Opinion

महामारी के दौर में वैज्ञानिक दृष्टिकोण

रूपक हमें किसी भी बोध के लिए विशेषण सुझाते हैं. भारत बमुश्किल अभी भिखारियों, सपेरों, और राजाओं के देश के रूपक की केंचुली उतार ही पाया था, कि अब वो ताली, थाली और दिए से एक वायरस से लड़ने की सोचने वाले देश के रूपक में जकड़ गया. भारत की तमाम वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियां उस प्रतिछवि से ग्रस्त हो जाती हैं, गो-कोरोना-गो के चिल्लाने, और गोमूत्र एवं गोबर के सहारे महामारी से लड़ने के प्रयास उजागर होते हैं, वैसे तो समकालीन सरकार तमाम असफलताओं का श्रेय भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को देती है, परन्तु नेहरू ने भरसक प्रयास किये कि इस देश में वैज्ञानिक दृश्टिकोण पनपे, शायद इसीलिए, सरकार और उसकी मातृ-संस्था को नेहरू से सबसे ज़्यादा नफरत है. नेहरू के अनुसार वैज्ञानिक दृष्टिकोण केवल विज्ञान पढ़ने वालों की थाती नहीं है, वरन यह तो रोज़मर्रा का दर्शन है, जिसके तहत किसी भी ‘कथ्य’ को इस लिए सत्य की संज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि अमुक व्यक्ति द्वारा कही गयी है, उदाहरणतः एक योगगुरु, जो एक बड़े आयुर्वेद कॉर्पोरेट के बेनामी मालिक हैं, के अनुसार उन्होंने कोरोना को ‘निल’ (शून्य) करने की दवा बनायीं हैं, जो काफी कारगर हैं.

भारतीय मीडिया ने कोरोनावायरस उपचार में इसे सफलता के रूप में संदर्भित करते हुए एक टीवी शो चलाया. इस शो में योगगुरु ने कहा कि इस दवाई को "नियमानुसार नैदानिक (क्लिनिकल) परीक्षण करके विकसित किया गया है" और दावा किया कि यह "कोविड -19 का शत प्रतिशत इलाज है.” कोरोना को निल करने वाली इस दवा संबंधित दस्तावेज़ों और जारी की गई जानकारियों और आंकड़ों के आधार पर जब देश और विदेश के वैज्ञानिकों ने इसकी समीक्षा की तो पाया कि उनके सारे दावे औंधे मुंह गिर गए.

इसके बाद, भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने एक बयान जारी किया कि योगगुरु को प्रभावकारिता के प्रमाण के अभाव के कारण कोविड -19 के इलाज के रूप में दवा का विज्ञापन नहीं करने की हिदायत दी. देश की कई अदालतों में उनकी कंपनी के खिलाफ भ्रामक प्रचार के मुक़दमे भी दायर हुए. इसके बाद उन्होंने अपने शर्तिया इलाज के सारे दावें वापस ले लिए और इस दवा को प्रतिरक्षा तंत्र को बूस्ट करने वाला बता कर बेचना प्रारम्भ कर दिया.

वैज्ञानिकों का मानना है कि इनका ये भी दावा तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है. मीडिया के वर्गों के माध्यम से फैलाए जा रहे झूठ और अर्धसत्य, वास्तव में सोशल मीडिया के माध्यम से अधिक प्रभावी ढंग से फैलाये गए हैं. और अब ऐसी खबर आयी है, कि इसकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई है. अगर यह योगगुरु का कोई ‘मार्केटिंग स्टंट’ नहीं है, तो ये समाज के लिए एक चिंता का विषय है. अभी पिछले दिनों इन्हीं योगगुरु द्वारा एलोपैथी चिकित्सकों द्वारा दिए जा रहे कोरोना के इलाज को एक सिरे से गलत बताया जाना, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के विरोध का कारण बना. जब मेडिकल एसोसिएशन ने उन पर महामारी एक्ट में शिकायत दर्ज करने की बात की तो उन्होंने फट से माफ़ी मांग कर यह सफाई पेश कर दी, कि वे उस समय पर एक निजी सभा में बोल रहे थे.

भारतीय संविधान के नीति निर्देशकों का हिस्सा होने के बावजूद वैज्ञानिक दृष्टिकोण के पोषण से इतर राजनेताओं, अफसरों, यहां तक की अकादमिक जगत के प्रतिष्ठित संस्थानों में कार्यरत प्रोफेसरों की एक बड़ी संख्या है, जो अप्रमाणित और संभवतः हानिकारक मनगढ़ंत कहानियों में विश्वास क़रती है. इन जैसे ही बहुत से सरकार के सलाहकार भी बनते हैं. बदकिस्मती से हम वर्तमान सरकार के कई वरिष्ठ पदाधिकारियों के बीच वैज्ञानिक सोच की भारी कमी देख सकते हैं. मंत्रियों (यहां तक ​​कि स्वयं प्रधानमंत्री) ने प्राचीन काल में कृत्रिम गर्भाधान तकनीक और प्लास्टिक सर्जरी के इस्तेमाल का दावा किया था. तीन साल पहले, शिक्षा के प्रभारी मंत्री ने डार्विन के जैविक विकास के सिद्धांत पर आपत्ति जताई थी, और उन्होंने ने कहा था कि हमें इसे स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहिए.

एक अन्य मंत्री ने, जो उस समय विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विभाग संभाल रहे थे, ने दावा किया था, "वेदों में आइंस्टीन के दिए हुए सिद्धांतों की तुलना में वैज्ञानिक रूप से बेहतर सिद्धांत हैं." पिछले साल, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने कथित तौर पर गोमूत्र और गोबर के लाभों का अध्ययन करने के लिए अनुसंधान को निधि देने की पेशकश की थी, जबकि एक पूर्व सीएम ने दावा किया था, "गाय ही ब्रह्माण्ड में एकमात्र जानवर है, जो ऑक्सीजन ग्रहण करने के साथ-साथ उसे छोड़ता भी है."

इसी प्रकार एक अन्य राज्य मंत्री ने ‘भाभी जी के पापड़’ नाम का एक उत्पाद का उद्घाटन किया था, और उसे इम्युनिटी-बूस्टर बताया था. अभी पिछले माह भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा कोविड के खिलाफ गायत्री मन्त्र का जाप एवं प्राणायाम को एक चिकित्सा पद्धति की तरह इस्तेमाल करने के अनुसंधान के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, ऋषिकेश को अनुदान दिया गया, जिस पर सभी विज्ञान विषयों के विद्वानों ने अपनी असहमति प्रकट की.

तथ्य यह है कि हमारे कई राजनेता, नौकरशाह और वास्तव में वैज्ञानिक निजी तौर पर उन चीजों में विश्वास करते हैं जो स्पष्ट रूप से अवैज्ञानिक हैं, जब सारा अमला इनके हाथ में है, तो ऐसी व्यवस्था बन जाना कोई अनोखी बात नहीं है. एक प्रमुख वैज्ञानिक द्वारा सूर्य ग्रहण के बाद बचे हुए भोजन को दूषित मानने जैसी प्रसिद्ध घटना, कई लोगों के मन मस्तिष्क पर एक असमंजस वाला प्रभाव डाल सकती है. हालांकि, हमने पहले कभी भी आधिकारिक स्तर पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ-साथ फर्जी सिद्धांतों को बढ़ावा देने की ऐसी कोशिश नहीं देखी गयी. एक नेता ज्योतिषियों से सलाह ले सकता है, या ज्योतिष के हिसाब से अपनी चुनावी रणनीति तय कर सकता है. लेकिन यह खतरनाक, निराशापूर्ण, और आपत्तिजनक है जब वही नेता मंत्री बनने पर ज्योतिष को विज्ञान के रूप में बढ़ावा देता है. यह देश के लिए शुभ संकेत नहीं है. खासकर के तब जब हम विज्ञान जनित ज्ञान के उत्पादन में विश्व की महाशक्ति होने के बड़े-बड़े दावे करते नहीं थकते.

पिछले कुछ वर्षों में, जबकि हमने विज्ञान पर निरंतर हमले देखे हैं, जबकि यही अवैज्ञानिक लोग प्रौद्योगिकी की शक्ति को अपने हर कार्य में इस्तेमाल करने में विशवास रहते हैं. सभी सामाजिक समस्याओं के तकनीकी समाधान को बढ़ावा देने के साथ-साथ "नई और बेहतर" प्रौद्योगिकियों के आधार पर बेलगाम खपत को प्रोत्साहित करना और लोगों को विशुद्ध भौतिकवादी बनाना इनका मकसद है, क्योंकि ये बाजार में पूंजीवादियों को प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक है. इस प्रकार से इन अंधभक्तों का प्रौद्योगिकी में भरोसा और विज्ञान को नष्ट करना संभवतः एक दिलचस्प समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय हो सकता है.

इस प्रकार से वैज्ञानिक-विरोधी दृष्टिकोण को आधिकारिक स्वीकृति देने से हमारे समाज पर एक दीर्घकालिक प्रभाव निश्चित रूप से पड़ने वाला है, जिसके दुर्भाव आने वाले कुछ वर्षों में दिखाई देंगे. हालांकि, इस मौजूदा महामारी के संकट में भी, हमें इस बात का पूर्वावलोकन मिल रहा है, कि इस तरह की विश्वदृष्टि किस तरह की आपदा ला सकती है. जो प्रस्ताव वास्तव में विज्ञान पर आधारित नहीं होते हैं, उनका क्रियान्वयन हमेशा ही हानिकारक सिद्ध होता है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मूल में सत्य को स्वीकारना एवं उसका सामना करने का इच्छुक होना होता है. इसलिए, हमें इस महासंकट, इसके पैमाने, इसके प्रसार और इसकी गहराई का सच्चाई से सामना करना चाहिए.

विज्ञान और सच्चाई ही वह आधार है जिसका प्रयोग करके हम इस महासंकट से निपट सकते हैं, और यह सुनिश्चित कर सकते हैं, कि इसकी फिर से पुनरावृत्ति न हो. इसके बजाय जो हम जिसके गवाह बन रहे हैं, वह तथ्यों को स्वीकार करने की अनिच्छा का एक अद्भुत प्रदर्शन है. सटीक और सच्चा आंकड़ा, वह आधार होना चाहिए, जिसके आधार पर हम इस अभूतपूर्व संकट से निपटने के लिए सभी नीतिगत निर्णय ले सकें. लेकिन जो आकंड़ें सामने रखे जा रहे हैं, वह स्पष्ट रूप से उनकी सच्चाई संदिग्ध है. जब सामूहिक दाह संस्कार या ऑक्सीजन की कमी के कारण अस्पतालों के बाहर मरने वाले लोगों के वीडियो प्रसारित किए जाते हैं, तो कथित ‘आईटी सेल’ के स्वयंसेवक इसे फर्जी खबरें करार देते हैं.

यहां तक ​​की सोशल मीडिया पर ऑक्सीजन की अपील पर भी कथित तौर पर पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज की गई. हमारे वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों ने कई बार इस संकट के समय में ऐसी नीतियों का निर्माण किया, जो लोक-कल्याणकारी कम बल्कि लोगों में सरकार के प्रति अच्छी धारणा का निर्माण करने की चेष्टा ज़्यादा लगती है. उनमें से अधिकांश ने या तो चुप्पी साध ली और या तो संकट के बारे में सरकारी आख्यान को बिना एक ईमानदार पुनरावलोकन के ही प्रतिध्वनित किया है. कुछ बहादुर सलाहकारों, जिनमें झूठ का सामना करने और योजना और क्रियान्वयन में कमियों को इंगित करने का साहस और सत्यनिष्ठा है, उनको या तो दरकिनार कर दिया गया, और या तो उनसे इस्तीफे ले लिए गए.

उन्हीं कई लोगों में से एक भारत के नामी विषाणु वैज्ञानिक डॉ. शाहिद जमील का भारत सरकार द्वारा बनाये गए कोरोना वायरस के सिक्वेंसिंग कंसोर्टियम, जिसका लक्ष्य म्युटेशन से बनने वाले विषाणु के रूपों को पहचानना और उससे लड़ने के लिए नीति निर्धारण में मदद करना था, उनसे इस्तीफ़ा दे दिया जाना है. यह संकट अभूतपूर्व है, इसमें कोई संदेह नहीं है. स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की हमारी ऐतिहासिक उपेक्षा ने संकट को और भी भयावह बना दिया है. हालांकि, यह संकट के प्रति एक ठोस, वैज्ञानिक और तर्कसंगत प्रतिक्रिया की कमी है जिसने संकट को और भी ज़्यादा विनाशकारी बना दिया. वैज्ञानिक विरोधी और सत्तावादी मानसिकता का संयोजन एक घातक मिश्रण साबित हुआ, जिसकी कीमत आने वाले वर्षों में हम सभी को चुकानी पड़ सकती है.

इन अव्यवस्थाओं के बीच नेहरू का सुझाया हुआ वैज्ञानिक दृष्टिकोण कुछ अधिक ही सताता है, जब लोग इस विषाणु के संक्रमण को 5जी के परीक्षण का नतीजा बताने लगते हैं. अवलोकन, श्रेणीकरण, परीक्षण और विश्लेषण क्या इतने जटिल हो गए हैं, कि हम वैज्ञानिक ज्ञान और अवैज्ञानिक प्रोपेगेंडा के बीच अंतर कर पाने में खुद को असमर्थ महसूस कर रहे हैं. वैज्ञानिक दृष्टिकोण की पहली अनिवार्यता प्रश्न करने की स्वतंत्रता है, हालांकि प्रश्न करने वाले पहले ही राष्ट्रविरोधी करार दिए जा चुके हैं. नेहरू के दिए हुए वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर तार्किक बहस की कोई भी संभावना विलुप्त हो चुकी है, क्योंकि नेहरू का नाम लेते ही अवैज्ञानिक तर्क परंपरा के अनुसार लोग वितंड के लिए कश्मीर और कश्मीरी पंडितों का उदाहरण देने लगते हैं, अथवा नेहरू को बाबर का वंशज सिद्ध करने की कवायद में जुट जाते हैं. अब अज़ीम प्रेमजी के कहने के बाद शायद इस महामारी का मुकाबला वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किया जाये. गंगाजल से तो वायरस घुला नहीं, इस महामारी का इलाज तो विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के तहत लगातार हाथ धोते रहने, मास्क लगाने और दो गज़ की दूरी के अनुपालन से ही संभव है.

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