Opinion

अयोध्या में राम मंदिर, राम मंदिर में चंदाचोरी, चंदे में उदय प्रकाश

धर्मप्राण उदय प्रकाश जी,

अयोध्या... राम मंदिर... चंदा घोटाला... चंपत राय... चंदाचोर भाजपा! आप यह सब देख-सुन रहे होंगे.

आप हिंदी के एक बड़े लेखक हैं. लेखकों ने स्मृति की काफी महिमा गाई हैं जो बेकार की बात हैं. मेरा मानना है स्मृति के बिना लेखक ही नहीं एक खेत मजदूर का काम भी नहीं चल सकता. अगर वह गेहूं और गेहूं के मामा में फर्क भूल कर गेहूं ही उखाड़ने लगे तो क्या भूखे नहीं मर जाएगा!

हां, स्मृति उन घटनाओं को ज्यादा चमकदार बना देती है जिसमें खुद आप शामिल रहे हों. स्वाभाविक है कि श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की रसीद संख्या-2228408 याद आई हो जिस पर आपका नाम गलत लिखा गया फिर काट कर सही किया गया. समय लगा होगा क्योंकि पहले आपका फोन नंबर लिखा गया फिर पीले मार्कर से ढका गया था. आपने इसे "आज की दान-दक्षिणा. अपने विचार अपनी जगह पर सलामत" कहते हुए सबको दिखाया, क्या कि हिंदी वालों को हिस्टीरिया हो गया था. उन्हें लगा कि आपने सेकुलरिज्म और न्याय के उन मूल्यों से गद्दारी का बेशर्मी से प्रदर्शन किया है जिनकी पैरवी आप अपने लेखन में सम्मोहक ढंग से करते रहे हैं.

आपको बताने की जरूरत नहीं है कि बाबरी मस्जिद धोखे, प्रपंच और गुंडागर्दी से गिराई गई थी इसीलिए देश में अगले 25 सालों तक छह दिसंबर को काला दिवस और शौर्य दिवस एक साथ मनाए जाते रहे. सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले से राम मंदिर का रास्ता साफ हुआ वह कितनी 'दयनीय धांधली' से लिखा गया था और इसकी कीमत क्या थी, इसे न्यायपालिका के इतिहास में याद रखा जाएगा. अब भी कई जजों की आंखें इसके बारे में बात करते हुए वैसे ही बंद हो जाती हैं जैसे हथौड़ी कील के बजाय उंगली पर मार लेने के बाद हुआ करता है.

अपनी मशहूर कहानी 'मोहनदास' लिखने के बाद से आप तो न्याय को कमोडिटी (बेचा-खरीदा जाने वाला सामान) कहा करते थे और एक कविता में लिखते हैं कि दिसंबर का छठा दिन आपकी रीढ़ में हजार सूईयों के डंक का दर्द जगाता है. दरअसल हिंदी वाले भ्रमित हो गए कि नौटंकी क्या है, धार्मिक नफरत की राजनीति के समर्थन का प्रदर्शन या हजार सूईयों का दर्द. बेहतर होता आप अपने गांव के किसी बनते मंदिर की ईंटें ढोते हुए अपनी फोटो दिखाते. तब यह व्यक्तिगत आस्था और सामाजिकता का मामला हो सकता था.

यही आपके साथ 12 साल पहले योगी आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कार लेने के बाद भी हुआ था. आप अपने 'लाबू दा' के प्रेम में यह 'पारिवारिक पुरस्कार' ले आए लेकिन योगी आदित्यनाथ उस समय पंचर चिपकाने और अंडे का ठेला लगाने वाले 21वीं सदी के मुसलमानों से महमूद गजनवी, औरंगजेब और तैमूर लंग का बदला लेते हुए यूपी को गुजरात बनाने की साधना कर रहे थे. मैं उस समय आपके लिखे का मुरीद था इसलिए हैरान था कि माना, आपने ले लिया लेकिन योगी ने दे कैसे दिया. क्या सोचा नहीं होगा कि अपने कॉलेज में बुलाकर किसे सम्मानित करने जा रहे हैं? यह सवाल मैंने एक पत्रकार के नाते योगी से पूछा था. उन्होंने कहा था, "मैंने उदय जी को कहा था, मुझसे पुरस्कार लेंगे तो आपकी छवि और विचारधारा को नुकसान होगा. इसके बावजूद वह तैयार थे तो मैंने दे दिया." आप प्रेम और परिवार के प्रपंच में यह बात छिपा ले गए और मैं इस एक मामले में योगी की ईमानदारी का कायल हो गया.

अच्छा किया जो आपने चंदे का प्रदर्शन करते हुए लिखा- अपने विचार अपनी जगह पर सलामत. इससे मुझे कबीरदास की उलटबांसियों और सबसे अधिक अपने प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति को समझने की कुंजी हाथ लग गई. लाखों कोरोनाग्रस्त नागरिक ऑक्सीजन, वैक्सीन, दवा के अभाव में तड़पकर मर गए, गंगा की रेती लाशों से पटी हुई है लेकिन विश्वगुरू होने के विचार अपनी जगह सलामत हैं. दिल्ली की सीमाओं पर सात महीने से बैठे किसानों में से 300 से अधिक मर चुके हैं लेकिन किसानों की आय दोगुनी करने का दावा सलामत है. अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठ चुका है, मंहगाई और बेरोजगारी चरम पर है लेकिन पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी का दावा सलामत है. सार्वजनिक उपक्रम धड़ाधड़ बिक रहे हैं लेकिन लोककल्याण का दावा सलामत है. अर्बन नक्सल, टुकड़े-टुकड़े गैंग, गौ तस्करी के झूठे आरोपों में सरकार की आलोचना करने वालों और निर्दोष नागरिकों का आखेट किया जा रहा है लेकिन संविधान और कानून सलामत हैं. इसका सबूत है कि उन्होंने संविधान की किताब के आगे सिर नवाया था और अब तबाही के बीच अरबों का सेंट्रल विस्टा बन रहा है. ज्यादा क्या कहना, समझ लीजिए कि 'दीदी ओ दीदी' की दारुण टेर के बावजूद महिलाओं की इज्जत का विचार अपनी जगह सलामत है.

मैं तो चंदे की रसीद पर समर्पणकर्ता के ऊपर आपके कलात्मक हस्ताक्षर देखने में खोया रहा. अयोध्या में जिनका मंदिर बनने जा रहा है वे बालक राम हैं. रामलला. जब तक वयस्क नहीं हो जाते तब तक अदालत अकेले नहीं जा सकते थे. इसलिए उनका मुकदमा संरक्षक और सखा के रूप में विहिप के त्रिलोकीनाथ पांडेय ने लड़ा जो कारसेवकपुरम में ही रहते हैं. विहिप का एक कार्यकर्ता भगवान का सखा और आप समर्पणकर्ता. यह कोई हेठी की बात नहीं है लेकिन जब आपके विचार अपनी जगह सलामत हैं तो क्या आप भावनाहीन ढंग से सिर्फ धन का समर्पण कर रहे थे. खैर, उसका भी एक मूल्य है.

देखिए, मैंने आपके नाम के आगे जी लगाया है. अधिकांश हिंदी वाले यही ताड़ते रहते हैं कि संबोधन कैसे किया गया. वे सम्मान की अनुपस्थिति को अपमान समझते हैं. जरा सा सम्मान मिला नहीं कि उनकी आंखें बंद हो जाती हैं, लेकिन आपकी आंखें ऐसी नहीं हुआ करती थीं इसीलिए आपने 2015 में कलबुर्गी, पानसारे, दाभोलकर जैसे सेकुलर विचारकों और दादरी में अखलाक की लिंचिंग के बाद अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस लौटा दिया था. उसके बाद देश में प्रायोजित ढंग से बढ़ाई जाती असहिष्णुता के विरोध में अवार्ड वापसी का सिलसिला चल पड़ा था. तब आपके लिए लेखक के सम्मान-अपमान से बड़ा मूल्य धार्मिक विद्वेष के कारण मारे जाते लोगों की हिफाजत था. आपको आजादी है कि अपने विचार बदल लें, चुनाव जिताने वाली धार्मिक कट्टरता और अन्याय की बुनियाद पर बन रहे मंदिर के प्रति आस्थावान हो जाएं. यह दुचित्तापन सिर्फ आपमें नहीं बहुत से सेकुलर और प्रगतिशीलों में पाया जाता है लेकिन क्या यह आस्था आपको इतना साहस नहीं देती कि मंदिर के चंदे में किए गए घपले की जांच की मांग कर सकें.

आप जानते ही हैं कि अयोध्या में राम मंदिर ट्रस्ट की ओर से चंपत राय बंसल ने साढ़े पांच लाख प्रति सेकेंड की दर से बढ़ती कीमत वाली एक जमीन और नजूल की कई ज़मीनें करोड़ों रुपए कीमत बढ़ाकर खरीदी हैं. राजनीतिक दलों को छोड़िए अयोध्या के साधु संत भी बालक राम की गुल्लक में गबन के विरोध में आवाज उठा रहे हैं. क्या आपको जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि आपके फ्रीलांसिंग और रॉयल्टी के पैसे और अन्य करोड़ों आस्थावानों की गाढ़ी कमाई को मंदिर पर खर्च करने के बजाय भ्रष्ट पदाधिकारी अपनी जेब में क्यों भर रहे हैं. भक्तों के लिए आस्था, समर्पण, बलिदान वाली भक्ति और अपने लिए मुद्राभक्ति! यह लीला कैसे चल रही है? अगर आपने स्थानीय समीकरणों को साधने के लिए, डर कर या सिर्फ चर्चा के लिए ही चंदा-प्रदर्शन किया था तो भी एक धार्मिक उपभोक्ता होने के नाते पूछ तो सकते हैं न कि आपके पैसे का कैसे उपयोग किया जा रहा है.

अगर आप 5400 रुपये चंदे की तुच्छ रकम को भूल चुके हैं और आपके विचार अब भी अपनी जगह सलामत हैं तो क्यों न माना जाए कि अपने लेखक के अतीत को दफन कर आप भी उसी ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं जहां नाले की गैस से चाय बनाने और चाय की गैस से साहित्य बनाने में कोई फर्क नहीं बचता है. क्या अब आपका जीवन भी धार्मिकता की पन्नी में लिपटा एक घपला है.

सादर, आपका एक मुरीद

अनिल यादव

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