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अजीत सिंह: कंप्यूटर मैन के किसान नेता बनने की जटिल कहानी

अजीत सिंह की मृत्यु की खबर के साथ दिल्ली की सरहदों पर किसान आंदोलन के सदस्यों को 28 जनवरी, 2021 का वह दिन याद आया जब उन्होंने राकेश टिकैत के आंसू को फोन से पोंछते हुए कहा था कि मैं अभी जिंदा हूं. धरना चलेगा और उन्होंने गाजियाबाद से मुजफ्फरनगर तक अपने समर्थकों को गाजीपुर बॉर्डर तक कूच करने का निर्देश दिया.

एक जटिल कहानी के पात्र थे चौधरी अजीत सिंह. वो उस जमाने में कंप्यूटर मैन बने जो अमेरिका के आईबीएम जैसी कंपनी में काम करने वाले पहले भारतीय थे. लेकिन सत्ता के इर्द गिर्द जीने वाले भारतीय राजनीतिक नेताओं में एक नस्ल है जिसने इस कंप्यूटर मैन को भी किसान नेता बनकर सत्ता में बने रहने का चस्का लगा दिया.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री रहे उनके पिता चरण सिंह की ख्याति ग्रामीण विरोधी नीतियों और परिवारवाद का पुरजोर विरोध करने की रही. वे अपना राजनीतिक उत्ताराधिकारी अपने साथ काम करने वाले तपे तपाये नेताओं को मानते थे. लेकिन 1986 में बिस्तर पर पड़े चरण सिंह के इर्द गिर्द रहने वाले बौने कद के नेताओं ने चौघरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत को उनकी व्यक्तिगत संपति बना दिया और उनके एकलौते बेटे कंप्यूटर मैन अजीत सिंह को राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने की होड़ में लग गए. 1986 में अजीत सिंह को राज्यसभा में सीट का इंतजाम करा दिया गया. 29 मई, 1987 को चरण सिंह की मृत्यु हो गई.

1985 के आसपास के समय को टैक्नोक्रेट्स व टेक्नोलॉजी के भारतीय राजनीति के शीर्ष पर प्रभावशाली होने और समाज के बीच राजनीतिक कार्यकर्ताओं के तैयार की प्रक्रिया के बिखर जाने के दौर के रुप में देखा जाता है.

चौधरी चरण सिंह की राजनैतिक विरासत अजीत सिंह के लिए एक संपति की तरह भिन्न-भिन्न राजनीतिक पार्टियों के साथ गठबंधन बनाने और सत्ता तक पहुंचने के काम लगातार अठाईस वर्षों यानी 2014 तक आई जब वे छह बार लोकसभा का सदस्य रहने के बाद सातवीं बार चुनाव हार गए.

अजीत सिंह प्रशिक्षित तो कंप्यूटर के लिए हुए लेकिन उन्हें किसान नेता बनाने में चापलूसों का हित था. उन्होंने खगड़पुर आईआईटी से बीटेक किया और अमेरिका में 15 वर्षों तक काम किया. भारत लौटने पर भी उन्होंने डीसीएम में काम किया और स्वतंत्र रुप से भी एक पेशेवर के रुप में अपने को स्थापित करने में लगे रहे. लेकिन भारतीय राजनीति में वंश का इस्तेमाल करने की एक मजबूत विचारधारा सक्रिय रही है और उसकी निगाहें हमेशा एक ऐसे नाजुक समय पर टिकी होती है जब वह वंशवाद का इस्तेमाल करने में कामयाबी हासिल कर लें.

अजीत सिंह दरअसल भारतीय सत्ताधारी राजनीति के लिए इस्तेमाल होने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक पात्र बन गए.

1989 में चौधरी देवी लाल ने अपने रुतबे का इस्तेमाल करते हुए हरियाणा भवन में जनता दल संसदीय बोर्ड की बैठक में यह ऐलान किया कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा सीटों के लिए टिकट बांटने की जिम्मेदारी मुलायम सिंह यादव और अजीत सिंह की है. तब वह एक मौका था जब अजीत सिंह अपनी राजनीतिक विरासत के महत्व को समझ पाते. लेकिन फिर वही चापलूस संस्कृति ने राजनीतिक रुप से नौसिखिए कंप्यूटर मैन को झाड़ पर चढ़ा दिया और मुलायम सिंह के मुकाबले विधायक दल के नेता के लिए चुनाव में उतार दिया.

उस घटना का दूरगामी असर यह हुआ कि चौधरी चरण सिंह ने जिस जतन से खुद को यादवों का सबसे बड़ा मान्य नेता बताकर भारतीय राजनीति में एक नये जातीय समीकरण की पृष्ठभूमि तैयार की थी वह अजीत सिंह के मुलायम सिंह से हारते के बाद हमेशा के लिए बिखर गया.

चौधरी अजीत सिंह की छवि 1989 के बाद से सत्ता में बने रहने के लिए आतुर एक नेता के रुप में बनती चली गई. 2014 से पहले तक अजीत सिंह की राजनीतिक सक्रियता लगभग सभी गैर वाम दलों के साथ रहने और छोड़ने के अवसरों के रुप में सामने आती है.

1987 और 1988 में लोकदल (अजीत) बनाने और जनता पार्टी के अध्यक्ष बनने फिर जनता दल के महासचिव यानी पार्टी बनाने, उसका विलय, सरकार बनाने और चुनाव जीतने के लिए गठबंधन के एक जरूरी पात्र समझे जाते रहे.

वे बागपत से 1989 में लोकसभा सदस्य होने के बाद वीपी सिंह की सरकार में उद्योग मंत्री रहे, 1991 में पीवी नरसिम्हा राव के साथ सरकार में रहे. फिर कांग्रेस में विलय करके कांग्रेस के टिकट पर 1996 में लोकसभा का चुनाव जीते. 1998 में वे हार गए. उसके बाद 1999, 2004 और 2009 में लोकसभा के लिए चुने गए. 2001 से 2003 के बीच वाजपेयी सरकार में कृषि मंत्री रहे. फिर मनमोहन सिंह की सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री बनें. 2009 में एनडीए के साथ थे लेकिन 2011 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव पहले यूपीए के साथ हो गए.

उन्होंने उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार का भी समर्थन किया और बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती का भी समर्थन किया. एक तरह से देखा जाए तो समर्थन करना और समर्थन वापसी अजीत सिह की राजनीति का ‘मुख्य औजार’ बनता चला गया.

मैंने एक बार अजीत सिंह के एक कार्यकर्ता से पूछा कि आपने अब तक कितनी बार दल बदल दिया है तो उस समर्थक का जवाब था कि उसने कभी दलबदल नहीं किया. वह तो हमेशा से अजीत सिंह के साथ रहा है. दलबदल तो अजीत सिंह करते रहे हैं.

अजीत सिंह की कोशिश चरण सिंह के नाम के दिये को जलाए रखने की भी थी. उन्होंने चौधरी चरण सिंह के लोदी रोड स्थित स्थित सरकारी आवास को स्मारक में तब्दील करने के लिए समर्थकों को एकजुट करने की कोशिश लेकिन उन्हें ले-देकर उत्तर प्रदेश के लखनऊ स्थित हवाई अड्डे का नाम चौधरी चरण सिंह करवाने में कामयाबी मिली.

किसानों के लिए एक बड़ी कामयाबी उन्होंने तब हासिल की जब उन्होंने चीनी मिलों के खुलने के नियमों में परिवर्तन किया और पश्चिम उत्तर प्रदेश में चीनी मिलों की संख्या तेजी से बढ़ गई. वे सड़कों पर भी उतरने की कोशिश करते रहे लेकिन उन्हें मुश्किलें महसूस होती थी. 2014 के चुनाव में हार के बाद गाजीपुर बॉर्डर पर उन्हें आंदोलन करने के दौरान मूर्छा आ गई थी. पुलिस की ज्यादतियों का उन्हें पहली बार सामना करना पड़ा था.

चौधरी अजीत सिंह पूरे दौरान राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी और राजनीतिक संपत्ति के वारिस बनने के बीच फंसे रहे. भारतीय राजनीति की यह एक त्रासदी है कि उस नस्ल ने अजीत सिंह को न तो कंप्यूटर मैन का कद हासिल होने दिया और ना ही भारत के किसानों का नेता बनने दिया.

देश के किसान नेता, पूर्व प्रधानमंत्री का एकलौता बेटा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के दावेदार से पश्चिम उत्तर प्रदेश, वहां से एक सीट और वहां से शून्य तक सिमटता चला गया.

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