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अवधनामा: गंगा-जमुनी तहजीब के बीच का पुल टूट गया

वकार भाई यानी सैयद वकार मेहंदी रिजवी यानी अवधनामा अखबार यानी लखनऊ की उर्दू सहाफत यानी उर्दू और हिंदी के रिश्ते का मजबूत पुल यानी अदब और सहाफत के लिए हर वक्त खड़ी एक शख्सियत और भी बहुत सारे यानी लगाते रह सकते हैं.

वकार भाई ने जब अवधनामा शुरू किया तो उस वक्त भी लखनऊ में फाइल कॉपी छपने वाले सैकड़ों उर्दू अखबार थे तो जरूर मगर कोई ऐसा अखबार उर्दू में नहीं था जो बाकायदा बाज़ार में पहुंचता हो और पाठक उसे खरीद कर पढ़ता हो.

वकार भाई के नजरिये में अवधनामा महज एक अखबार नहीं था बल्कि उसके जरिये वो बहुत अदबी और सामाजिक कामों के लिए प्लेटफॉर्म खड़े करते रहते थे. उर्दू के वो बड़े सहाफी जो किसी मजबूरी या फिर नौकरी की दिक्कतों की वजह से घर बैठे हों उन्हें तलाश कर अवधनामा में लाना वकार भाई का काम था. आलिम नकवी, हाफिज साहब और औबेदुल्ला नासिर इसके गवाह हैं.

धीरे-धीरे फैज़ाबाद, लखनऊ, जौनपुर, सहारनपुर और एक वक्त में मुंबई से भी अवधनामा के संस्करण निकलने लगे. वो भी तब जब न कोई बिजनेस घराना इसके पीछे था और न कोई सियासी बंदा ये कह सके की उसने अवधनामा की मदद की है.

तब अवधनामा के उर्दू में आधा दर्जन से ज्यादा संस्करण प्रकाशित होते थे और जब एक दिन उनका संदेश लेकर शबाहत हुसैन विजेता मेरे पास आये- वकार भाई चाहते हैं कि आप अवधनामा के प्रधान संपादक बने.

मैंने चौंक कर पूछा था- अवधनामा तो उर्दू का अखबार है, मैं ठहरा हिंदी का आदमी मैं क्या कर पाऊंगा? जवाब मिला, वे हिंदी संस्करण भी आपको जेहन में रख के शुरू कर रहे हैं, आ जाइए.

मुलाकात के वक्त वकार भाई ने कहा, उत्कर्ष भाई आप प्रधान संपादक हैं, भाषा की फिक्र न करें, बस अखबार की लाइन तय करते रहें बाकी का काम ट्रांस्लेटर्स और रिपोर्टर का है. उर्दू न पढ़ने वाला मुझ जैसा व्यक्ति उर्दू अखबार की प्रिंट लाइन का हिस्सा बन गया.

और फिर हम वहां करीब 4 साल रहे. हिंदी संस्करण ने भी जोर पकड़ा. कम पूंजी वाले मगर सख्त तेवर के अखबार की पहचान बना पाने में हम कामयाब रहे.

वकार भाई की एक खासियत थी, वे अखबार के मालिक थे, खुद अच्छा लिखते भी थे मगर अपने संपादक की इज्जत का ख्याल रखना उन्हें बखूबी आता था. वे केबिन में आ के बैठते और कहते- कुछ लिखा है आप देख लें और आपकी इजाजत हो तो ये अखबार में ले लें. जिस दौर में मालिक खबर डिक्टेट करता हो उस दौर में ये बात अजीब लगेगी मगर यही वकार थे.

एक रोज सुबह सुबह 7 बजे फोन बजा दूसरी तरफ वकार भाई थे. मुबारक हो, आपका अखबार चौक इलाके में जलाया जा रहा है. मैं चौंक गया. उस वक्त लखनऊ के एक ताकतवर मौलाना के खिलाफ काफी खबरे इकट्ठा हो रही थी और हमने उस पर एक सीरीज का फैसला कर पहली किश्त छाप दी थी

मैंने कहा- फिर? जवाब मिला- अमा भाई, अगर खबर पक्की है और आप जैसा संपादक उसे छाप रहा हो तो फिर तो रोज ही चौक वालो को मेहनत करने दीजिए, फिक्र नहीं जारी रखिये फैसला आपका और अखबार भी आपका. ये तो इनाम है सहाफत का.

उर्दू की दुनिया में होते हुए भी वकार साहब ने कभी किसी खास को जगह नहीं दी, खुद उनके कॉलम में बड़ी सख्ती से मजम्मत की जाती रही. अदब की दुनिया के लोगों को जुटाना वकार भाई का शौक था. उर्दू राइटर फोरम की बुनियाद के पीछे यही वजह थी. हसन कमाल, आलिम नकवी, प्रो साबरा हबीब, औबेदुल्ला नासिर जैसे लोगो की किताबों पर चर्चा, उर्दू अदब पर सेमिनार ये सब लगातार चलता रहता. ऑफिस के आधे हिस्से में एक छोटा हाल हमेशा ऐसे कामों के लिए मुफ्त में मौजूद रहता था.

गंगा जमुनी तहजीब का पुल

वाकर रिजवी के सोचने का ढंग निराला था. संस्कृति को ऊपर रख कर उसे ज्यादा महत्वपूर्ण बनाने की कोशिश जारी रहती. वक़ार रिज़वी ने मोहर्रम के दौर में अपने नरही वाले घर में जो मजलिसें कीं उनका मकसद दूसरे धर्मों को कर्बला के बारे में बताना था. मजलिस में वो कभी सुनीता झिंगरन से नौहा पढ़वाते थे तो कभी हिमांशु वाजपेयी से मजलिस. मोहर्रम पर बोलने के डॉ. दाउजी गुप्ता और डॉ. दिनेश शर्मा उनके यहां आते थे तो लोगों को तमाम नई-नई बातें पता चलती थीं.

वकार का मानना था कि एक दूसरे के प्रति ज्यादा न जानने से ही मुश्किल होती है. वे कहते थे कि हिंदी के लोग ये जानते ही नहीं की उर्दू में क्या छप रहा है इसलिए भ्रांतियां बन जाती हैं. अपने वेब पोर्टल पर उन्होंने अखबार की सुर्खियों का ऑडियो डालना शुरू किया. वो बहुत पापुलर प्रयोग था.

अवधनामा को यूपी का पाठक जितना जानता है दूसरे मुल्कों के लोग उससे ज्यादा. कुछ विदेश यात्राओं में कुछ मुझे ये जानकर आश्चर्य हुआ जब वहां लोगों ने अवधनामा का जिक्र किया.

हमारे रिश्ते का आलम ये कि अवधनामा की कुर्सी छोड़ने के बाद भी अवधनामा से रिश्ता नहीं छूटा. वकार भाई ने कहा, जब तक अवधनामा है आप इसके संपादकीय सलाहकार रहेंगे और तकरीबन 7 साल बाद भी यूपी के सूचना विभाग की डायरी में हमारा वजूद अवधनामा के नाम से ही दर्ज चला आ रहा है.

अभी चंद रोज़ पहले वे जुबिली पोस्ट के दफ्तर आये और अवधनामा के डिजिटल संस्करण को हमने मिल जुल कर नया रूप दिया और इसे आगे बढ़ाने का प्लान किया था.

वकार भाई के साथ उर्दू हिंदी लिटरेरी फेस्टिवल लखनऊ में आयोजित करने की योजना पर काम चल रहा था मगर अब वो शायद कभी नहीं होगा. बहुत कुछ है कहने सुनने और याद करने को मगर उंगलियां साथ नहीं दे रहीं. लिखूंगा और शायद एक किताब ही लिख जाए वकार भाई पर.

अलविदा , ऊपरवाला आपको जन्नत बख्शे

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