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'पक्ष'कारिता: हिंदी के जर्जर मकान में घुटते स्‍टैन स्‍वामी और यूसुफ़ खान

अदब की दुनिया में अकबर इलाहाबादी को कौन नहीं जानता, मानता. एक हैरत इलाहाबादी भी हुए थे उन्‍हीं के समकालीन. उनकी चर्चा कहीं सुनायी नहीं देती. बीते पखवाड़े हुई दो मौतों के सिलसिले में उनकी एक नज्‍़म का मशहूर मुखड़ा याद हो आया था जो अब तक कहीं अटका-सा है: आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं / सामान सौ बरस का है पल की ख़बर नहीं. बात बड़ी सहज है, ज़ाहिर भी, लेकिन ‘सौ बरस का सामान’ में एक ऐसी बात छुपी है जिस पर बात कम होती है या थोड़ा अफ़सोस के साथ कहें, तो अब नहीं होती.

अनंत की निरंतरता में सौ बरस कुछ भी नहीं होते. अनंत से काट कर देखें, तो सौ बरस ही अनंत बन जाते हैं. दिलीप कुमार दो बरस से जो चूक गए या स्‍टैन स्‍वामी 16 बरस से, उससे सौ बरस के हमारे परिमेय अनंत पर कोई आंच नहीं आती. सामान तो सौ बरस का ही दोनों छोड़ गए हैं. क्‍या सौ बरस का सामान एकाध दिन में, कुछेक चालू जुमलों के सहारे समेटा जा सकता है? दोनों शख्‍स फ़ैज़ की उस परम्‍परा से आते हैं जहां ‘’…लो हम ने दामन झाड़ दिया लो जाम उलटाये देते हैं’’ वाली रवायत काम करती है. लोक-वृत्‍त में परिचिति के आधार पर देखें, तो स्‍वामी के बरअक्‍स दिलीप साहब को समूचा उपमहाद्वीप जानता है. फिर क्‍या वजह रही कि हमारे अख़बारों ने दिलीप साहब के सौ बरस नहीं तो कम से कम पचास बरस के सामान पर ही कुछ कायदे का पढ़ने को परोस दिया होता?

अखबारों में दिलीप कुमार

क्‍या वाकई बड़े लोगों की जिंदगी के सामान का हिसाब-किताब रखने वाले अब नहीं बचे या अखबारों की दिलचस्‍पी उसमें नहीं रही? यह जिज्ञासा थोड़ा बड़ा सवाल पूछने को मजबूर करती है- क्‍या हिंदी के अखबार और उनके संपादक साहित्‍य, संगीत, कला आदि से वंचित भर्तृहरि के मनुष्‍यरूपी पशु में बदलते जा रहे हैं?

आइए, कुछ बानगी देखें कि बीते पखवाड़े दिलीप कुमार की मौत पर किन अखबारों ने क्‍या-क्‍या किया. प्रेस ट्रस्‍ट की हिंदी सेवा भाषा ने एक खबर चलायी जिसमें उनकी एक फिल्‍म का नाम लेते हुए शीर्षक कुछ यूं दिया कि ‘’…बुझ गयी अभिनय की मशाल’’ यह खबर बिलकुल इसी शीर्षक से आपको हिंदी के तकरीबन हर बड़े अखबार में मिलेगी. चूंकि एक दिन पहले ही केंद्रीय मंत्रिमण्‍डल का विस्‍तार हुआ था, तो न्‍यूज़रूम में उहापोह बेशक रही होगी, फिर भी अमर उजाला ने इसे अच्‍छे से साधा. जैकेट बनाकर उसमें कैबिनेट विस्‍तार को कवरेज दी और पहले पन्‍ने पर दिलीप कुमार के निधन का बैनर चलाया. भीतर संपादकीय के पन्‍ने पर गौतम चटर्जी का एक लेख भी छापा.

अमर उजाला में छपा लेख

निधन के अगले दिन 8 जुलाई को छपे बाकी हिंदी के अखबार देखिए- हिंदुस्‍तान ने यासिर अब्‍बासी की किताब का एक अंश संपादकीय पन्‍ने पर छापा, जिसमें जाहिर है टाइपिंग के अलावा कोई मेहनत नहीं लगी होगी; नवभारत टाइम्‍स ने 15 साल पहले लिया हरि मृदुल का एक रेडीमेड साक्षात्‍कार छाप दिया; राष्‍ट्रीय सहारा ने आलोक पराड़कर का एक परिचयात्‍मक किस्‍म का स्‍मृतिशेष जैसा कुछ छापा. हिंदुस्‍तान ने पहले पन्‍ने पर सूचनार्थ निधन का एक स्निपेट छापा; जनसत्‍ता ने भी कैबिनेट को ही महत्‍व दिया और भाषा की फीड छाप दी. कितना सुविधाजनक रहा होगा ये सब. वैसे, ये सुविधा का मामला था या हिंदी के अखबारों से कला और संस्‍कृति की बीट के खत्‍म हो जाने का परिणाम?

इनके साथ आप उर्दू के अखबारों का मिलान करें तो पाएंगे कि 8 जुलाई को तकरीबन हर उर्दू अखबार ने अपना पहला पन्‍ना दिलीप साहब को समर्पित किया है. पहला ही नहीं, किसी-किसी ने दूसरा भी. मुंबई से छपने वाले मराठी के अखबारों लोकसत्‍ता और मुंबई समाचार ने भी कैबिनेट की जगह पहला पन्‍ना दिलीप कुमार के नाम कर दिया. सुदूर हैदराबाद में स्‍वतंत्र वार्ता ने कैबिनेट की लीड के समानांतर सेकंड लीड छापी निधन की. पब्लिक एशिया नाम के एक अनजाने से अखबार ने पहला पन्‍ना पूरा का पूरा दिलीप साहब पर कुर्बान कर दिया.

दैनिक जागरण हमेशा से अलबेला रहा है ऐसे मामलों में. अपने जाने इस अखबार के डेस्‍क ने वाकई बहुत खोजी खबर निकाली कि गायिका शमशाद बेग़म दिलीप कुमार की ननिया सास थीं, लेकिन खबर लिखने वाला वहीं फिसला जहां पानी कम था. फिल्‍म बाबुल (1950) के एक मशहूर गीत ‘मिलते ही आंखें दिल हुआ दीवाना किसी का’ को कट-पेस्‍ट करते वक्‍त उसने तलत महमूद को तलत अजीज लिख दिया. एक बार को होता तो फिर भी समझ आता, इस खबर में नौ बार तलत अजीज लिखा गया है. माना जा सकता है कि नौजवान उप-संपादक की उम्र तलत महमूद का नाम जानने की नहीं रही होगी, लेकिन एक बार यूट्यूब पर उस गाने को सुनकर चेक करने में कोई बुराई नहीं थी. इसके अलावा, टाइम का एक सेंस भी होता है, जो यहां पूरी तरह नदारद है.

पुराने चावल और नयी फसल

कला-संस्‍कृति-सिनेमा का संदर्भ हो तो हिंदी पट्टी की आधुनिक कुपढ़ परम्‍परा में मध्‍य प्रदेश हमेशा चौंकाता है. तमाम अखबारों के बीच यहां इंदौर से चुपचाप छपने वाले फ्री प्रेस जर्नल को देखना कभी-कभार सुखद अनुभव होता है, जैसा 8 जुलाई की सुबह हुआ. पहले ही पन्‍ने पर एमजे अकबर का एक बेहतरीन और विशिष्‍ट कॉलम दिलीप साहब पर छपा था जिसका शीर्षक अद्भुत था, ‘’द फर्स्‍ट खान वाज़ आलसो ए फर्स्‍ट पैट्रियट’’, जिसका मोटामोटी तर्जुमा यह बनता है कि फिल्‍म इंडस्‍ट्री का पहला खान अव्‍वल दरजे का देशभक्‍त भी था. यह लेख अंग्रेज़ी में था और फ्री प्रेस के अंग्रेज़ी संस्‍करण में छपा था, लेकिन इसके पाये का लेख किसी और अंग्रेज़ी अखबार में ढूंढे नहीं मिला.

फ्री प्रेस इंदौर पेपर में छपा लेख

हिंदी में सिनेप्रेमी बरसों से जयप्रकाश चौकसे की संक्षिप्‍त टिप्‍पणियों के भरोसे रहे हैं और उन्‍होंने इस बार भी निराश नहीं किया. दिलीप साहब पर दैनिक भास्‍कर में अपने कॉलम सहित उन्‍होंने कुल दो पीस लिखे. चौकसे की दिक्‍कत बस एक है कि उनका एक पैरा उसके अगले पैरा से जुदा होता है. कहानी बाद में जाकर जुड़ती है. उनकी शैली से जो परिचित न हो, वो गच्‍चा खा सकता है. यहां मुझे जबलपुर के विद्वान डॉ. कैलाश नारद आते हैं जो तमाम सिने कलाकारों के अंतरंग क्षणों के गवाह रहे. उनका निधन 2010 में हुआ, उससे पांच साल पहले तक मैं उनकी कॉपी पढ़ के छापा करता था. आज की तारीख में कुछेक विद्वानों, जैसे प्रभु जोशी को छोड़ दें (जो बीती 4 मई को हमें छोड़कर चले गए), तो वैसी साफ-सुथरी हिंदी और मोतियों की माला सी लिखावट मैंने नहीं देखी.

हैरत इलाहाबादी जिसे ‘सौ बरस का सामान’ कहते हैं, डॉ. कैलाश नारद के पास लिखने को उतना नहीं तो उससे कम भी नहीं था. यहां दिल्‍ली में ब्रजेश्‍वर मदान ऐसे ही लेखक हुआ करते थे. अन्‍नू कपूर लिखते नहीं हैं वरना वे इसी कतार में कहीं खड़े होते. संभव है कि जीवित लोगों में चौकसे के अलावा इस सामान का बोझ ढोने वाले बचे होंगे एकाध जिनसे अपना परिचय न हो, लेकिन अखबारों या पत्रिकाओं में वे नहीं दिखते. मसलन, जिस खूबसूरती के साथ उन्‍होंने भास्‍कर का अपना कॉलम समाप्‍त किया क्‍या वह आपकी कल्‍पना में भी आ सकता था? देखिए आखिरी पंक्तियां:

‘’विगत कुछ वर्षों से दिलीप कुमार की स्मृति चली गई थी. उन्हें कुछ भी याद नहीं रहता था. कल्पना करें इस दौर में कोई उन्हें मधुबाला की तस्वीर दिखाए और मधुबाला की बात करे तो उनकी खोई हुई स्मृति कुछ क्षणों के लिए ही सही लौट सकती है.‘’

इसी तरह दिलीप कुमार पर स्‍मृतिशेष पढ़ते हुए लगे हाथ यह जान लेना कि भारत में अंग्रेजों की बिछायी रेल पटरियों का पहला रिश्‍ता इस मुल्‍क के ताने-बाने में साम्‍प्रदायिकता का ज़हर घोलने से रहा; या फिर यह समझ आ जाना कि कैसे दिलीप साहब को ‘’ट्रैजेडी किंग’ के एकायामी खांचे में बांधकर गलत किया गया; यह एमजे अकबर की सलाहियत ही हो सकती है. अकबर को आप किन्‍हीं कारणों से भी नापसंद करने लगे हों, लेकिन उनके लेखन पर आज भी कोई सवाल नहीं है.

बरसों के सामान का लेखा-जोखा रखने वाले ऐसे ही अदीबों के लिए इंदौर में एक जुमला चलता है ‘’पुराने चावल’’. पुराने चावल ही पुराने घुन को समझते हैं. नए चावल तो हाइब्रिड हैं, जिनमें घुन नहीं लगती. हिंदी के अखबारों में लहलहा रही पत्रकारों की नयी फसल ऐसी है जिनकी स्‍मृतियां गायब कर दी गयी हैं. इसीलिए न उनमें घुन लगती है, न उनसे माड़ निकलती है, न ही कोई खुशबू आती है.

और खिंच गए पाले...

किसी की मौत पर किसी से देर शाम तक एक अच्‍छा लेख मंगवा लेना किसी भी अखबार में कोई ज्‍यादा मुश्किल काम नहीं होता. सवाल हालांकि विषय की अहमियत को समझने वाले प्राणी का है, जबकि अहमियत इसलिए खत्‍म हो चुकी है क्‍योंकि हिंदी पट्टी के अखबारों ने कला, संस्‍कृति, रंगमंच, कविता, सिनेमा आदि की बीट कब की खत्‍म कर दी है. इसी दिल्‍ली में जनसत्‍ता के राकेश तिवारी शायद आखिरी संवाददाता थे जो बाकायदे कला-संस्‍कृति की बीट पर रिपोर्ट करते थे. वो भी इसलिए ऐसा कर सके क्‍योंकि तब के कार्यकारी संपादक ओम थानवी साहित्‍यानुरागी हैं. उनके बाद इस पद पर आए मुकेश भारद्वाज का हिसाब-किताब कुछ समझ में नहीं आता, हालांकि रविवार 10 जुलाई को फादर स्‍टैन स्‍वामी पर केंद्रित उनका ‘बेबाक बोल’ स्‍तंभ (मुलजिम के मुजरिम) इस बात का क्षणिक भरोसा बेशक दिलाता है कि अभी सारे संपादक पशुवत नहीं हुए हैं.

स्टैन स्वामी पर जनसत्ता में छपा लेख

रविवार, 10 जुलाई के बाकी अखबारों को भी देखिए. समझ में आएगा कि स्‍टैन स्‍वामी की हफ्ते भर पहले हुई मौत तो दूर, केवल तीन दिन पहले हुई दिलीप कुमार की मौत को भी तब तक सब ने भुला दिया था. इसका मतलब तो यही निकलता है कि मामला मंशा का है, वरना स्‍पेस और वक्‍त की कमी नहीं है और संजीदा लिखने वाले भी दो-चार हैं ही. विडम्‍बना यह है कि 10 जुलाई और उसके बाद तक दिलीप कुमार के सम्‍बंध में उलटी-सीधी खबरें बेशक छपती रहीं इन अखबारों में और अब भी छप रही हैं, लेकिन किसी की दिलचस्‍पी तात्‍कालिक और तकरीबन अनावश्‍यक सूचनाओं से आगे नहीं दिखती है. कुछ शीर्षक देखें:

दिलीप कुमार के घर के बाहर लगा साइनबोर्ड, सायरा बानो ने राजकीय सम्‍मान से विदाई के लिए जताया आभार

आभार: राजकीय सम्मान के साथ दिलीप कुमार को दी गई थी अंतिम विदाई, अब सायरा बानो ने यूं किया धन्यवाद

रवीना टंडन की जब दिलीप कुमार ने जमकर की थी तारीफ, एक्ट्रेस Video शेयर कर बोलीं- हमेशा याद करूंगी

मराठियों की उर्दू दाल-चावल जैसी होती है- जब अपने गाने पर दिलीप कुमार की टिप्पणी सुन लता मंगेशकर ने लिया कठिन फ़ैसला

दिलीप कुमार की कब्र पर पहुंचे मुकेश खन्ना, सावित्री जैसी हैं सायरा बानो

बयान: दिलीप कुमार के लिए बोले नसीरुद्दीन शाह, बड़ा स्टार होने के बाद भी सिनेमा में उनका योगदान कम

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फैक्ट चेक: निधन से पहले दिलीप कुमार ने वक्फ-बोर्ड को दान की 98 करोड़ की प्रॉपर्टी? जानिए क्या है इसकी सच्चाई

दिलीप कुमार: केवल 12 लाख रुपये में साइन की थी आखिरी फिल्म, पीछे छोड़ गए इतने करोड़ की दौलत

क्‍या दिलीप कुमार होने का अर्थ केवल धन-दौलत है? राजकीय सम्‍मान है? अंत्‍येष्टि में शामिल हुए चेहरे हैं? उनके दिए बयान हैं? हिंदी के अखबारों के लिए ऐसा ही था, लेकिन 7 जुलाई और उसके बाद लगातार कुछ संजीदा लोगों ने सोशल मीडिया पर और अंग्रेज़ी के डिजिटल मीडिया में जवाहरलाल नेहरू के साथ जोड़कर उनकी शख्सियत को देखने की भी कोशिश की. इस विमर्श के केंद्र में रही मेघनाद देसाई की लिखी पुस्‍तक ‘नेहरूज़ हीरो’. सोशल मीडिया पर सरकारी प्रचारकों की ओर से जैसा साम्‍प्रदायिक माहौल बनाया गया था उस लिहाज से यह ज़रूरी तो था, लेकिन दिलीप साहब को याद करने का इकलौता सबब नहीं हो सकता था. यह पर्याप्‍त नहीं था. बौद्धिक भ्रष्‍टाचार और राजनीतिक बाध्‍यताएं हर मौत को जिस तरह निगल जाती हैं, वैसा ही दिलीप कुमार के साथ भी हुआ. एक ओर यूसुफ़ खान ट्रेंड करता रहा, दूसरी ओर उन्‍हें नेहरू बताया जाता रहा. पाले खिंच गए. सरहद के आर-पार उनका जुटाया सौ बरस का सामान इन्‍हीं दो पालों में खप गया. हमारे पत्रकारों को पाले बहुत पसंद हैं. उनका तो दिन बन गया.

जमीन जोतने वाले की, अखबार किसका?

बिलकुल ऐसा ही हुआ था दिलीप साहब की मौत से चार दिन पहले फादर स्‍टैन स्‍वामी के निधन पर. 84 साल का एक जीवन अखबारों ने ‘’यलगार के आरोपी’’ के रूप में निपटा दिया (ध्‍यान रहे, हिंदी के अखबारों को आज तक समझ नहीं आया कि अंग्रेज़ी के Elgar को हिंदी में क्‍या लिखा जाय). कहीं कोने में जगह मिली उनकी मौत को- एलगर/एलगार/एल्‍गर परिषद के देशद्रोही आरोपी के रूप में. अंग्रेज़ी के अखबारों और हिंदी के अखबारों की तुलना करें तो जो तस्‍वीरें सामने आती हैं उन्‍हें नीचे देख सकते हैं. हिंदी के आलोचक वीरेंद्र यादव और पत्रकार जितेन्‍द्र कुमार की मौजूं पोस्‍ट भी इस संदर्भ में पढ़ी जा सकती हैं.

हिंदुस्तान लखनऊ संस्करण
प्रभात खबर
अग्रेजी अखबारों में स्टैन स्वामी पर लेख

जाहिर है, दिलीप कुमार में अखबारों की दिलचस्‍पी स्‍टैन स्‍वामी से ज्‍यादा है इसीलिए स्‍टैन स्‍वामी अब खबरों में नहीं हैं. दिलीप साहब बेशक खबरों में बने हुए हैं लेकिन उसमें वह शख्‍स खुद कितना मौजूद है जिसने अपनी धरती को जोतने के लिए दूसरी धरती पर जाने से इनकार कर दिया, यह एक बड़ा सवाल है. पिछले साल नवम्‍बर में बांग्‍ला अभिनेता सौमित्र चटर्जी के निधन पर लिखे अपने कॉलम में वरिष्‍ठ पत्रकार जावेद नक़वी ने चटर्जी और दिलीप साहब के बीच एक समानता बतलायी थी कि दोनों ही अपनी भाषा की फिल्‍म को अपनी धरती मानते थे और खुद को उसे जोतने वाला किसान. औपनिवेशिक गुलामी के खिलाफ जंग में विकसित और वहीं से निकले इस भारतीय राष्‍ट्रवाद को आज की तारीख में कितने अखबार समझते होंगे?

जिन अखबारों ने खड़े-खड़े किसानों को ही देशद्रोही ठहरा दिया हो, उनसे हम दिलीप कुमार के संदर्भ में किसानी के मु‍हावरे को समझ लेने की अपेक्षा भी कैसे कर सकते हैं? फिर, आदिवासियों का मामला तो अखबारों के लिए बहुत दूर की कौड़ी है, जिनके अधिकारों के वाहक फादर स्‍टैन स्‍वामी थे. यह संयोग नहीं है कि हिंदी साहित्‍य के अच्‍छे मंचों में गिने जाने वाले ‘सदानीरा’ ने फादर स्‍टैन स्‍वामी के नाम से ब्राजील के फादर कमारा का उद्धरण चिपका दिया. फिर ध्‍यान दिलाने पर हटाया.

गौर से देखा जाय तो कितनी अजीब बात है कि दिलीप कुमार और स्‍टैन स्‍वामी की मौत एक ही जगह मुंबई में हुई. लगभग आसपास हुई. एक को किसी परिचय की जरूरत नहीं थी जबकि दूसरे से इस समाज का पहला सार्वजनिक परिचय ही उनकी मौत के वक्‍त हुआ. फिर भी दोनों को लेकर हिंदी पट्टी के अखबारों का रवैया कमोबेश एक सा रहा. किसी ने इनकी जिंदगी के संचित अनुभवों, स्‍मृतियों, घटनाओं, जीवन-प्रक्रिया, दर्शन में घुसने और उसे समझ के रिपोर्ट करने की ज़हमत नहीं उठायी. ‘सौ बरस के सामान’ का बोझ तो खैर क्‍या ही उठाता कोई! हैरत होती है बड़ी मौतों को अपनी आंखों के सामने इतना छोटा बनता देख और अफ़सोस कि कोई कुछ कर भी नहीं सकता. हैरत इलाहाबादी के ही शब्‍दों में:

“ख़िदमत में तिरी नज़्र को क्या लाएं ब-जुज़ दिल / हम रिंद तो कौड़ी नहीं रखते हैं कफ़न को”

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