Maharashtra Coronavirus

महाराष्ट्र: विधवा मजदूर, कोविड और मुकादम

कोविड- 19 की महामारी ने जहां पूरे देश में त्राहि-त्राहि मचा दी है वहीं कुछ पहले से ही शोषित वर्गों को इस महामारी ने माली तौर पर इतना नुकसान पहुंचाया कि उनको एक वक़्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पा रही है. ऐसा ही एक शोषित वर्ग है महाराष्ट्र के बीड की रहने वालीं गन्ना काटने, और मजदूरी करने वालीं एकल महिलाएं. कोविड-19 की इन विधवा महिलाओं पर ऐसी मार पड़ी है कि इनकी स्थिति बद से बदतर हो चुकी है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने बीड के देहात के इलाकों में जब कुछ ऐसी ही महिलाओं से बात की तो गरीबी, भूखमरी, लाचारी और शोषण की हैरान करने वाली कहानियों का पता चला.

कच्ची ज़मीन पर टीन की चादरों से बना एक 100 स्क्वायर फ़िट का कमरा, जिसमें अंदर रस्सियों पर गंदे मैले कपडे टंगे हुए हैं. टीन की दीवार पर एक बर्तन टांगने का टूटा स्टैंड टिका है, एक बंद पड़ी घड़ी, एक कोने में बच्चों के खेलने वाली पुरानी पंचर फुटबॉल पड़ी हुई है और एक तरफ डलिया में कुछ बासी भाकरियां हैं. यह नज़ारा बीड जिले के टुकड़ेगांव में रहने वाली 25 साल की निकिता उमप के घर का है जहां वह अपने चार बच्चों के साथ रहती हैं.

निकिता उमप अपने बच्चो के साथ

निकिता 12 साल की उम्र से ही अपने परिवार की साथी के साथ गन्ना काटने जाती थीं. वह पहले अपने पति शंकर के साथ जोड़हिंगनी गांव में रहती थीं जहां दोनों पति पत्नी हर साल गन्ना काटने जाया करते थे.

वह कहती हैं, "पिछले साल की दो जुलाई को मेरे पति सुबह-सुबह तैयार होकर जोड़हिंगनी में ही गन्ना काटने जा ही रहे थे कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनकी वहीं मौत हो गयी. मैंने, मेरे पति, मेरी सास, ससुर और ननद ने अक्टूबर 2019 से लेकर अप्रैल 2020 तक गन्ना काटने के लिए मुकादम से दो लाख की उचल (पेशगी) ली थी. लेकिन मुकादम कह रहा था कि हमने एक लाख का ही काम किया है और अगले साल बचे हुए एक लाख चुकाने के लिए हमें सात महीने मुफ्त में काम करना पड़ेगा. मेरे पति की मृत्यु के बाद मैं अपने चार बच्चों को लेकर, अपने ससुर के साथ मुकदम के एक लाख रूपये चुकाने के लिए वापस गन्ना काटने गयी थी. अक्टूबर 2020 से लेकर अप्रैल तक हमने गन्ना काटा लेकिन मुकादम अब कहता है कि हमने सिर्फ 30 हजार का ही काम किया है और मुझे उसे 70 हजार रूपए लौटाने पड़ेंगे."

अप्रैल के महीने में गन्ने की कटाई खत्म करने बाद निकिता जोड़हिंगनी में अपने पति का घर छोड़कर कर बच्चों को लेकर अपने पैतृक गांव टुकड़ेगांव आ गयी थीं, वह कहती हैं, "मेरे पति की मृत्यु के बाद मेरी सास की भी मृत्यु हो गयी थी. उसके बाद मेरे ससुर का आचरण मेरी तरफ बहुत गलत था. वो गन्दी-गन्दी बातें करते थे. कभी कभार मजदूरी करके जो पैसे मिलते थे वह पैसे भी ले लेते थे. इसलिए मैं वापस अपने गांव लौट आयी."

गौरतलब है कि निकिता के मां-बाप भी गुज़र चुके हैं, वह अपने चचरे भाई के घर के बगल में अब टीन की चादरों का घर बना कर रहती हैं. वह कहती हैं, "जब यहां लौटी तो सोचा था कि मजदूरी करके के जो पैसे मिलेंगे उससे अपना घर चला लूंगी. लेकिन फिर लॉकडाउन लग गया अब कोई मजदूरी भी नहीं मिलती है."

निकिता से बातचीत के दौरान गांव की एक महिला कहती हैं, "त्याला आई नाही आहे, बाप नाही आहे, पति मरुन गेला, कोणी जेवायला बोलते तर ती जेवते नाही तर असस उपाशी राहते (उसकी मां नहीं है, पिता नहीं है, पति की मौत हो चुकी है, कोई बोलता है तो वो खाती है, नहीं तो भूखे ही बैठी रहती है)."

अपने घर में डलिया में पड़ी बासी भाकरी दिखाते हुए निकिता कहती है, "यह दो दिन पुरानी भाकरी है अभी एक दिन और चलाना है इन्हें, भाकरी और चटनी खाते हैं रोज़ हफ्ते में एक बार कोई सब्ज़ी बना लेते हैं. अभी पिछले हफ्ते एक दिन बड़ी मुश्किल से मजदूरी मिल गयी थी. 150 रूपये मिले थे तो बच्चों के लिए दूध, पुंगे और वेफर ले आयी थी. वैसे मेरे रिश्तेदार और गांव के लोग अच्छे हैं बच्चों को कुछ न कुछ खिलाते रहते हैं. लेकिन अगर काम मिलता रहता तो मुझे किसी पर निर्भर नहीं होना पड़ता."

वह आगे कहती हैं, "अभी चार दिन पहले घर पर मुकादम आया था. वह कह रहा था या तो मेरे पैसे लौटा या फिर अपने बच्चों को लेकर मेरे साथ चल. मैं कहां से पैसे लाऊं, सात महीने 18-20 घंटे काम करने के बावजूद वह कह रहा है कि मैंने सिर्फ 30 हजार रुपए का ही काम किया है. मुझे कटाई का मौसम शुरू होने के बाद जाना ही पड़ेगा वरना वो मुझे छोड़ेगा नहीं."

राजेवाड़ी गांव में सविता काले अपने बच्चों के साथ

राजेवाड़ी की रहने वाली 27 साल की सविता काले भी गन्ना कटाई का काम करती हैं और अपनी तीन छोटी बच्चियों के साथ रहती हैं. तीन साल पहले शमेरवाड़ी, कर्नाटक के एक कारखाने में गन्ना काटते समय उनके पति चक्कर खाकर गिर गए थे और अस्पताल ले जाने पर उनकी मौत हो गयी थी. वह कहती हैं, "पति के इलाज के लिए मुकादम से डेढ़ लाख रूपये लिए थे. चार महीने बाद मैं उधार चुकाने के लिए फिर से गन्ना काटने कर्नाटक गयी थी. जब मैं खेतों में गन्ना काट रही थी तो मेरे डेढ़ साल का बच्चा वहीं खेल रहा था. खेलते खेलते वह एक ट्रेक्टर के नीचे आ गया था और उसकी भी मृत्यु हो गयी थी."

पिछले साल सविता ने मुकादम से 65 हजार रुपए की उचल ली थी. अक्टूबर 2020 से लेकर अप्रैल 2021 तक उन्होंने काम किया था लेकिन मुक़दाम कहता है कि उन्होंने सिर्फ 30 हजार रुपए की मजदूरी का ही गन्ना काटा है. वह कहती हैं, "दस दिन पहले मुक़दाम घर आया था. वह कह रहा था कि मैं अगले साल के लिए उससे उचल उठाऊं या तो उसके 30 हजार रुपए लौटाऊं. अगर मैं उससे उचल ले लेती थी तो उन पैसो में से 30 हजार रुपए काट देता. मैंने उससे कह दिया कि मेरे पास पैसे नहीं हैं."

वह बताती हैं, "जब कोरोना नहीं था तो घर लौटाने के बाद खेतों में मजदूरी मिल जाती थी. लेकिन लॉकडाउन के चलते कोई मजदूरी नहीं देता है. अगर 10 दिन में एक बार मजदूरी मिल भी जाती है तो बहुत छुप-छुप के जाना पड़ता है. मेरी तीन छोटी बच्चियां उनको भी खाना खिलाना होता है, दूध पिलाना होता है. हफ्ते के तीन दिन मुझे किसी ना किसी से घर चलाने के लिए 100-200 रुपए उधार लेने ही पड़ते हैं. बच्चों के लिए कभी कुछ ख़ास ज़रूरत पड़ जाए तो मैंने 400 रूपये बचा के रखे हैं. वो पैसे मैंने अपने पिता से लिए हैं."

वह आगे कहती हैं, "राशन की दुकान से 15 किलो गेहूं और आठ किलो चावल पिछले महीने खरीदा था 70 रूपये देकर. लेकिन सिर्फ गेहूं और चावल से ही घर नहीं चलता है. घर में कभी-कभी साबुन तक नहीं रहता है. दूध नहीं रहता है. महाराष्ट्र सरकार राशन तक मुफ्त में नहीं बांटती. सरकार को कम से कम हमारे जैसे लोगों को साबुन, तेल, चावल, वगैरह की किट तो देनी चाहिए. हफ्ते में कम से कम एक दिन ऐसा होता है जब हम भूखे सोते हैं. बच्चे भूख से रोते हैं, तो उधार मांगने जाती हूं, अगर मिल जाता है तो कुछ लेकर आती हू वरना प्यार से या डांट -फटकार के उन्हें सुला देती हूं. लेकिन हर बार उधार मांगने में अपमान लगता है, इसलिए कभी-कभी भूखे सो जाते हैं."

वहीं ताड़सोन्ना गांव की 20 साल की प्रगति मिसाल पिछले साल अपने पति जयदेव के साथ माज़लगांव में नवंबर के महीने में गन्ना काटने गयी थीं. उन्होंने एक लाख रूपये की मुकादम से उचल ली थी. लेकिन 15 दिन बाद खेत में गन्ना काटते हुए उनके पति बेहोश हो गए थे. उनको अस्पताल ले जाया गया लेकिन उनकी मृत्यु हो गयी. मुकादम अब उनसे पैसे लौटाने के लिए कह रहा है.

प्रगति मिसाल अपने बच्चे के साथ

प्रगति कहती हैं, "वो पैसे मेरे ससुर के पास गए थे लेकिन मुकादम मुझसे पैसे मांग रहा है. वह मेरे पिता पर पैसे लौटाने का दबाव बना रहा है. हफ्ता भर पहले मुकादम घर आया था वो मेरे पिता से कह रहा था कि वो अपनी आधा एकड़ ज़मीन बेच कर पैसे लौटाएं. ज़मीन तो हम नहीं बेचेंगे लेकिन अब मुझे, मेरे मां-बाप को, बहन को सबको गन्ना काटने जाना होगा."

प्रगति अब अपने मां-बाप के पास रहती हैं. उनके दो छोटे बच्चे हैं. वह कहती हैं, "मैं अपने पिता पर बोझ नहीं बनाना चाहती हूं. लॉकडाउन में हमारे पास बिलकुल भी पैसे नहीं थे. मजदूरी मिल नहीं रही है इसलिए 20 हजार रुपए की उधारी ली है घर चलाने के लिए. वो पैसे भी कुछ समय बाद ख़त्म हो जाएंगे. अगर तब भी काम नहीं मिला तो पता नहीं क्या होगा."

प्रगति के पिता बालू नामदेव कहते हैं, "महाराष्ट्र की सरकार सिर्फ अमीरों के लिए है, इनको गरीबों से कोई मतलब नहीं. इनको लगता है गेहूं चावल देकर गरीबों के प्रति इनकी ज़िम्मेदारी पूरी हो गयी. हम लोग पहले से ही गरीब हैं इस कोरोना के चलते हमारे घर और तबाह हो रहे हैं. सरकार इतनी निक्कमी है कि पिछले महीने चावल और गेहूं मुफ्त में बांटने का ऐलान किया था लेकिन अभी तक लोगों को मुफ्त राशन नहीं मिल रहा है."

बीड में एकल गन्ना काटने वाली महिलाओं के लिए काम करने वाले महिला अधिकार किसान मंच की मनीषा टोकले कहती हैं, "पिछले साल के मुकाबले इस साल प्रदेश सरकार बिलकुल भी संवेदनशील नहीं है. उन्हें पता ही नहीं है लोग कैसे जी रहे हैं, कैसे रह रहे हैं. प्रदेश सरकर ने कहा था कि मई और जून में वो गांवों में मुफ्त में राशन बाटेंगे, उन्होंने कुछ गांव में बांटा है लेकिन बहुत से गांव में नहीं बांटा. मुकादम कोविड में पेशगी नहीं दे रहे हैं वो कहते हैं अगर कोविड के चलते कोई मर गया तो वो पैसा किससे वसूल करेंगे. वो एकल महिलाएं पर फ़ोन करके उनके घर जाकर पैसे लौटाने का दबाव बना रहे हैं. पिछले साल सरकारी कंट्रोल वाले अगर राशन नहीं बांट रहे थे तो सरकार उन पर कार्यवाई कर रही थी लेकिन इस साल कुछ भी नहीं कर रही है. गांवों में परेशानी और घोर गरीबी में रह रहे हैं. परिवारों की सरकारी मुलाज़िमों के ज़रिये लिस्ट बनानी चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए. तलाठी, ग्राम सेवक, कृषि सेवक, आंगनवाड़ी सेविका, आशा वर्कर, पुलिस पाटिल आदि सरकारी मुलाज़िमों की बैठक लेकर उन्हें लोगों की मदद करने के लिए कहना चाहिए. यह इमरजेंसी का वक़्त है और इमरजेंसी में सरकार की ज़िम्मेदारी होती है कि वो अपने लोगों का ख्याल रखे."

न्यूज़लॉन्ड्री ने इस बारे में बीड के पालक मंत्री और महाराष्ट्र सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर धनंजय मुंढे से भी बात करने की कोशिश की लेकिन उनकी तरफ से अभी कोई जवाब मिला नहीं है. उनका जवाब मिलते ही इस कहानी में जोड़ दिया जाएगा.

वहीं न्यूज़लॉन्ड्री ने राज्य सरकार द्वारा स्थापित गोपीनाथ मुंढे ऊसतोड़ कामगार महामण्डल के अध्यक्ष केशव आंधळे से बात की तो वो कहते हैं, "मैं खुद इस मामले को देखूंगा कि उनको खाने पीने की क्या दिक्कतें हैं साथ ही साथ जो मुकादम उनको तंग कर रहे हैं उन पर भी उचित कार्रवाई करूंगा."

Also Read: "हम नहीं लगवाएंगे ज़हर का टीका": राजस्थान के गांव में फैला कोरोना टीके का खौफ

Also Read: तरुण तेजपाल: सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का सरकारी ट्विस्ट और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का गुस्सा