Opinion
अगर हिंदुस्तान जीवित है तो कौन मर सकता है
ज्यों-ज्यों देश में कोरोना महामारी का दंश बढ़ता जा रहा है. सरकारों की बद इंतजामी और आपराधिक लापरवाहियों की वजह से आम नागरिक असमय मर रहे हैं. राष्ट्रीय टेलीविज़न कहे जाने वाले न्यूज़ चैनलों पर केंद्र बनाम राज्य सरकारों की फूहड़ और बेहूदा बहसें शाया होने लगी हैं. यह एक ‘लेजर शार्प’ चतुराई है जो अपने ‘मास्टर’ को बचा लेने के लिए की जा रही है.
देश के संघीय ढांचे पर शायद इतनी चर्चा कभी नहीं हुई होगी जो बीते एक महीने से हर शाम पांच बजे से शुरू होकर रात 10 बजे तक कई प्रमुख चैनलों पर अनवरत जारी है. देश के संघीय ढांचे पर ठीक यही चर्चा पिछले सालों में औचक ‘नोटबंदी’ या देशव्यापी ‘लॉकडाउन’ जैसे निर्णयों पर नहीं हुई क्योंकि निर्णय प्रक्रिया में ये दोनों फैसले नितांत वैयक्तिक थे. 2016 में हुई नोटबंदी और 2020 में थोपे गए लॉकडाउन की निर्णय प्रक्रिया के बारे में आज भी देश को कुछ पता नहीं है. आखिर ये निर्णय किस आधार पर लिए गए थे? किन संस्थाओं ने, किस हैसियत से ऐसी कार्यवाही के लिए सरकार को सिफ़ारिशें दीं? जीएसटी जैसे कानून आए तो ज़रूर राज्य सरकारों की सहभागिता से लेकिन राज्यों को उनका दायित्व देने में केंद्र की कौताही को लेकर भी संघीय ढांचे की मर्यादाओं या इसकी कार्य-पद्धति पर चर्चा होना ज़रूरी था लेकिन इसमें केंद्र बनाम राज्यों की ऐसी उतावली और आक्रामक बहसें मंज़र-ए-आम नहीं हुईं.
जब देश में सबसे ताकतवर बताए जाने वाले प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के रचे गए तिलिस्म टूटने लगे तो मीडिया ने शातिराना ढंग से सरकार के बचाव के लिए यह नयी पद्धति अपनाई है. हालांकि सूटेड-बूटेड इन एंकर-एंकराओं की बुनियादी अल्पज्ञता पर कोई संदेह कभी नहीं रहा क्योंकि पत्रकारिता इनका पेशा है जिसमें नाम है, पैसा है, रुतबा है और सत्ता में अकल्पनीय भागीदारी भी है. ये पेशेवर पत्रकार नहीं हैं. ये महज़ प्रस्तोता हैं और हर शाम हमारे आपके डायनिंग रूम में अपनी भूमिका का मुजाहिरा करते हैं.
लेकिन देश का आम जनमानस इनकी रची गयी बहसों को देखते हैं और उन पर यकीन करते हैं इसलिए यह ज़रूरी है कि उनके शातिराना खेलों और साजिशाना कार्यवाहियों पर बात हो और लगातार हो. खैर इस संकट काल में वो बहुत दुरूह कार्य कर रहे हैं इसके लिए उनको दाद भी देनी चाहिए. सम्पूर्ण रूप से असफल साबित हो चुकी एक सरकार का बचाव करना कोई मामूली काम काम नहीं है.
इन भौंड़ी बहसों के बहाने भारतीय गणराज्य के संघीय स्वरूप पर चर्चा भी होना चाहिए. उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान में ‘फेडरल’ शब्द का ज़िक्र नहीं है. इस लिहाज से यह देश संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह एक ‘फेडरल स्टेट’ नहीं है बल्कि इसे ‘यूनियन ऑफ स्टेट्स’ यानी ‘राज्यों का संघ या गणराज्य’ कहा जाता है.
शब्द ‘फेडरलिज़्म’ एक लैटिन शब्द foedus से चलन में आया है जिसका मतलब होता है एग्रीमेंट या करार. वास्तव में फेडरलिज़्म दो तरह की सरकारों के बीच में एक अनुबंध/करार/एग्रीमेंट ही है. जहां दोनों सरकारें अपने-अपने कार्य-क्षेत्र या दायरे में शक्तियों को साझा करते हैं. ये दोनों सरकारों के बीच जिनमें एक सरकार अनिवार्यता संघीय हो, बराबर की संप्रभुता के तहत काम करती हैं और अपने-अपने दायरे में संविधान से मिली शक्तियों का इस्तेमाल करती हैं.
हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत में जो संघवाद है वह प्रकृतिश: ‘वांछित’ है ‘वास्तविक’ नहीं है. उसकी प्रकृति संघीय है लेकिन वह वास्तव में अमेरिका या अन्य देशों की तरह संघीय है नहीं. सामाजिक विज्ञान की शुरुआती पाठ्य पुस्तकों में इसे quasi federalism या अर्द्ध-संघवाद या ‘संघवाद की तरह’ होना बताया जाता है.
विस्तृत विवेचना के लिए हमें भारतीय संविधान के पहले अनुच्छेद को पुन: पढ़ना चाहिए जो स्पष्ट रूप से लिखता है कि इंडिया, दैट इज़ भारत (यूनियन ऑफ स्टेट्स) यानी इंडिया, जो भारत है वह (राज्यों का संघ) है. उल्लेखनीय बात यह है कि भारत के संविधान में फेडरलिज़्म या फेडरल शब्द का ज़िक्र नहीं है. लेकिन संविधान के तमाम अन्य प्रावधान इस तरह हैं कि भारत एक संघीय प्रकृति का गणराज्य होगा.
इसमें केंद्र/संघ के स्तर पर सरकार और राज्यों के स्तरों पर निर्वाचित सरकारों के बीच शक्तियों, कार्यों व कार्य-क्षेत्रों का स्पष्ट बंटवारा किया गया है. इसलिए संविधान की चौथी सूची में केंद्र व राज्यों के बीच विषयों का, शक्तियों, कार्यों व कार्य-क्षेत्रों का बंटवारा किया गया है. लेकिन एक तीसरी सूची है जिसे समवर्ती सूची कहा जाता है उसमें दोनों ही सरकारों के अधीन शक्तियों को शामिल किया गया है. समवर्ती सूची के विषयों की स्थिति क्या होगी? इस मामले में संविधान में कहा गया है कि -अ) यदि राज्यों द्वारा बनाए गए और केंद्र बनाए गए किसी विधान में कोई द्वंद्व है तो उस विधान को वरीयता या प्राथमिकता मिलेगी जो भारत की संसद से पारित हुआ हो और ब) यह इस संवैधानिक तथ्य को स्थापित करता है कि अधिशेष शक्तियां केंद्र के पास हैं और जो भारत के संघवाद को एक एकिक आधार प्रदान करता है.
संविधान विशेषज्ञ पीएम बख्शी बताते हैं कि संविधान की सातवीं अनुसूची में दी गयी तीन सूचियां क्रमशा: I,II,III ‘विधान की शक्तियां’ नहीं बल्कि ‘उनके क्षेत्र’ बताती हैं. और जहां दो विधानों में यानी राज्य की विधानसभा द्वारा बनाए गए कानून और भारत की संसद के द्वारा बनाए गए कानून में कोई असंगति होती है या द्वंद्व होता है तो संसद का बनाया कानून सर्वोच्च माना जाएगा. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के मामले में सर्वोच्च नयायालय ने यह व्यवस्था दी जब शिक्षको की योग्यता को लेकर द्वंद्व पैदा हुए.
इसी तरह उपभोक्ता संरक्षण कानून के मामले में संसद द्वारा बनाए गए क़ानूनों को राज्यों के बनाए क़ानूनों से ऊपर रखा गया और उन्हें लागू किया गया.
ऐसे में राज्यों को प्राप्त शक्तियों को महज़ अब तक चलन में रहीं शक्तियों और अनुभवों के आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि तेज़ी से रूपांतरित होते भारतीय गणराज्य की प्रकृति के अनुसार भी देखा जाना चाहिए. इस संघीय ढांचे और उसकी प्रकृति में मिली थोड़ी भी छूट का इस्तेमाल किस तरह नव उदरवाद और कॉर्पोरेट उदारवाद के हिमायती व नीति नियंता और उनके पैरोकार करते रहे हैं ताकि उनका मुनाफा बढ़ता रहे, हम इससे बेखबर नहीं हैं.
इतना तय है कि भारत के संविधान में राज्यों व केंद्र की शक्तियों को लेकर एक लचीलापन है और जिसकी व्याख्या और इस्तेमाल मौजूदा व आने वाली सरकारें कर सकती हैं.
मौजूदा सरकार का ज़ोर ‘सहकारिता पर आधारित संघवाद’ और ‘प्रतिस्पर्द्धा पर आधारित संघवाद’ को लेकर है ताकि मौजूदा जरूरतों व भविष्य की योजनाओं को लेकर एक सहभागी व्यवस्था बनाई जा सके. अपने शुरुआती दिनों में नरेंद्र मोदी हमेशा ‘टीम इंडिया’ की बात करते रहे. महामारी के दौरान जिम्मेदारियों से बचने के लिए आज राज्य सरकारों को उनकी जिम्मेदारियों का एहसास करवाया जा रहा है लेकिन अन्य मामलों में जहां इस सरकार के कॉर्पोरेट मंसूबे पूरे होते हैं वहां राज्य के अधीन रहे मामलों में राज्यों की शक्तियों को लगातार कम किया जाता रहा है. मामला चाहे कोल माइनिंग का हो या कर व्यवस्था (जीएसटी) का हो.
कॉपरेटिव या सहकारी संघवाद की अवधारणा में केंद्र व राज्य एक क्षैतिज रिश्ता बनाते हैं और सार्वजनिक हितों के लिए एक दूसरे से सहकार व सहयोग करते हैं. मौजूदा सरकार इसे एक बहुत ज़रूरी यान्त्रिकी मानती है ताकि राष्ट्रीय नीतियां बनाने व क्रियान्वयन में राज्यों की सहभागिता सुनिश्चित की जा सके. इस व्यवस्था के तहत केंद्र व राज्यों की सरकारें संवैधानिक तौर पर संविधान की सातवीं अनुसूची में दिये गए मामलों पर एक दूसरे का सहयोग करने के लिए बाध्यकारी भी होती हैं.
कॉपरेटिव फेडरलिज़्म को मार्बल केक फेडरलिज़्म भी कहा जाता है जिसकी व्याख्या केंद्र व राज्यों के बीच लचीले संबंधों के तौर पर होती है जिसमें कई प्रकार के मुद्दों व कार्यक्रमों को लेकर दोनों सरकारें एक साथ काम करती हैं.
भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका ने भी इस रिश्ते को अलग अलग ढंग से कई कई बार देखा है.
जस्टिस अहमदी ने एक मामले में इसी निष्कर्ष को दोहराया था कि भारत संघवाद की वजाय ऐकिक ज़्यादा है जिसे प्रोग्रामेटिक फ़ेडरलिज़्म यानी कार्यात्मक संघवाद कहा जा सकता है.
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बेग ने 1977 में इसे AMPHIBIAN यानी उभयचर कहा था जिसका मतलब है कि ज़रूरत, परिस्थितियों के हिसाब से यह दोनों तरफ जा सकता है. यह एक सुसंगत संघवाद भी हो सकता है या ऐकिक भी हो सकता है. एक समय यह कल्पना भी की गयी कि देश में संघवाद तभी सफलतापूर्वक काम कर सकता है जब केंद्र में एक मजबूत लेकिन उदार दिल सरकार हो यानी केंद्र मजबूत तो हो लेकिन समावेशी भी हो. मुखिया मुख सौं चाहिए वाली बात तुलसीदास ने शायद इसी मौके के लिए कही होगी.
हिंदुस्तान में संघीय ढांचे की अलग-अलग ढंग से लेकिन कमोबेश एक ही तरह की व्याख्याएं होती रहीं हैं लेकिन ये सभी इस शब्द और ढांचे की संवैधानिक व्याख्याएं थीं. आज जब देश महामारी के दौर से गुज़र रहा है और दो विशेष क़ानूनों से संचालित हो रहा है तब इस संघीय ढांचे का सैद्धान्तिक व व्यावहारिक रूप से केवल एक ही मतलब होता है और होना चाहिए कि देश की संघीय सरकार इस महामारी से सामना करने के लिए खुद को आगे रखे और नेतृत्व करे. यह उसकी प्राथमिक अनिवार्य जिम्मेदारी है. एपिडेमिक एक्ट यानी महामारी कानून 1897 और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून, 2005 के माध्यम से देश की सम्पूर्ण बागडोर इस समय केंद्र सरकार के ही पास है.
टेलीविज़न की प्रायोजित बहसों में जब सत्ता पक्ष के लोग सीधे तौर पर बहस के प्रस्तोता उनकी बातों पर मुहर लगाने के लिए यह कहते और दोहराते हैं कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है तब वह बेहद चतुराई से यह सांवैधानिक तथ्य झुठलाने की कोशिश करते हैं कि सामान्य परिस्थितियों में ही स्वास्थ्य राज्य का विषय है. चूंकि महामारी राज्यों की सीमाओं का लिहाज नहीं करतीं और एक राज्य से दूसरे राज्य में उनका प्रसार किसी भी तरह से हो सकता है तब यह महज़ राज्य का विषय नहीं रह जाता बल्कि अनिवार्यतया यह संघीय सरकार या आम चलन में इस्तेमाल केंद्र सरकार का विषय ही होता है.
भाजपा के प्रवक्ता और बहसों के प्रस्तोता पिछले साल के ऐसे तमाम फैसले भुला चुके हैं जब केंद्र ने अविवेकी ढंग से इस महामारी से निपटने की कमान अपने हाथों में ली थी. महज़ चार घंटे पहले की एक मौखिक अधिसूचना से पूरे देश में लॉकडाउन लगा दिया गया था. तब क्या राज्यों ने इस फैसले का विरोध किया था? भारतीय संविधान के जानकार बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी तभी से यह बात कहते आ रहे हैं, “राज्य सरकारों को इस अविवेकी फरमान का विरोध करना चाहिए था और अपने राज्यों में लॉकडाउन लगाने से बचना चाहिये था.” वो ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि अगर स्वास्थ्य राज्य का विषय है तो उसी सातवीं अनुसूची के तहत कानून-व्यवस्था भी राज्य का विषय है. लेकिन इसका ज़िक्र कभी प्रस्तोताओं या भाजपा प्रवक्ताओं की तरफ से नहीं किया जाता.
अब हालात यह हैं कि जब कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस या झारखंड मुक्ति मोर्चा या शिवसेना के प्रवक्ता संघीय सरकार की जिम्मेदारियों या लापरवाहियों पर कुछ बात रखते हैं तो प्रस्तोता उनसे महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड या बंगाल की स्थिति के बारे में सवाल पूछने लग जाते हैं. भाजपा प्रवक्ता केंद्र सरकार का बचाव करते हैं और बाकी दलों के प्रवक्ता अपने-अपने शासित राज्यों का. देश के संविधान का संघीय ढांचा तेज़ बहसों के बीच दम तोड़ देता है. क्योंकि संघीय सरकार देश की नहीं बल्कि केवल भाजपा की सरकार है?
पिछले साल भी हमने लॉकडाउन के दौरान मजदूरों के पलायन की तस्वीरें देखीं जब वो एक राज्य से दूसरे राज्य की सीमा में प्रवेश कर रहे थे. उन्हें रोकने के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए गए. दिलचस्प ये है कि मौजूदा केंद्र सरकार राष्ट्रवाद के गगनभेदी नारे के बल पर यहां तक पहुंची है. इनके राष्ट्र की परिभाषा में दूसरे राजनैतिक दलों की सरकारों वाले राज्य नहीं आते?
हमें शायद अभी इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि इन प्रस्तोताओं ने देश को कितने हिस्सों में बांट दिया है? कांग्रेस का प्रवक्ता उत्तर प्रदेश के लिए अपनी चिंता ईमानदारी से बयान नहीं कर सकता. उससे तत्काल पूछ लिया जाएगा कि महाराष्ट्र के क्या हाल है? भाजपा प्रवक्ता भी छत्तीसगढ़ की बात नहीं कर सकता? अगर करता है तो उससे मध्य प्रदेश की स्थिति के बारे में पूछ लिया जाएगा? इसमें हमें कुछ बेहद अनहोनी का अंदेशा नहीं होता? एक देश के तौर पर हमारी नागरिक चिंताएं क्या अब इस बात से तय होंगीं कि हम किस राजनैतिक दल की तरफ से सोचते या बोलते हैं?
जब सब प्रवक्ता अपने अपने राज्यों के बारे में ही बोलेंगे तो देश के बारे में कौन सोच और बोल रहा है? मध्य प्रदेश के विधि और गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने तो 11 मई को दिये एक आधिकारिक बयान में मध्य प्रदेश में कोरोना फैलने के लिए पड़ोसी कांग्रेस शासित राज्य को जिम्मेदार बताया है. उन्होंने एकदम साफ स्पष्ट शब्दों में कहा है कि, “कांग्रेस शासित राज्यों से मध्य प्रदेश में कोरोना फैल रहा है.” उनका इशारा महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और झारखंड और राजस्थान से है जिसकी सीमाएं मध्य प्रदेश से जुड़ी हैं. एक राज्य के गृहमंत्री बेतुका बयान नहीं दे पाते अगर उन्हें अपने भागीदार मीडिया प्रस्तोताओं पर एतबार न होता कि अपनी अदा से लोगों की स्मृति से यह बात मिटा चुके हैं कि देश में कोरोना की पहली लहर इसी मध्य प्रदेश की सत्ता की हवस में भाजपा ने फैलाई थी. बहरहाल.
सदी की सबसे बड़ी विपदा में हर शाम खंड-खंड होते देश को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय के एक प्रतिष्ठित न्यायधीश नानी पालकी वाला की एक टिप्पणी ज़रूर याद राखी जाना चाहिए – “Who dies if India is lives and who lives if India dies” अगर हिंदुस्तान जीवित है तो कौन मर सकता है और कौन जिंदा रह सकता है अगर हिंदुस्तान मरता है...
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