Opinion

क्या उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन कानूनों का इस्तेमाल अनियंत्रित रेत खनन के लिए हो रहा है?

नवंबर 2020 में बाढ़ के द्वारा उत्तराखंड में तबाही लाने से पहले, टनकपुर जिले में स्थित पूर्णागिरि के डेप्युटी कलेक्टर ने चंपावत के गांव में नदीतल से गाद हटाने के टेंडरों की खुली नीलामी की घोषणा की थी.

आमतौर पर सरकार के टेंडर कम से कम बोली लगाने वाले को ढूंढते हैं, ऐसा ठेकेदार जो सबसे कम कीमत पर काम करने को तैयार हो. लेकिन इस मामले में टेंडर सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को मिला. ऐसा इसलिए क्योंकि आम टेंडरों की तरह यह टेंडर केवल काम का अनुबंध ही नहीं, बल्कि खनन के द्वारा निकाले जाने वाले अनुमानित 51,183 टन रेत, मलबे और चट्टानों को भवन-निर्माण क्षेत्र में बेचने के अधिकार के लिए भी था. यह टेंडर, 31 जनवरी 2020 से राज्य के जिला प्रशासनों के द्वारा निकाले गए कई टेंडरों में से एक था जिन्हें सरकार की रिवर ट्रेनिंग नीति के अंतर्गत जारी किया गया था.

यह नीति उत्तराखंड की नदियों को "ट्रेन" करने की पद्धति निर्धारित करती है, जिसमें नदीतल के बिल्कुल बीच में से गाद, कंकड़ और रेत का खनन कर इसे अंजाम दिया जाएगा. यह नीति कहती है कि इस प्रकार गाद हटाने की वजह से, नदी का बहाव अपने मध्य की तरफ और तटों से दूर रहेगा. नीति के अनुसार ऐसा करने से हम, "नदी के किनारों के कटान को रोक पाएंगे, जिससे जान माल के नुकसान से बचा जा सकेगा."

दूसरे शब्दों में, यह नीति नदी तल से रेत और चट्टानों के खनन को बिना किसी रोक-टोक और कोई भी खनन या पर्यावरण कानून का पालन किए बिना करने की मंजूरी देती है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह नीति, जिला प्रशासन को आपदा प्रबंधन कानून 2005 के अंतर्गत नदी से गाद हटाने के अधिकार की नीलामी व्यक्तिगत ठेकेदारों को करने को कहती है. यह अधिकार नदी के खास हिस्सों में हैं और यह चार महीने की वैधता देते हैं.

आपदा प्रबंधन कानून जिलाधिकारियों को अपने क्षेत्र में आपदा को रोकने के लिए कदम उठाने के अधिकार देता है. लेकिन इस बात का रत्ती भर भी सबूत नहीं कि इस प्रकार गाद हटाने से आपदा रुक सकती है, हालांकि होता बिल्कुल विपरीत है. सरकार के मंजूरी देने के आंकड़ों का डेटाबेस, वन और पर्यावरण परिवर्तन मंत्रालय या एमओईएफ से रिवर ट्रेनिंग कामों के लिए कोई मंजूरी नहीं दिखाता और इसके साथ ही साथ पर्यावरण मंत्रालय के द्वारा 2020 में जारी की गई रेत खनन के दिशा निर्देशों का भी कोई पालन नहीं दिखाई पड़ता.

आपदा को रोकने के रूप में खनन?

उत्तराखंड में नदियों का घना जाल है और इसी वजह से यह वैध और अवैध रूप से किए जाने वाले रेत और पत्थरों के खनन का केंद्र बिंदु है. यह रेट और चट्टान भवन निर्माण की जगहों पर पहुंचाए जाते हैं जो कि 2,000 करोड रुपए सालाना का धंधा है. राज्य में, ताकतवर खनन माफिया के द्वारा किए जाने वाले अवैध खनन के खिलाफ आंदोलन का इतिहास रहा है, जिनमें खनन करने वाले लोग और राजनेता शामिल होते हैं.

उत्तराखंड सरकार ने पहली रिवर ट्रेनिंग नीति 2016 में जारी की थी, जब राज्य में अवैध रूप से बेरोकटोक होने वाले रेत के खनन को लेकर चिंताएं बढ़ रहीं थीं.

यह नीति नदी तल पर लागू होती थी जहां पर रेत और चट्टानों के खनन के लिए कोई पट्टा नहीं अधिसूचित हुआ. नीति कहती थी कि नदियों में से गाद हटाने का काम लोगों से ही कराया जाए और मशीनों का इस्तेमाल केवल विशिष्ट मामलों में ही हो. इसमें खनन करने वालों को पानी के तल से एक मीटर नीचे तक खुदाई करने की इजाजत थी, लेकिन खनन को हर तट से 100 मीटर पहले तक सीमित रखने और श्मशान घाट जैसे सामाजिक स्थलों से पहले या आगे के बहाव में भी खनन की इजाजत नहीं थी. इन अनुबंधों से सरकार के द्वारा कमाए गए राजस्व में से 20 प्रतिशत, रिवर ट्रेनिंग, वन और वन्य जीवन सुरक्षा तथा स्थानीय सड़कों को दोबारा बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाना था.

राज्य ने 2020 में इस नीति में परिवर्तन किया जिनमें से मुख्य पर्यावरण सुरक्षा में दी गई ढील थी. नई नीति बड़ी मशीनों के इस्तेमाल की इजाजत देती थी, और उसने ठेकेदारों को नदी की चौड़ाई को नजरअंदाज करते हुए आधी चौड़ाई तक को खोदने की इजाजत दे दी थी.

राजस्व में से 20 प्रतिशत को अलग रखने की आवश्यकता को गायब कर दिया गया और सामाजिक स्थलों के आसपास के इलाके में खनन करने की रोक को हटा लिया गया.

नीति निजी ठेकेदारों को प्राथमिकता देती थी. खनन के द्वारा मिली हुई सामग्री किसी सरकारी संस्था को गैर व्यापारी काम में इस्तेमाल करने के लिए तभी मिलती है, जब किसी भी निजी क्षेत्र के व्यक्ति की उसमें कोई रुचि नहीं दिखाई पड़ती.

2020 की नीति में इस साल 19 जनवरी को बदलाव किया गया, जिसके अंतर्गत और भी ज्यादा टेंडर जारी किए गए हैं लेकिन नई नीति को अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है.

शंकाएं हैं कि रिवर ट्रेनिंग नीति केवल नदी तल पर खनन करने में सहायक है और इसका आपदाओं को रोक पाने की क्षमता का कोई सबूत नहीं है. राज्य में बाढ़ सुरक्षा, आपदा प्रबंधन, राज्य आपदा प्रबंधन विभाग और राज्य में बाढ़ रोकने के लिए प्रस्तावों को मंजूरी देने वाली तकनीकी सलाहकार कमेटी के होते हुए भी, यह नीति उद्योग विकास विभाग की खनन इकाई ने जारी की जिसकी वजह से चिंताएं और गहरी हुई हैं.

संवाददाता ने नीति के बारे में विस्तृत प्रश्न उत्तराखंड के मुख्यमंत्री कार्यालय, उद्योग विकास विभाग की भूगर्भ और खनन इकाई के निदेशक और वनों के प्रिंसिपल चीफ कंजरवेटर को भेजे. किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया.

उनसे पूछा गया था कि क्या कोई ऐसा अध्ययन हुआ है जिससे यह पता चलता हो कि बहती हुई नदी में गाद होने की वजह से बाढ़ आई हो, तथा क्या इस नीति के अंदर खनन करने वालों ने पर्यावरण मंजूरी ली थी? और क्या व कैसे, आपदा प्रबंधन को खनन करने वालों के द्वारा व्यापार और मुनाफा दिलाने के बहाने की तरह इस्तेमाल किया गया.

आपदा प्रबंधन कानून के अंतर्गत निःसंदेह राज्यों को आपदा से बचाव के लिए आवश्यक कदम उठाने का अधिकार है. यह नीति एक कमेटी को बनाने का प्रावधान रखती है जो यह पहचान करेगा कि नदी में जो भी अतिरिक्त गाद हो, क्या वह खतरा पैदा करती है, और उन स्थानों को चिन्हित करके इकट्ठा हुई सामग्री की जांच परख हो.

वरिष्ठ पर्यावरण वकील ऋत्विक दत्ता पूछते हैं, "कुछ तो आंकलन होगा जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अगर रेत और चट्टाने नहीं हटाई गईं तो आपदा आ जाएगी. लेकिन क्योंकि प्रकृति बिल्कुल विपरीत तरीके से काम करती है- असल में रेत व चट्टानें पानी के वेग को कम करके एक प्रकार से बाढ़ आने से बचाव करती हैं. उनका यह काम प्रकृति के द्वारा निर्धारित है. वह अध्ययन और आंकलन कहां है जो यह दिखाता है की नदियों में रेत और चट्टानों की मौजूदगी आपदा को जन्म देगी?"

2021 में ही केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के द्वारा बनाई गई मित्तल कमेटी ने यह पाया था कि गाद हटाने की प्रक्रिया को सतत रूप से नहीं चलाया जा सकता. एमओईएफ द्वारा 2016 में जारी की गई सस्टेनेबल सैंड माइनिंग गाइडलाइंस यह भी उल्लेखित करती है कि नदियों से गाद हटाना एक सतत रूप से न दोहराए जाने वाली प्रक्रिया है और आने वाली बाढ़ों के के स्तर पर इसका बहुत कम समय तक असर पड़ता है. इससे आने वाले खतरे को सरसरी तौर पर कम किया जा सकता है. गाइडलाइंस कहती हैं- "नदी में गाद हटाने की सलाह कहीं-कहीं कुछ खास जगहों पर मॉडल का अध्ययन कर दी जा सकती है. अगर उसे आर्थिक और तकनीकी तौर पर बनाने लायक माना जाता है."

2008 में जारी हुई राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की बाढ़ को मैनेज करने में लिप्त दिशानिर्देशों के अनुसार, जहां नदी पर्वतों से निकलती है, संकरे मोड़ों और भविष्य में किसी झील या समुद्र में गिरने वाले स्थान पर भी, गाद का इकट्ठा होना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है. प्राधिकरण कहता है, "बहुत सी कमेटियां और विशेषज्ञ जिन्हें इस परेशानी की जांच करने के लिए रखा गया था. उन्होंने नदियों के गाद हटाए जाने को नदी के लिए एक औपचारिक कदम मानने से इनकार किया था", लेकिन कुछ चुनी हुई जगहों पर ऐसा करना "परेशानी को स्थानीय स्तर पर उतार कर उनका सामना करना बिल्कुल अपनाया जा सकता है."

प्राकृतिक सुरक्षाओं की नजरअंदाज़गी

पर्यावरण सुरक्षा कानून 1986 के अंदर नदियों से रेत, चट्टानें, और मलबे को हटाने के लिए पर्यावरण से जुड़ी हुई मंजूरियां चाहिए. 2012 में उच्चतम न्यायालय ने नदियों के खनन के सभी ठेकों को पर्यावरण रूपी मंजूरी लेने का आदेश दिया था चाहे आप कहीं भी रहते हों. यह प्रक्रिया 2016 में एनवायरमेंट इंपैक्ट एसेसमेंट नोटिफिकेशन में एक संशोधन की तरह शामिल कर ली गई. अगर खनन किए जाने वाला नदी का हिस्सा जंगलों से होकर जाता है तो ठेकेदार को वन संरक्षण कानून 1980 या एफसीए के हिसाब से वन विभाग से अतिरिक्त मंजूरी लेनी पड़ेगी.

लेकिन दस्तावेज बताते हैं कि उत्तराखंड सरकार ने रेलवे ट्रेनिंग करारों के लिए, न पर्यावरण और न ही वन विभाग मंज़ूरियों की इच्छा की है.

जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था तभी से बेनाप ज़मीनें, अर्थात अभी तक मनाती हुई ना चयनित की गई वह जमीन और उसके अलावा बाकी उजड़े हुए इलाके सभी भारतीय वन्य कानून 1927 के अंदर संरक्षित वनों में आते हैं. इन जमीनों का वर्गीकरण 1893 के नोटिफिकेशन के बाद हुआ जिसे 1997 के एक आदेश में भी दोहराया गया. 1997 का आदेश स्पष्ट करता है कि सभी वैध वनों के ऊपर एफसीए लागू होता है.

नदी के तट अक्सर बेनाप ज़मीनें होती हैं और इसीलिए उन्हें संरक्षित वनों की तरह गिना जाता है. एफसीए के अंतर्गत राज्य सरकारों के ऊपर ऐसे किसी भी आदेश को पारित करने की रोक लगी हुई है जो केंद्र सरकार की मंजूरी के बिना वन्य भूमि को गैर वन्य इस्तेमाल के लिए मंजूरी दे. कोई भी गतिविधि जैसे संरक्षित वन भूमि पर खनन को भी एफसीए के अंतर्गत वन्य क्षेत्र से जुड़ी मंजूरियां लेनी पड़ेंगी.

2019 में एमओईएफ स्पष्ट किया कि नदी तट से पत्थर और रेट का हटाया जाना गैर वन्य गतिविधि है और राज्य सरकार के द्वारा पारित किये गए खेतों को वन विभाग से मंजूरी लेनी होगी. लेकिन वनों से जुड़ी मंजूरी देने वाले विभाग के सार्वजनिक दस्तावेज दिखाते हैं कि उत्तराखंड ने नदियों के खनन की मंजूरी के लिए तभी आवेदन किया, जब नदी में खनन का कुछ इलाका "संरक्षित वन" की श्रेणी के इलाके से जाता था.

इतना ही नहीं उत्तराखंड के खनन करार, जनवरी 2020 में पर्यावरण मंत्रालय के द्वारा जारी किए गए एनफोर्समेंट एंड मॉनिटरिंग गाइडलाइंस फॉर सैंड माइनिंग में दिए गए मानकों को भी नजरअंदाज करते हैं और यह राज्य के द्वारा रिवर ट्रेनिंग नीति पर पुनर्विचार के चार दिन पहले था. दिशानिर्देश कहते हैं कि रेत खनन के लिए पर्यावरण मंजूरी उन्हें ही मिले जिन्हें राज्यों के द्वारा निर्धारित की गई उचित विशेषज्ञता वाले विभाग से खनन की योजना पर मंजूरी मिल गई हो, तथा काम चालू होने के बाद खनन योजना में कोई भी परिवर्तन को फिर से उचित विभाग से मंजूरी लेनी होगी. लेकिन क्योंकि रिवर ट्रेनिंग के कामों को खनन के करार की तरह नहीं देखा जा रहा, उन्हें इन मानकों पर खरा उतरने की आवश्यकता नहीं है.

रिवर ट्रेनिंग नीति के अंतर्गत हुए खनन को जनता का आक्रोश झेलना पड़ा है. लोग इस बेरोकटोक खनन को देखते हुए यह बात कहने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं कि इसकी वजह से नदी किनारे उनकी जमीनें कटान के खतरे में आ गई हैं. पूरे राज्य से रिवर माइनिंग टेंडरों को लेकर भ्रष्टाचार की खबरें आती रही हैं. एक याचिका कमोबेश इन शब्दों में कहती है कि राज्य भारी मशीनों से अवैध खनन को इजाजत नदी तट को चैनेलाइज करने की आड़ में रिवर्ट ट्रेनिंग नीति के चारों कोनों के अंदर ही हो रहा है.

मार्च 2020 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सरयू नदी में मशीनी खनन पर रोक लगा दी जब एक याचिकाकर्ता ने यह तर्क पेश किया कि भारी मशीनों का इस्तेमाल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगा.‌ इस प्रकार की चिंताओं की परवाह न करते हुए, राज्य सरकार ने रिवर ट्रेनिंग में खनन के करार को जारी करना चालू रखा है, जिसमें महामारी को रोकने के लिए लगाए गए राष्ट्रीय लॉकडाउन का समय शामिल है.

Also Read: केदारनाथ आपदा के 8 साल: इसी तरह नज़रअंदाज़ किया गया तो नई आपदाओं का ही रास्ता खुलेगा

Also Read: अलीगढ़ शराब कांड: “मेरे लिए अब हमेशा रात है”