Opinion
इरादों का पक्का रहा है इज़रायल, समय आने पर साबित भी किया!
27 जून 1976 याद हैं आपको? इज़रायल से पेरिस जाने वाली फ़्लाइट को एथेंस से फ़्यूल लेने के बाद अगवा कर पहले लीबिया फिर युगांडा ले जाया गया था. चूंकि अफ़्रीकन महाद्वीप के अधिकतर देश इज़रायल से अपनी दुश्मनी रखते हैं और उसमें युगांडा का तानाशाह ईडी अमीन भी मौक़े की नज़ाकत को समझते हुए, इज़रायल से बदला लेने को तैयार था. युगांडा के एंटवे ऐयरपोर्ट में दो फ़िलिस्तीनी और दो जर्मन आतंकी द्वारा अगवा किए गए एक प्लेन में सैकड़ों यात्री मौजूद थे. जिनमें यहूदी और अन्य धर्मों की बड़ी संख्या थी. यह दुनिया में घट रही उन दिनों की सबसे बड़ी घटना थी. 23 मई, 1979 को इज़रायली फ़िल्म निर्देशक, पटकथा लेखक, मेनाहम गोलन द्वारा निर्देशित फ़िल्म ऑपरेशन थंडरबोल्ट एक साथ हिब्रू, अरबी, जर्मन, फ़्रेंच, स्पैनिश और अंग्रेज़ी भाषा में रिलीज़ की गयी. फ़िल्म की पूरी पटकथा उसी घटना पर आधारित है जो 27 जून 1976 से लेकर 4 जुलाई 1976 तक इज़रायल और युगांडा में घटी. फ़िल्म का प्रमुख किरदार फ़ील्ड कमांडर योनातन नेतन्याहू पर केंद्रित हैं उसे देखना फ़िल्म दर्शक को सुखद अनुभूति देता है. योनातन नेतन्याहू आज के इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के भाई थे.
इज़रायल अपने इरादों का पक्का रहा है इसका प्रमाण यह ऑपरेशन है. अगवा किए गए आतंकियों द्वारा मांगी गयी मांगों पर ध्यान न देते हुए अपने खूफ़िया तंत्र मोसाद की मदद से युगांडा जाकर अपने यात्रियों को बचा लाया. जिसकी चर्चा दुनिया के भिन्न देशों में आज भी होती है. इस ऑपरेशन से फ़िलिस्तीन के साथ-साथ युगांडा और अन्य अफ़्रीकी देशों को भी संदेश गया कि इज़रायल से टकराने वालों का अंजाम बुरा ही होगा. युगांडा और इज़रायल के बीच चले इस संघर्ष को ऑपरेशन थंडरबोल्ट फ़िल्म में बख़ूबी देखा जा सकता है.
इज़रायल के पक्के इरादों की एक कहानी और भी दुनिया भर में प्रचलित है. इज़रायल अपने दुश्मन देशों से घिरा हुआ है शायद यही वजह है कि यहां के बजट का बड़ा हिस्सा यानी अरबों रुपए खूफ़िया एजेंसी मोसाद के रिसर्च एंड डेवलपमेंट के साथ इसे हाईटेक करने में ख़र्च होते हैं. जिसका काम इज़रायल के दुश्मनों और उनके इरादों को ध्वस्त करना है. 1972 में जर्मनी में हुए म्यूनिक ओलम्पिक तो आपको याद होंगे. 5 सितम्बर 1972 को इज़रायली इतिहास में वो घटना घटी जिसपर आज भी पुरी दुनिया दांतों तले उंगली दबाती है. म्यूनिक के खेल गांव में ठहरे हुए 11 इज़रायली खिलाड़ियों को फ़िलिस्तीनी आतंकियों ने बंधक बना लिया. इसमें अंजाने में कनाडा के खिलाड़ियों ने भी साथ दिया था. फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन के आतंकियों के साथ खिलाड़ियों की हुई शुरुआती झड़प में दो इज़रायली खिलाड़ी मारे गए. आतंकियों ने इज़रायल की सरकार से 234 फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन के सदस्यों को विभिन्न इज़रायली जेलों से रिहा होने की शर्त रखी, लेकिन इज़रायल की तत्कालीन प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर ने ऐसा करने से बिलकुल मना किया. हालांकि जर्मनी से कमांडों कार्यवाही की मांग इज़रायल ने की थी लेकिन ओलंपिक के कारणों से जर्मनी ने नकार दिया.
उधर आतंकियों ने इज़रायल के ना बदलने वाले इरादों को देखते हुए अपनी शर्त ही बदल दी. और जर्मनी से खिलाड़ियों सहित ख़ुद के ऐयरपोर्ट जाने की मांग रखी. जिस पर जर्मनी ने हामी भरी. अपने सैनिकों से उन आतंकियों के ख़ात्मे का खूफ़िया प्लान बनाया. जो सफल रहा लेकिन इसमें इज़रायल के सभी खिलाड़ी मारे गए.
अब इज़रायल भला शांत कैसे रहता. प्रधानमंत्री ने अपनी खुफिया एजेंसी मोसाद को इस कृत्य से जुड़े सभी लोगों के ख़ात्मे का प्रोजेक्ट दिया. जिसे खुदा का ख़ौफ़ यानी थ्रेड ऑफ गॉड नाम दिया. मोसाद ने अपनी जवाबी कार्यवाही महज़ दो दिन बाद ही शुरू कर दी. सात सितम्बर 1972 को सीरिया और लेबनान के 10 कैंप बमबारी करके तबाह कर दिए. जिसमें लगभग 200 लोग मारे गए. लेकिन मास्टर माइंड अभी ज़िंदा थे और यूरोप के अलग अलग देशों में बैठे थे. इसके बाद रोम में बैठा अब्दुल ज़ेब्रा, फ्रांस के पेरिस में बैठा महमूद अंसारी, और बहरूत के होटल में छिपा सालेम को भी मोसाद ने मार दिया. 11 इज़रायली खिलाड़ियों की मौत का बदला लेने में मोसाद को 20 साल तक अभियान चलाना पड़ा लेकिन उन्होंने एक-एक करके सबको ख़त्म कर दिया. लेकिन आख़िरी में मोरक्को में चल रहे अभियान के तहत मोसाद से जो ग़लती हुई उसकी सज़ा उसे अंतराष्ट्रीय मंचों पर झेलनी पड़ी.
मज़बूत इरादों वाले इज़रायल के लिए दुश्मन कितना भी बड़ा क्यों न हो वो लड़ता अपनी पूरी ऊर्जा के साथ है ऐसा इतिहास में दर्ज घटनाओं से मालूम पड़ता है.
इज़रायल एक बार फिर पूरी दुनिया में चर्चा के केंद्र में है. सबसे पहले तो उसने ख़ुद को कोरोना फ़्री देश घोषित किया. उसके बाद फ़िलिस्तीन के साथ हुए 11 दिनों के संघर्ष को दुनिया घरों में कोरोना के प्रकोप से क़ैद सी होकर देख रही है. जहां हमें इज़रायल से कोरोना कैसे ख़त्म हुआ इस पर बात करनी चाहिए थी वहां फ़िलिस्तीन के साथ उसके विवाद पर बीच बचाव करना पड़ रहा है.
भारत के ट्विटर हैंडल्स और फ़ेसबुक पर फ़िलिस्तीन और इज़रायल के लिए खड़े लोगों के चलते भारत में भी दो गुट बनते दिख रहे हैं. इज़रायल और फ़िलिस्तीन के बीच नफ़रती दीवार उन्हीं की खड़ी की हुई है जिन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच खड़ी की. यानी ब्रिटेन. 1947 में जहां भारत पाक का बंटवारा हुआ वहीं 1948 में इज़रायल और फ़िलिस्तीन के बीच एक ऐसा बंटवारा हुआ जिसके चलते संघर्ष आज भी थमने का नाम नहीं लेता. समय-समय पर संघर्ष विराम हुए लेकिन इसका नुक़सान फ़िलिस्तीन ही लगातार उठा रहा है.
1948 में द बेलफ़्लोर डिक्लरेशन के तहत इज़रायल और फ़िलिस्तीन बनाए गए. जिसमें यूएन ने 48 फ़ीसदी ज़मीन फ़िलिस्तीन, 44 फ़ीसदी इज़रायल और 8 फ़ीसदी यरुशलम के लिए निर्धारित की. दरअसल यरुशलम ही बवाल की असल जड़ है जहां तीन धर्मों के पवित्र तीर्थ हैं. ईसा मसीह का जन्म स्थान, यहूदियों का मूल स्थान और मुस्लिम समुदाय की तीसरी पवित्र मस्जिद अल-अक्सा इसी धरती पर है. हालांकि 1948 के बाद से ही इज़रायल ने फ़िलिस्तीन के साथ 1956, 1967, 1973 और 1982 में ऐसे ही संघर्ष करते-करते 48 फ़ीसदी से 12 फ़ीसदी ज़मीन पर समेट चुका है. उसका अगला इरादा पूरी ज़मीन पर इज़रायल का परचम लहराने का है. जिसके लिए ही पूरा इज़रायल और फ़िलिस्तीन जल रहा है.
अब यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि 150 साल पहले फ़िलिस्तीन से ख़रीदी गयी शेक ज़र्रा की ज़मीन ख़ाली करने पर इज़रायली सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर संघर्ष क्यों हुआ और इस पर दुनिया के अन्य देश भी इज़रायल के विरोध में क्यों हैं? ऐसे में उन्हें तुर्की के सुल्तान मुहम्मद अल फ़तह द्वारा 400 साल पहले ख़रीदी गयी हाजिया सोफ़िया मस्जिद का भी ज़िक्र कर लेना चाहिए. क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध से पहले वह चर्च की ज़मीन थी. हालांकि युद्ध के बाद इसमें म्यूज़ियम बनवा दिया गया. और अब तुर्की फिर से उसकी मांग इस तर्ज़ पर कर रहे हैं कि यह ज़मीन उन्होंने 400 साल पहले ख़रीदी थी. वैसे ही जैसे इज़रायल ने 150 साल पहले फ़िलिस्तीन से ख़रीदी थी.
90 लाख के क़रीब जनसंख्या वाले देश इज़रायल में 70 लाख यहूदी रहते हैं वहीं बाक़ी मुस्लिम हैं. इन्हीं मुस्लिमों के लिए फ़िलिस्तीन में हमास नामक संस्था (जिसे कई देश आतंकवादी मानते हैं कई नही) को जड़ से ख़त्म करने का इरादा लेकर ही इस बार इज़रायल ने युद्ध किया था हालांकि शुरुआत गाज़ा पट्टी से हमास ने की. शुरुआत के लिए इज़रायल का हमास को उकसाना पहली बार नही है, यह उसकी पुरानी आदत रही है. ऐसे में छोटे मोटे हथगोलों और रॉकेट से इज़रायल जैसे देश जहां आयरन डोम जैसे आधुनिक हथियार और रडार सिस्टम हैं वहां कैसे हमास ख़ुद को सामने रख पाएगा. हमास ने हथियार डाल दिए. लेकिन दो शर्त रखीं. शेख़ ज़र्रा में रह रहे 200 परिवारों को ना हटाया जाए और अल-अक्सा मस्जिद में फ़ोर्स ना घुसे. लेकिन आपको पहले ही पता है कि इज़राइल किसी भी आतंकी संगठन से किसी भी तरह की बातचीत नहीं करता. और उसने वहां मीडिया रिपोर्ट के अनुसार फिर से हमास की ऐसी हरकत पर जवाब देने की बात कही है.
अब समझिए दुनिया के कौन देश किसके साथ खड़े हैं. हमास को चीन और पाकिस्तान आतंकी संगठन नहीं मानता है. तो रूस इज़रायल और फ़िलिस्तीन दोनों को आत्मरक्षा के अधिकार की वकालत करता है. अमेरिका और 25 अन्य देश इज़रायल के साथ खुल कर खड़े हुए हैं. वहीं तुर्की के साथ अन्य अरब देश फ़िलिस्तीन में ख़ुद की सेना के निर्माण में सहायता करने का प्रस्ताव पूर्व में दे चुके हैं. 57 देशों का इस्लामिक कॉरपोरेशन चाहता तो है फ़िलिस्तीन की मदद करना, लेकिन अमेरिका और अन्य देशों के कारण कभी खुल कर सामने आ पाने की स्थिति में वो नहीं करता. हालांकि अगर ये हुआ तो इज़रायल पर तुर्की के एस 400 जैसे रॉकेट भारी पड़ सकते हैं.
लेकिन इन मिडिल ईस्ट के देशों को अमेरिका ग्रेटर इज़रायल के प्लान से अवगत कराता रहता है. वहीं प्लान जिसमें इज़रायल का इरादा इजिप्ट, सऊदी अरब, क़तर, इराक़, सीरिया जैसे देशों को इज़रायल में शामिल कर ग्रेटर इज़रायल बनाना है. इसकी कोशिशें भी इज़रायल करता रहता है.
सीधे तौर पर देखा जाए तो इज़रायल अपनी चाह है तो राह है की नीति पर चला है, भले ही रास्ते ग़लत हों. लेकिन दुनिया के अन्य देशों ने भी वहीं रास्ते अपनाए हैं चाहे चीन ने अक्साई चीन को क़ब्ज़ा कर या फिर पाकिस्तान ने पीओके पर क़ब्ज़ा करके. चीन का तिब्बत को हड़पना और नेपाल, भूटान, लद्दाक और अब अरुणांचल को लेकर कही जाने वाली बातें ऐसी ही श्रेणी में रखी जा सकती हैं.
अब भारत को चाह कर भी इज़रायल पर खुल के समर्थन करने का समय नहीं हैं क्योंकि 18 फ़ीसदी से ज़्यादा व्यवसाय हम मिडिल ईस्ट से कर रहे हैं. वहीं इज़रायल से मात्र एक फ़ीसदी के क़रीब. ऐसे में ज़मीनी विवाद पर भारत का सीधा बोलना ख़ुद के ज़मीनी विवाद पर उल्टा पड़ सकता है. हमें संयम से काम लेना चाहिए जो हमने अब तक लिया भी है. हर देश शांति और अमन चैन चाहता है इजिप्ट के प्रधानमंत्री अनवर सादत ने इज़रायल और इजिप्ट के रिश्ते में शांति लाने का प्रयास किया, वहीं फ़िलिस्तीन के यासीर अराफ़ात को दुनिया में शांति के एक प्रारूप की तरह पेश किया गया. ख़ुद इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री जितिज रोबिन इज़रायल की तत्कालीन स्थिति को लेकर ख़ुश थे. आपको आश्चर्य होगा तीनों को शांति का नोबल पुरस्कार मिला लेकिन बाद में तीनों की मौतें एक हादसे की तरह हुईं. हालांकि इस पर भी संशय रहता है. इज़रायल और फ़िलिस्तीन का विवाद भविष्य में शायद ही समाप्त हो.
भारत मौजूदा इज़रायली और फ़िलिस्तीन विवाद पर ख़ुद को किसी भी तरह फंसाने की स्थिति में नहीं है. यही होना भी चाहिए. नहीं चीन का नाइन डैश लाइन का सपना साकार होगा. लाल सागर मेन खुलकर क़ब्ज़ा करके पेट्रोल का दोहन करने लगेगा. वह खुले तौर पर इज़रायल के पद चिन्हों पर चलेगा और भारत पर दबाव बनाता रहेगा. जिसके चलते भारत और जापान के रिश्ते भी खराब हो सकते हैं.
11 दिनों तक चले इज़रायल और फ़िलिस्तीन के बीच संघर्ष अब थम चुका है लेकिन इस अंतरराष्ट्रीय घटना के मायने दूरगामी हैं. इज़रायल ने ट्वीट करके जिन 25 देशों का धन्यवाद दिया है उसमें भारत नहीं है. और अगर भारत भविष्य में इस्लामिक कॉरपोरेशन के 57 देशों के सदस्यों को नाराज़ करके इज़रायल के साथ खुला समर्थन भी करता है तो 18 फ़ीसदी व्यवसाय के साथ उसे यूएन में 136 सदस्यों के बहुमत के बिना वीटो पावर कैसे मिल पाएगा?
हालांकि भारत के राजदूत टीएस त्रिमूर्ति का एक बयान इंडिया स्ट्रांगली सपोर्ट फ़िलिस्तीन एंड टू स्टेट साल्यूशन ग़ौरतलब है. ऐसा ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी भी कहा करते थे ‘इज़रायल को फ़िलिस्तीन की ज़मीन वापिस करनी होगी’. चूंकि ट्विटर और फ़ेसबुक उन दिनों नहीं था वरना अटल जी भी घेरे गए होते.
हमें इज़रायल और फ़िलिस्तीन को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि इज़रायल में नई सरकार का गठन होना हैं और इस आतंकी घटना का असर चुनाव पर ज़रूर पड़ेगा जैसे बालाकोट और उरी का भारत में पड़ा था.
भारत के नागरिक पत्रकार और नेता ‘सिंगापुर वेरिएंट’ वायरस पर विदेश नीति और प्रोटोकॉल का पाठ पढ़ाने लगते हैं लेकिन वहीं फ़िलिस्तीनी के साथ खड़े होने में गर्व का अनुभव होता है. यहूदियों पर ज़ुल्म हुए हैं तो मुस्लिमों पर भी हो रहे हैं. अब तो हिंदुओ पर भी लगातार अत्याचार की ख़बरें दुनिया भर के देशों के साथ भारत में भी आने लगी हैं.
इंसानियत को एक ही चश्में से देखने का हुनर जिस दिन दुनिया को आ जाएगा उस दिन ये सारी दुनिया ख़ूबसूरत लगने लगेगी. नहीं तो तालिबानियों द्वारा बुद्ध की प्रतिमा के तोड़फोड़ को भी हम इज़रायली फ़िलिस्तीनी संघर्ष वाले चश्मे के नम्बर से देखने पर सही ठहरा देंगें. अजरबेजान और अरमेनिया के बीच के संघर्ष को आप सही मानने लगेंगे.
फ़िलहाल अगर दुनिया की बेहतरीन सर्जिकल स्ट्राइक वाली फ़िल्में देखने का शौक़ है तो आप इज़राइल की ऑपरेशन थंडरबोल्ट को देख लें वहां फ़िल्म की स्टोरी में तनाव है लेकिन देखने के बाद मन में नहीं होगा. इज़रायल के इरादों को सबूतों के साथ पेश करती है यह फ़िल्म.
(नोट: इस लेख को दिनांक 24 अक्टूबर, 2023 को अपडेट किया गया.)
Also Read
-
‘We’re Indians or not?’: Pune Muslim voters on hate speech, targeted crime, political representation
-
BJP’s ‘Bangladeshi immigrants’ claim in Jharkhand: Real issue or rhetoric?
-
Reporters Without Orders Ep 346: Rahul Gandhi’s YouTube, Maharashtra’s Ladki Bahin scheme
-
BJP’s Ashish Shelar on how ‘arrogance’ and ‘lethargy’ cost the party in the Lok Sabha
-
Two days before polls, BJP and MVA battle it out in front-page ads