Opinion

एम्बेड जर्नलिज़्म और उसके ख़तरे

प्रतिभाशाली छायाकार-पत्रकार दानिश सिद्दीक़ी की मौत पत्रकारिता जगत के लिए बड़ा नुक़सान है. इस घटना के बारे में रॉयटर्स ने अपनी शुरुआती रिपोर्ट में बताया है कि वे लगभग 11 वर्षों से रॉयटर्स से जुड़े थे और अफ़ग़ान स्पेशल फ़ोर्सेस के साथ एम्बेड (संबद्ध) होकर इसी सप्ताह से कंधार से रिपोर्टिंग कर रहे थे. सिद्दीक़ी अफ़ग़ानिस्तान में इस साल मारे जाने वाले छठे पत्रकार हैं और 2018 से अब तक लगभग तीन दर्ज़न मीडियाकर्मी दशकों से जारी युद्ध और गृहयुद्ध में अपनी जान गंवा चुके हैं.

ऐसी स्थितियां पत्रकारों के लिए हमेशा ही चुनौतीपूर्ण रही हैं, लेकिन वहां पत्रकारों की उपस्थिति भी आवश्यक है. युद्ध के भागीदार चाहे सरकारें हो, सेनाएं हों या फिर उन्हें चुनौती देते लड़ाकों के समूह हों, अक्सर ऐसा नहीं चाहते. वियतनाम पर अमेरिकी हमले के दौर में पत्रकारों की रिपोर्टों से सेना के अधिकारी नाराज़ रहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि मीडिया की वजह से ही युद्ध के पक्ष में जन समर्थन कम होता गया. अल्जीरिया में फ़्रांसीसी उपनिवेश के अंतिम वर्षों में ऐसी ही शिकायत फ़्रांस के सैन्य अधिकारियों की फ़्रांस के अख़बारों से रही थी.

ऐसे कई उदाहरण हैं. इसलिए मीडिया की पहुंच को सीमित करने या नियंत्रित करने के लिए अनेक उपाय अपनाये गए. पत्रकारों को सैनिक टुकड़ी के साथ संबद्ध करना इन्हीं में से एक है. दानिश सिद्दीक़ी की अफ़सोसनाक मौत एम्बेड जर्नलिज़्म यानी सैन्य टुकड़ी के साथ संबद्ध होकर की जाने वाली पत्रकारिता पर भारत में भी चर्चा का एक संदर्भ देती है, जो दो दशक से पश्चिमी मीडिया और एकेडेमिया में हो रही है.

प्रोफ़ेसर मार्टिन लोफ़ेलहोल्ज़ ने एम्बेड जर्नलिज़्म को परिभाषित करते हुए लिखा है, "यह पत्रकारों को सशस्त्र संघर्ष के दौरान एक पक्ष की सेना में और उसके नियंत्रण में रखने का व्यवहार है. इसकी शुरुआत अमेरिका रक्षा विभाग ने 2003 में इराक़ हमले के समय की थी. ऐसा करने की एक वजह 2001 में शुरू हुआ अफ़ग़ानिस्तान का हमला था. साल 1990-91 के खाड़ी युद्ध और 2001 के अफ़ग़ानिस्तान हमले के दौरान अमेरिका सेना ने पत्रकारों की पहुंच को बहुत सीमित कर दिया था. इस कारण उसकी बड़ी आलोचना हुई थी."

इसके जवाब में एम्बेड जर्नलिज़्म का तरीक़ा अपनाया गया. प्रोफ़ेसर लोफ़ेलहोल्ज़ इसे उस आलोचना का एक ‘स्ट्रेटिजिक रेस्पॉन्स’ कहते हैं. इससे पहले खाड़ी युद्ध में अमेरिकी सेना ने पत्रकारों के लिए ‘पूल सिस्टम’ अपनाया था, जो वियतनाम युद्ध के समय की आलोचना से बचने का एक उपाय था. उस प्रक्रिया में पत्रकारों के एक छोटे समूह को सैन्य टुकड़ियों के साथ भेजा जाता था और वे बाक़ी पत्रकारों को अपनी आंखो-देखी बताते थे.

एम्बेड जर्नलिज़्म का तौर-तरीक़ा पूल सिस्टम से बिल्कुल अलग था. इराक़ युद्ध पर हमले की घोषणा से पहले अमेरिका रक्षा विभाग ने पत्रकारों को सेना के साथ जाने का प्रस्ताव दिया, पर उससे पहले उन्हें बाक़ायदा सैन्य प्रशिक्षण लेना था और कुछ नियमों को स्वीकार करना था. प्रोफ़ेसर लोफ़ेलहोल्ज़ बताते हैं, "इराक़ हमले के समय अमेरिकी सेना के साथ लगभग 600 एम्बेड पत्रकार गये थे."

उस समय इस मामले पर दो तरह की राय दी गयी. इस तरीक़े के समर्थकों का कहना था कि सैन्य कार्रवाई में पत्रकारों के सीधे शामिल होने से सही जानकारियां सामने आयेगी तथा दूर रहकर अनुमान लगाने की समस्या दूर हो जायेगी. आलोचकों ने चिंता जतायी कि इससे ख़बरें पक्षपातपूर्ण हो सकती हैं. जो मीडिया संगठन इस प्रक्रिया में शामिल थे, उन्होंने भी कहा कि सैन्य संस्कृति से पत्रकारों को जोड़ना और निष्पक्षता को दाग़दार करना अमेरिकी पक्ष के प्रति झुकाव पैदा करने की कोशिश है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि एम्बेड होने से पत्रकारों की सुरक्षा बढ़ी है. आंकड़े इंगित करते हैं कि युद्ध क्षेत्रों में मारे जाने वाले मीडियाकर्मियों में स्वतंत्र होकर काम करने वाले पत्रकार बहुत अधिक है. साल 2007 में तो इराक़ में एक अमेरिकी सैन्य हेलीकॉप्टर के चालक ने दो पत्रकारों के कैमरों को गोला दागने वाली बंदूक़ें समझ लिया और उन्हें मार दिया. वे दोनों पत्रकार रॉयटर के लिए काम कर रहे थे. उस हमले के वीडियो विकीलीक्स ने 2010 में जारी किए थे, तब सच सामने आया था. तब अमेरिका सेना का कहना था कि उस घटना से यही रेखांकित होता है कि युद्ध क्षेत्र में स्वतंत्र काम करना पत्रकारों के लिए कितना ख़तरनाक हो सकता है.

पत्रकार व लेखक पैट्रिक कॉकबर्न ने एम्बेड जर्नलिज़्म की तुलना पहले महायुद्ध की रिपोर्टिंग से की है, जिसमें लड़ाई के भयावह जनसंहार को ब्रिटिश सेनापतियों की योजनाबद्ध बढ़त के रूप में पेश किया जाता था. वे भी मानते हैं कि इस तरह की व्यवस्था में सब कुछ ग़लत नहीं है और जब अल-क़ायदा या तालिबान विदेशी पत्रकारों को अगवा करने की फ़िराक़ में रहते हों, तब कोई और चारा भी नहीं है. लेकिन ऐसी पत्रकारिता सही तस्वीर नहीं पेश करती क्योंकि एम्बेड जर्नलिस्ट एक छोटे दायरे में सीमित रहता है और वह टुकड़ी के असर में भी होता है.

यह भी हो सकता है कि पत्रकार को जहां रहना चाहिए, वहां वह न हो. कॉकबर्न ने नवंबर, 2004 में इराक़ी शहर फ़लुजा पर अमेरिकी सेना की जीत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि बग़दाद में मौजूद तमाम विदेशी पत्रकार उस लड़ाई में सेना के साथ थे. लेकिन विद्रोहियों ने अमेरिकी सेना के फ़लुजा पर पूरा ध्यान होने का फ़ायदा उठाकर उधर कहीं अधिक बड़े शहर मोसुल पर कुछ समय के लिए क़ब्ज़ा कर लिया और बड़ी मात्रा में असलहे व गोला-बारूद लूट लिया. लेकिन उसकी कोई रिपोर्टिंग नहीं हुई क्योंकि मोसुल में अमेरिकी सेना नहीं थी, तो एम्बेड पत्रकार भी नहीं थे.

दशकों से युद्धों और गृह युद्धों की रिपोर्टिंग कर रहे कॉक की नज़र में एम्बेड जर्नलिज़्म का सबसे बड़ा नुक़सान यह है कि पत्रकार इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान के संघर्ष को मुख्य रूप से सैन्य नज़रिये से देखने लगते हैं, जबकि महत्वपूर्ण घटनाक्रम राजनीतिक होते हैं. उन्होंने इन दोनों देशों की आंतरिक स्थिति का अंतर भी रेखांकित किया है, जैसे- अफ़ग़ान सरकार बेहद भ्रष्ट है और अफ़ग़ानी इसे बख़ूबी समझते हैं. एक राजनयिक के हवाले से उन्होंने लिखा है कि यह कि हेलमंद या कंधार भेजे जाने वाले 60 फ़ीसदी अफ़ग़ान सैनिक भाग खड़े होते हैं.

कॉकबर्न का यह लेख 2010 का है और 11 साल बाद अफ़ग़ानिस्तान में यही होता हुआ हम देख रहे हैं. उन्होंने मीडिया के संपादकों और प्रोड्यूसरों को आड़े हाथों लेते हुए लिखा है कि उनमें युद्ध की रिपोर्टिंग में केवल ‘मुश्किल से मिली जीत’ या ‘ख़ूनी टकराव’ जैसी सतही समझ पैदा हो जाती है. पाठक व दर्शक को लड़ाई में नाटकीयता अपेक्षित होती है. कॉकबर्न युद्ध के मीडिया मेलोड्रामा के धोखे से चेताते हैं क्योंकि उससे हक़ीक़त छुप जाती है.

बहरहाल, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में पत्रकारों की मौतों और निरीह लोगों की यातना को दुनिया को सामने लाने वाले विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांज बिना किसी मुक़दमे के बरसों से जेल में हैं. उनके ख़ुलासे छापकर वाहवाही लूटने वाले बड़े-बड़े मीडिया संस्थान आज चुप हैं. जो पत्रकार मरे, उन्हें भुलाया जाता रहा. दानिश सिद्दीक़ी की नियति भी यही हो सकती है, अगर युद्ध, गृह युद्ध, मीडिया, सेना आदि के हिसाब-किताब को राजनीतिक नज़र न परखने का रवैया जारी रहता है.

यह घटना अफ़ग़ानिस्तान में हुई है, पर ऐसी घटनाएं हमारे देश समेत कई और देशों में भी होती रहती हैं. कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के मुताबिक, भारत में 1992 से अब तक 52 पत्रकारों की हत्या हुई है. अफ़ग़ानिस्तान में इस अवधि में यह संख्या 53 है.

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