीच के दो हफ्ते के अंतराल में उच्चतम दर पर पहुंचे.

  2. ऐसे बहुत से राज्य हैं जिन्होंने पॉजिटिविटी की दर 25 प्रतिशत से अधिक दर्ज कराई, जिनमें से कर्नाटका की दर सबसे अधिक थी. जैसा कि पहले उल्लेखित किया गया, गुजरात में पॉजिटिविटी की उच्चतम दर सबसे कम 9.71 प्रतिशत दर्ज की गई, जोकि इस विश्लेषण में शामिल राज्यों के औसत पॉजिटिविटी रेट 21.39 प्रतिशत की तुलना में काफी कम है. आसपास के राज्यों जैसे महाराष्ट्र और राजस्थान में उच्चतम दर का आंकड़ा कहीं ज्यादा देखते हुए यह आंकड़ा भी शायद कुछ शंका पैदा करे, लेकिन गुजरात में दैनिक टेस्टिंग एक राज्यों से कहीं ज्यादा थी जो पॉजिटिविटी की दर को एक हद तक कम कर सकती है, जैसा कि हमने लेख में पहले बताया.

गुजरात की तरह ही तेलंगाना की पॉजिटिविटी दर भी औसत दर के मुकाबले काफी कम 10.42 प्रतिशत थी, जो डेटा के सही होने पर सवाल खड़ा करती है. अन्य लोगों ने भी राज्य के कुछ जिलों से रिपोर्ट करे गए डेटा को देखते हुए इसी प्रकार के सवाल उठाएं हैं. उदाहरण के तौर पर, ट्रेन में स्थानीय डेटा सूत्रों से मिले आंकड़ों को अधिकारिक कोविड के मामलों की संख्या से तुलना करके, द न्यूज़ मिनट इस निष्कर्ष पर पहुंचा, "तेलंगाना सरकार 'आधिकारिक' तौर पर कोविड-19 के मामलों की संख्या को कुछ नहीं तो 70 प्रतिशत से ज्यादा कम करके रिपोर्ट कर रही है.

  1. यह चार्ट पहले बताए गए एक बिंदु को फिर से दिखाता है, कि भले ही उत्तर प्रदेश में पॉजिटिविटी की उच्चतम दर दूसरे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य में जैसे महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु से कम हो, लेकिन यह आंकड़ा अपवाद नहीं है. क्योंकि कई दूसरे राज्य, जैसे बिहार, पंजाब और गुजरात का आंकड़ा भी इसी प्रकार कम है.

निष्कर्ष

आखिरकार इस लेख में किए गए इतने विश्लेषण का अर्थ क्या है?

उद्देश्य अलग-अलग राज्यों को श्रेणियां देना या एक दूसरों के खिलाफ खड़े करना नहीं है. लेकिन यह जानना आवश्यक है कि अलग-अलग राज्यों ने कोविड की दूसरी लहर के प्रति टेस्टिंग और संक्रमण के संदर्भ में प्रतिक्रिया कैसे दी. इस प्रकार के विश्लेषण उन कमियों को पहचानने में मदद कर सकते हैं जिस में सुधार की आवश्यकता है, और यह राज्यों के बीच आपस में उपयोगी विचारों के आदान-प्रदान का अवसर देते हैं. विश्लेषण कई बार डेटा से संभावित छेड़खानी का उजागर होना, एक गौण बात होते हुए भी अपने आप में महत्वपूर्ण है, क्योंकि संदेहास्पद आंकड़ों पर सवाल उठाना डेटा से बेधड़क छेड़खानी को हतोत्साहित कर सकता है.

ऐसी परिस्थिति में, जब हम कई और महीनों तक सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर सकने के लिए पर्याप्त लोगों को वैक्सीनेट नहीं कर पाएंगे और जब तीसरी लहर का खतरा भी सर पर मंडरा रहा है, टेस्टिंग सरकार के लिए महामारी के प्रतिरोध का एक बड़ा हिस्सा बनी रहेगी. सरकारें चाहें वह राज्य की हों या केंद्र की उनके लिए अब तक इकट्ठे किए गए डेटा में मौजूद सबक सीख लेना ही बेहतर होगा. लेकिन ऐसा हो पाए, इसके लिए, किसी को जो डेटा एकत्रित हो रहा है उसकी अच्छे से छान-बीन करनी होगी.

यह एक ऐसा ही प्रयास है.

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यह रिपोर्ट एनएल सेना सीरीज का हिस्सा है जिसमें हमारे कई पाठकों ने योगदान दिया है. इसे निर्विक डे, अनुपम दास, सूरज कौल, सोमोक गुप्ता रॉय, आदित्य देउस्कर, सुमीत एम मोघे, अभिषेक कुमार, स्वर्ण सरकार, कार्तिकेय मुचिंथया, केवी राधाकृष्णन, राजकुमार जिंदल, राजदीप अधिकारी और एनएल सेना के अन्य सदस्यों की मदद से संभव हो पाया है.

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