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उत्तर प्रदेश: ‘‘समय पर सीएमओ का रेफरल लेटर मिल गया होता तो मेरे पिता जिंदा होते’’
लखनऊ के राजा बाजार के रहने वाले स्वप्निल रस्तोगी की उम्र महज 26 साल है. पढ़ाई के साथ-साथ स्वप्निल लखनऊ की पुरानी इमारतों को बचाने के लिए आंदोलन करते रहते थे, लेकिन वे अपने ही पिता को नहीं बचा पाए. कोरोना से स्वप्निल के पिता राजकुमार रस्तोगी का निधन हो गया. स्वप्निल कहते हैं, ‘‘इस व्यवस्था ने पापा को मार दिया. समय पर इलाज मिल जाता तो वे आज जिन्दा होते.’’
स्वप्निल के पिता 59 वर्षीय राजकुमार रस्तोगी की तबीयत 12 अप्रैल को खराब हुई. उसके बाद शुरू हुई बेड के लिए भटकने की प्रक्रिया. प्राइवेट अस्पतालों में स्वप्निल भटकते रहे लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. स्वप्निल के मुताबिक उनके पिता को बेड के लिए मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) ने रेफरल लेटर 17 अप्रैल की सुबह दी. दो दिन उनका एक सरकारी अस्पताल में इलाज चला. 19 अप्रैल को स्थिति बिगड़ने पर दोपहर के समय अस्पताल प्रशासन ने वेंटिलेटर बेड के लिए सीएमओ को पत्र लिखा. देर रात को इसके लिए भी रेफलर लेटर मिला, लेकिन बेड नहीं मिल पाया. 20 अप्रैल की सुबह पिताजी की मौत हो गई.
उत्तर प्रदेश में किसी भी कोरोना मरीज को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए सीएमओ कार्यालय से इजाजत की ज़रूरत थी. बिना सीएमओ के रेफरल लेटर के किसी भी मरीज को अस्पताल में भर्ती नहीं किया जा सकता चाहे बेड खाली ही क्यों न हो या मरीज की स्थिति बदहाल ही क्यों न हो. यह प्रक्रिया तो बीते साल से बनी हुई है लेकिन इस बार इसका असर मरीजों पर पड़ रहा है और इलाज के अभाव में उनकी मौत हो रही है.
गाजियाबाद में स्वास्थ्य विभाग से जुड़े एक सीनियर अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते है, ‘‘कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद मरीजों के परिजनों की जानकारी के आधार पर उन्हें अलग-अलग कैटेगरी में रखा जाता है. जो ज़्यादा सीरियस होता है उसे बेड उपलब्ध कराया जाता है. यह नियम सही है. जहां भी बेड की कमी पड़ती है वहां सरकारें इस तरह के नियम लगाती हैं ताकि ज़रूरतमंदों को पहले बेड मिले. नियम को ठीक से लागू कराने की जिम्मेदारी अधिकारियों की है.’’
अधिकारी भले ही नियम को सही कह रहे हों लेकिन इस प्रक्रिया के कारण कई लोगों का इलाज के अभाव में निधन हो गया. इसकी तरफ कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी अपने एक पत्र में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ध्यान दिलाती है.
कोरोना मरीजों की भर्ती के लिए सीएमओ से इजाजत की प्रक्रिया को खत्म करने के लिए लिखे अपने पत्र में प्रियंका कहती हैं, ‘‘हमें मिली जानकारी के मुताबिक इस प्रक्रिया को अस्पताल में भर्ती के लिए लम्बा इंतज़ार करना पड़ रहा है और परिजन एक जगह से दूसरी जगह कर रहे हैं. इस व्यवस्था के चलते कई लोगों की जान चली गई.’’
प्रियंका गांधी ही नहीं बीजेपी सांसद कौशल किशोर ने भी इसको लेकर सवाल उठाया है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक किशोर ने कहा, ''हॉस्पिटल को सीधे भर्ती किए जाने की जिम्मेदारी दी जाए. सीएमओ द्वारा मरीजों को रेफरल लेटर देने की प्रक्रिया से उनके भर्ती होने मे देरी हो रही है.''
स्वप्निल बताते हैं, ‘‘12 अप्रैल को जब मेरे पापा की तबीयत खराब हुई तब हम पास के ही एक प्राइवेट क्लिनिक में उनको लेकर गए. तब तक हमें पता नहीं था कि उन्हें कोरोना हुआ है. क्लिनिक वालों ने हमें बताया कि इनका ऑक्सीजन लेवल लगातार कम हो रहा है. मैं अपने आसपास के तकरीबन 20 अस्पतालों में गया, लेकिन कहीं भी ऑक्सीजन नहीं मिली. कोई भी सरकारी अस्पताल लेने को तैयार नहीं था क्योंकि उन्हें कोविड रिपोर्ट चाहिए थी. हालांकि तब तक उनकी स्थिति बिगड़ गई थी और उन्हें भर्ती कराना ज़रूरी हो गया था. बहुत भटकने के बाद एक निजी अस्पताल रेवांता ने भर्ती किया. उन्होंने 15 घंटे बाद हाथ खड़े कर दिए की हमारे पास ऑक्सीजन नहीं है, आप अपने मरीज को जहां मन करे वहां ले जाओ और महज 15 घंटे में 47 हज़ार रुपए का बिल बनाकर हमें दे दिया. वहां से मैं अपने पापा को घर लेकर आया. काफी पैसे खर्च कर हमने बाहर से ऑक्सीजन खरीदा और पापा को देते रहे.’’
स्वप्निल आगे कहते हैं, ‘‘रेवांता अस्पताल ने 16 अप्रैल को बताया कि पापा की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई है. इसी बीच मैं बेड के लिए ऑनलाइन उपलब्ध नंबरों पर कॉल करता रहा, लेकिन कुछ हो नहीं पा रहा था. तीन दिन तक पापा घर पर रहे. अंत में मुझे एक नंबर मिला जिस पर बात हुई. बातचीत के करीब 12-13 घंटे बाद जानकारी दी गई कि बेड उपलब्ध कराया गया है. मैंने उनसे कहा कि मुझे आईसीयू बेड चाहिए. इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हमारे पास आइसोलेशन बेड है उसमें ले जाना है तो ले जाइए.’’
‘‘हमने बताया कि इनका ऑक्सीजन लेवल कम है तो उन्होंने कहा कि वहां ऑक्सीजन मिलेगी. पापा को 17 अप्रैल की सुबह रामसागर मिश्रा अस्पताल में बेड उपलब्ध कराया गया. वहां जाने के पहले दिन पापा ने फ़ोन करके बताया कि ऑक्सीजन खत्म हो गई. यहां कोई डॉक्टर भी नहीं आ रहा है. मैं लगातार कंट्रोल रूम में फोन कर रहा था कि ऑक्सीजन उपलब्ध कराई जाए. वो कह रहे थे कि ऑक्सीजन है. बाद में पता चला कि ऑक्सीजन नहीं था उन्होंने जबरदस्ती सिलेंडर लगाया.’’ यह कहते हुए स्वप्निल की आवाज़ डबडबाने लगती है.
वो आगे कहते हैं, ‘‘18 अप्रैल की दोपहर को अस्पताल वालों का फोन आया कि आपके मरीज को हमने वेंटिलेटर बेड के लिए रेफर किया है क्योंकि इनका ऑक्सीजन लेवल कम हो गया है. दोपहर में अस्पताल ने वेंटिलेटर के लिए सीएमओ को पत्र लिखा और करीब 12 घंटे बाद देर रात को सीएमओ ने कहा कि बेड खाली हो तो इन्हें दिया जाए. 12-13 घंटे बाद सीएमओ का सिर्फ हस्ताक्षर मिला. उसके बाद बेड ही नहीं मिला. सिर्फ बेड की वजह से ही मेरे पापा की डेथ हुई नहीं तो वे आज जिन्दा होते.’’
राजकुमार का कोरोना टेस्ट नहीं हुआ था. डी-डिमर हुआ था और इसी के आधार पर रेवांता अस्पताल ने बताया की उनको कोरोना है. यह जानकारी हमें स्वप्निल देते हैं.
आरटी पीसीआर या दूसरा कोरोना का टेस्ट क्यों नहीं कराया? इस सवाल के जवाब में स्वप्निल कहते हैं, ''सरकार ने सारे निजी लैब को टेस्ट करने से रोक दिया है. डी-डिमर टेस्ट भी तो अस्पताल वालों ने ही किया था. उसी के आधार पर सीएमओ ने राम सागर मिश्रा अस्पताल में बेड दिया गया. आज शव लेने गया तब भी परेशान किया गया कि आरटी पीसीआर रिपोर्ट लेकर आओ. हालांकि बाद में समझाने पर शव दे दिया.''
दिल्ली में कोरोना मरीजों का इलाज करने वाली एक महिला डॉक्टर से जब राजकुमार का डी-डिमर टेस्ट दिखाया तो उनका कहना था कि मरीज का ferritin का स्तर बढ़ा हुआ है. ऐसे में कोरोना हो सकता है लेकिन कंफर्म करने के लिए आरटी पीसीआर कराना ही होगा.
उत्तर प्रदेश में कोरोना विकराल रूप ले चुका है. प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दोनों कोरोना पॉजिटिव हैं.
प्रदेश में सबसे बुरी स्थिति राजधानी लखनऊ की है. कोरोना की दूसरी लहर आने के बाद से यहां हर रोज औसतन पांच हज़ार मामले सामने आ रहे हैं. दूसरी तरफ योगी सरकार का सीएमओ से रेफर कराने वाला नियम उसमें एक और बाधा बन रहा है.
न्यूज़लॉन्ड्री ने कई लोगों से बात की जो इस वजह से अपने परिजनों को अस्पताल में भर्ती नहीं करा पाए और उन्हें हमेशा के लिए खो दिया. कुछ ऐसे हैं जिन्हें बहुत भटकने के बाद ही बेड मिल पाया. दरअसल सीएमओ ऑफिस द्वारा एक नोटिस जारी किया गया है. उसमें कुछ डॉक्टर्स के नंबर हैं. रेफर के लिए उनसे संपर्क करने के लिए कहा गया है. कई परिजनों की शिकायत थी कि जल्दी कोई फोन नहीं उठता है. न्यूज़लॉन्ड्री ने इसमें से कुछ अधिकारियों को फोन किया लेकिन किसी ने भी फोन नहीं उठाया. यहां तक की मुख्य चिकित्सा अधिकारी तक ने भी फोन नहीं उठाया.
‘नानी को नहीं मिल सका समय पर बेड’
यह कहानी सिर्फ स्वप्निल की नहीं है बल्कि लखनऊ के अमीनाबाद में रहने वाले 21 वर्षीय विदित श्रीवास्तव की भी है. सीएमओ ऑफिस द्वारा रेफरल लेटर नहीं मिलने के कारण इनकी 65 वर्षीय नानी माया श्रीवास्तव को समय पर इलाज नहीं मिल पाया और 18 अप्रैल की शाम उनकी मौत हो गई.
माया श्रीवास्तव का कोरोना टेस्ट 14 अप्रैल को हुआ था और 15 अप्रैल को रिपोर्ट आई. रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद किसी ने फोन करके नहीं पूछा की तबीयत कैसी है. बस नगर निगम वाले आकर घर के बाहर पोस्टर लगा गए कि यहां कोरोना मरीज रहता है.
न्यूजलॉन्ड्री से फोन पर बात करते हुए विदित श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘एक जानने वाले के सहयोग से हमने नानी का कोरोना टेस्ट कराया. जांच कराने के बाद सीएमओ ऑफिस से फोन करके रेफर नंबर दिया जाता है. उसी के आधार पर किसी को बेड मिलता है. रेफर नंबर नहीं मिला. हम कई अस्पतालों में उन्हें लेकर भी गए लेकिन कोई इलाज करने को तैयार नहीं था. ये स्थिति तब थी जब लगातार उनका ऑक्सीजन लेवल कम हो रहा था. हमने कई हेल्पलाइन नंबर पर फोन किए. ज़्यादातर तो फोन उठते ही नहीं थे और जो उठाते थे वो किसी और का नंबर दे देते थे.’’
विदित श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘18 अप्रैल की शाम को नानीजी की तबीयत एकदम बिगड़ गई. हम उन्हें लेकर बलरामपुर अस्पताल भागे. वहां गेट पर हमें रोक दिया गया. गार्ड ने कहा कि यहां सिर्फ कोविड के ही मरीज आ सकते हैं. हमने बताया कि ये भी कोविड की मरीज ही हैं, लेकिन अभी इनको रेफरल लेटर नहीं मिला है. उन्होंने गेट नहीं खोला. वहां से हम मेडिकल कॉलेज ले गए. वहां उन्होंने एडमिट कर लिया. एडमिट करने के कुछ मिनटों के बाद बता दिया कि ये नहीं रहीं. इलाज के बगैर उनकी मौत हो गई.''
सीएमओ द्वारा रेफर करने के बाद भर्ती करने की प्रक्रिया को लेकर विदित कहते हैं, ''इससे काफी लोगों को नुकसान हो रहा है. बिना भर्ती हुए ही इलाज के अभाव में लोगों की मौत हो रही है. सीएमओ ऑफिस के लोग किसी को भी फोन करके नहीं बताते की आपके मरीज को इस अस्पताल में बेड दिया गया है. आपको इसके लिए बार-बार उन्हें फोन करना होगा. ज़्यादातर समय फोन नहीं लगता है.’’
इस प्रक्रिया की आलोचना उत्तर प्रदेश मानवाधिकार आयोग ने भी की है. 19 अप्रैल उत्तर प्रदेश मानवाधिकार आयोग के सदस्य न्यायमूर्ति केपी सिंह और ओपी दीक्षित द्वारा जारी एक आदेश में सभी अस्पतालों के बाहर नोटिस बोर्ड पर अस्पताल में उपलब्ध बेड की जानकारी देने के लिए कहा गया है. साथ में यह भी कहा गया है कि कोविड के मरीजों को सरकारी/निजी अस्पतालों में कोविड वार्डों में भर्ती करने के संबंध में मुख्य चिकित्सा अधिकारी/ किसी अन्य विभागीय अधिकारी के रेफरल लेटर उपलब्ध होने की तत्काल समीक्षा की जाए और इसकी अनिवार्यता समाप्त कर विभिन्न अस्पतालों के विशेषज्ञ चिकित्सकों को स्वविवेक के आधार पर स्वयं रिक्त बेड पर कोविड मरीजों के भर्ती किए जाने के आदेश दिए जाएं.
स्वप्निल रस्तोगी और विदित श्रीवास्तव से प्रोफेसर अनुज कुमार (बदला नाम) थोड़े भाग्यशाली हैं. सरकारी कर्मचारी होने के कारण ये अपना नाम नहीं बताते हैं. इनकी सास के साथ वो सब हुआ जो स्वप्निल के पिता और विदित की नानी के साथ हुआ. बेड नहीं मिलने की स्थिति में वो घर पर ही रहीं और इलाज कराती रहीं. जबकि खुद सीएमओ के कार्यालय ने उन्हें गंभीर मरीज की कैटेगरी में रखा था. टेस्ट के तीन दिन बाद जब बेड मिला तो कुमार की सास ने खुद ही जाने से इंकार कर दिया क्योंकि वो लगातार टेलीविजन पर अस्पतालों की बदहाल तस्वीरें देख रही थीं. आज भी उनका इलाज घर में ही चल रहा है. अभी वो निगेटिव नहीं हुई हैं.
कुमार कहते हैं, ‘‘काफी महंगा ऑक्सीजन खरीदकर लाना पड़ रहा है. सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिल रही है.’’
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार शरद प्रधान इस व्यवस्था की जमकर आलोचना करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘सीएमओ के नाम का संस्थान कब का बर्बाद हो चुका है. ऐसे में उसे इतनी बड़ी जिम्मेदारी देने का क्या मतलब है. हर बड़े अस्पताल में चीफ मेडिकल सुप्रीटेंडेट होता है. उसे क्यों न जिम्मेदारी दे दी जाए? आप ऐसा कर सकते हैं कि 100 बेड वाले अस्पताल की जिम्मेदारी सीएमओं को दे सकते हैं और उससे ज़्यादा के जो अस्पताल है वो खुद से तय करेंगे. इससे सीएमओं पर भी दबाव कम होगा.’’
इस व्यवस्था की कमी को लेकर लगातार आलोचना होती रही. जिसके बाद ऐसी खबर आ रही है कि उत्तर प्रदेश सरकार इसमें बदलाव कर हर अस्पताल में एक नोडल अधिकारी नियुक्त करने जा रही है.
रॉयटर्स इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश सरकार के प्रवक्ता ने बताया, ‘‘सरकार इस सप्ताह सीएमओ रेफरल व्यवस्था को समाप्त करने की योजना बना रही है. इसकी जगह पर हर कोविड अस्पताल में एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति की जाएगी. यही अधिकारी तय करेंगे की मरीज को भर्ती करने की जरूरत है या नहीं.''
न्यूजलॉन्ड्री ने इस संबंध में जानकारी के लिए उत्तर प्रदेश सूचना प्रमुख नवनीत सहगल से संपर्क किया लेकिन वे व्यस्त थे, उन्होंने बाद में बात करने के लिए कहा. हमने उन्हें दोबारा फोन किया लेकिन बात नहीं हो पाई. हमने इस संबंध में उन्हें सवाल भेज दिए हैं. साथ ही अपर मुख्य सचिव अवनीश अवस्थी को भी सवाल भेजे हैं लेकिन रिपोर्ट लिखे जानेतक उनका कोई जवाब नहीं आया है. जवाब आने पर इस खबर में शामिल कर लिया जाएगा.
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