Report
खतरे को न्योता है महाकाली पर बन रहा पंचेश्वर हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट
उत्तराखंड में महाकाली नदी पर दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध बनाने की तैयारी चल रही है. महाकाली नदी भारत और नेपाल की सीमा पर बहती है. यह गंगा की सहायक नदी है और शारदा के नाम से भी जानी जाती है. 315 मीटर का पंचेश्वर बांध महाकाली नदी पर बन रहा है. इस परियोजना की नींव 1996 में हुई भारत-नेपाल महाकाली जल संधि से पड़ी. जब 2014 में दोनों देशों की सरकारों ने परियोजना के क्रियान्वयन के लिए पंचेश्वर विकास प्राधिकरण बनाया तब यह तय हुआ था कि विवादित मुद्दों पर डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) बनने के बाद स्पष्टता आएगी. तय किया कि विवादित मुद्दे डीपीआर बनने की प्रक्रिया में सुलझाये जाएंगे.
यह बांध एक ऐसी ज़मीन के ऊपर बनने वाला है, जिसके अंदर हलचल जारी है. भूकंप के लिहाज़ से यह सबसे संवेदनशील इलाका है. इस बांध को बनाने से जुड़ी इनवायरनमेंट इम्पैक्ट एसेसमेंट रिपोर्ट कई तकनीकी और तथ्यात्मक ग़लतियों से भरी रही है. वैज्ञानिक दृष्टि से कई विसंगतियां इस रिपोर्ट में हैं. वाप्कोस कंपनी द्वारा बनायी गयी आधी-अधूरी डीपीआर को देखते हुए यह तो साफ है कि परियोजना से जुड़े कई मूलभूत मुद्दों पर कोई जानकारी नहीं है, दो देशों में आपसी समझ बनना तो दूर की बात है. बांध से प्रभावित होने वाले स्थानीय बाशिंदों की शिकायतें भी ठीक से नहीं सुनी गयीं. जन-सुनवाइयां जिस तरह से आयोजित की गयीं वो अपने आप में कई सवाल खड़े करती हैं. अफरातफरी में पर्यावरण मंजूरी के लिए जनसुनवाई करवा दी और प्रभावित क्षेत्र से वन मंजूरी के लिए एनओसी लेने का काम भी शुरू कर दिया, जिसका लोग विरोध कर रहे हैं. यही नहीं, प्रभावित इलाके की सारी स्थानीय विकास परियोजनाओं को भी अघोषित तरीके से रोक कर रखा हुआ है जबकि महाकाली संधि पर ही प्रश्नचिह्न बना हुआ है.
ऐसे में राज्य सरकार पुनर्वास नीति बनाने में हड़बड़ी कर रही है. पुनर्वास नीति पर उत्तराखंड मंत्रिमंडल के सुझावों और बयानों को देख कर यह तो स्पष्ट है कि पंचेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना के लिए बनी डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट पूरी होने से कई कोसों दूर है. मंत्रिमंडल ने स्वयं कुछ मूलभूत प्रश्न उठाये हैं जिनका जवाब नहीं होने तक पुनर्वास नीति बनाने का काम आगे बढ़ाना असंभव है. उदाहरण के तौर पर मंत्रिमंडल ने वाप्कोस कंपनी को यह जानकारी देने के लिए कहा है कि परियोजना से मौजूदा सरकारी और सार्वजनिक संपत्तियों पर कितना प्रभाव पड़ेगा. यह सवाल मूलभूत है और आश्चर्य की बात तो यह है कि इसका आकलन किये बिना परियोजना का लागत लाभ विश्लेषण आखिर वाप्कोस ने कैसे किया? लागत लाभ विश्लेषण में जो 13,700 हेक्टेयर जंगल और खेती की जमीन डूबने से होने वाला नुकसान है उसका भी कहीं कोई आकलन नहीं है. पर्यावरणीय प्रभावों की कीमत का आकलन भी इसमें नहीं जुड़ा है. यदि पर्यावरणीय और सामाजिक कीमत की बात करें तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 315 मीटर ऊंचाई वाले इस बांध का विशाल जलाशय भौगोलिक रूप से सबसे संवेदनशील क्षेत्र में बनेगा जहां सीस्मिक हलचल होती रहती है.
दूसरी बात, इस बांध के लिए भारत और नेपाल का एक बड़ा इलाका झील में डूब जाएगा. ये इलाका वन्यजीवों और वनस्पति के लिहाज से बेहद समृद्ध है और सब इस बांध की झील में डूब जाएगा. यही नहीं, ये बांध एक बड़े समाज को उसकी ज़मीन से बेघर कर देगा. बांध के अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम में बड़ा इलाका हमेशा के लिए बर्बाद हो जाएगा. बिजली और सिंचाई के नाम पर बन रही परियोजना दरअसल, विकास को लेकर हमारी भ्रांतिपूर्ण समझ का एक जीता जागता उदाहरण है. जलवायु में बदलाव का सामना कर रही दुनिया के तमाम देश जब बड़े बांधों से किनारा कर रहे हैं तब इस बांध को बनाने में समझदारी कहीं नहीं दिखती. जब तक ये बांध तैयार होगा, तब तक इससे मिलने वाली बिजली, ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों के मुक़ाबले काफ़ी महंगी हो जाएगी. पर्यावरण का नुकसान जो होगा सो अलग.
2010 में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था इंस्टीट्यूट फॉर एनवायर्नमेंटल साइंसेज (आइईएस) के लिए वैज्ञानिकों (मार्क एवरार्ड और गौरव कटारिया) के अध्ययन के अनुसार, यदि केवल महाकाली घाटी के पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं का आकलन किया जाए तो इस परियोजना की लागत, लाभ से कई गुना अधिक होगी. इस अध्ययन के अनुसार भारत और नेपाल को मिला कर घाटी के 80 हजार से ज्यादा लोग प्रभावित होंगे, जिसमें मुख्यतः किसान, मजदूर, मछुआरे हैं.
अगर बांध के नीचे के क्षेत्रों को जोड़ा जाए तो उत्तर प्रदेश और बिहार के उन इलाकों को भी कीमत चुकानी पड़ेगी जो शारदा के किनारे बसे हैं. वन संपत्ति के नुकसान की बात करें तो इस परियोजना में अकेले चंपावत जिले में ही तीन लाख से अधिक पेड़ डूब जाएंगे. क्षेत्र में पेड़ों की गिनती पूरी होने के बाद वन रेंज अधिकारी हेमचंद गहतोरी ने बताया, “हमारे अनुमान के मुताबिक वन भूमि में लगे तीन लाख से अधिक पेड़ केवल चंपावत जिले में ही बांध के पानी में डूब जाएंगे.” उन्होंने कहा कि निजी भूमि में लगे पेड़ों की गिनती अभी शुरू नहीं हुई है. पेड़ों की गिनती की कवायद में लगे गहतोरी ने कहा, “500 हेक्टेअर क्षेत्र में पेड़ों की गिनती की गयी और इसमें 36 दिन लगे." वन रेंज अधिकारी दिनेश चंद्र जोशी ने कहा, "पिथौरागढ़ वन प्रभाग में भी 69000 पेड़ बांध के पानी में डूब जाएंगे."
हाल ही में जारी पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय और उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की “स्टेट ऑफ इनवायरमेंट रिपोर्ट ऑफ उत्तराखंड” में बताया गया है कि महाकाली नदी पर पंचेश्वर बहुद्देशीय परियोजना के लिए नेपाल को भारत 1,500 करोड़ रुपये देगा. 315 मीटर की प्रस्तावित ऊंचाई का ये विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बांध होगा जिससे 6,720 मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा. ये प्रोजेक्ट कर्णाली और मोहना नदी के प्रवाह को नियंत्रित करेगा, जो उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी, पीलीभीत समेत तराई के अन्य क्षेत्रों में हर वर्ष बाढ़ की वजह बनती है. बांध के लिए बनने वाली झील में पिथौरागढ़, चंपावत और अल्मोड़ा के 87 गांव पूरी तरह डूब जाएंगे. पेड़-पौधों की 193 प्रजातियां, 43 स्तनधारी जीवों की प्रजातियां, चिड़ियों की 70 प्रजातियां, 47 तितलियों की और 30 मछलियों की प्रजातियों पर खतरा होगा.
महाकाली नदी पर प्रस्तावित पंचेश्वर बांध अपने साथ पर्यावरणीय, मानवीय, सांस्कृतिक संकट तो लाएगा ही, आशंका जतायी जा रही है कि भारत-नेपाल के बदलते रिश्तों के बीच सामरिक संकट की वजह भी बन सकता है. न केवल नेपाल बल्कि भारत में भी बुद्धिजीवियों और पर्यावरणविदों ने भी महाकाली संधि के भविष्य को लेकर सवाल उठाये हैं. पर्यावरण से जुड़े खतरों की अनदेखी कर इस बांध पर आगे बढ़ी सरकार को मौजूदा समय में इस पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है.
(साभार- जनपथ)
Also Read
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
Delhi’s demolition drive: 27,000 displaced from 9 acres of ‘encroached’ land
-
डिस्टर्ब्ड एरिया एक्ट: गुजरात का वो कानून जिसने मुस्लिमों के लिए प्रॉपर्टी खरीदना असंभव कर दिया
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
Air India crash aftermath: What is the life of an air passenger in India worth?