Report

उत्तराखंड: मौसम की मार से पहाड़ हुआ पहाड़ी जीवन

“मैं एक बार में 10 लीटर तक पानी लाती हूं. सुबह तीन चक्कर लगाती हूं. फिर दोपहर में गाय-भैंसों के लिए पानी भरकर लाना पड़ता है. हमारा छोटा सा जलस्रोत घर से करीब 500 मीटर दूर है. एक दिन में 6-7 या इससे ज्यादा चक्कर भी हो जाते हैं. पीने का पानी, बर्तन धोने और अन्य कार्यों के लिए पानी लाना ही पड़ता है. कपड़े हम जल स्रोत के पास ही धोते हैं. मेरे घर में सात लोग हैं. मां-पापा, चार भाई और एक मैं. पानी भरना महिलाओं का ही काम है. भाई कभी-कभी मदद कर देते हैं.”

दीपा रावत

अप्रैल के पहले हफ्ते में जब उत्तराखंड के जंगल चारों तरफ धूं-धूं कर जल रहे थे, तब पौड़ी के पोखड़ा ब्लॉक के किमगड़ी गांव की दीपा रावत की चिंता पानी के लिए लगाने वाले फेरों को लेकर थी. गांव की दूसरी लड़कियों के साथ वह हर रोज़ पानी भरने जाती है. पानी के स्रोत तक जाने-आने का पहाड़ी रास्ता तय करना इस समय उसकी दिनचर्या में शामिल है. अप्रैल 2021 में मेरी दीपा से मुलाकात हुई.

केंद्र सरकार की जल-जीवन मिशन योजना के तहत जनवरी-2020 में दीपा के घर भी नल लग गया है. वह बताती है, “पिछले साल तो हमें अच्छा पानी मिला. लेकिन इस साल सर्दियों में बारिश बहुत कम हुई. हमारी टंकी में पानी की मात्रा बहुत घट गई. मेरे घर के नल में पानी नहीं आ रहा. पूरे गांव का यही हाल है.”

बारिश हो या सूखा, पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के जीवन पर इसका सीधा असर पड़ता है

उससे थोड़ा पहले मार्च के पहले हफ्ते में पौड़ी के ही नैनीडांडा ब्लॉक के चैड़-चैनपुर गांव की महिलाएं भी पानी लाने से जुड़ी मुश्किलों को लेकर आशंकित हैं. गांव की लक्ष्मी कंडारी अपने घर से सीधी नीचे ढलान की तरफ इशारा कर गदेरा दिखाते हुए बताती हैं, “गर्मियों में हमें वहीं से पानी लाना होगा. इस बार सर्दियां बिलकुल सूखी गईं हैं. बारिश नहीं हुई तो पानी के हमारे स्रोत रिचार्ज नहीं हुए.”

अनिश्चित खेती

अप्रैल के दूसरे हफ़्ते के बाद से शुरू हुई बारिश ने उत्तराखंड के धधकते जंगलों को राहत पहुंचाई. लेकिन किसानों और बागवानों की मेहनत पर पानी फिर गया. ज्यादा नुकसान ओले गिरने से हुआ. टिहरी के सकलाना विकास पट्टी के मझगांव की किसान रीता रमोला की सब्जियों की नर्सरी इस ओलावृष्टि को बर्दाश्त नहीं कर सकी. वह बताती हैं, “सर्दियों में नवंबर-दिसंबर के महीने में परिवार के इस्तेमाल भर गेहूं और जौ बोया था. लेकिन बारिश नहीं होने से अच्छी उपज नहीं मिली. मार्च में सब्जियों की नर्सरी तैयार की थी और अप्रैल की बारिश में वो खत्म हो गई. हमने दोबारा नर्सरी तैयार की.”

हालांकि मई में हुई बारिश का रीता शुक्र जताती हैं. इससे उनका नज़दीकी गदेरा रिचार्ज हो गया. यही गदेरा सौंग नदी का उदगम है.वह कहती हैं, “इसमें पीने लायक पानी भी नहीं बचा था.”

सहमे गांव

पौड़ी और टिहरी में मध्य हिमालयी क्षेत्र से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र तक लोग उत्तराखंड में बदलते मौसम का असर झेल रहे हैं. सात फ़रवरी को हिमस्खलन की भारी आपदा झेलने वाला चमोली के जोशीमठ का रैणी गांव अब भी सहमा हुआ है. गांव के प्रधान भवन सिंह राणा बताते हैं, “इस बार जनवरी में पहले जैसी बर्फ़ नहीं गिरी और मई में गर्मी नहीं पड़ी. 21-22 मई को दो दिन लगातार बारिश के बाद ऋषिगंगा का जलस्तर फिर बढ़ गया था. हमारा पूरा गांव खतरे में पड़ गया. फरवरी की आपदा के बाद हमारे घरों में दरारें पड़ गई हैं. 22 मई को जब तेज़ बारिश हुई तो हम सारे गांव वाले डर के मारे जंगल की ओर भाग गए. हमें लगा कि हमारे घर इस बारिश को नहीं झेल पाएंगे.”

वह आगे कहते हैं, “हर जगह बादल फट रहे हैं. ऐसा पहले भी होता था लेकिन अब बहुत ज्यादा हो रहा है.”

दर-बदर

पिथौरागढ़ के बंगापानी विकासखंड का तल्ला मोरी गांव वर्ष 2020 में भारी बारिश-भूस्खलन से आई आपदा में पूरी तरह तबाह हो गया था. यहां रह रहे 26 परिवारों में से आधे का पुनर्वास हो गया है. गांव के प्रधान नारायण सिंह टोलिया बताते हैं, “बचे हुए परिवारों के लिए ज़मीन की तलाश की जा रही है.”

नारायाण सिंह के परिवार को नज़दीक ही मल्ला मोरी गांव में जगह मिली. वह बताते हैं, “हमें 12 मुठ्ठी (16 मुठ्ठी का एक नाली, 20 नाली का एक एकड़) ज़मीन मिली है. हमारे पास गाय-भैंस हैं लेकिन अब खेती नहीं रह गई है. तल्ला मोरी हमारा पैतृक गांव था. वहां हमारे खेतों पर मलबा बिछ गया.”

असामान्य मौसम

पिछले वर्ष 2020 में मानसून के बाद से ही उत्तराखंड में मौसम सामान्य नहीं रहा. देहरादून मौसम विज्ञान केंद्र के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2020 में अक्टूबर से दिसंबर के बीच राज्य में सामान्य (60.5 मिलीमीटर) से 71% कम मात्र 17.8 मिमी बारिश दर्ज की गई. वर्ष 2019 में अक्टूबर-दिसंबर के बीच 114.2 मिमी बारिश हुई थी. 2018 में 25.5, 2017 में 21.3 और 2016 में 16.2 मिमी बारिश रिकॉर्ड की गई.

जनवरी-फरवरी 2021 में सामान्य (101.4 मिमी.) से 56% कम 44.5 मिमी. बारिश रिकॉर्ड की गई. सर्दियों से उलट, प्री-मानसून सीजन में 1 मार्च से 17 मई तक उत्तराखंड में सामान्य (126.3 मिमी.) से 11 प्रतिशत अधिक 140.8% बारिश हुई है.

देहरादून मौसम विज्ञान केंद्र के मुक्तेश्वर मौसम केंद्र के आंकड़े

उत्तराखंड में सर्दियों और प्री-मानसून में हुई बारिश (मिमी. में)

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग-आईएमडी ने भी 1901 से 2021 तक के जनवरी-फरवरी के तापमान से जुड़े आंकड़ों की पड़ताल की. इसमें बताया गया कि न्यूनतम और औसत तापमान के लिहाज से पिछले 121 वर्षों में जनवरी-2021 तीसरा सबसे गर्म और फ़रवरी दूसरा सबसे गर्म महीना रहा.

उत्तराखंड में मई महीने में बादल फ़टने की 8 से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं

आपदा दर आपदा

इस वर्ष 7 फ़रवरी को चमोली में हुए हिमस्खलन को भी वैज्ञानिकों ने ग्लेशियर पर बढ़ती गर्मी का असर बताया है. इस हादसे में 204 लोग लापता हुए हैं. 15 मई तक 83 शव और 36 मानव अंग बरामद किए जा सके. ग्लेशियर पर बनी झील अब भी निचले इलाकों के लिए दहशत की वजह बनी हुई है. फिर 23 अप्रैल को चमोली के सुमना क्षेत्र में भी ग्लेशियर टूटने से अब तक 15 शव बरामद किए जा चुके हैं.

मई की शुरुआत बादल फटने की घटनाओं से हुईं. चमोली, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, टिहरी, देहरादून और नैनीताल में एक के बाद एक बादल फटने की घटनाओं से गांव के घरों और खेतों को भारी नुकसान पहुंचा.

बेमौसम धधकते जंगलों ने भी यहां जलवायु परिवर्तन के संकेत दिए. मार्च के महीने में 913 हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़े. जबकि चरम गर्मियों का समय माना जाने वाला मई के महीने में अपेक्षाकृत कम 433.66 हेक्टेयर जंगल तक आग की लपटें पहुंची.

उत्तराखंड वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इस वर्ष आग से 1 जनवरी से 25 मई तक 3967 हेक्टेयर जंगल जले. इनके अलावा 222 हेक्टेयर पौधरोपण क्षेत्र भी इसकी चपेट में आया. 51,224 पेड़ पूरी तरह जले. आठ लोगों की मौत हुई. 29 वन्यजीव भी आग की चपेट में आकर मारे गए. रुपयों में इसका आंकलन एक करोड़ 64 हज़ार से अधिक किया गया है. इसमें पर्यावरण और जैव-विविधता को हुआ नुकसान शामिल नहीं है.

बदलती आबोहवा का असर

मौसमी घटनाओं के लिहाज़ से उत्तराखंड के लिए ये वर्ष अब तक अधिक चुनौतियों वाला रहा है. लेकिन राज्य में पिछले कुछ वर्षों में मौसमी बदलाव का स्थानीय लोगों के जीवन और आजीविका पर साफ़तौर पर असर दिख रहा है. जलवायु परिवर्तन की इन चुनौतियों का सामना करने के लिए भी स्थानीय लोगों ने पारंपरिक खेती छोड़ कैश क्रॉप पर भरोसा जताया है.

वर्ष 1997 से 2018 के बीच राज्य में अनाज उत्पादन का क्षेत्र 2.48 लाख हेक्टेयर कम हुआ, ग्राफिक्स- इंडिया डाटा पोर्टल

केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1997-98 में राज्य में 1,045,220 हेक्टेयर क्षेत्र में अनाज उगाए जाते थे. जबकि 22,330 हेक्टेयर में दालें और 2,606 हेक्टेयर क्षेत्र में सब्जियां उगाई जाती थीं.

वर्ष 2017-18 में अनाज उत्पादन 845,172 हेक्टेयर क्षेत्र तक सीमित रह गया. जबकि 81,686 हेक्टेयर क्षेत्र में दालें और 15,720 हेक्टेअर में सब्जियां उगायी जाने लगीं. यानी अनाज उत्पादन का क्षेत्र 2,00,048 हेक्टेयर तक घट गया. वहीं दालें और सब्जियों के क्षेत्रफल में बढ़ोतरी हुई है.

उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षेण 2018-19 के आंकड़ों के मुताबिक भी वर्ष 2000 में राज्य का कुल कृषि क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेअर था. जो घटकर 6.91 लाख हेक्टेयर रह गया. बंजर ज़मीन की मुश्किल हल करने के लिए ही वर्ष 2020 में उत्तराखंड सरकार ने खेती की ज़मीन भी लीज पर देने का फ़ैसला किया.

भविष्य की चुनौतियां

अप्रैल 2021 में आई द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (टेरी) और पॉट्सडैम इंस्टीय्टूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (पिक) की रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते 2021 से 2050 के बीच उत्तराखंड के तापमान में 1.6-1.9 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़त हो सकती है. जिसका असर खेती के साथ पर्वतीय लोगों के जीवन पर पड़ेगा.

इस रिपोर्ट के मुताबिक यदि हम वैश्विक तापमान में हो रही बढ़ोतरी को दो डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित नहीं रख सकते तो हमें इससे होने वाली चुनौतियों के लिए तैयार रहना होगा.

पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट से जुड़े पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा कहते हैं, “हम जलवायु परिवर्तन की जिन चुनौतियों की बात कर रहे हैं, स्थिति उससे ज्यादा खराब हो रही है. राज्य के लोगों पर मौसम की मार तो पड़ ही रही है. उसे झेलने के लिए जरूरी तैयारियां और इंतज़ाम नहीं हो रहे. सरकार इन चुनौतियों का सामना करने में सक्षम नहीं हैं, न ही वे सामाजिक संस्थाओं की मदद या सलाह ले रहे हैं.”

(यह रिपोर्ट न्यूज़लॉन्ड्री और इंडिया डाटा पोर्टल की साझा फेलोशिप के तहत की गई है. इसमें इंडिया डाटा पोर्टल के विस्तृत आंकड़ों की मदद ली गई है.)

Also Read: क्लाइमेट फ्रेंडली कृषि तकनीक से कमाल कर रही हजारों साल पुरानी बोंडा जनजाति

Also Read: कोरोना काल में सरकार की नाकामी बनी गरीबों की परेशानी