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“शर्मनाक है कि कानून एजेंसियां अब भी असंवैधानिक धारा 66ए का प्रयोग कर रही हैं"
साल 2019 में बिजनौर पुलिस ने फर्जी खबर फैलाने के आरोप में पत्रकार आशीष तोमर और चार अन्य पत्रकारों के खिलाफ धारा 66ए के तहत केस दर्ज किया था. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने धारा 66ए को 2015 में ही रद्द कर दिया था.
आशीष बताते हैं, "हैंडपम्प टूट जाने के कारण गांव में एससी समाज के लोग वाल्मीकि समाज के लोगों को पानी नहीं भरने दे रहे थे. इससे नाराज होकर वाल्मीकि समाज के लोगों ने अपने घरों के आगे 'यह घर बिकाऊ है' का पोस्टर लगा दिया. तब यह खबर दैनिक जागरण समेत कई बड़े मीडिया संस्थानों ने प्रकाशित की थी. मजे की बात है कि इस घटना से दो दिन पहले सीएम आदित्यनाथ सहारनपुर आए थे, जहां उन्होंने बयान दिया था कि अब कैराना पलायन जैसी घटना भाजपा सरकार में कभी नहीं होगी."
कैराना में हिंदुओं के पलायन की खबर उस समय के भाजपा नेता हुकुम सिंह ने फैलाई थी. बाद में वो अपने बयान से मुकर गए थे.
बिजनौर पुलिस ने उस वक्त फर्जी खबर फैलाने का आरोप लगा कर आशीष तोमर समेत पांच पत्रकारों के खिलाफ मामला दर्ज किया था. पुलिस एफआईआर में बताया गया कि पत्रकार आशीष तोमर और शकील अहमद ने तितरवाला बसी गांव के एक वाल्मीकि परिवार के बारे में फर्जी खबरें फैलाकर सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश की. इसके बाद पत्रकारों पर आईपीसी की धारा 153ए, 268 और 503 और आईटी एक्ट की धारा 66ए के तहत मामला दर्ज किया गया था.
आशीष ने हमें बताया कि उस समय बिजनौर के एसपी रहे संजीव त्यागी ने वाल्मीकि महिला को जबरन पत्रकारों के खिलाफ बोलने को धमकाया था. बता दें कि साल 2020 में बिजनौर सिविल अदालत के निर्देशानुसार आशीष तोमर को मामले में राहत देते हुए अदालत ने माना कि पुलिस ने आधारहीन कार्रवाई की.
आशीष कहते हैं, "हम मामले को ऐसे ही नहीं जाने दे सकते. सभी पत्रकार जल्द ही इसके खिलाफ अदालत जाएंगे. झूठे आरोपों और धाराओं में पत्रकारों को फंसाकर सच नहीं दबाया जा सकता."
पूरे देश में आशीष जैसे तमाम लोग हैं जिन्हें पुलिस ने एक ऐसे कानून के तहत गिरफ्तार किया जो 2015 में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किया जा चुका है. ऐसे लोगों की सूची है जिन पर आईटी एक्ट की धारा 66ए के तहत आरोप दर्ज किए गए.
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आर नरीमन, जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस बीआर गवई की बेंच ने 6 जुलाई 2021 को पीयूसीएल नाम के गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा है, ये 'चौंकाने वाला, परेशान करने वाला, भयानक और आश्चर्य' की बात है कि 2015 में श्रेया सिंघल केस में सुप्रीम कोर्ट ने 66ए को निरस्त कर दिया था और फिर भी इस धारा के तहत केस दर्ज हो रहा है.
ये भयावह स्थिति है. कोर्ट ने नोटिस जारी कर दो हफ्तों में इस पर जवाब तलब किया है.
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने अपनी याचिका में कहा, मार्च 2021 तक देश के 11 अलग-अलग राज्यों में 745 मामले धारा 66ए के तहत पेंडिग चल रहे है. इसमें सबसे ज्यादा 381 मामले महाराष्ट्र में है. 66ए खत्म होने के बाद तय की गई कट ऑफ की तारीख के बाद भी उत्तर प्रदेश में 245 ऐसे मामले दर्ज किए गए- जिसमें आरोपी व्यक्तियों पर आईटी अधिनियम की धारा 66ए के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है.
याचिका में जिन आकंड़ों का जिक्र है वह इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन और सिविक डेटा लैब द्वारा तैयार किया गया है. फाउंडेशन ने इन आंकड़ों को ज़ोंबी ट्रैकर नाम दिया है. इस पर प्रदेशवार कुल मामलों की जानकारी उपलब्ध है. यह जानकारी सिविक डेटा लैब ने देशभर के जिला अदालतों से इकट्ठा किया है.
असम, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, झारखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलगांना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के जिलों में चल रहे मामलों को इस आंकड़े में शामिल किया गया है. ट्रैकर के मुताबिक नवंबर 2009 से लेकर फरवरी 2020 तक देश में 1988 केस दर्ज किए गए, जिसमें से 799 केस अभी भी पेंडिग हैं.
वहीं साल दर साल बात करें तो 2014 से लेकर 2019 तक हर साल 200 से 300 लोगों पर केस दर्ज किए जा रहे थे. 2015 में सबसे ज्यादा 332 मामले धारा 66ए के तहत दर्ज किए गए.
ज़ोंबी ट्रैकर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले और उसके बाद दर्ज किए गए मामलों को देखने के बाद पता चलता है कि देश भर के अलग-अलग जिलों में साल 2015 से पहले 681 केस दर्ज थे, वही कानून रद्द होने के बाद 1307 मामले दर्ज किए गए.
इस आंकड़ों को अपनी याचिका में शामिल कर जनवरी 2019 पीयूसीएल ने सुप्रीम कोर्ट से केंद्र को इस संबंध में निर्देश देने को कहा. इस पर पीयूसीएल का पक्ष रख रहे वरिष्ठ वकील संजय पारीख कहते हैं, “जब 2015 में 66A धारा को खत्म किया गया था, तब इसके तहत दर्ज 229 केस पेंडिंग थे. इस धारा को खत्म किए जाने के बाद से 1307 नए केस दर्ज किए गए हैं. इनमें से 570 अभी भी पेंडिंग हैं. जबकि, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि 66ए को खत्म किए जाने के आदेश की कॉपी हर जिला अदालत को संबंधित हाईकोर्ट के माध्यम से भेजी जाए. राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों और हर पुलिस स्टेशन को भी इसकी कॉपी भेजी जाए. हालांकि इन आदेशों के बावजूद पुलिस स्टेशन में केस दर्ज किए जा रहे हैं और कोर्ट में ट्रायल भी चल रहे हैं.”
इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के एसोसिएट लिटिगेशन काउंसिल (कानूनी सलाहकार) तन्मय सिंह न्यूज़लॉन्ड्री से कहते है, “2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया था, उसमें कहा गया था कि धारा 66ए जैसे कानून हमारे संविधान और मौलिक अधिकारों के खिलाफ हैं. इसलिए ऐसा कानून बनाया ही नहीं जाना चाहिए. जबकि इस धारा के रद्द होते ही पहले और बाद में दर्ज किए गए सभी केस खत्म हो जाते हैं. लेकिन अभी भी रद्द हुए कानून के तहत केस दर्ज किए जा रहे हैं.”
क्या पुलिस सिस्टम और अदालती कार्यवाही में सामंजस्य और जागरुकता की कमी है? इस सवाल पर तन्मय कहते हैं, “ऐसा हम कह सकते हैं, क्योंकि जिस तरह मामले दर्ज हो रहे हैं उससे तो यही लगता है.”
वहीं आईएफएफ की वेबसाइट पर दिए गए आंकड़ों में दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट का वाकया बताया गया है. देश की राजधानी में मौजूद इस कोर्ट में जब अभियोजक ने बताया कि धारा 66ए को सुप्रीम कोर्ट रद्द कर चुकी है, उसके बावजूद जज ने आरोपित के खिलाफ गैर जमानती वांरट जारी कर दिया. आरोपित के खिलाफ सिर्फ और सिर्फ धारा 66ए के तहत केस दर्ज किया गया था.
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा, आईटी एक्ट में धारा 66ए के नीचे एक फुटनोट के तौर पर लिखा हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को रद्द कर दिया है. हो सकता है कि पुलिसकर्मियों का इस पर ध्यान नहीं गया, इसलिए अभी भी धारा 66ए के तहत मामले दर्ज किए जा रहे हैं.
अटॉर्नी जनरल ने सुझाव दिया कि इसे पूरी तरह से हटा देना चाहिए और जो सेक्शन है उसे फुटनोट में डाल देना चाहिए कि इसे सुप्रीम कोर्ट रद्द कर चुकी है.
जिनके खिलाफ धारा 66ए के तहत की गई कार्रवाई
जाकिर अली त्यागी
मेरठ के पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता 25 वर्षीय जाकिर अली त्यागी पर साल 2017 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने धारा 66ए के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया था. ज़ाकिर ने अपने फेसबुक पोस्ट में सीएम योगी आदित्यनाथ को निशाना बनाते हुए लिखा था- “योगी ने गोरखपुर में कहा था कि गुंडे बदमाश यूपी छोड़कर चले जाएं. मेरी क्या मजाल, कह सकूं कि योगी पर कुल 28 मुक़दमे दर्ज हैं जिनमें 22 बहुत गंभीर हैं.”
इस पोस्ट को लेकर यूपी पुलिस ने जाकिर पर मुकदमा दर्ज किया था. ज़ाकिर ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "मुझे बिना जानकारी दिए जेल में डाल दिया गया था. जब मैं जेल से बाहर आया तब पता चला कि मुझ पर 66ए लगाई गई है. इसके बाद मैंने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. तब पुलिस ने 66ए तो हटा लिया लेकिन उसी कानून की दूसरी धारा के तहत मामला बदलकर दर्ज कर लिया. साथ ही जमानत मिलने के बाद देशद्रोह का आरोप जोड़ दिया गया."
शमशाद पठान
अधिकतर मामलों में मीडिया या प्रशासनिक दबाव में पुलिस खत्म हो चुकी धारा 66ए के तहत दर्ज मामले को बदल देती है. अक्सर वो उसी क़ानून की दूसरी धारा के तहत केस दर्ज कर लेती है. साल 2018 में गायकवाड़ हवेली (अहमदाबाद) पुलिस ने वकील और सामाजिक कार्यकर्ता शमशाद पठान के साथ भी ऐसा ही किया. उन पर आईटी एक्ट 2008 के 66ए के तहत मामला दर्ज किया था. शमशाद पठान बताते हैं, "एक नाबालिग लड़की ने आत्महत्या कर ली थी क्योंकि एक आदमी उसे परेशान कर रहा था. पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं कर रही थी. हमने थाने जाकर दबाव बनाया. उससे पहले भी पुलिस ने रेहड़ी वालों को परेशान किया था. हमने तब भी पुलिस से बात कर के रेहड़ीवालों को जगह दिलवाई थी. जिससे पुलिस इंस्पेक्टर वीजे राठौड़ के स्वाभिमान को ठेस पहुंची थी. वो सामाजिक कार्यकर्ताओं की आवाज़ को दबाने का मौका ढूंढ रहे थे. इसके लिए मुझ पर आईटी एक्ट 2008 का 66ए लगा दिया. ये मामला जब अखबार में उछला तब पुलिस ने 66ए हटाकर 66सी के अंतर्गत मामला दर्ज कर लिया. कोर्ट ने भी 66सी की वैधता पर पुलिस से जवाब मांगा. फिलहाल, मामला अदालत में लंबित है."
प्रशांत कनौजिया
अगस्त 2020 में सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर यूपी पुलिस ने पत्रकार से नेता बने प्रशांत कनौजिया को भी गिरफ्तार किया था. उनको अयोध्या में राम मंदिर से संबंधित एक नकली तस्वीर पोस्ट करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. प्रशांत के खिलाफ लखनऊ के हज़रतगंज थाने में एफआईआर दर्ज की गई थी.
इस एफआईआर में कुल नौ धाराओं सहित 66ए भी लगाया गया था. प्रशांत न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में कहते है, "अगर 66ए की संविधानिक वैधता होती तो पुलिस ऐसे मामलों को अदालत में ले जाती. इनका मकसद पत्रकारों को फंसाकर रखना है. आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई, ना ही चार्जशीट फाइल हुई."
अन्य पर दर्ज मामले
इसके अलावा कई कलाकारों, पत्रकारों और सोशल एक्टिविस्ट के खिलाफ भी 66ए के तहत केस दर्ज किया गया है. साल 2016 में राम गोपाल वर्मा के खिलाफ कोर्ट ने धारा 66ए के तहत दर्ज मामले में वारंट जारी किया था. फरवरी 2020 में असम में एक प्रोफेसर को बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक पोस्ट को लेकर 66ए के तहत केस दर्ज किया गया.
मार्च 2020 में पटना हाईकोर्ट ने 6 महीने जेल में काटने के बाद धारा 66ए और अन्य धाराओं में जेल में बंद दो लोगों को जमानत दी थी. अप्रैल 2020 में सोनिया गांधी के खिलाफ भी आपत्तिजनक भाषा का उपयोग करने को लेकर पत्रकार अर्णब गोस्वामी के खिलाफ देश के अलग-अलग हिस्सों में कुल 16 केस दर्ज किए गए. उन मामलों धारा 66ए भी है. वहीं एक मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट ने जनवरी 2020 में धारा 66ए के तहत केस दर्ज करने को लेकर दो पुलिसकर्मियों पर 10 हजार का जुर्माना लगाया था.
क्या कहती हैं श्रेया सिंघल
पेशे से वकील श्रेया सिंघल की याचिका पर ही 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की विवादास्पद धारा 66ए को हटाया था. कोर्ट ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताया था.
श्रेया कहती हैं, "मैं हैरान हूं वो पुलिस जो कानून की रक्षक और संचालक है वो 66ए का अब तक प्रयोग कर रही है. धारा को ख़त्म हुए छह साल बीत गए हैं. कानून की अज्ञानता किसी भी तरह से खुद को बचाने का ज़रिया नहीं बन सकती. सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस धारा पर रोक लगाने का मीडिया में काफी कवरेज भी हुआ था. यह शर्मनाक है अगर कानून एजेंसियां अब भी असंवैधानिक करार दी गई धारा 66ए का प्रयोग कर रही हैं."
उन्होंने आगे कहा, "नवंबर 2012 में, दिवंगत बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद शिवसेना द्वारा बुलाए गए बंद की आलोचना करते हुए अपने फेसबुक पेज पर एक पोस्ट करने को लेकर दो महिलाओं की गिरफ्तारी हुई थी. इसके बाद साल 2015 में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की 66ए के तहत गिरफ्तारी की गई. देखते- देखते इस धारा का इस्तेमाल तमाम राजनीतिक दलों द्वारा किया जाने लगा. 66ए स्वतंत्र आवाज़ को दबाने का ज़रिया बना लिया गया जो असंवैधानिक है."
क्या है धारा 66ए जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में रद्द कर दिया था
आईटी एक्ट, 2008 की धारा 66ए के तहत, सोशल मीडिया और ऑनलाइन माध्यम पर किए गए कोई भी कथित आपत्तिजनक टिप्पणी पर पुलिस गिरफ्तारी कर सकती थी. लेकिन इस कानून की परिभाषा स्पष्ट नहीं थी. कानून में 'आपत्तिजनक' का अर्थ कहीं नहीं लिखा गया था.
2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवाई के दौरान कहा था कि ये धारा संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) यानी बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का हनन है. तब तत्कालीन जस्टिस जे चेलमेश्वर और जस्टिस रोहिंटन नारिमन की बेंच ने कहा था कि ये प्रावधान साफ तौर पर संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है. जिसके बाद मार्च 2015 में कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इसे निरस्त कर दिया था.
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अपडेट
(14 जुलाई को) केंद्र सरकार ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया है कि वे आईटी एक्ट की धारा 66ए के तहत दर्ज मामलों को तत्काल प्रभाव से वापस लें. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों से अनुरोध किया है कि वे सभी पुलिस स्टेशन को निर्देश दें कि आईटी एक्ट की निरस्त हो चुकी धारा 66ए के तहत कोई केस दर्ज ना करें.
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(रिसर्च - रितिका चौहान)
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