Report
जम्मू-कश्मीर: संवाद और लोकतंत्र बहाली की दिशा में ताज़ा बयार
महीने भर से चल रही तमाम अटकलें अब किसी निष्कर्ष पर पहुंचती नज़र आ रही हैं. कश्मीर में चुनाव या राज्य के दर्जे की बहाली या कुछ और? इसे तय करने के लिए धारा 370 के खात्मे के 22 महीनों बाद राज्य के तमाम राजनैतिक दलों के साथ केंद्र सरकार 24 जून को एक बैठक आयोजित करने जा रही है. इसकी पुष्टि कई राजनैतिक दलों के नेताओं ने कर दी है और केंद्र सरकार के इस कदम का स्वागत भी किया है.
केंद्र सरकार क्या वाकई इस बात का एहसास कर चुकी है कि एक राज्य को लंबे समय तक इस तरह बंधक बना कर नहीं रखा जा सकता? एक राज्य के नागरिकों को उनके नागरिक और मानवाधिकारों से अब और वंचित नहीं रखा जा सकता? इस निर्णय तक पहुंचने में क्या केंद्र सकरार पर अंतरराष्ट्रीय दबाव हैं या यह सब एक संघीय ढांचे के लिए जरूरी पहल के तौर पर किया जा रहा है? इन सभी मौजूं सवालों के जबाव हालांकि 24 जून के बाद स्पष्ट होंगे लेकिन इतना तो तय है कि यह एक अविवेकी निर्णय और प्रोपेगेंडा के तहत उठाए गए कदम की समीक्षा से प्रेरित है.
भारत जैसे देश के लिए यह अच्छा संकेत होगा अगर केंद्र सरकार वाकई अपने पिछले कदम की आत्मालोचना कर रही है? इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए? लेकिन जिसे राजनीति में ‘जेसचर’ (gesture) कहते हैं उस लिहाज से केंद्र सरकार और भाजपा इतना आसानी से अपने सबसे बड़ी कार्यवाहियों और उपलबधियों में शुमार इस कदम के प्रति इस कदर नरम होगी, ऐसा मान लेना बहुत मुश्किल है.
कश्मीर इस देश में राष्ट्रवाद का ईधन है. चूंकि शेष हिंदुस्तान में और विशेष रूप से उत्तर भारत में कोरोना महामारी के प्रति केंद्र सरकार व भाजपा नीत राज्य सरकारों के आपराधिक व अमानवीय कुप्रबंधन से इस सरकार और पार्टी की छवि अकल्पनीय ढंग से खराब हुई है और इसका पुनर्निर्माण करने के लिए आवश्यक काबिलियत और सलाहियत इस पार्टी की सरकारों में नहीं है. कोरोना के कुप्रबंधन से हताश हुई ‘अपनी जनता’ को राष्ट्रवाद का ‘बूस्टर’ लगाने के लिए भाजपा की आईटी सेल द्वारा सोशल मीडिया पर संभावित बहु-वैकल्पिक कार्यवाहियों के संदेश घूमने लगे. इन संदेशों में कश्मीर और कश्मीर में बसे मुस्लिम नागरिकों को पुन: उत्पीड़ित किए जाने की अतृप्त कुंठा से लबरेज उपाय बताए जाने लगे. यह कई-कई बार दोहराए जा चुके और सफल रहे प्रयोगों की एक और आवृत्ति मानी गयी. हालांकि जो लोग भाजपा और इसके संकीर्ण, कुंठाग्रस्त और साम्प्रादायिक राष्ट्रवाद से वाकिफ हैं वो भली भांति यह जानते हैं कि इस सरकार के पास अपनी असफलताओं को छिपाने और लोगों का ध्यान इन असफलताओं से भटकाने की अंतिम शरण स्थली कश्मीर ही है.
व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया माध्यमों पर प्रसारित इन संदेशों में जैसे यह कहा जाने लगा कि निराश न हों, केंद्र सरकार आपकी भावनाओं के मद्देनजर कश्मीर को फिर से कई टुकड़ों में बांटने जा रही है. अब यह घाटी मुस्लिम बाहुल्य नहीं रहेगी बल्कि यहां हिंदुओं का प्रभुत्व कायम होगा. यह भी कहा जाने लगा कि जम्मू क्षेत्र को बजाफ़्ता एक पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाएगा और कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया जाएगा. एक खबर यह भी चली कि कश्मीर के तहत विधानसभा के निर्वाचन की सीटों का परिसीमन इस तरह किया जाएगा कि कश्मीरी मुस्लिम यहां जीत कर आ ही न सकें या आयें भी तो विधानसभा में उनका बर्चस्व न बचे.
इन तमाम अटकलों को तब और बल मिला जब जम्मू कश्मीर के प्रशासक मनोज सिन्हा दिली आए और देश के गृहमंत्री के साथ लंबी मंत्रणा की. उधर कश्मीर से भी इस तरह की खबरें आने लगीं कि वहां ट्रूप्स की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. हालांकि कोरोना के कारण कर्फ़्यू और सामान्य नागरिक आवा- जाही वैसे भी बहुत प्रतिबंधित रही लेकिन सेना की तादात बढ़ने के बारे में कश्मीरियों के मन में किसी संभावित अनिष्ट की शंकाओं ने जन्म तो लिया ज़रूर.
खैर, इन अटकलों को फिलवक्त के लिए विराम देते हुए सबकी निगाहें 24 जून को होने वाली इस बैठक पर है. इस बैठक में क्या हो सकता है?
जम्मू-कश्मीर में चुनाव तो होंगे इसमें किसी को संदेह नहीं है. नए परिसीमन के आधार पर होंगे यह भी लगभग तय है. मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों की भरपाई के लिए हिंदुस्तान के लोकतन्त्र में चुनाव एक औषधि है. चुनाव ही लोकतन्त्र है और यही मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों से रिक्त नागरिक -देहों पर लोकतंत्र का गहना भी है. चुनाव से सरकारों या उन शक्तियों का कुछ बिगड़ता नहीं है जो इस नव -उदारवाद में हम नागरिकों की नियति लिखती हैं अन्यथा सरकारें चुनावों के प्रति इतनी आश्वस्त नहीं होतीं. लेकिन चुनाव लोकतंत्र के लिए एक अनिवार्य व्यवस्था है. इसलिए चुनावों को लेकर किसी भी राजनैतिक दल की भूमिका हमेशा सकारात्मक ही होगी इसमें कोई दो मत नहीं हैं.
कश्मीर के दो प्रमुख राजनैतिक दलों, नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी के लिए चुनाव संजीवनी साबित होंगे क्योंकि उन्हें इससे एक नयी तरह की प्रासंगिकता मुहैया होगी. 370 के बाद जो बर्ताव और व्यवहार इन दो दलों और इनके प्रमुख नेताओं के साथ हुआ और जिस तरह से इन्हें कश्मीरियों की उपेक्षा हासिल हुई है यह कायदे से इन पार्टियों के लिए सबसे बड़ा सदमा माना गया. इससे उबरने में और विकल्पहीनता की स्थिति में चुनाव होना इन्हें पुनर्जीवन देगा. इसलिए यह कयास लगाने के लिए मुकम्मल आधार मिलते हैं कि ये दोनों दल इस बैठक में चुनाव के लिए अगर पूछा जाता है तो अपनी हामी भरेंगे.
8 मार्च 2020 को वजूद में आयी अलताफ़ बुखारी के नेतृत्व वाली ‘अपनी पार्टी’ और सज्जाद लोन के नेतृत्व में पीपुल्स कांग्रेस पार्टी के बारे में कश्मीरी भी जानते हैं कि ये भाजपा की परछाई हैं. इनके साथ संकट ये है कि इन्हें कश्मीरियों का दिल भी जीते रखना है और केंद्र सरकार व भाजपा की सरपरस्ती में भी रहना है अत: इनके लिए भी चुनाव एक ऐसा लोकतांत्रिक आवरण होगा जिससे मार्फत ये अपने इस मौलिक द्वंद्व को एक सकारात्मक अंजाम दे सकते हैं. कश्मीर में हाल ही में हुए पंचायत और बीडीसी के चुनावों में भाजपा को जो भी सफलता मिली है उसमें इन दलों की दूर से ही सही लेकिन फैसलाकुन भूमिका रही है. जिसके बारे में कश्मीर में चर्चा होती है.
परिसीमन एक ऐसा सवाल है जहां मामला समझौते और सौदों पर जा सकता है. कश्मीर की जनांकिकी (demography) एक बार नहीं कई-कई बार बदलने की कोशिश हुई है. इस परिसीमन में भी उसी इरादे के लिए ठोस ज़मीन तैयार करने की कोशिश भाजपा और केंद्र सरकार द्वारा की जा सकती है. इसे लेकर कश्मीर के राजनैतिक दलों का रुख क्या होगा कहना कठिन है लेकिन अपनी प्रासंगिकता बचाए रखने के लिए संभव है कि समझौते और सौदे में से ही किसी एक विकल्प को चुना जाये.
जम्मू -क्षेत्र के प्रायोजित दबदबे को लेकर जो कयास लगाए जा रहे हैं उनमें सच्चाई जान पड़ती है क्योंकि दिलचस्प ढंग से जम्मू की आवाम जिनमें डोंगरा और हिन्दू समाज, धारा 370 के हटने के बाद से खुद को ज़्यादा छला हुआ पा रहे हैं. इसकी वजह ये है कि संसाधनों पर हमला इस क्षेत्र में इन 22 महीनों में ज़्यादा बढ़ा है और 35 ए महज़ कश्मीरियों को ही नहीं बल्कि जम्मू क्षेत्र के लोगों के लिए सबसे बड़ा सुरक्षा कवच था. हिन्दी मीडिया में दिखलाई जाने वाली खबरों से इतर अगर जम्मू के बाशिंदों की बातों को कान लगाकर सुनें तो वह कहते आ रहे हैं कि इससे उन्हें नुकसान होगा और बल्कि कश्मीरियों से भी ज़्यादा.
इसलिए इन 22 महीनों में केंद्र सरकार ने इनके तुष्टीकरण की दिशा में कई ऐसे कदम उठाए हैं जिससे इन्हें एक भरोसा मिले कि केंद्र सरकार कश्मीरियों से ज़्यादा इनके लिए प्रतिबद्ध है. मामला चाहे कश्मीर के प्रशासन में जम्मू के लोगों की बड़े पैमाने पर नियुक्तियों, तबादलों की हो या उन्हें बड़ी और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दिये जाने का हो बल्कि इसके बरक्स प्रशासन में कश्मीरियों की घनघोर उपेक्षा और उनकी निगरानी रखे जाने को ज़्यादा तवज्जो दी है. लेकिन इससे भी केंद्र के प्रत्यक्ष नियंत्रण में होने के कारण जम्मू-क्षेत्र के बाशिंदों की चिंताएं कम नहीं हुईं बल्कि व्यावहारिक कारणों से कश्मीर घाटी में 35 ए के हटने के उतने गंभीर दुष्परिणाम नहीं दिखे जितने जम्मू क्षेत्र में.
धारा 370 और 35 ए को जिस तरह से खत्म किया गया उसकी आलोचना पूरी दुनिया में हुई है और देश की सर्वोच्च अदालत के संज्ञान में भी इस मामले को लाया गया है जिसमें हालांकि 22 महीनों बाद भी कोई प्रगति नहीं हुई है लेकिन केंद्र सरकार के इस फैसले और तमाम नागरिक विरोधी कार्यवाहियों को लेकर सवाल तो बने हुए हैं. इसके अलावा जो वादे और दावे केंद्र सरकार ने संसद में इस कार्यवाही के समर्थन में किए थे उनका भी दम इन 22 महीनों में निकल गया है.
भाजपा और केंद्र सरकार ज़रूर इसमें कामयाब रही है कि एक विधायिका या प्रशासनिक इकाई के तौर पर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में चल रहे अंतर समुदाय द्वन्द्वों का राजनैतिक लाभ या माइलेज लिया और सालों से जम्मू-कश्मीर की मुख्य धारा से कटे कई समुदायों को यह उम्मीद दिखलाई कि उन्हें भी निर्णायक और सम्मानजनक प्रतिनिधित्व इस भूगोल की राजनीति में हासिल होगा.
उम्मीद, जैसा हर मोर्चे पर इस सरकार ने साबित किया है कि यह महज़ एक शब्द है यहां भी 22 महीनों में यही साबित हुआ. राजनैतिक नेतृत्व और प्रतिनिधित्व का नए सिरे से निर्माण करने की उत्कट अभिलाषा और उसके अनुरूप एकतरफा कार्यवाहियों का हासिल हालांकि भाजपा के पक्ष मे सीमित अर्थों में रहा लेकिन इन समुदायों को वाकई कुछ हासिल नहीं हुआ.
ऐसे समुदायों में गुज्जर, बकरबाल या चौपन जैसे जंगलों पर आश्रित पशुपालक समुदायों को धारा 370 हटने से होने वाले फायदों को लेकर केंद्र सरकार ने अपनी तरफ लिया था. इन 22 महीनों में ये समुदाय खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं. जिस गवर्नेंस, नागरिक सहभागिता और आर्थिक लाभ व नागरिक सेवाओं को इन तक पहुंचना था और जिसका तसब्बुर इन समुदायों को था वो पूरी तरह विफल रहा है. एक अन्य रिपोर्ट में इसका तबसिरा तफसील से किया गया था कि कश्मीर के इन समुदायों को धारा 370 के खात्मे के बाद क्या हासिल हुआ. इस रिपोर्ट में यह बात ज़ाहिर हुई थी कि इन्हें नयी व्यवस्था में लाभ के वजाय नुकसान ही ज़्यादा हुए हैं. एक अस्मिता या पहचान की राजनीति और उसके बूते उभर रहे नेतृत्व को लेकर ज़रूर एक आश्वस्ति मिलती है लेकिन इस नेतृत्व के लक्ष्य बहुत सीमित हैं और नज़र संकीर्ण इसलिए इसके उभार से भी व्यापक भूगोल में कोई स्थायी या सकारात्मक बदलाव होंगे यह मानना हालांकि जल्दबाज़ी है लेकिन उद्देश्यों में सीमित किसी भी नेतृत्व का यही हश्र हमने इतिहास में देखा है.
अब सवाल है कि क्या केंद्र सरकार अपनी विफलताओं और अहंकार से भरे फैसले पर पुनर्विचार करेगी और जम्मू-कश्मीर को पुन: राज्य के रूप में पुनर्गठित करेगी? क्या जम्मू -कश्मीर (और लद्दाख) को पुन: इसका पुराना विशेष दर्जा दिया जाएगा? कश्मीर में छोटे और बड़े तमाम समुदाय एक मजबूत इतिहास बोध के वारिस हैं और उसके प्रति बेहद संवेदनशील हैं. इस इतिहास बोध में उनकी अपनी सांस्कृतिक विरासत और जीवन मूल्यों को लेकर चेतना का व्यापक असर है. और यही वजह रही कि न केवल कश्मीर घाटी के कश्मीरी मुस्लिम समुदायों ने इस भूगोल में बाहरियों को लेकर संकोच किया बल्कि जम्मू क्षेत्र के हिन्दू और डोंगरा समुदाय ने भी यही रुख अपनाया और लद्दाख में बसे बौद्धों ने भी. यही वजह रही कि आपस में शायद इनके अंतर्द्वंद्व कितने भी गहरे हों, धारा 370 और 35 ए को सभी समुदायों ने एक बड़े सुरक्षा कवच के तौर पर देखा है. 35 ए के न होने से इन सभी समुदायों ने एक तरह से यह सुरक्षा कवच खोया है जिसे लेकर आंतरिक असंतोष व्याप्त है.
हाल ही में केंद्र सरकार ने केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में 100 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित की हैं जिसे भी इसी विशेष दर्जे की विशेष मांग की दिशा में देखा जा रहा है. संभव है यही मांग अन्य दो क्षेत्रों जम्मू व कश्मीर की तरफ से भी आए.
हालांकि राज्य का दर्जा वापिस देने का वचन देश के गृहमंत्री ने बार बार दोहराया है लेकिन इसमें धारा 370 के तहत आरक्षित विशेष दर्जे की बात नहीं है बल्कि इसका आशय एक अन्य पूर्ण राज्य के गठन तक ही सीमित है. यह अटकलें हालांकि लगाईं जा रहीं हैं कि धारा 370 के वजाय धारा 371 के प्रावधान वहां लागू किए जा सकते हैं. जिसके तहत पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह सांस्कृतिक और विशेष जरूरतों के लिए विशेष प्रावधान किए जा सकते हैं.
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि जम्मू कश्मीर के राजनैतिक दल जो इस बैठक में शामिल होंगे क्या वाकई वहां की आवाम की ख़्वाहिशों का प्रतिनिधित्व करेंगे? खुद गृहमंत्री और प्रधानमंत्री इस बैठक में उन दलों के समूह के साथ किस उदारता से बात कर पाएंगे जिसे पार्टियों के एलायंस के बदले ‘गैंग’ के नाम से बदनाम किया जाता रहा और खुद इस समूह यानी ‘गुपकर एलायंस’ के नेता कितनी सहजता से इस बैठक में अपने अवाम की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करेंगे?
अंतरराष्ट्रीय दबाव और व्यावहारिक समाधान तलाशने की जद्दोजहद केंद्र सरकार के इस कदम की पूर्वपीठिका भले हो लेकिन अनुमान यही हैं कि इन 22 महीनों में कश्मीर के राजनैतिक दलों और उनके नेताओं के तेवर कमजोर पड़े हैं जिसका वास्तविक आंकलन केंद्र सरकार के अधीन तमाम ‘स्वायत्त संस्थाओं’ ने कर लिए हैं।
(यह लेख कश्मीर के स्थानीय पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के इनपुट्स के आधार पर लिखा गया है.)
Also Read: जब कार्टूनिस्ट देश के लिए ख़तरा बन जाए
Also Read
-
How Jane Street played the Indian stock market as many retail investors bled
-
BJP govt thinks outdoor air purifiers can clean Delhi air, but data doesn’t back official claim
-
India’s Pak strategy needs a 2025 update
-
The Thackerays are back on stage. But will the script sell in 2025 Mumbai?
-
July 10, 2025: Aaj Ka AQI from NDMC office