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कोरोनाकाल में कैसे काम कर रही हैं एंबुलेंस सेवाएं?
दिल्ली एम्स के बाहर जितनी भीड़ कोविड-19 टेस्ट कराने वालों की लगी है उस से कई गुना ज़्यादा भीड़ अस्पताल के अंदर भर्ती कोविड के मरीज़ों की है. लगातार बढ़ते मरीजों के चलते अस्पताल में अब इतनी जगह बाकी नहीं है कि सबको तुरंत बेड मिल जाए. इसलिए कई कोविड संक्रमित मरीज़ों को झज्जर के नेशनल कैंसर इंस्टिट्यूट में शिफ्ट किया जा रहा है.
जितेंद्र इन मरीज़ों को शिफ्ट करने में मदद कर रहे हैं. वो संक्रमित मरीज़ों को एंबुलेंस से झज्जर छोड़कर लौटे हैं. किसी से भी बात करने से पहले वो एंबुलेंस पार्किंग के पास बने एक कमरे में जाते हैं जहां वह अपनी पीपीई किट उतारते हैं.
जितेंद्र बताते हैं, “हर एंबुलेंस में एक ड्राइवर और टेक्नीशियन रहता है. अगर मरीज़ की हालत ज़्यादा खराब हो तभी डॉक्टर साथ बैठते हैं. ड्राइवर और टेक्नीशियन आगे बैठते हैं, हमने पीपीई किट पहनी होती है. लेकिन कुछ समय बाद इसमें घुटन होने लगती है. सर दर्द होता है और सांस लेने में तकलीफ भी होती है."
जितेंद्र ने आगे बताया कि अचानक मरीज़ों की संख्या बढ़ने से पीपीई किट को बदलने का समय भी नहीं मिल पा रहा है. वो कहते हैं, "आजकल कई मरीज़ों को शिफ्ट करने का कॉल आ जाता है. इसके चलते एक के बाद एक मरीज़ को शिफ्ट करना पड़ रहा है. ऐसे मे समय नहीं होता कि बार-बार पीपीई किट बदल सकें. अंदर से शरीर पसीने से भीग जाता है. पैरामेडिक एक स्वास्थ्य कर्मचारी होता है जिसकी प्राथमिक भूमिका आकस्मिक और गंभीर रोगियों के लिए उन्नत आपातकालीन चिकित्सा देखभाल प्रदान करना है. हर एंबुलेंस में ऐसे दो पैरामेडिक रहते हैं.”
अपने पेशे को समझाते हुए जितेंदर कहते हैं, "मेरी जॉब बिलकुल जान को कोविड की आहुति चढ़ाने जैसी है. सारा दिन कोविड मरीज़ों के साथ रहना पड़ता है. यहीं हमारा काम है."
कैसी होती है एंबुलेंस की व्यवस्था
एंबुलेंस सेवाओं के लिए कंट्रोल रूम से फोन आता है. जिसके बाद एंबुलेंस को तैयार किया जाता है. हर एंबुलेंस तरह-तरह के चिकित्सा उपकरणों से लैस होती है. कोविड एंबुलेंस को अंदर से आईसीयू जैसा तैयार किया जाता है जिसमें ऑक्सीजन सिलेंडर, वेंटिलेटर और बेसिक से लेकर एडवांस लाइफ सपोर्ट सिस्टम मौजूद होता है. साथ ही बैकअप के लिए एक छोटा सिलेंडर भी रहता है. अंदर पंखे भी लगे रहते हैं. सभी एंबुलेंस को दो बार सैनिटाइज किया जाता है. एंबुलेंस मरीज़ को जब दूसरी जगह शिफ्ट करती है तब सैनिटाइज किया जाता है. फिर अस्पताल वापिस लौटने के बाद एंबुलेंस पर मशीन द्वारा सैनिटाइज़र का छिड़काव होता है. यह ड्यूटी ड्राइवर की होती है कि वो सैनिटाइज़ेशन के लिए एमटीएस (मल्टी टास्क सर्विस) टीम को कॉल कर सूचित करे. एमटीएस रोज़ाना सुबह 7 बजे एंबुलेंस की सफ़ाई करती है.
पीपीई किट नहीं पहन रहे ड्राइवर, बढ़ते मामलों के बीच करते हैं डबल ड्यूटी
40 वर्षीय मुकेश एम्स में पिछले 14 सालों से एंबुलेंस चला रहे हैं. उन्होंने बताया, “चार एंबुलेंस (नंबर 3067, 3075, 3018 और 3046) कोविड के मरीज़ों को लाने- ले जाने के लिए आरक्षित की गई हैं. इनमे 3046 कोविड एडवांस एंबुलेंस है. जो ड्राइवर खाली होता है वो इन्हें चलाता है. इन्हें चलाने के लिए अलग से किसी ड्राइवर की व्यवस्था नहीं की गई है. नॉन कोविड मरीज़ों के लिए भी चार एंबुलेंस हैं. इन चार में से दो हाल ही में नई मंगवाई गई हैं. कोविड लाशों को श्मशान घाट या कब्रिस्तान ले जाने के लिए अलग एंबुलेंस होती हैं.”
मुकेश से जब हमारी मुलाक़ात हुई तब उन्होंने पीपीई किट नहीं पहनी हुई थी. वो कहते हैं, "एम्स की सभी एंबुलेंस बड़ी गाड़ियां हैं. यहां वैन एंबुलेंस कम हैं. हर एंबुलेंस में ड्राइविंग सीट और मरीज़ के बीच मेटल से बनी दीवार है. हम मरीज़ से सीधा संपर्क में नहीं आते इसलिए हमें पीपीई किट पहनने की ज़रूरत नहीं है. हम गाड़ी चलाते हैं. गर्मी बढ़ गई है. पीपीई पहनेंगे भी तो सर चकराने लगेगा और ऐसी हालत में गाड़ी चलाना मुश्किल है."
मुकेश ने आगे बताया, “हर ड्राइवर की आठ घंटे की शिफ्ट होती है. कोविड मरीज़ों के बढ़ने से हर दिन एक ड्राइवर तीन से चार चक्कर लगा रहा है. बहुत बार डबल-ड्यूटी भी करनी पड़ रही है. सात दिन पहले यहां तीन लोगों को कोविड हो गया जिनमें दो टेक्नीशियन और एक ड्राइवर (सनी) है. ये सभी एंबुलेंस से मरीज़ों को झज्जर ले जा रहे थे. अब इनकी ड्यूटी भी हमें करनी पड़ती है. इसके लिए कोई एक्स्ट्रा पैसा नहीं मिलता. उन्हें एंबुलेंस चलाने के लिए हर महीने 17 हज़ार रुपए मिलते हैं. उनकी एक 10 साल की बेटी और तीन साल का बेटा भी है. उनका टीकाकरण हो चुका है लेकिन उनके परिवार में अभी किसी अन्य सदस्य को टीका नहीं लगा है. उनके टीकाकरण के बाद उनके अंदर संक्रमित होने का डर कम हुआ है.”
मल्टी-टास्क विभाग के कर्मचारी राजिंदर (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि बढ़ते संक्रमण के चलते ड्राइवर और फर्स्ट रेस्पॉन्डर (पैरामेडिक) शिफ्ट के समय से ज़्यादा काम कर रहे हैं. वो कहते हैं, "हमारी शिफ्ट ख़त्म होने का समय रात आठ बजे है. लेकिन कई बार सड़क पर समय लग जाता है. मरीज़ बढ़ रहे हैं. साढ़े सात बजे कॉल आ जाता है तो तैयार होकर जाना पड़ता है. ऐसे में हम ओवर टाइम कर रहे हैं. इसके लिए कोई एक्स्ट्रा पैसा नहीं मिलता."
एम्स में कोविड मरीज़ों के लिए बड़ी एंबुलेंस का इस्तेमाल किया जाता है. मरीज़ों की संख्या ज़्यादा होने के कारण बड़ी एंबुलेंस में चार से पांच मरीज़ों को ले जाया जा रहा है. लेकिन एंबुलेंस में एक ही ऑक्सीजन सिलेंडर लगाने की व्यवस्था होती है. एम्स में एंबुलेंस से जुड़े ड्राइवर और पैरामेडिक्स की तीन शिफ्टें होती हैं.सुबह आठ से दो, दिन मे दो से रात आठ और सुबह आठ से रात आठ बजे तक. इन तीन शिफ्टों के बीच एक बार रात को 'नाइट रेस्ट' मिलता है. पैरामेडिकल स्टाफ को 19 हज़ार रुपए महीना वेतन मिलता है. पूछने पर एंबुलेंस से जुड़े एक कर्मचारी बताते हैं कि यदि उनमे से किसी को भी कोविड संक्रमण हो जाता है तो अस्पताल में उनको भी बेड मिलना उतना ही मुश्किल है जितना आम जनता को. लेकिन क्वारंटाइन के लिए कमरा ज़रूर मिल सकता है.
एम्स के ठीक सामने है दिल्ली का सफदरजंग अस्पताल. यह भी एक सरकारी अस्पताल है. राजेश की उम्र 50 साल है. वो पिछले 30 साल से एंबुलेंस चला रहे हैं. सफदरजंग में ड्राइवर दो शिफ्टों- सुबह आठ से शाम आठ और दूसरी सुबह नौ से शाम चार में काम करते हैं. हर शिफ्ट में चार ड्राइवर होते हैं. एम्स से अलग, सफदरजंग में ड्राइवर को पीपीई किट पहनना अनिवार्य है. हर एंबुलेंस में ऑक्सीजन सिलेंडर होता है. मरीज़ को छोड़कर आने के बाद एंबुलेंस के सैनिटाइज़ेशन की ज़िम्मेदारी ड्राइवर की होती है. मरीज़ को छोड़कर आते ही ड्राइवर नहाते हैं. जहां एम्स में कोरोना मरीज़ों के लिए बड़ी एंबुलेंस का इस्तेमाल किया जाता है वहीं सफदरजंग में वैन एंबुलेंस ही ज़्यादा हैं. इन एंबुलेंस में आगे की ड्राइविंग सीट और पीछे की तरफ लेटे कोरोना मरीज़ के बीच कोई दीवार नहीं होती. प्रशासन ने इन दोनों सीटों के बीच केवल प्लास्टिक की एक शीट लगाई है.
कम पड़ रही हैं सरकारी एंबुलेंस
सफदरजंग के बाहर कई एंबुलेंस खड़ी रहती हैं. वहीं खड़े 24 वर्षीय आशीष को एंबुलेंस चलाते चार साल हो चुके हैं. उन्होंने बताया, “सरकारी अस्पतालों के पास पर्याप्त एंबुलेंस नहीं हैं इसलिए इस समय प्राइवेट एंबुलेंस ज़रूरी हैं. प्राइवेट एंबुलेंस हूबहू सरकारी एंबुलेंस की तरह ही होती हैं. इनमे भी एडवांस लाइफ सपोर्ट सिस्टम की सभी सुविधाएं मौजूद होती हैं. हमें मेडुलेन्स से कॉल आता है जिसके बाद हम मरीज़ के पास जाते हैं.” बता दें कि मेडुलेन्स एक प्राइवेट एंबुलेंस सर्विस है. इस एप पर जाकर मरीज़ अपने लिए एंबुलेंस बुक करवा सकते हैं बिलकुल ओला या ऊबर की तरह.
आशीष बताते हैं, “कोविड के मरीज़ों के लिए बुलाने वाली कॉल बढ़ गई हैं. हम रोज़ाना छह से सात चक्कर लगा रहे हैं. हर बार हम पीपीई किट पहनते हैं और हर नए मरीज़ को लेने जाते समय नई पीपीई किट पहनते हैं. एंबुलेंस के अंदर एक ड्राइवर, एक टेक्नीशियन और परिवार के दो जन मौजूद होते हैं.”
आशीष इस से पहले तीन साल अपोलो में एंबुलेंस चला चुके हैं. आशीष के साथ महेंद्र भी साथ एंबुलेंस में रहते हैं. वो बताते हैं दिल्ली में बिगड़ रही कोरोना संक्रमण की स्थिति के बीच उन्हें हर दिन 24 घंटे अस्पताल में रहना पड़ता है. 20 वर्षीय महेंद्र के घर पर उनके माता- पिता और एक बहन है. उन्हें डर लगता है कि कहीं संक्रमण उनके ज़रिए घर तक न पहुंच जाए इसलिए महिंदर कई-कई दिन घर नहीं जा पा रहे हैं.
वो कहते हैं, "मरीज़ बहुत ज़्यादा हैं. घर जाने से पहले हम कोविड टेस्ट कराते हैं और रिपोर्ट आने से पहले घर नहीं जाते. अपने परिवार का भी ख्याल रखना पड़ता है. हम 24 घंटे किसी न किसी मरीज़ के संपर्क में रहते हैं. संक्रमण का खतरा हमेशा सर पर घूमता रहता है. लेकिन यह समय है जनता की सेवा करना का."
दीना नाथ सफदरजंग परिवहन विभाग के अध्यक्ष हैं. वे बताते हैं, “अस्पताल के पास 10 एंबुलेंस हैं. इनमे से दो एंबुलेंस कोविड मरीज़ों के लिए आरक्षित हैं.”
जब पूछा गया कि बढ़ते संक्रमित मरीज़ों के बीच केवल दो एंबुलेंस के सहारे अस्पताल किस तरह काम कर रहा है? इस पर वह कहते हैं, “हमने सरकार को पत्र लिखा है. जल्द ही स्वास्थ्य विभाग दो बड़ी एंबुलेंस मुहैया कराएगी. एंबुलेंस की कमी को पूरा करने के लिए मरीज़ों को 102 पर कॉल करने की सलाह दी गई है. 102 CATS (Centralised Accident & Trauma Services) सर्विस का नंबर है. यह दिल्ली सरकार द्वारा संचालित 24 X 7 मुफ्त एंबुलेंस सर्विस है.”
श्मशान घाट से ड्यूटी ख़त्म होने का कोई समय नहीं
दिल्ली का निगमबोध श्मशान घाट इन दिनों कोविड लाशों का ठिकाना बना हुआ है. हरीश (बदला हुआ नाम) सुबह पहली लाश के साथ एंबुलेंस में बैठकर निगमबोध पहुंच जाते हैं. जिसके बाद वो वहीं रहकर एलएनजेपी (लोक नायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल) से आने वाली कोविड लाशों का दाह संस्कार कराते हैं. उनकी दो बेटियां हैं जो छह और नौ साल की हैं. वो पूरा समय कोविड लाशों से सीधा संपर्क में रहते हैं. ऐसे मे हरीश कहते हैं कि उन्हें डर तो लगता है पर पैसे कमाना भी ज़रूरी है.
वह कहते हैं, “यहां से फ्री होने का कोई समय नहीं रहा है. कल रात को नौ बजे फ्री हुआ. बढ़ते संक्रमण की आंधी के कारण सातों दिन काम करना पड़ रहा है. यहां से पहले अस्पताल जाता हूं, नहाता हूं, और फिर इन कपड़ों को मोर्चरी में बने एक लॉकर में रखता हूं. उसके बाद ही घर जाता हूं,"
हरीश आगे कहते हैं, “वे सुबह नौ बजे निगमबोध श्मशान घाट पहुंच जाते हैं. दिन के दो बज रहे थे जब हमारी उनसे मुलाक़ात हुई. तब तक एलएनजेपी अस्पताल से 20 कोविड लाशें आ चुकी थीं. श्मशान घाट आने वाले सभी एंबुलेंस ड्राइवर और स्वास्थ्य कर्मचारी पीपीई किट पहनकर आते हैं. स्ट्रेचर से लाश को स्ट्रेचर जैसे ही दूसरे ढांचे पर लिटाया जाता है. यह काम केवल पीपीई किट पहने पैरामेडिक कर्मचारी ही करते हैं. अस्पताल लौटने के तुरंत बाद एंबुलेंस को मोर्चरी में सैनिटाइज किया जाता है. एम्बुलेंस में बैठे पैरामेडिक कर्मचारी और ड्राइवर के नहाने के लिए कमरा बनाया गया है. जिसके बाद वो अगले दौरे की तैयारी करते हैं.”
हरीश बताते हैं, “पूरा दिन पीपीई किट में बिताना बहुत कठिन है. खासकर श्मशान घाट आने वाली एंबुलेंस के लिए. धूप के कारण एंबुलेंस अंदर से गरम हो जाती है. पीपीई किट पहनकर वापिस इसी एंबुलेंस में जाते हैं. पूरे शरीर में पसीना बहने लगता है. ऐसा लगता है आग में जल रहे हैं. पानी पीने तक का समय नहीं होता. सर चकराता है. श्मशान घाट पर लाशें जलने के कारण धुआं फ़ैल जाता है जिस से घाट पर गर्मी भी बढ़ जाती है. धुएं के बीच काम करना मुश्किल है. किसी भी समय पीपीई किट उतार नहीं सकते. इसे उतारने के लिए ही दो लोगों की मदद चाहिए होती है. सांस लेने मे तकलीफ बढ़ती जा रही है. लेकिन इस बारे में कोई कुछ नहीं कर सकता." अपने काम के लिए हरीश को 14 हज़ार रूपए महीना मिलते हैं.
दिल्ली के संगमविहार में रहने वाले अभिलाष के बड़े भाई की कोविड से मौत हो गई. वो निगमबोध घाट पर खड़े थे. उनके भाई का इलाज फोर्टिस अस्पताल में चल रहा था. एंबुलेंस न मिलने के कारण उन्होंने बाहर से प्राइवेट एम्बुलेंस को बुलाया. अभिलाष कहते हैं, "इस समय कहीं भी एम्बुलेंस नहीं मिल रही है. एंबुलेंस के लिए वेटिंग लिस्ट में नाम लिखा जाता है."
राहुल (ड्राइवर) अभिलाष के भाई को अपनी एम्बुलेंस में लेकर आये. 20 साल के राहुल दो साल से खुद की एंबुलेंस चला रहे हैं. वो बताते हैं, "सुबह से चार चक्कर लगा चुका हूं. फोर्टिस से लाशों को निगमबोध लाता हूं. हर चक्कर के तीन हज़ार रुपए मिल जाते हैं. "
महाराजा अग्रसेन अस्पताल (पंजाबी बाग) उन 14 निजी अस्पतालों में शामिल है जिन्हे पूर्ण कोविड मरीज़ों के लिए आरक्षित किया गया है. महाराजा अग्रसेन अस्पताल के वरिष्ठ प्रशासन अधिकारी, राकेश गेरा अपने यहां एंबुलेंस सेवाओं का हाल बताते हैं, "हमने एक एंबुलेंस कोविड के मरीज़ों के लिए आरक्षित रखी है जिसमें ड्राइवर और हाउस कीपिंग स्टाफ को पीपीई किट दी जाती है. मरीज़ खुद की गाड़ियों में यहां आते हैं. कोविड लाशों के लिए हमारे पास एंबुलेंस की कोई सुविधा नहीं है लेकिन हम बाहर से एंबुलेंस की व्यवस्था कराने में मदद करते हैं जिसमे दो हज़ार का खर्चा आ जाता है."
नॉन- कोविड मरीज़ नहीं दे पा रहे एंबुलेंस का पैसा
सफदरजंग अस्पताल के अंदर ही हमारी मुलाकात 30 वर्षीय राहुल से हुई जो 14 साल से एंबुलेंस चला रहे हैं. राहुल प्राइवेट एंबुलेंस चलाते हैं. उनके तीन बच्चे हैं. वो पहले 10 से 12 हज़ार कमा लेते थे लेकिन अब उनकी कमाई पर असर पड़ा है. इसकी वजह बताते हुए राहुल कहते हैं, "लोगों को कोरोना हो रहा है लेकिन पिछली कोरोना लहर ने सभी की नौकरी और कमाई के साधन छीन लिए हैं. कोविड के कारण मृतकों के परिजन सरकारी व्यवस्था पर निर्भर रहते हैं. जिनको कोविड नहीं है उनके पास इतना पैसे नहीं हैं कि प्राइवेट एंबुलेंस बुक कर सकें."
बता दें कि देश में कोविड संक्रमण तेज़ी से पैर फैला रहा है. स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार भारत में रविवार को 2,61,500 नए कोविड -19 मामले सामने आये. दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य विभाग द्वारा मंगलवार शाम को जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली में नए 28,395 कोरोनवायरस मामले सामने आये जो पिछले साल महामारी के बाद से एक ही दिन में सबसे ज्यादा हैं. दिल्ली में पाजिटिविटी दर 32% से अधिक पहुंच गई है.
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