Uttar Pradesh coronavirus
कोरोना और बेरोज़गारी की दोहरी मार झेल रहे हैं गांवों के लोग
27 वर्षीय इंदल यादव आजमगढ़ के पीपरी शकूरपुर के रहने वाले हैं. वो साल 2016 से गुजरात के कपड़ा मिल में बुनाई का काम किया करते थे लेकिन लॉकडाउन के चलते उन्हें गांव वापस लौटना पड़ा. शहर में हर महीने वो 10 से 15 हज़ार रुपए कमा लिया करते थे. लेकिन गांव लौटने के बाद से कोई काम नहीं मिला है.
इंदल कहते हैं, “लॉकडाउन के बाद शहर में काम बंद होने लगा और इसलिए मजबूरी में उन्हें गांव का रास्ता देखना पड़ा. उन्हें डर भी था कि कहीं स्थिति साल 2020 जितनी भयावह न हो जाए. पिछले साल उन्हें गांव लौटने में दिक्कत आई थी. कारखाने बंद हो गए थे. काम ख़त्म हो गया था. हमारे पास जितना खाना था सब ख़त्म हो गया था. तब हम बहुत दिक्कतों से घर लौटे. कहीं कोई साधन नहीं मिल रहा था. जो गाड़ी मिली वो बहुत ज़्यादा पैसे मांग रही थी.”
इस बार जैसे ही पता लगा कि लॉकडाउन लग गया है और कारखाना बंद होने जा रहा है इंदल तुरंत 17 अप्रैल को गांव लौट आये. उन्हें लगा जब तक ट्रेन और बसें चल रही हैं उनके पास घर लौटने का मौका है. लेकिन घर आने के बाद से उन्हें कहीं काम नहीं मिला.
वह कहते हैं, “घर लौटने के बाद भी उन्हें वहीं दिक्कतें आ रही हैं जो शहर में थी. "हम मज़दूर हैं. हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि आराम से घर पर बैठकर खाना खाते रहें. जो थोड़ी बहुत खेती की थी उसमे गेहूं मिल जाता है. इसके अलावा कमाने का कोई साधन यहां नहीं है,"
उन्होंने बताया, “राज्य सरकार ने गांव के किसी परिवार के खाते में पिछले साल से कोई पैसा नहीं डाला है. अगर गांव में लोकल समाज सेवकों द्वारा पैसे और राशन किट न बांटी गई होती तो गांव के लोग भूखे सो जाते. गांव में अब तक किसी तरह का सरकारी सहयोग नहीं मिला है.”
बता दें कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 2020 में कोरोना की पहली लहर के दौरान राज्य में लौटे 10.4 लाख से अधिक प्रवासी श्रमिकों के बैंक खातों में 1,000 रुपए स्थानांतरित करने का दावा पेश किया था.
वह आगे कहते हैं, "अगर लॉकडाउन नहीं खुला तो हम जून के अंत में शहर वापस जाएंगे. यहां कुछ काम नहीं है. अगर कमाएंगे नहीं तो परिवार के लिए खाना कहां से लाएंगे. परिवार की भी अपनी समस्याएं हैं. लोग बीमार पड़ रहे हैं. पीएचसी और सीएचसी में इलाज नहीं होता. ऐसे में प्राइवेट डॉक्टर के पास जाकर दवाई लेने में कई रूपए खर्च हो जाते हैं. गरीब आदमी नहीं जी पाएगा. प्राइवेट क्लिनिक में डॉक्टर 500 रुपए फीस के तौर पर लेता है. मामूली बुखार की दवा खरीदने में 1500 रुपए का खर्च आ जाता है.”
गांव के करीब 40 लोग महाराष्ट्र, गुजरात, केरल और दिल्ली जाते हैं. ये लोग मुख्यतः मज़दूरी और कारीगर का काम करते हैं. गांव में कई लोगों को सर्दी-ज़ुकाम और बुखार के लक्षण हैं लेकिन अस्पताल उनके गांव से दूर है और कोई साधन आसानी से नहीं मिलता इसके चलते लोग घर पर ही बीमार पड़े हुए हैं. एक वजह यह भी है कि गांव में आमदनी का स्रोत ख़त्म हो रहा है इसलिए लोग पैसे के अभाव में इलाज के लिए अस्पताल नहीं जा रहे हैं.
वहीं 50 वर्षीय राजेंद्र कुमार के चार बेटे हैं. जब से लॉकडाउन लगा है सभी घर पर बेरोज़गार हैं. उनके बेटे गुजरात और नागपुर में मज़दूरी किया करते थे. सभी 10 से 12 हज़ार कमा लेते थे. राजेंद्र गांव में ही छोटी- मोटी खेती कर लेते हैं.
वह कहते हैं, “गांव में करने के लिए कुछ काम नहीं है. इसलिए सबके लड़के शहर मज़दूरी करने जाते हैं. लॉकडाउन के बाद सब लौट आये. सब परेशान हैं. पहले जो कुछ कमाई हो जाती थी अब कुछ भी नहीं है. उधार लेकर खा रहे हैं. उनके सभी बच्चों की तबीयत खराब है. चारों लड़कों को खांसी और बुखार की शिकायत है. सबका इलाज घर पर ही चल रहा है. पहले उनके बेटे हर महीने कुल पांच से छह हज़ार रूपए घर भेज दिया करते थे लेकिन लॉकडाउन के बाद वो गांव वापस आ गए. सरकार ने कोई योजना नहीं बनाई. कोई अस्पताल नहीं खोला. डॉक्टर की तैनाती नहीं हुई. अब भी कोई दवा बांटने नहीं आ रहा है. सब अपना इलाज खुद कर रहे हैं.”
राजेंद्र बताते हैं, “वो घर के पीछे खेती करते हैं लेकिन उस से बस उनके घर का पेट भर पाता है. वो इतनी खेती नहीं कर पाते कि बेचने के लिए कुछ बचाया जा सके. उनका घर उनके बेटों द्वारा भेजे पैसों पर चलता था लेकिन उनके बीमार पड़ने के बाद से वो केवल सूखी रोटी और चावल खाकर पेट भर रहे हैं. उनके पास इतना पैसा नहीं है कि चारों बेटों का अस्पताल ले जाकर इलाज करा सके.”
पीएम के आदर्श गांव में बिना मनरेगा के बेरोज़गार हैं वनवासी
पांच साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत अपने लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में गांव, जयापुर को गोद लिया था. वहां 'मोदी जी का अटल नगर' एक आवास कॉलोनी है जो जयापुर के दक्षिण-पश्चिम कोने में बसी है. कॉलोनी मुसहर समुदाय के लोगों के लिए 2015 की शुरुआत में बनाई गई थी. इसमें 14 फ्लैट हैं. यह सभी चमकीले पीले और नीले रंग में रंगे हुए हैं. लेकिन गांव में न काम बचा है न उम्मीद. पिछले पांच सालों में गांव में किसी को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत शामिल नहीं किया गया है. बार-बार प्रधान से अनुरोध के बाद कागज़ी औपचारिकता तो हो गई लेकिन कार्ड नहीं मिला है. फिर लॉकडाउन ने बचे-कुचे अवसर छीन लिए. शहर जाकर जो कुछ कमा लेते थे अब इतना भी नहीं बचा है. सरकार द्वारा कोई पैसा भी खाते में नहीं आया है. गांव के बाहर मनरेगा में कितने लोगों को किस काम के लिए कितना श्रम मूल्य दिया जाएगा इसे एक पत्थर पर उकेरा ज़रूर गया है. लेकिन अटल नगर में रह रहे वनवासी लोग कुछ और ही बताते हैं.
जीतू वनवासी कहते हैं, “वह ईंट के भट्टे पर ईंट पाटने का काम करते हैं. उन्हें हर दिन की दिहाड़ी. 300 रुपए मिल जाते थे. लेकिन लॉकडाउन के बाद से ही उनके पास काम ख़त्म हो गया है. गांव में मनरेगा बंद है. उनका कहना है कि ईंट की भट्टी भी किसी-किसी महीने चलती है. घर का खर्चा बहुत मुश्किल से चलता है. शहर जाने के लिए भी पैसा चाहिए. गांव में पिछले छह महीने से सब काम बंद पड़ा है. गांव में किसी का भी मनरेगा में पंजीकरण नहीं हुआ है. हमें नहीं पता प्रधान ने हमारा नाम क्यों नहीं पंजीकृत कराया.”
न्यूज़लॉन्ड्री ने गांव के पूर्व ग्राम प्रधान नारायण सिंह पटेल से बात की. वह कहते हैं, “बस्ती के लोग ही मनरेगा में अपना पंजीकरण नहीं कराना चाहते. हमने कई बार कहा है लेकिन अटल नगर के लोग ही मनरेगा में काम नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें इधर-उधर मज़दूरी करने के लिए मनरेगा की तुलना ज़्यादा पैसा मिल जाता है."
जब न्यूज़लॉन्ड्री ने अटल नगर के निवासियों से बात की तो उन्होंने बताया कि ऐसा नहीं है और उन्होंने कई बार प्रधान से शिकायत की है. 30 वर्षीय पार्वती अटल नगर की रहने वाली हैं. उन्होंने बताया, “पिछले पांच सालों से गांव में किसी का भी मनरेगा के अंतर्गत कार्ड नहीं बना है. इसके लिए उन्होंने कई बार प्रधान से शिकायत भी की. हमने कई बार प्रधान को कहा कि हमारा कार्ड बनवा दें. एक बार फॉर्म भरवाया गया था. उसके बाद से कोई खबर नहीं मिली. लॉकडाउन के बाद से ही नहीं बल्कि यहां पिछले पांच सालों से मनरेगा काम नहीं कर रहा है, न हम लोगों के पास इतना पैसा बचा है कि शहर जाकर काम ढूंढ लें. अगर किसी दिन अगल- बगल के खेतों में काम मिल जाता है तो मज़दूरी कर लेते हैं लेकिन अमूमन सारा दिन घर पर ही बीतता है."
अटल नगर निवासी गुड्डी कहती हैं, “सरकारी राशन में केवल सूखा गेहूं और चावल मिलता है. दाल खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं. काम बंद है. मनरेगा बंद है. ऐसे में कोई बीमार पड़ता है तो उनके पास इलाज के लिए पैसे नहीं हैं.”
गांवों में लौटने वाले प्रवासी श्रमिकों के लिए रोजगार और आजीविका के अवसरों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने 20 जून 2020 को गरीब कल्याण रोजगार अभियान शुरू किया था. अभियान ग्रामीण बुनियादी ढांचे के विकास और गांव में इंटरनेट जैसी आधुनिक सुविधाएं प्रदान करने पर केंद्रित है. बावजूद इसके कई गांवों में अब भी रोज़गार के अवसर ठप पड़े हैं. सीएमआईई के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोज़गारी दर 9.7 प्रतिशत पहुंच चुका है. यह अप्रैल में 7.13 प्रतिशत था. हालत यह है कि गांव में मनरेगा काम नहीं करता. किसी को मनरेगा के अंतर्गत पंजीकरण नहीं हुआ है न किसी के पास कार्ड है. बावजूद इसके अटल नगर के गेट के बाहर पत्थर की शिला पर मनरेगा की सभी जानकारी लिखी हुई है. गांव में कोरोना का संक्रमण तेज़ी से फैला हुआ है. लेकिन बेरोज़गारी के चलते लोगों के पास इतना पैसा नहीं बचा है जिस से वो अपना इलाज करा सकें.
Also Read: शहरों से निकलकर गावों तक फैला कोरोना का कहर
Also Read
-
Two years on, ‘peace’ in Gaza is at the price of dignity and freedom
-
4 ml of poison, four times a day: Inside the Coldrif tragedy that claimed 17 children
-
Delhi shut its thermal plants, but chokes from neighbouring ones
-
Hafta x South Central feat. Josy Joseph: A crossover episode on the future of media
-
Encroachment menace in Bengaluru locality leaves pavements unusable for pedestrians