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'पक्ष'कारिता: निर्वस्त्र लाशों के लहलहाते खेत और नरसिम्हा राव का प्रेत
हमारा समाज भूलने वाला समाज है. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि भारतीय समाज चीज़ों को भुला देता है, गांठ नहीं बांधता. पहला वाक्य नकारात्मक ध्वनित होता है. दूसरा वाक्य सकारात्मक. समाजशास्त्री पहले वाक्य पर ज़ोर देते हैं, मीडिया दूसरे वाक्य पर. किसी भी हादसे के बाद "जिंदगी पटरी पर लौट आयी है", "बिज़नेस ऐज़ यूज़ुअल" जैसे रेडीमेड जुमले पत्रकारिता में बहुत पसंद किये जाते हैं. इस भूलने-भुलाने की भूलभुलैया में एक बड़ी दिक्कत नज़रिया तंग हो जाने से जुड़ी है. विस्मरण के चलते इतिहासबोध के अभाव में जब हम घटनाओं को स्वायत्त तरीके से तौलते हैं तो सही और गलत के फेर में कोई एक पाला चुनने को बाध्य हो जाते हैं. ये पाले सत्य का अंश हो सकते हैं, हमें भुलवाने के लिए खड़े किये गये भी हो सकते हैं. हम इस बात को पहचान नहीं पाते. बीते एक पखवाड़े से गंगा में बहती और गंगा किनारे की रेती पर बरामद लाशों के सम्बंध में सामने आयी खबरों पर जो बवाल तना है, वह भूलने और भुला देने वाले खांटी हिंदुस्तानी समाज का विद्रूप अक्स पेश करता है. विषय पर आने से पहले एक भुला दी गयी ऐतिहासिक घटना का जि़क्र करना ज़रूरी है.
बात 2004 की है- तारीख 23 दिसंबर, जब भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव का निधन हुआ था. उस समय तक छह दशक के हो चुके भारतीय लोकतंत्र में किसी शीर्ष नेता के शव की ऐसी दुर्गति नहीं हुई थी, जो तब देखने में आयी. दिल्ली में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से लेकर पार्टी में नरसिम्हा राव के निधन के बाद जो हुआ वह तो हलका अध्याय है, लेकिन जो हैदराबाद में उनके शव के साथ हुआ वह अगर इस समाज ने भुला दिया हो तो याद दिलाना ज़रूरी जान पड़ता है. नरसिम्हा राव का पार्थिव शरीर 24 दिसंबर को शाम 4.55 पर भारतीय वायुसेना के विमान से हैदराबाद एयरपोर्ट पहुंचा था. अगले दिन 25 दिसंबर की दोपहर पूरे राजकीय सम्मान के साथ हुसैन सागर झील के किनारे उनका दाह संस्कार हुआ. उनके बेटे रंगा राव ने मुखाग्नि दी. उसके बाद शव को जलता छोड़कर सभी चले गये. उस रात टीवी चैनलों पर अधजली लाश और उसके इर्द-गिर्द मंडराते कुत्तों के दृश्य प्रसारित हुए थे. नरसिम्हा राव पर लिखी विनय सीतापति की पुस्तक (पृष्ठ 119) ‘हाफ लायन’ में इस घटना का जि़क्र है.
राव के करीबी लोगों ने भले इस बात का खंडन किया, लेकिन अधजली लाश की तस्वीरें मीडिया में आ चुकी थीं. बाद में पता चलने पर अधजली लाश को फिर से फूंका गया. इस घटना के इर्द-गिर्द कई किंवदंतियां हैं, जिनमें एक बहुश्रुत ये है कि जिस ठेकेदार को अंतिम संस्कार का इंतज़ाम करने का जिम्मा दिया गया था उसकी लापरवाही के कारण यह घटना घटी थी. चूंकि ठेके पर कोई काम उठाने के बाद उसका मुकम्मल हो जाना स्वत: मान लिया जाता है, लिहाजा कोई भी वहां देखने के लिए नहीं रुका जब तक कि लाश पूरी जल जाती. आज से 30 साल पहले जिस शख्स ने इस देश, समाज और यहां के करोड़ों लोगों की जिंदगी को पहली बार निजीकरण और उदारीकरण के ठेकेदारों के सुपुर्द कर दिया था, उस का शिकार खुद उन्हीं का शव हो गया. जीते जी मुल्क को आवारा पूंजी की आग में झोंकने वाले पूर्व प्रधानमंत्री को मरने पर राजकीय सम्मान के बावजूद पूरी आग नसीब नहीं हो सकी. विनय सीतापति की पुस्तक की आखिरी पंक्ति पर गौर कीजिएगा- "उनकी अधजली देह अब भी धधक रही है."
निर्वस्त्र कौन हुआ?
नरसिम्हा राव की अंत्येष्टि को याद करते हुए क्या यह समझ में नहीं आता कि गंगा किनारे जो लाशें मिली हैं उनके पीछे की कहानी क्या रही होगी? सहज बुद्धि से फर्ज़ करिए कि किसी अस्पताल में कोविड से एक मौत होती है. शव परिवार के सुपुर्द करने का प्रावधान नहीं है. मौतें हर पल हो रही हैं. ऐसे में एक-एक लाश को ले जाकर जलाना संभव नहीं है. अस्पताल और पुलिस महकमे के कर्मचारी कुछ लाशों के इकट्ठा होने का इंतज़ार करते हैं, फिर एक अधिकारी अपने मातहत को उन्हें ठिकाने लगाने को कहता है. लाशों को बैच में ले जाया जाता है. अधिकारी ने थानेदार को कहा, थानेदार ने सिपाही को, सिपाही ने होमगार्ड को, होमगार्ड ने घाट पर डोम और पंडों को. ऊपर वाले बयाना देते गये, नीचे वाले लेते गये. अब व्यवस्था की पंक्ति में बचा आखिरी व्यक्ति और लाशें हैं. यह आखिरी व्यक्ति कोई भी हो सकता है- प्रशासन से भी और अकेला परिजन भी. वो व्यक्ति लाशों के साथ क्या करेगा? जलाएगा? लकड़ी कहां से लाएगा?
ऐसे में जो हो सकता था और जो हुआ है, उसकी एक तस्वीर एनडीटीवी के इस ताज़ा वीडियो में देख सकते हैं- घटना उत्तर प्रदेश के बलरामपुर की है जहां कोविड से मृत व्यक्ति की लाश को पुल से नीचे राप्ती नदी में फेंका जा रहा है. फेंकने वाले दोनों व्यक्ति मृतक के परिजन हैं, जिन्हें बाद में गिरफ्तार कर लिया गया.
बनारस के एक प्रशासनिक अधिकारी बता रहे थे कि एक लाश के दाह संस्कार के लिए 5000 रुपये का सरकारी प्रावधान किया गया था. यह धन जिसके अख्तियार में था उसी के पास रह गया क्योंकि न खर्च हुआ, न खर्च होने की सूरत आयी. बलिया के अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता बलवंत यादव लाशों को ठिकाने लगाये जाने का सूत्र कुछ इस तरह देते हैं, "पैसे की बचत, समय की बचत, बीमारी का डर." जिनके पास पैसे नहीं थे उनकी मजबूरी फिर भी समझी जा सकती है, लेकिन 20 अप्रैल से 10 मई के बीच अस्पतालों में ज्यादातर कोविड से हुई मौतों के मामले में जब शव परिजनों को नहीं सौंपे गये तो उन्हें ठिकाने लगाकर पैसे किसने बनाए? समय और मेहनत किसकी बची? जाहिर है, प्रशासन और व्यवस्था की पंक्ति में ऊपर से नीचे तक शामिल उन तमाम लोगों की, जिन्हें लाशों के निस्तारण का काम मिला था.
इस परिघटना का दूसरा पक्ष बिहार के अररिया की घटना में देखिए, नरसिम्हा राव की धधकती अधजली देह से उठता धुआं वहां साफ़ दिखेगा. मधुलता नाम के गांव के इस अंतिम संस्कार में गांव का कोई नहीं आया, लेकिन भोज में 150 लोग आ गये! वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र लिखते हैं, "इस कहानी ने हमें समझाया है कि हाल के वर्षों में हमारे गांवों का चरित्र बदल गया है. अब, जब कोई व्यक्ति या परिवार दुख या किसी समस्या में फंस जाता है, तो आमतौर पर कोई भी उनका समर्थन करने के लिए नहीं आता है. लोग अलग तरह से माफी मांगने लगे हैं. लेकिन जब उनके मुनाफे की बात आती है तो वे कोई भी जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं."
हमारे परंपरागत श्रमजीवी समाज में किसी के मरने पर उसे फूंकने के लिए न पैसे-लकड़ी की कमी होती थी, न लोगों के पास समय कम होता था. अररिया की घटना को पुष्य मित्र "अवसरवाद की बीमारी" बताते हैं, लेकिन मुनाफा के लिए जोखिम उठाना, समय बचाना, श्रम से बचना, गांव का चरित्र बदल जाना, ये सारे गुर उदारीकरण और निजीकरण के बाद आये बदलावों की निशानदेही करते हैं. गंगा किनारे पायी गयी लाशों पर बनारस के गंगा सेवा अभियानम् ने एक विस्तृत जांच रिपोर्ट प्रधानमंत्री मोदी को भेजी है जो कहती है कि "किसी ने पैसों के अभाव में शव गंगा में बहाए तो कुछ लोगों ने जान-बूझ कर बनारस के राजघाट पुल से शवों को ठिकाने लगा दिया." गाज़ीपुर के गहमर पुल से भी लाशों को रात के अंधेरे में नीचे फेंके जाने की सूचना है.
इसका लाभ सरकार को बैठे-बैठाए मिला- मौतों के आंकड़े अपने आप कम हो गये. अधिकारी बताते हैं कि जितनी मौतें सरकारी आंकड़ों में गिनवायी गयी हैं, उससे कम से कम दस गुना ज्यादा मौतें हुई हैं. यह दस गुना मोटामोटी 30 से 40 लाख के आसपास ठहरता है. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट सबसे बदतर हालत में कुल 42 लाख के आसपास मौतों की बात कहती है, जिसे सरकार ने एक सिरे से नकार दिया है. इसी बात को हिंदी के अखबार पहले दिन से अलग-अलग तरीके से कहते आ रहे हैं- पहले श्मशानों में जलती लाशों की संख्या के सहारे, फिर जारी किये गये मृत्यु प्रमाण पत्र की संख्या के सहारे (दिव्य भास्कर), फिर अखबारों में छपी रस्म-पगड़ी की सूचनाओं के माध्यम से. इतनी कवायद के बाद जब गंगा किनारे लाशों की तस्वीर अखबार दिखाने लगे- बक्सर से लेकर उन्नाव तक- तब जाकर प्रशासन को असल दिक्कत हुई क्योंकि आंकड़े में तो हेरफेर किया जा सकता है, तस्वीरों में नहीं. इलाहाबाद के श्रृंगवेरपुर और फाफामऊ घाट के किनारे उगी लाशों की लाल-पीली फसल को देखकर सरकार के होश उड़ गये. आनन-फानन में लाशों की निशानदेही करने वाली रंगीन चादर-चुनरी को ही खिंचवा लिया गया. अखबारों ने इसे भी रिपोर्ट कर दिया. हड़बड़ी में किये गये इस कृत्य ने सरकार को एक झटके में पूरी तरह निर्वस्त्र कर डाला.
दैनिक जागरण की ‘परंपरा’
इस संदर्भ में दैनिक जागरण का जिक्र अलग से किया जाना ज़रूरी है, जिसने लाशों को दफनाये जाने की ‘परंपरा’ का हवाला देते हुए उत्तर प्रदेश की सरकार को एक सुरक्षा कवच मुहैया करवा दिया और बिना कुछ सोचे-समझे मुख्यमंत्री कार्यालय ने जागरण की खबर को प्रमाण के रूप में न सिर्फ ट्वीट कर दिया, बल्कि केंद्र सरकार को दिये अपने स्पष्टीकरण में भी ‘परंपरा’ की ही दुहाई दी.
‘परंपरा’ का तर्क आते ही सारी बहस दो पाले में बंट गयी- एक वे थे जिन्होंने दावा किया कि ऐसी कोई परंपरा नहीं है और फेंकने या दफनाने से शवों का अपमान हुआ है; दूसरे वे थे जिनका कहना था कि मामला परंपरा का ही है. दोनों ओर अर्धसत्य था. दोनों ओर ऐसे दावों के पीछे की मंशा कुछ और रही. यह सच है कि न केवल जीवित परंपरा में बल्कि हिंदू धर्मग्रंथों में भी कुछ खास स्थितियों में शव को बहाने या दफनाने की बात कही गयी है. अंतिम संस्कार की विधियों में ऋग्वेद के श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र विभिन्न बातें कहते हैं और आगे चलकर मध्य एवं पश्चात्यकालीन युगों में ये विधियां और विस्तृत होती चली गयी हैं. निर्णयसिन्धु इस बारे में स्पष्ट कहता है कि अन्त्येष्टि हिंदू धर्म की प्रत्येक शाखा में भिन्न रूप से वर्णित है, लेकिन कुछ बातें सभी शाखाओं में एक-सी हैं.
"अन्त्य-कर्मों के विस्तार, अभाव एवं उपस्थिति के आधार पर सूत्रों, स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों के काल-क्रम-सम्बन्धी निष्कर्ष निकाले गये हैं, किन्तु ये निष्कर्ष बहुधा अनुमानों एवं वैयक्तिक भावनाओं पर ही आधारित हैं."
जाहिर है, परंपरा की दुहाई देकर व्यवस्था की विफलता को छुपा ले जाने की नाकाम कोशिश करने वाले दैनिक जागरण के मालिकान और सम्पादकों से लेकर उत्तर प्रदेश सरकार के कर्णधारों को धर्मग्रंथों के संदर्भ नहीं पता होंगे. धर्मग्रंथ तो छोडि़ए, बक्सर के एक सरकारी अधिकारी ने तो हिंदू धर्म में कुछ विशेष तबकों और श्रेणियों में लाशों को दफनाने की परंपरा को ही नकार दिया. बिलकुल यही बात उन लोगों पर लागू होती है जिन्होंने ‘परंपरा’ की अज्ञानता में संवेदना की दुहाई दी. फिर बात पुरानी तस्वीरों व वीडियो के सहारे अपना खूंटा गाड़ने तक आ गयी. दैनिक जागरण ने 2018 की एक तस्वीर बैनर बनाकर छाप दी और दावा किया कि तीन साल पहले भी घाटों पर लाशें ऐसे ही दफन थीं. दूसरे पाले में इसे फर्जी ठहराने की कवायद शुरू हो गयी. फिर मामला 2015 तक जा पहुंचा जब कुछ लाशें गंगा में दिखायी दी थीं और बीबीसी सहित कई मीडिया संस्थानों ने उसकी खबर चलायी थी. इस द्विभाजन के फेर में मौतों के आंकड़े में प्रशासन द्वारा की गयी हेराफेरी का मूल सवाल ही दब गया!
मानवीय त्रासदी के इस भयावह अध्याय में दैनिक जागरण ने विशुद्ध परंपरा की आड़ लेकर जो सरकार समर्थक और मानवरोधी नैरेटिव सेट किया, उसके प्रतिपक्ष में किसी भी हिंदी अखबार ने एक अदद बुनियादी सवाल नहीं पूछा कि महामारी के पीक के तीन हफ्तों में ही जनता को थोकभाव में परंपरा की याद क्यों आयी. चूंकि बहस का असली सिरा छूट चुका था, तो बहसप्रेमी हमारा हिंदी समाज हज़ारों लाशों से उछल कर हफ्ते भर के भीतर एक और फेंके गये जाल में फंस गया- एलोपैथी बनाम आयुर्वेद. यहां भी बीच की ज़मीन गायब रही, जबकि दोनों ही पाले में मूल सवाल बाज़ार और व्यापारिक हितों पर उठना चाहिए था, पद्धति पर नहीं. उत्तर प्रदेश की सत्ता को बचाने के लिए लाशों को दबाने का दैनिक जागरण से शुरू हुआ यह खेल रामदेव से होता हुआ अब केंद्र सरकार की ढाल बन चुका है. चलते-चलते इस ढाल की कुछ छवियां भी देख लेते हैं.
राव की विरासत का सवाल
कोवैक्सिन बनाने वाली कंपनी भारत बायोटेक ने 11 मई को दिल्ली सरकार के प्रमुख सचिव को भेजे एक पत्र में टीके की आपूर्ति में असमर्थता जताते हुए लिखा था, "हम सम्बंधित सरकारी अधिकारियों के निर्देशों के हिसाब से वैक्सीन को डिसपैच कर रहे हैं, इसलिए आपके द्वारा मांगी गयी अतिरिक्त आपूर्ति करने में खेद जताते हैं."
अब कुछ और तस्वीरें देखिए:
सरकारी अस्पताल में वैक्सीन का स्टॉक खत्म है, पांचसितारा होटल वैक्सीन पर्यटन करवा रहे हैं. ये तस्वीरें पिछले कुछ दिनों से ट्विटर पर खूब घूम रही हैं. वैक्सिनेशन घोटाला ट्विटर पर ट्रेंड कर चुका है. दिल्ली की सरकार ने इसका आरोप केंद्र सरकार पर लगाया है. उसे भेजे गये भारत बायोटेक के पत्र में "सरकारी अधिकारियों के निर्देश" की जो बात कही गयी है, क्या उसका आशय यही है? क्या सरकारी अस्पतालों को टीके से महरूम रख के पांचसितारा होटलों में वैक्सीन भेजी जा रही है? हम नहीं जानते, लेकिन जिन्होंने ऐसा ही एक सवाल सरकार से पूछा था वे तत्काल जेल में डाल दिये गये. केंद्र सरकार को सबसे पहले सार्वजनिक रूप से कठघरे में खड़ा करने वाले दिल्ली की सड़कों पर लगे ये पोस्टर हम नहीं भूले हैं.
सवाल परंपरा बनाम भ्रष्टाचार का है ही नहीं. लाशें लोगों ने परंपरावश भी फेंकी होंगी, मजबूरी के कारण भी, गरीबी के चलते भी, रोग के डर से भी. कई कारण हो सकते हैं. लाशें प्रशासन ने भी फिंकवायी हैं, अपनी काहिली और ठेकेदारी के चलते, जिसमें किसी काम के लिए कोई जिम्मेदार नहीं होता बल्कि ठेका ऊपर से नीचे बस हस्तांतरित कर दिया जाता है. प्रशासन ने फेंकी हुई लाशें जलवायी भी हैं. कोविड के पीक दौर में बहुत कुछ ऐसा हुआ है, जिसे हम किसी एक कारण में नहीं बांध सकते. दो पालों में नहीं बांट सकते. अनगिनत कहानियां हैं, विडम्बनाएं हैं. इसी तरह एलोपैथी बनाम आयुर्वेद का सवाल भी हमारे लिए फेंका गया एक चारा है.
असल कहानी नरसिम्हा राव की छोड़ी विरासत को बेपर्द होने से बचाने में छुपी है. निजीकरण और उदारीकरण की वो विरासत, जो बीते तीन दशक में इस देश के घर-घर तक ऐसे जड़ जमा चुकी है कि जनस्वास्थ्य ढांचे से लेकर परंपरा और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों पर बात करने वाले को पिछड़ा ठहरा दिया जाता है; वो विरासत, जो जिंदगी से लेकर मौत तक को आउटसोर्स करने की व्यवस्था में हमारा यकीन जगाती है, भले ही जिंदगी खतरे में पड़ जाय और मौत बदनाम हो जाय; वो विरासत, जो मुनाफे के फेर में आदमी को आदमी के खिलाफ खड़ा करती है- जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद भी!
इसी बीच डेढ़ महीने में हमने अखबारी पत्रकारिता का उत्कर्ष देखा है. अखबारों ने अगर लाशें नहीं दिखायी होतीं तो सरकार को उन पर से चादर नहीं खींचनी पड़ती. ये सच है. दूसरा सच ये भी है कि हमारे अखबारों की हद ज्यादा से ज्यादा बंदों की गिनती तक जाती है क्योंकि अल्लामा इकबाल के लिहाज से वे जम्हूरियत नाम की तर्ज-ए-हुकूमत में कड़ा भरोसा रखते हैं, चाहे राजा कोई भी हो. वे हमें निजीकरण और उदारीकरण के सामाजिक-सांस्कृतिक खतरे और परिणाम कभी नहीं बताएंगे क्योंकि उनकी जीवनरेखा उसी पर टिकी है, भले इस देश के लोग चिता के लिए लकड़ी जुटाने में ही मर-खप जाएं. वैसे भी, जिस देश में एक राष्ट्राध्यक्ष की अधजली लाश पर कुत्ते मंडरा सकते हैं वहां आम आदमी की क्या बिसात?
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