Ground Report

बस्तर में शांति के लिए आदिवासियों के साथ मेरी 11 दिन की पदयात्रा

पूर्व पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी न्यू पीस प्रोसेस इनीशिएटिव या एनपीपी के संयोजक हैं. वे आगे बढ़ती हुई महिलाओं और पुरुषों की एक कतार की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, "यह जन आंदोलन नहीं है, अभी तो यह आंदोलन भी नहीं है."

वे आगे कहते हैं, "लेकिन बात ऐसी है कि अगर हम तुरंत कुछ नहीं करेंगे तो अगले पांच सालों में, माओवादियों के बूढ़े होते नेतृत्व में से अधिकतर के गुज़र जाने के बाद जब हजारों हथियारबंद गुरिल्ला अलग-अलग कमांडरों की निजी सेनाओं में बदल जाएंगे, तो यह जगह अफगानिस्तान बन जाएगी. तब बात करने के लिए कोई बचेगा ही नहीं."

यह 13 मार्च की शाम थी और हम छत्तीसगढ़ में बस्तर डिवीजन में आने वाले कांकेर जिले के, छोटे से शहर अंतागढ़ से गुज़र रहे थे. यह इलाका उत्तर की ओर 80 किलोमीटर आगे भानुप्रतापपुर तक, पूरी तरह से माओवादियों के नियंत्रण में है. जुलूस में चल रहे लोगों का नेतृत्व कर रहे चौधरी कहते हैं, "माओवादियों का इस इलाके पर पूरा नियंत्रण है, यह उनका केंद्र है. हम यहां से प्रदेश की राजधानी रायपुर तक पैदल जाएंगे."

एनपीपी छत्तीसगढ़ के अंदर भारतीय गणराज्य और माओवादियों के बीच की लड़ाई में मारे गए लोगों का एक रजिस्टर बना रही है, गृह मंत्रालय के अनुसार पिछले दो दशकों में यहां करीब 12 हज़ार जाने जा चुकी हैं. यह जुलूस चौधरी के द्वारा प्रशासन और नक्सलियों, दोनों पर आपस में बैठकर शांति वार्ता के लिए जनता का दबाव बनाने का प्रयास था. गार्जियन अखबार में एक दशक से ऊपर रिपोर्टिंग कर के और बीबीसी की दक्षिण एशिया ब्यूरो में टीवी और रेडियो के प्रोड्यूसर रह चुके शुभ्रांशु चौधरी, पहले भी इस तरह के दो प्रयास कर चुके हैं. लेकिन यह उनका इलाके में शांति स्थापित करने के लिए जन सहमति बनाने का सबसे लंबा व सबसे अधिक महत्वाकांक्षी प्रयास था.

जब मैं बारछे नाम के गांव पहुंचकर जुलूस में चल रहे लोगों से मिला, तब तक वह दो दिन चल चुके थे. अपनी 220 किलोमीटर की पदयात्रा में यह लोग जंगलों और मैदानों, गांव और कस्बों में स्थानीय लोगों के साथ बातचीत करके और उनके लिए नाट्य प्रस्तुत करके, उनको माओवादियों और प्रशासन पर शांति वार्ता का दबाव बनाने के लिए राजी करने का लक्ष्य लेकर चले थे.

अगले 11 दिनों में उनके साथ चलते हुए मैंने जुलूस में चलने वाले (जिनमें से कई बस्तर से हैं और कुछ वह हैं जो इलाके में हिंसा की वजह से उसे छोड़ चुके हैं), स्थानीय आदिवासियों, विद्रोह से लड़ रहे सुरक्षाकर्मियों और एक माओवादी नेता जिसके नाम से लोग डरा करते थे, से बात की.

यह रिपोर्ट चौधरी और उनके साथ चलने वाले लोगों के सवालों के जवाब ढूंढने का एक प्रयास है- क्या हिंसा और टकराव से भरे बस्तर में कभी शांति संभव है? क्या माओवादी और प्रशासन एक दूसरे से बात करना भी चाहते हैं? क्या शांति का यह विचार उन परिवारों को पूर्णतः स्वीकार्य हो सकता है जो अब तक दोनों पक्षों द्वारा प्रताड़ित होते रहे हैं?

करीब 70 लोग जिनमें से अधिकतर बस्तर के आदिवासी थे, हाथ में भारत का झंडा लिए हुए एक लड़की के नेतृत्व में एक कतार में चले. उनमें से कुछ नंगे पैर ही थे और कुछ धन सिंह की तरह ऐसे थे जिन्होंने चप्पलें पहनी थीं. धन सिंह जुलूस में चलने वालों के चारों तरफ भंवरे की तरह मंडराते हुए, जुलूस का उद्देश्य समझाते हुए पीले कागज पर छपे पर्चे रास्ते में मिल रहे रेड़ी वालों, जिज्ञासा से देखने वालों और साइकिलों पर अपने अपने काम पर जा रहे लोगों को बांट रहे थे. सुबह-सुबह जुलूस के दिन की शुरुआत से लेकर दिन छपने के बाद उसके अंत तक, धन सिंह पर्चे ऐसे बांट रहे थे जैसे उनके लिए यह जिंदगी और मौत का सवाल हो.

धन सिंह माओवादियों के बारे में बताते हुए कहते हैं, "मैंने अपनी आंखों से देखा है कि हिंसा लोगों के साथ क्या कर सकती है. उन्होंने मेरे रिश्ते के भाई और मेरे दोस्त को सबके सामने गोली मार दी. वह मुझे भी मार देते लेकिन मैं नारायणपुर के अपने घर से भाग निकला." धन सिंह 2015 के आसपास तक स्थानीय पंचायत में पंच थे, जब माओवादियों ने स्थानीय चुने हुए प्रतिनिधियों को पुलिस का मुखबिर बताकर मारना शुरू कर दिया था.

पिछले साल दी गई अपनी प्रेस विज्ञप्ति में, माओवादियों ने 25 आम नागरिकों की हत्या और बड़ी संख्या में परिवारों को पुलिस की मदद करने वाला बताकर गांव छोड़कर जाने का हुक्म देने का बखान किया. अनुमान अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन पिछले दो दशकों में एक भी साल ऐसा नहीं गया है जब माओवादियों ने उन गांव वालों को सबके सामने नहीं मारा, जिन पर उन्हें पुलिस की मदद करने का शक था. मारने से पहले, वे सबके सामने उन लोगों पर अपनी जन अदालतों में, जो अदालत के नाम पर मखौल हैं, में मुकदमा चलाकर अभियुक्त घोषित करते थे. कई बार सबके सामने दी गई इन "सजा-ए-मौतों" का वीडियो रिकॉर्ड किया जाता है और उसे फिर स्थानीय आदिवासियों में डर फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

धन सिंह के घर छोड़ने के बाद के सालों में राज्य की पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों ने बस्तर में माओवादियों के प्रभाव को काफी कम कर दिया है, जो अब बीजापुर-सुकमा सीमा तक ही सीमित है. मैंने धन सिंह से पूछा कि माओवादियों की घटी हुई ताकत को देखते हुए, उन्हें खत्म करने के लिए एक बड़ी सशस्त्र कार्यवाही की जगह वे शांति वार्ता के लिए आंदोलन क्यों कर रहे हैं?

वे उत्तर देते हैं, "और आदिवासी मारे जाएंगे. यह बीहड़ इलाका है, आप उन्हें पूरी तरह समाप्त नहीं कर पाएंगे और एक बड़ा आक्रामक अभियान शुरू किया जाता है तो वह आसानी से दूसरी जगह भाग जाएंगे. लेकिन जो खून बहेगा उससे और माओवादी पैदा होंगे. और फिर आज की परिस्थिति में पुलिस और माओवादी दोनों ही आदिवासी हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन किसे मारता है, अंततः मरने वाला आदिवासी ही होगा."

चोड़ी सुरेश भी धन सिंह की तरह ही हिंसा और संघर्ष की वजह से विस्थापित हुए. 2005 में, जब सलवा जुडूम का आतंक चरम पर था, वह दंतेवाड़ा के अपने घर से आज के तेलंगाना के जंगलों में आ गए. सलवा जुडूम भारतीय प्रशासन कि माओवादियों से लड़ने के लिए तैयार किया गया, हिंसा के लिए कुख्यात सशस्त्र बल था. इसे 2011 में उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया था लेकिन तब तक उसका गैंग, सामूहिक हत्याएं सामूहिक बलात्कार और हजारों आदिवासियों को उनके घरों से अस्थाई कैंपों में पहुंचाने काम कर चुका था. चोड़ी सुरेश की तरह ही उनके गांव से कई परिवार उनके पीछे-पीछे तेलंगाना के जंगलों में आ गए.

धन सिंह का कहना है कि मारे जाने के डर से उन्हें अपने घर से भागना पड़ा

अगले कई दिनों में मैं बहुत से ऐसे लोगों से मिला जिन्हें हिंसा की वजह से मजबूरन अपना घर छोड़ना पड़ा. 250 विस्थापित लोगों की एक संस्था के अध्यक्ष, भानुप्रतापपुर के भुवन लाल भोयर जैसे लोग. भुवन बताते हैं कि वे शांति के लिए पदयात्रा क्यों कर रहे हैं, "पिछले 40 सालों से चल रही इस हिंसा में मरने वाले अधिकतर गांवों के लोग ही हैं. यह समाप्त होना चाहिए."

जुलूस के दिन, आदिवासी मंडली के द्वारा मंदरी पद्धति में रात में रुकने वाली जगह के स्थानीय लोगों के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाने से खत्म होते थे. जैसे ही जुलूस किसी बड़े गांव या कस्बे के पास पहुंचता, तो बस में यात्रा कर रही मंडली अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करने की सारी तैयारी कर जुलूस के साथ मिल जाती थी. मंडली में शामिल पुरुष काली कमीज़, पारंपरिक पीली धोती और अपने सर पर पंख लगाए रहते थे और महिलाएं काले ब्लाउज के साथ लाल साड़ी पहने रहती थीं. मंडली में ढोलक जैसा पारंपरिक वाद्य मंदर बजाने वाले, पूरी मंडली के आगे अपने पहुंचने की मुनादी करते हुए चलते थे और जुलूस में चलने वालों का उत्साह बढ़ाते थे. ढोल की हर थाप के साथ, कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे लोगों के लहराते हुए हाथों और पैरों का तारतम्य बढ़ता ही जाता था. देखने वालों के संकरी सड़कों के दोनों तरफ खड़े होने की वजह से, मानो ऐसा प्रतीत होता हो कि जुलूस में शामिल हम लोग, किसी नए मत के जुनूनी सैनिक हैं जो उनके कस्बे पर कब्जा करने की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन हमारा गंतव्य आमतौर पर स्थानीय बस स्टैंड या कोई सरकारी स्कूल होता था जहां पर रात को कार्यक्रम होना तय था. इस दौरान मंडली के कलाकारों को गांव या कस्बे के बाहर उतारने के बाद, उनकी बस इलाके में चक्कर लगा कर लाउडस्पीकर पर घोषणा करती थी कि चुनी हुई जगह पर, पहले कभी ना देखा हो ऐसा तमाशा स्थानीय लोगों का इंतजार कर रहा था.

बस्तर के आदिवासियों में बोले जाने वाली भाषा गोंडी में गायन के साथ होने वाला कार्यक्रम करीब दो घंटे तक चलता था. एक बहुत ही यादगार प्रस्तुति केउटी नामक गांव के एक स्कूल में प्रस्तुत की गई थी.

कार्यक्रम का मुख्य भाग एक नाटक था, जो यह समझाने के लिए रचा गया था कि बस्तर में चल रही अनवरत हिंसा इलाके के आदिवासियों के समूचे अस्तित्व के लिए ही खतरा है. नाट्य कुछ इस प्रकार था-

महिलाओं का एक समूह सरपंच के सामने गिड़गिड़ाता है कि पुलिस के द्वारा पकड़े गए उनके आदमियों को छोड़ दिया जाए. पुलिस के साथ किसी मामले के संपर्क में आने से ही डर से कांपता सरपंच, किसी तरह स्थानीय थाने पहुंचता है जहां तैनात अफसर से उसे केवल बुरा बर्ताव और गालियां ही मिलती हैं. अफसर आदिवासी पुरुषों से एक पुल को उड़ा देने की वजह से गुस्सा है, लेकिन सरपंच समझाने की कोशिश करता है कि उन्होंने ऐसा माओवादियों के हुक्म की वजह से किया क्योंकि हुक्म न मानने की सज़ा, मौत है. आखिरकार अफसर आदमियों को इस शर्त पर जाने देता है कि वे फिर कभी जन संपदा का नुकसान नहीं करेंगे. सरपंच जैसे ही गांव वापस पहुंचता है, उसके लिए माओवादियों का बुलावा आ जाता है और उस पर पुलिस के मुखबिर होने का आरोप लगाकर उसको मृत्युदंड दे दिया जाता है. महिलाएं विलाप करती हैं.

सुरक्षाबलों और माओवादियों के बीच एक मुठभेड़ छिड़ गई है. अचानक, मध्य भारत के आदिवासियों में पूजे जाने वाले एक देवता भूदा देव प्रकट होते हैं और लड़ रहे हथियारबंद महिलाओं और पुरुषों को फटकार लगाते हैं. देवता कहते हैं कि भले ही उन सब की विचारधाराएं और पोशाकें अलग-अलग हों, लेकिन अंततः वह सब आदिवासी ही हैं जो एक दूसरे की जान लेकर खुद ही विलुप्त होने पर तुले हुए हैं. "कुछ ही वर्षों में किसी को पता भी नहीं होगा कि तुम जीवित भी थे. जब तुम थोड़े से बचे हुए लोग भी एक दूसरे को खत्म कर दोगे तो तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारी भाषा, तुम्हारा अस्तित्व, सब कुछ विलुप्त हो जाएगा."

उस शाम बदमिज़ाज पुलिस वाले का किरदार निभा रहा अभिनेता, पूरे अंदाज में था. उसने सरपंच को धाराप्रवाह हिंदी में गालियां दीं, हालांकि हिंदी ठीक से न बोल पाने की वजह से वो उन्हें ठीक से नहीं बोल पाया और वे गालियां खुद उपहास की तरह लगीं. लेकिन तब भी गोंडी बोलने वाला होने के बावजूद हिंदी बोलते समय भी उनका तारतम्य नहीं बिगड़ा. वे भले ही एक मुख्यधारा के आम पुलिस वाले की छवि को जैसा का तैसा वहां नहीं रख पाए लेकिन उनके हाव-भाव बिल्कुल सटीक थे. अभिनेता का अपनी सिगरेट को जलाने के लिए कुछ न ढूंढ पाने पर और बार-बार टोके जाने पर चिड़चिड़ापन और उसकी वजह से सरपंच और उनके परिवार को हर बार नए तरीके से गाली देना, जनता में हंसी की लहर दौड़ा देता था. और उसकी वजह से जनता के प्रोत्साहन पर वह छोटा सा किरदार उनके द्वारा 10 मिनट तक खेला गया. उसके खत्म होने पर जनता हंसी के मारे पेट पकड़कर सांसे ले रही थी जिनमें कुछ पुलिस वाले भी थे जिन्हें यात्रा में चलने वालों की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया था.

मार्च महीने के आठवें दिन मैं एक वृद्ध पुलिस वाले से मिला जो दक्षिण बस्तर के सभी "संवेदनशील" पुलिस थानों में तैनात रह चुके थे. उन्होंने इलाके में माओवादियों के उत्थान को देखा है और उसकी एक बड़ी कीमत भी चुकाई है.

वह बताना शुरू करते हैं, "यह 2002 की एक रात को हुआ. चिंतलनार में हमारे पुलिस थाने पर अचानक माओवादियों ने हमला कर दिया. पूरी रात गोलियों की बरसात होती रही. हमने रात में देखा कि माओवादियों ने औरतों और बच्चों को आगे कर दिया था. हमने आम लोगों को तितर-बितर करने के लिए हवा में फायर किए. किसी तरह हमने जवाब दिया और बिना किसी आम नागरिक को नुकसान पहुंचाए अपना बचाव कर पाए. गोलीबारी सुबह तक होती रही."

सुबह उन्हें अपने एक अधिकारी का फोन आया, "मेरे सीनियर ने मुझे बताया कि हमले के बारे में एक खबर ने गलती से यह बताया था कि मुझे गोली लगी है. मेरी पत्नी ने वह खबर देखी थी और वह सदमे से गुजर गई."

वे वहां से अपनी पोस्ट भी छोड़कर नहीं जा सके क्योंकि माओवादी लगातार तीन रातों तक कैंप पर हमला करने के लिए लौटे. कहते हैं, "आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि मैं किस चीज से गुजर रहा था. उन भावनाओं को शब्दों में कह पाना मुश्किल है. हम पूरा दिन अपनी सुरक्षा मजबूत करने, रेत के बोरों से दीवारें खड़ी करने, बाड़ों की मरम्मत करने, असला इकट्ठा करने में बिताने के बाद, रात हमले का जवाब देते हुए बिताते थे. जब तक माओवादी वापस जंगल में पीछे नहीं हटते, मैं अपनी पोस्ट नहीं छोड़ सकता था. इस तरह मैंने अपने सात साल के जीवनसाथी को खो दिया. मेरे बच्चे जो हुआ उसे समझ पाने के लिए बहुत छोटे थे. मैंने इतने सालों में बहुत कुछ देखा है. कितनी बार मुझे अपने दोस्तों और सहकर्मियों की बेजान, कटी हुई लाशें उठानी पड़ी हैं, मैं इसकी गिनती ही भूल गया हूं."

वे इस शांति अभियान के बारे में क्या सोचते हैं?

"अगर तुरंत हिंसा और रक्तपात रोकने का कोई तरीका मिलता है तो क्यों नहीं? ऐसा तो नहीं है कि उनसे अपने हथियार छोड़कर आगे आकर बात करने की अपीलें नहीं की गई हैं. व्यक्तिगत तौर पर मुझे शांति के लिए बातचीत से कोई परेशानी नहीं है. लेकिन यह संवाद उन लोगों को ध्यान में रखकर होना चाहिए जिन्होंने इस युद्ध में बड़ी कीमत चुकाई है. उनकी भी स्वीकार्यता होनी चाहिए."

भान साहो को कार्यों की देखरेख का काम सौंपा गया था

भानुप्रतापपुर में‌ पदयात्रा के नेताओं के हिसाब लेने के लिए बैठते ही, भान साहो जिन्हें सब भान जी कहते हैं और जिन पर रोज के सारे कामकाज की निगरानी की जिम्मेदारी है, रो पड़ीं. 16 मार्च की दोपहर थी और जुलूस शुरू हुए चार दिन हो चुके थे, वह लगभग सभी से उनकी बात न सुनने की वजह से नाराज़ थीं.

शुभ्रांशु चौधरी ने यात्रा में शामिल होने वालों को उनकी सामूहिक जिम्मेदारी याद दिलाई. वे बोले, "बहुत सारे लोग हैं जो यह चाहते हैं कि हम सफल न हों. बहुत से हित इस संघर्ष को जीवित रखने में लगे हैं. हमें उन्हें जीतने नहीं देना चाहिए. कितने लोग हमसे उम्मीद लगाए हुए हैं."

इसके साथ उन्होंने चैन की सांस भी ली क्योंकि अब हम माओवादियों के इलाके से बाहर आ चुके थे. चौधरी ने सबसे कहा, "कल तक हम माओवादियों के नियंत्रण वाले इलाकों मैं थे और वह हमारे साथ कुछ भी कर सकते थे. आज से हम शहरी इलाकों में उनसे दूर होते चलेंगे. उन्होंने हमें गालियां दीं, इतना कुछ कहा, लेकिन उन्होंने हमें कोई हानि नहीं पहुंचाई. अब हमें और आत्मविश्वास से चलना चाहिए."

यह "गालियां" माओवादियों के द्वारा की गई एक टिप्पणी थी जो उसी दिन सोशल मीडिया पर आई थी. उन्होंने चौधरी को एक पूंजीवादी मोहरा बताया था और उन पर सरकार के बढ़ावे पर काम करने का आरोप लगाया था.

हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि वह शांति वार्ता के खिलाफ नहीं थे, लेकिन केवल तभी जब सरकार उनकी तीन मांगों को मानकर "अनुकूल वातावरण तैयार नहीं करती." पहली, माओवादियों के इलाके में लगाए गए सुरक्षाबलों के सभी कैंप हटाए जाएं. दूसरी, उनके दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) पर लगी सभी पाबंदियां हटाई जाएं. और तीसरी मांग थी कि सभी माओवादी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया जाए.

चौधरी समझाते हैं कि यह शर्ते सरकार के लिए मानना मुश्किल है, "इसमें कोई शक नहीं कि यह एक कठिन प्रस्ताव है. लेकिन यह इसी तरह ही शुरू होता है. शुरू में दोनों पक्ष अड़कर चलेंगे. एक दूसरे से दशकों तक लड़ने के बाद दांव पर बहुत अधिक का आर्थिक, भावनात्मक और विचारधारा का निवेश जुड़ा है, कोई भी पक्ष अपने समर्थकों के आगे नरम दिखाई देना नहीं चाहेगा."

लेकिन वे यह भी कहते हैं कि अगर प्रशासन थोड़ी कल्पनाशीलता दिखाए, तो एक रास्ता निकल सकता है. चौधरी कहते हैं, "प्रेस नोट में माओवादियों ने एक नाम का जिक्र किया है, बोपन्ना मार्कम. उनका दावा है कि प्रशासन ने बार-बार उन्हें झूठे इल्जामों पर हिरासत में रखा है. वह उनके शीर्ष के नेतृत्व में से एक हैं जो तीस से ज़्यादा साल पहले बस्तर आए थे. मेरी समझ से उनके वक्तव्य में उन्होंने एक संकेत दिया है कि बोपन्ना मार्कम को छोड़ दिया जाए और वह उनके पक्ष से बातचीत करें. उनकी रिहाई दूसरी तरफ के लिए यह संकेत भी दे सकती है कि प्रशासन वास्तव में बातचीत का इरादा रखता है."

लेकिन क्या छत्तीसगढ़ पुलिस, जिसने हजारों पुरुष और महिला पुलिसकर्मियों को माओवादियों के हाथों खोया है, शांति वार्ता में रुचि दिखाएगी?

पुलिस चीफ डीएम अवस्थी कहते हैं, "इस संभावना को बिल्कुल टटोला जाना चाहिए. पंजाब नागालैंड और मिजोरम में विद्रोही तत्वों से बातचीत की कोशिश की है. ऐसी कोई वजह नहीं है कि वही प्रयास यहां न किया जाए. इस अंतहीन युद्ध के हर बीतने वाले दिन, हम जानें गंवा रहे हैं. अगर माओवादी जनतंत्र में विश्वास रखते हैं, अगर वह विकास चाहते हैं, तो उन्हें बातचीत के लिए आगे आना चाहिए. मुझे नहीं लगता कि यह समस्या केवल काउंटर-इनसरजेंसी अभियानों से सुलझाई जा सकती है. हमें जनतांत्रिक उपायों व राजनैतिक उपायों को ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए."

ऐसा नहीं है कि सरकारों ने कभी माओवादियों से बात करना नहीं चाहा. उदाहरण के तौर पर 2004 में आंध्र प्रदेश के अंदर बातचीत के कई राउंड हुए थे, लेकिन उनका कुछ खास नतीजा नहीं निकला. इतना ही नहीं माओवादी यह दावा भी करते हैं कि प्रशासन ने बातचीत के बीच में उनके वरिष्ठ नेताओं को मारकर कई बार उनकी पीठ में छुरा भोंका है.

अवस्थी यह स्वीकारते हैं कि पहले हुई बातचीत सफल नहीं रही लेकिन उन्हें उम्मीद है कि समय के साथ ये परिस्थितियां बेहतर हो गई होंगी. वे कहते हैं, "हां आंध्र प्रदेश में बातचीत असफल रही लेकिन तब से काफी समय बीत चुका है. नेतृत्व करने वाले लोग उस समय जवान थे. परंतु अब वे सभी बूढ़े हो चले हैं और नेतृत्व का बीड़ा पकड़ाने के लिए दूसरी पंक्ति में कोई नहीं है. उन्हें यह समझना चाहिए कि गांव तक भी विकास आ चुका है, लोग इस युद्ध की समाप्ति चाहते हैं."

माओवादी नेताओं की जेल से रिहाई की संभावना पर अवस्थी कहते हैं कि ये राजनीतिक सवाल हैं और इनके जवाब चुने हुए प्रतिनिधि ही दे सकते हैं.

मार्च में द प्रिंट को दिए अपने एक साक्षात्कार में, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने संकेत दिया की राजनीतिक नेतृत्व माओवादियों से संवाद करने के खिलाफ नहीं है. उन्होंने दावा किया, "राज्य सरकार नक्सलवादियों से समझौते की बातचीत से नहीं बच रही है. लेकिन बातचीत देश के संविधान की रूपरेखा और हमारी सरकार की नीतियों के अंतर्गत ही हो सकती है."

जुलूस के दौरान, मैंने एक पूर्व वरिष्ठ माओवादी नेता से बात की, जो 80 के दशक की शुरुआत में आंध्र प्रदेश से बस्तर आए थे और माओवादियों से सहानुभूति रखने वालों के तंत्र को खड़ा करने में तथा स्थानीय आदिवासियों की उनकी पहली फौज खड़ी करने में उनकी भूमिका थी.

पूर्व बागी नेता, जिन्होंने बदले की कार्यवाही के डर से अपना नाम जाहिर न करने को कहा, यह मानते हैं कि "बस्तर के लोग शांति चाहते हैं. इसलिए यह संभावना है कि हमारी हिंसक लड़ाई को कुछ समय के लिए रोक दिया जाए. इसका यह मतलब नहीं कि हम फासीवादी भारतीय राज्य सत्ता को मान लेंगे. सामाजिक अन्यायों जैसे असमानता, पहचान और एक नई जनतांत्रिक क्रांति के लिए हमारी लड़ाई जारी रहेगी. लेकिन हम अहिंसक तरीकों से ये लड़ाई करने पर विचार कर सकते हैं."

हालांकि उन्हें इस बात का संदेह था कि भारतीय प्रशासन ईमानदारी से ऐसा करेगा. उन्होंने कहा, "मुझे नहीं लगता कि भारत सरकार शांति चाहती है. नागाओं, मीज़ो और कश्मीरियों के साथ हुई शांति वार्ताओं का क्या हुआ? हर बार प्रशासन ने बातचीत कर रहे लोगों को धोखा दिया. उन्होंने आंध्र प्रदेश में हमसे बातचीत, हमें मिटाने की कोशिश करने का समय पाने के लिए ही की."

देवांश मेहता महात्मा गांधी के रूप में तैयार हुए

उसी दिन मुंबई के पत्रकार देवांश मेहता यात्रा में आकर शामिल हुए. देवांश शुभ्रांशु के साथ सीजीनेट स्वरा नाम की एक वेबसाइट में शोध निदेशक के रूप में काम कर रहे हैं, यह वेबसाइट छत्तीसगढ़ के जंगलों में रह रहे लोगों को फोन करके गोंडी भाषा में स्थानीय खबरों को रिपोर्ट करने में मदद करती है. शुरू के दो दिन देवांश जुलूस का नेतृत्व महात्मा गांधी की तरह लंगोट पहने और हाथ में छड़ी लिए कर रहे थे, अपने पालतू कुत्ते के खो जाने की वजह से उन्होंने यह जिम्मेदारी छोड़ दी थी. तब से वह अवकाश लेकर अपने कुत्ते को ही ढूंढ रहे थे लेकिन अब वह वापस आ गए थे हालांकि उनका कुत्ता नहीं मिला.

उन्होंने महात्मा गांधी की तरह कपड़े क्यों पहने थे?

देवांश उत्तर देते हैं: "मुझे यह ठीक लगा क्योंकि हमने अपने पदयात्रा का स्वरूप गांधीजी के नमक सत्याग्रह की पदयात्रा को ध्यान में रखकर ही रखा है. ईमानदारी से कहूं तो यह काम थका देने वाला है. मैंने शुरुआत में नंगे पैर चलने की कोशिश की लेकिन दो दिनों के बाद दर्द बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया और मुझे जूते पहनने पड़े.‌ मुझे लगता है कि अभी तक पैदल चलना एक इलहाम की तरह है, पैदल यात्रा ही आप के अंदर के इंसान को बदल देती है. यह आपको सोचने और लोगों से मिलने के लिए इतना समय देती है. गांधीजी को यही पसंद रहा होगा क्योंकि आवाजाही का सबसे जनतांत्रिक तरीका यही है, आपको ऐसा नहीं लगता?"

शुभ्रांशु चौधरी ने यात्रा का नामकरण "दांडी मार्च 2.0", 1930 में गांधी जी के द्वारा अंग्रेजों के नमक कानून के विरोध में गुजरात में स्थित साबरमती आश्रम से दांडी के लिए निकाली गई 24 दिन की यात्रा पर किया.

देवांश कहते हैं कि इसका उद्देश्य, प्रशासन और विद्रोहियों दोनों को यह देखने के लिए मजबूर करना है कि वे आम लोगों के शांति से जीवन जीने के अधिकार को पहचानें. दोनों पक्षों को एक दूसरे के साथ मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहन देना, जिससे लोगों के घाव भरने की प्रक्रिया शुरू हो सके और पीड़ितों के परिवार अपना जीवन शांति से आगे बढ़ा सकें.

वे कहते हैं, "एक योजना जिस पर हम काम कर रहे हैं वह है पीड़ितों का एक रजिस्टर बनाना. ये यहां के लोगों के द्वारा झेली गई हिंसा की कहानियों का एक संकलन बनाने का प्रयास है. हम यह सब newpeaceprocess.org पर इकट्ठा कर रहे हैं. अभी तक हमारे पास करीब 200 वृतांत आ चुके हैं और यह सभी बहुत पीड़ा देने वाले हैं. हमें उम्मीद है कि दुनिया के सामने यह कहानियां लाकर हम धरती के इस कोने में कुछ सकारात्मक बदलाव ला पाएंगे."

वह कोलंबिया के शांति और संधि के मॉडल का अनुसरण कर रहे हैं, देवांश आगे कहते हैं, "जहां पर विद्रोहियों और सरकार ने एक लंबी खींची हुई लड़ाई के बाद बातचीत करने का निर्णय लिया. कोलंबिया की तरह ही हम चाहते हैं कि यहां भी सरकार आधिकारिक तौर पर इसे उठाए, जिससे कि वह दोनों ही तरफ के पीड़ितों की पीड़ा को स्वीकारे और उचित मुआवजा देकर उन्हें आगे का जीवन जीने दे."

दोष में दोबारा शामिल होने के बाद से देवांश सबके आकर्षण का केंद्र बन गए. जिस भी गांव और कस्बे में हम घुसते लोग उनके स्वागत और माल्यार्पण के लिए तैयार रहते थे. खास तौर पर एक जुलूस में साथ चल रहे व्यक्ति संतोष अहिरवार जिनमें जीवन और संगीत के लिए प्रेम कूट कूट कर भरा था, में उन्होंने अलग ही श्रद्धा पैदा कर दी. "गांधी जी, क्या आप चाय, पानी या खाने के लिए कुछ लेना चाहेंगे?", "गांधी जी आप ठीक हैं न?", "गांधी जी, क्या आप कृपया मेरे परिवार से फोन पर बात करेंगे?"

संतोष परिहास नहीं कर रहे थे. उनके लिए और उनके जैसे कई और यात्रा में भाग लेने वाले और रास्ते में मिलने वाले गांव वालों के लिए देवांश मेहता थे ही नहीं, केवल गांधी ही थे. और संतोष को उनके आसपास रहने का, उनके साथ चलने का गर्व था. अंकित श्रद्धा क्रोध में बदल जाती जब संतोष को लगता है कि देवांश कुछ ऐसा बर्ताव कर रहे हैं जो गांधी के व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता. एक बार उन्हें सिगरेट पीते देख संतोष ने टिप्पणी की, "लगता है कि गांधी जी का दिमाग चल गया है."

केवल गांधी जी के आस पास रहना है संतोष को प्रसन्न कर देता था और वह उनके संगीत में भी दिखाई देता. अमूमन हर रात जब यात्रा में शामिल लोग सोने के लिए लेट जाते, तो वह अपना हारमोनियम लेकर बैठते और गाते. कभी-कभी वह बस के ड्राइवर महेंद्र को जो ढोलक बजाने में पारंगत थे, अपना साथ देने के लिए राजी कर लेते. और जैसे-जैसे संतोष और महेंद्र की ताल बढ़ती जाती, लोग आस पास आकर नाचने भी लगते.

भान जी के लिए यह परेशानी का सबब था, क्योंकि उन्हें यह सुनिश्चित करना था कि जुलूस में शामिल लोगों को पर्याप्त आराम मिले जिससे वह अगले दिन जल्दी उठ सकें. संतोष उनसे विनती और मोलभाव करते, "बस पांच मिनट और. हम सब समेटने ही वाले हैं."

देवांश के लौटने के बाद, संतोष आम समय से जल्दी ही गाना शुरू करने लगे. कई बार ऐसे कस्बों गांवों और जंगलों में जहां पर फोन के नेटवर्क नहीं आते हैं और जहां लोग बहुत दूर दूर बसे हुए हैं, हम उन्हीं की आरामदायक व कोमल आवाज़ की वजह से सो पाते थे. अंधेरी रात में, खुले में पड़े थके-हारे शरीरों और बोझिल होते सरों को देखना मुश्किल हो जाता, लेकिन उनके गीत उस अंधेरे में मानवता के प्रकाशस्तंभ जैसे थे.

संतोष अहिरवार लोगों को डांस करवाते हैं

बस्तर में कई ऐसे आंदोलनकारी और पत्रकार हैं जो चौधरी की शांति की पहल से पूरी तरह सहमत नहीं हैं. उनका तर्क है कि किसी भी संघर्ष वाले इलाके में शांति की पहल के लिए, वर्षों तक हिंसा से पीड़ित लोगों से निरंतर पारस्परिक विचार विमर्श आवश्यक है जिससे उनके खिलाफ हुए अपराधों को ठीक से रिकॉर्ड किया जा सके और यह समझने के लिए कि किस प्रकार का समावेशी और शांति पूर्वक भविष्य वह अपने लिए चाहते हैं. एक सामाजिक कार्यकर्ता दावा करते हैं, "अपनी शांति यात्राओं में जो कार्य कर रहे हैं वह कैमरे के लिए अच्छा है. लेकिन दशकों से हिंसा से ग्रसित रहे समाज में शांति और समझौता ऐसे नहीं लाया जा सकता."

बस्तर क्षेत्र में 32 साल से पत्रकारिता कर रहे कमल शुक्ला यह कहते हैं कि आदिवासियों के हथियार उठाने के लिए राज्य और प्रशासन ही जिम्मेदार हैं. इसीलिए कोई भी शांति प्रक्रिया तभी काम कर सकती है, जब आदिवासियों को भारत के संविधान के पांचवे और छठे अनुच्छेद में दी गई स्वायत्तता उन्होंने प्रशासन से मिले.

वे समझाते हैं, "सबसे पहले तो वह प्रशासन ही है, जिसने अपनी उद्योग समर्थक नीतियों और अवैध तौर पर व जोर जबरदस्ती से उनकी जमीनें छीन कर निजी खनन कंपनियों को दीं, जिससे लोग हथियार उठाने को मजबूर हुए हैं. जैसा मुझे दिखाई पड़ता है, हर आने वाली सरकार ने आदिवासियों को उनके संवैधानिक अधिकार न देकर ऐसी परिस्थितियां पैदा की हैं जिनका फायदा माओवादियों ने अपने हित के लिए उठाया है. कोई भी शांति वार्ता मौलिक समस्या को समझकर शुरू होनी चाहिए."

केओटी में मैं एक गांव के वृद्ध व्यक्ति जिनका नाम नरेश देव नारेती था, से मिला और उन्होंने भी यही विचार प्रकट किए कि आदिवासियों को लगता है कि सरकार उनके बजाय खनन कंपनियों के हित में काम करती है.

वे शिकायत करते हुए कहते हैं, "यह सभी हथियारों से लैस फौजें यहां पर खनन कंपनियों की सुरक्षा के लिए हैं, हम जानते हैं कि वह हमारे लिए यहां नहीं हैं. हम से छीनी गई भूमि पर हजारों करोड़ रुपए का खनन इस इलाके में होता है. और हमें बदले में क्या मिला? जब यह कंपनियां इस जगह को खोखला कर देंगी तो वह अपना बोरिया बिस्तर उठा कर चली जाएंगी, और हमारे पास इस निर्जन और विषैले रेगिस्तान के अलावा कुछ नहीं रह जाएगा." नरेश कौतूहल भरा सवाल पूछते हैं, "ऐसी परिस्थितियों में आप शांति वार्ता कैसे कर सकते हैं? आप ऐसे प्रशासन से संवाद कैसे कर सकते हैं जो हमारे नेताओं को केवल हमारे हक के लिए बोलने पर जेल में डाल देता हो?"

वे 28 वर्षीय हिडमे मार्कम की बात कर रहे थे, जो आदिवासियों के लिए हित में काम करते हैं और उन्हें 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर, एक पूर्व नक्सली 20 वर्षीय पांडे कावासी की पुलिस हिरासत में हुई मौत के लिए प्रदर्शन करने की वजह से जेल में डाल दिया गया था. पांडे का परिवार यह आरोप लगाता है कि उनकी हत्या पुलिस ने पीट-पीटकर की. पुलिस ने मार्कम को प्रदर्शन से उठा लिया और कहा कि वह एक कुख्यात माओवादी नेत्री हैं, ऐसा बावजूद इसके जब बीते वर्षों में उनकी कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और राजनीतिक नेताओं के साथ फोटो हैं.

नरेश तर्क देते हैं, "जब प्रशासन हमारे लिए आवाज उठाने वालों को माओवादी बताकर जेल में फेंक देता है, तो वह हमें चुप रहने का संकेत दे रहा है. लोग दबाव से नहीं राजी किए जा सकते."

शुभ्रांशु चौधरी अपने आसपास पल रहे अविश्वास और क्रोध को नहीं नकारते.

वे कहते हैं, "मैं जानता हूं कि जो मैं करने की कोशिश कर रहा हूं वह असंभव से कम नहीं लेकिन मुझे लगता है कि मामला हर जगह यही है. जब भी आप कुछ ऐसा शुरू करते हैं तो सब कहते हैं कि यह असंभव है. जब आप काम कर देंगे तो सब कहेंगे कि हम जानते थे."

वह यह भी मानते हैं कि बस्तर में बहुत से लोग उनके तरीके से राजी नहीं, लेकिन वे दावा करते हैं कि आज समय बहुत महत्वपूर्ण है. वे समझाते हैं, "बस्तर आज जहां खड़ा है, उसके सामने दो रास्ते हैं. या तो पार्टी राज्य के साथ संधि करें और नेपाल की तरह संसदीय व्यवस्था का हिस्सा बन जाए. अन्यथा माओवादियों के आज का वयोवृद्ध नेतृत्व जो धीरे-धीरे जीवन के अंतिम पड़ाव की तरफ चल रहा है, उनके जाने के बाद, नेतृत्व जवान और शक्तिशाली स्थानीय कमांडरों के पास आकर बंट जाएगा और अफगानिस्तान जैसी परिस्थितियां पैदा हो जाएंगी.‌ हम भले ही इस काम के लिए सबसे उपयुक्त लोग न हों लेकिन किसी को तो इस अवसर का इस्तेमाल करना होगा. यह अवसर लगभग अगले पांच सालों के लिए मौजूद है जब तक माओवादियों का आज का नेतृत्व जीवित है और बातचीत भी करने से परहेज नहीं कर रहा. जब यह अलग-अलग धड़ों में टूट जाएगा तब अभूतपूर्व स्तर पर रक्तपात होगा."

शुभ्रांशु चौधरी अपनी किताब लेट्स कॉल हिम वसु, जो उन्होंने माओवादियों के साथ बिताए अपने समय पर लिखी थी, में अपने एक हम उम्र लड़के, जिससे वो करीब 30 साल पहले मिले थे के लिए अपने स्नेह की बात करते हैं, वह वसु की टूटी फूटी, सेकंड हैंड साइकिल की अप्रिय आवाज से उठने की बात करते हैं. अक्सर वह जब बिस्तर पर पड़े रहते थे तो वह उन्हें जोर-जोर से मार्क्स पढ़कर सुनाता था." वह वर्षों बाद वसु से मिलते हैं और उन्हें पता चलता है कि उसे चलने के लिए एक छड़ी की जरूरत है. "उसका चेहरा लकीरों से भरा था, जिंदगी ने उस पर दया नहीं दिखाई थी. मैंने चेहरे में मुश्किलें देखी लेकिन हमेशा की तरह उसके हाव-भाव शांतिपूर्ण थे, जो उसके पास मौजूद एके-47 से मेल नहीं खाते थे."

मैंने शांति वार्ता के असल होने की संभावना (जो असंभव से कम नहीं) के बारे में बेझिझक बात कर रहे शुभ्रांशु चौधरी से पूछा, क्या वह एक दिन वसु से इस संघर्ष से दूर, शायद संवाद करने की जगह पर मिलना चाहेंगे?

उन्होंने उत्तर में कहा, "अगर ऐसा हुआ, अगर हम इस उलझन के दो सिरों को किसी तरह मिला सकें तो यह एक सपने के सच होने जैसा होगा. यह एक फिल्म के जैसा होगा, अगर ऐसा हुआ तो हमारे संबंधों के लिए वह अलग प्रकार की पूर्णता लाएगा. आखिरकार हम यही तो हासिल करना चाहते हैं. वे लोग जिन्होंने इतना रक्तपात देखा है उन्हें किसी प्रकार का संवरण मिले. चाहे इसका कोई नतीजा ना निकले लेकिन कम से कम हमें यह जानने से शांति मिलेगी कि हमने बस्तर को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश की.”

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