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कोविड, लाचारी की मौत और बुलडोज़र
18 अप्रैल की शाम के तकरीबन साढ़े पांच बज रहे थे, हैदराबाद के पास जगनगुडा गांव में 26 साल के प्रदीप मधासु बेबस अपनी मां की लाश को एक जेसीबी मशीन के मिट्ठी ढोने वाले हिस्से में रखे जाता देख रहे थे और बेतहाशा रो रहे थे. वह रोते हुए लाचारी से बस अम्मा-अम्मा पुकार रहे थे. अपने किसी प्रियजन के पार्थिव शरीर को इस तरह से ले जाने का ख्याल भी किसी के भी मन को झंझोड़ के रख सकता है. ऐसे हालात किसी को भी ग़मगीन कर सकते हैं.
लेकिनं देश भर में कोविड-19 के बढ़ते संक्रमण के दौरान अव्यवस्था और साधनों के चरमराने की आजकल हर रोज़ ऐसी कहानियां सुनने मिल रही हैं जो ना सिर्फ इंसानियत को शर्मसार करने वाली होती हैं बल्कि हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर भी सवालिया निशान खड़ा करती हैं. यह कहानियां हमारे- आपके जैसे उन आमजनों की आपबीती हैं जो बेबसी, मजबूरी और दर्द कि ऐसी दास्तानें बयां करती हैं जो दिल दहलाने वाली हैं.
प्रदीप की मां जयम्मा मधासु भी कोविड के संक्रमण से ग्रसित थीं और दिन भर अस्पतालों के चक्कर काटने के बावजूद जब उन्हें अस्पताल में भर्ती नहीं किया गया तो उनका दम निकल गया. असल में 16 अप्रैल की सुबह को जब जयम्मा को हल्की सी सर्दी-खांसी हुयी थी तो वह शामिरपेठ स्थित सरकारी अस्पताल में अपनी जांच करने गयी थीं. अस्पताल में उनका रैपिड-एंटीजन टेस्ट (परीक्षण) किया गया जिसमे वह कोविड पॉजिटिव पायी गयी थीं. उन्हें अस्पताल वालों ने दवाइयां तो दे दी थीं लेकिन उनके टेस्ट की उन्हें कोई रिपोर्ट नहीं सौंपी. 16 अप्रैल की शाम तक उनकी सर्दी थोड़ी बढ़ गयी थी. 17 अप्रैल को सुबह वह उठीं लेकिन नाश्ता वगैरह करने के बाद उन्हें सांस लेने में थोड़ी दिक्कत होने लगी थी.
प्रदीप कहते हैं, "जब मां को सांस लेने में थोड़ी दिक्कत होने लगी तब मैंने अपने रिश्तेदारों से संपर्क किया और उनसे मां को किस अस्पताल में भर्ती किया जाए इस बात पर चर्चा की. मेरी मौसेरी बहन ने कुछ डॉक्टरों से संपर्क भी साधा लेकिन कोई अस्पताल में बात नहीं बन पायी. शाम तक मां को सांस लेने में और तकलीफ होने लगी थी और सुबह तक यह तकलीफ बहुत बढ़ गयी थी. उनका हाल मुझसे देखा नहीं गया तो मैंने एंबुलेंस बुलाई और उन्हें लेकर अस्पताल में भर्ती करने निकल पड़ा."
प्रदीप अपनी मां के साथ हैदराबाद शहर से लगभग 30 किमी दूर जगनगुडा गांव में रहते हैं. वो सुबह लगभग 11 बजे अपनी मां को लेकर हैदराबाद के लिए निकले थे. वह कहते हैं, "सबसे पहले में जुबली अस्पताल गया लेकिन अस्पताल वालों ने मां को यह कहते हुए वहां भर्ती करने से मना कर दिया कि अस्पताल में ऑक्सीजन नहीं है और मैं उन्हें किसी दूसरी जगह जाकर भर्ती कराऊं. मां की हालत बिगड़ती जा रही थी. उसके बाद वहां से लगभग एक किमी दूर मैं उन्हें लाइफलाइन अस्पताल में ले गया वहां पहुंचने पर अस्पताल वाले कहने लगे कि वो उन्हें वहां भर्ती नहीं करेंगे और मैं उन्हें किसी सरकारी अस्पताल में ले जाऊं."
प्रदीप आगे कहते हैं, "लाइफलाइन में हमें छोड़ने के बाद एंबुलेंस जा चुकी थी. मैं और मेरी मां चिलचिलाती धूप में अस्पताल के बाहर सड़क पर ही बैठे थे. अस्पताल वालों ने हमें अंदर नहीं आने दिया था और वहीं सड़क पर ही कह दिया था कि वे मेरी मां को उनके यहां भर्ती नहीं कर सकेंगे. वो बहुत बदतमीज़ी से बात कर रहे थे. मां की तकलीफ बढ़ती जा रही थी और उन्हें सांस लेने में बहुत दिक्कत होने लगी थी. मैंने अस्पताल वालों से बहुत मिन्नतें की, लेकिन उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी. मैंने फिर से एक एंबुलेंस बुलाई और फिर मैं उन्हें नवजीवन अस्पताल ले गया लेकिन वहां ऑक्सीजन की कमी थी, अस्पताल वालों ने भी ऑक्सीजन सिलेंडर का इंतज़ाम करने की कोशिश की, लेकिन इंतज़ाम हो ना सका, इसलिए मां को वहां भर्ती नहीं किया जा सका."
प्रदीप बताते है," नवजीवन वालो ने सलाह दी कि उन्हें श्री आदित्य अस्पताल लेकर जाऊं. लेकिन वहां पहुंचने पर भर्ती करने से मना करते हुए कह दिया कि उनकी हालत बहुत नाज़ुक हो चुकी है और गांधी सरकारी अस्पताल ले जाने की सलाह दी. मैंने वापस से एंबुलेंस बुलाई और उन्हें गांधी अस्पताल ले गया लेकिन वहां जाने पर वो मुझसे मां की रिपोर्ट मांगने लगे जो कि हमें शमीरपेठ अस्पताल वालों ने दी ही नहीं थी. रिपोर्ट ना होने के चलते उन्होंने भी मां को अस्पताल में भर्ती करने से मना कर दिया."
प्रदीप की मौसेरी बहन प्रतिभा कल्याणम जो कि प्रदीप के साथ लगातार फोन पर उस दिन बनी हुयी थीं कहती हैं, "गांधी अस्पताल हैदराबाद का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल है जब वहां भी भर्ती करने से मना कर दिया तो प्रदीप का हौसला टूट गया था. वह लाचार हो चुका था जब कही भी इलाज नहीं हुआ तो उसने तय किया कि वो मां को घर ले जाएगा और खुद उनका इलाज करेग. वो जो पैसे लेकर आया था वो सब एंबुलेंस में खर्च हो गए थे, वापस लौटने के लिए भी जेब में पैसे नहीं थे."
वह कहती हैं, "4-5 किमी के फासले के लिए एंबुलेंस वाले ढाई से लेकर 4-5 हज़ार रूपये ले रहे थे. घर से लेकर गांधी अस्पताल तक उसके लगभग 14-15 हज़ार रूपये सिर्फ एंबुलेंस में खर्च हो गए थे. जब मां को वापस घर जाने के लिए उसने एंबुलेंस बुलाई तो एंबुलेंस वाला 20 हजार रुपए मांग रहा था. बड़ी मिन्नतें करने के बाद जैसे तैसे 13 हज़ार में वो एंबुलेंस ड्राइवर उन्हें घर ले जाने को तैयार हुआ, लेकिन लौटते वक़्त मेरी मौसी की एंबुलेंस में ही मौत हो गयी थी. घर पहुंचने पर प्रदीप के पास 13 हज़ार भी नहीं थे एंबुलेंस वाले को देने के लिए सिर्फ नौ हज़ार रुपए ही दे पाया.
गौरतलब है कि प्रदीप और उनकी मां गांव में एक किराने की दुकान चलाते थे जो पिछले एक हफ्ते से बंद थी. प्रदीप के पिता बालकृष्ण की सात महीने पहले दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गयी थी, वह उसके पिछले दो साल से लकवे से ग्रसित थे.
प्रतिभा बताती हैं, "वो जिस भी अस्पताल में गया वहां उसने अपनी मां के इलाज के लिए बहुत मिन्नतें की, जब अस्पताल वाले उसे मना कर देते थे तो वह लाचारी से रोने लगता था. मैं उसे लगातार समझा रही थी, लेकिन उसकी मां कि बिगड़ती हालत और उनके इलाज में किसी भी तरह कि कोई मदद ना मिलने से वो हताश हो गया था. गांधी अस्पताल से घर लौटते वक़्त अचानक से वो फिर से रोने लगा और कहने लगा था कि मां ने सांस लेना बंद कर दिया है.
जब प्रदीप अपनी मां को गांव लेकर पहुंचे तो गांव का सरपंच और अन्य लोग उनसे कहने लगे कि वो क्यों अपनी मां की लाश को घर लेकर आएं हैं. प्रदीप कहते हैं, "सब कह रहे थे कि कोविड के मरीज की लाश को क्यों लेकर आये हो गांव में, मुझे बहुत बुरा लग रहा था. मेरी मां की मौत हो गयी थी और सब उनके पार्थिव शरीर को भी हिकारत से देख रहे थे. बाद में गांव के सरपंच ने जेसीबी मशीन बुलवाई जिसमें मेरी मां की लाश को रखकर गांव से दूर ले जाया गया, जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया."
वह आगे कहते हैं," मुझे बहुत भरोसा था डॉक्टरों और अस्पतालों पर इसलिए मैं अपनी मां को बेहिचक इलाज के लिए वहां ले गया था. लेकिन मुझे इन लोगों पर अब बिलकुल भी भरोसा नहीं है. मेरी मां की ज़िन्दगी बच सकती थी, इतने बुरे हाल में देखने के बावजूद भी उन पर किसी को दया नहीं आयी. मैं अब अकेला रह गया हूं घर पर, पता नहीं मां के बिना मैं कैसे जी पाउंगा. इस मौत की ज़िम्मेदारी सरकारी अव्यवस्था की है. पता नहीं देश भर में ऐसे कितने लोग इस अव्यवस्था के चलते मौत के घाट उतारे जा रहे हैं."
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