Opinion
कोरोना के टीके की विश्वसनीयता कितनी है, क्या ये म्युटेंट वायरस संस्करणों से लड़ सकते हैं?
अमेरिका, ब्रिटेन, इजरायल सहित और अन्य कई देशों ने महामारी पर अंकुश लगाने के लिए प्रभावी रूप से टीकाकरण अभियान को लागू किया है और आंकड़े दिखा रहे हैं कि इससे स्वाभाविक रूप से मृत्यु दर कम हो रही है. भारत को भी ऐसा ही करना होगा. भारत में टीकाकरण की शुरुआत 16 जनवरी को हुई थी लेकिन ये अभी भी बहुत धीमा है उम्मीद के मुताबिक अभी तक टीकों की खुराक लोगों तक नहीं पहुंच पाई है. 11 सप्ताह के बाद 10 अप्रैल तक, लगभग 1 करोड़ 23 लाख लोगों ने टीके प्राप्त कर लिए हैं जो की जनसंख्या का लगभग 0.9% है. एक टीका एक ऐसी जैविक औषधि विधि है, जो रोगांणुओं के खिलाफ़ सक्रिय प्रतिरक्षा प्रदान करता है. इसमें आम तौर पर कुछ ऐसा होता है जो रोगजनक रोगांणु से मिलता-जुलता है- यह एक कमजोर या क्षीण रोगांणु, या इसके विष या इसके कवच पर पाया जाने वाला कोई प्रोटीन भी हो सकता है.
इस तरह से टीका रोगांणु को पहचानने, इसे नष्ट करने और भविष्य में उसके रोगांणु से मुकाबलों के लिए एक शारीरिक याददाश्त स्थापित करके शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को उत्तेजित करके तैयार करता है. इस तरह से प्रथम संक्रमण या टीकाकरण के बाद विकसित होने वाली एंटीबॉडी रोगांणु को पहचान लेती हैं, कोशिकाओं में इसके प्रवेश को रोकती हैं, और इसे विनाश के लिए चिह्नित करती हैं. कुछ टीके हत्यारी कोशिकाओं (किलर टी- कोशकाएं) को भी प्रेरित करते हैं, जो संक्रमित कोशिकाओं को उनके झुंड से बाहर निकाल कर नष्ट करती हैं. एक सफल टीका विकसित करने में वर्षों लग सकते हैं. चेचक और नाक से दिए जाने वाले फ्लू के टीके को बनाने में 28 साल तक लग गए थे, ह्यूमन पेपिलोमावायरस और रोटावायरस के टीके बनाने में लगभग 15 साल लग गए, और बच्चों को दिए जाने वाले संयोजन टीकों (डीपीटी, एमएमआर इत्यादि) को विकसित होने में एक दशक से अधिक समय लगा था.
हालांकि, कई कोविड -19 टीके विकसित किए गए और एक वर्ष से भी कम समय में उनके उपयोग के लिए मंजूरी दे दी गई है. यह कैसे संभव हुआ? यह कई लोगों को भ्रमित करता है, जो सोचते हैं कि इनके पूर्ण से विकसित किये जाने की गति ने इन टीकों की सुरक्षा और प्रभावशीलता से समझौता किया होगा. इस त्वरित गति से विकसित कर पाने के कई कारण हैं- आधुनिक विज्ञान, भाग्य, तंत्र और अर्थशास्त्र. आधुनिक विज्ञान की शक्ति ने पहले विकसित किये गए कई टीकों के बनाने वाले प्लेटफार्मों की तैयार उपलब्धता के साथ योगदान दिया है, जिन्हें कोविड-19 टीकों के लिए जल्दी से पुनः इस्तेमाल किया गया है. और भाग्य ने अपनी भूमिका निभाई है. सभी टीके कोरोना विषाणु की ऊपरी सतह पर पायी जाने वाली स्पाइक प्रोटीन के लिए प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया बढ़ाने पर आधारित हैं, और अभी तक के आकड़ों के हिसाब से इसने तुलनात्मक रूप से अच्छा काम किया.
ये भी एक विडम्बना है की वैज्ञानिक लगभग चार दशकों से एचआईवी/एड्स के टीके पर काम कर रहे हैं, और वायरस के सतही प्रोटीन का उपयोग करने वाले सभी प्रयास अब तक एक प्रभावी टीके का उत्पादन करने में विफल रहे हैं. पूर्व-कोविड समय में, टीका विकास क्रमिक रूप से आगे बढ़ गया- अनुसंधान से लेकर पूर्व-नैदानिक (पशुओं पर प्रयोगों) अध्ययनों तक नैदानिक विकास-अनुमोदन और उसके बाद बड़े पैमाने पर निर्माण. हालांकि, नियामकों ने कोविड -19 टीकों के लिए कई अतिव्यापी या समानांतर चरणों की अनुमति दी और विनियामक समीक्षाओं को गति के साथ किया गया. अंत में, कंपनियों को उनकी मंजूरी से पहले टीके बनाने की अनुमति दी गई जो की टीका विज्ञान के इतिहास में पहली बार हुआ है. उदाहरण के लिए, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे ने विनियामक अनुमोदन से पहले ही अपने कोविशील्ड टीके की 4 करोड़ खुराकों का उत्पादन किया था. कोवाक्स, जो की विश्व स्वास्थ्य संगठन और कुछ निजी कम्पनियों का एक कंसोर्टियम है, उसने सीरम इंस्ट्यूट को 30 करोड़ अमेरिकन डॉलर प्रदान किए और आगे भी और अनुदान देने का आश्वासन दिया, तथा कुछ और वित्तीय जोखिमों को दूर करने में मदद की.
इस प्रकार से ये बिंदु बताते हैं की कैसे कोविड-19 के टीकों का त्वरित विकास संभव हो सका. कोरोना विषाणु का जीनोमिक अनुक्रम (डीएनए सीक्वेंस), 7 जनवरी, 2020 को सबसे पहली बार पता चला. 42 दिनों में, एक अमेरिकी बायोटेक कंपनी मॉडर्ना ने एक आरएनए वाले टीके का विकास किया है जिसका मनुष्यों में परीक्षण गया है. इसके बाद अगले 63 दिनों में, वॉलिंटियर्स को इस टीके की खुराक दी गई थी. बायो-एन-टेक नामक एक छोटी जर्मन बायोटेक कंपनी ने भी साथ-ही-साथ ऐसी ही आरएनए वाली एक समान वैक्सीन का निर्माण किया और इसे विकसित और वितरित करने के लिए अमेरिकी फार्मास्युटिकल दिग्गज फाइज़र के साथ भागीदारी की. आरएनए के टीके पहले कभी भी नहीं आजमाए गए थे, लेकिन उल्लेखनीय रूप से असरदार साबित हुए.
वे प्रोटीन (इस मामले में स्पाइक प्रोटीन) का उत्पादन हमारी कोशिकाओं में जाकर करते हैं, जो प्रतिरक्षा को उत्प्रेरित करता है. इस तरह के टीके की अवधारणा सरल है, लेकिन असली चुनौती आरएनए को स्थिर रखने की है, जो स्वाभाविक रूप से कठिन है. यह लिपिड (वसा) के बने नैनोपार्टिकल में आरएनए को ढक कर किया गया है. मानव नैदानिक परीक्षणों में, इन दोनों आरएनए टीकों ने उत्कृष्ट सुरक्षा और प्रभावकारिता दिखाई है, और कई देशों में इसका उपयोग किया जा रहा है. यूएसए की हालिया रिपोर्ट बताती है कि ये टीके वास्तविक जीवन की स्थितियों में भी बहुत अच्छा प्रदर्शन करते हैं.
इस समय प्रयोग किये जाने वाले कई कोविड-19 टीके सामान्य ज़ुकाम-बुखार करने वाले एडेनोवायरस का उपयोग करके बनाए गए हैं. इसकी खुद की जीवनवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए कुछ एडिनोवायरस जीन उसके जीनोम से हटा दिए जाते हैं और कोरोना विषाणु के स्पाइक जीन को इसमें लगा दिया जाता है। संशोधित एडेनोवायरस तब स्पाइक जीन को मानव कोशिका में ले जाने के लिए एक वाहक की तरह काम करता है, जहां वह अपने आरएनए का उत्पादन करता है और स्पाइक प्रोटीन को बनाना चालू करता है. इन 'वायरल वेक्टर' टीकों के उदाहरणों में ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका (भारत में कोविशिल्ड के नाम से उपलब्ध), जॉनसन एंड जॉनसन, रूस के गामालया इंस्टीट्यूट और चीन के कैन्सिनो बायोलॉजिक्स शामिल हैं. पिछले कुछ दशकों में निष्क्रिय किए गए संपूर्ण वायरस और प्रोटीन सबयूनिट टीके जैसी स्थापित टीका बनाने की विधियां भी विकसित की गयी हैं.
इन टीकों में देश की प्रमुख दवाई कंपनी भारत बायोटेक का कोवैक्सिन टीका और चीन के सिनफार्मा और सिनोवैक के टीके शामिल हैं. अमेरिकी नोवाक्स और रूस के वेक्टर संस्थान द्वारा बनाये गए टीके भी इसके उदाहरण हैं. टीकों के नैदानिक विकास में परीक्षण के तीन चरण शामिल होते हैं. चरण-1 में, टीके का परीक्षण आमतौर पर 20 से 100 स्वस्थ वॉलंटियर्स में किया जाता है ताकि यह जांचा जा सके कि यह सुरक्षित है, यह देखा जाता है कि यह कहीं किसी भी गंभीर दुष्प्रभाव को जन्म तो नहीं देता है, और इस्तेमाल होने वाली खुराक का आकार किसी प्रकार के प्रतिकूल प्रभाव से तो नहीं संबंधित है? इसके चरण- 2 के में नैदानिक परीक्षण कई सौ वॉलंटियर्स पर किया जाता है ताकि सबसे आम अल्पकालिक दुष्प्रभाव का निर्धारण किया जा सके. इसका लक्ष्य है कि दी जाने वाली खुराक और उसकी समय सारिणी का अनुकूलन किया जा सके, और अध्ययन किया जा सके कि क्या वॉलंटियर्स की प्रतिरक्षा प्रणाली टीके के प्रति किस प्रकार की प्रतिक्रिया करती है.
चरण-3 में टीकों की प्रभावकारिता का परीक्षण करने के लिए सैकड़ों या हजारों वॉलंटियर्स पर किया जाता है. इन वॉलंटियर्स को दो बराबर समूहों में विभाजित किया जाता है, पहले समूह के वॉलंटियर्स को टीके की जगह और कुछ (इसे प्लेसीबो समूह कहा जाता है), इसी के साथ-साथ दुसरे समूह के वॉलंटियर्स को टीके की खुराक दी जाती है. और फिर समय की पूर्व निर्धारित अवधि में दोनों झुंडों में बीमारी (या संक्रमण) का अध्ययन किया जाता है. यह चरण बताता है कि टीका और प्लेसिबो समूह कैसे संक्रमण या बीमारी से लड़ने में भिन्न तरह से व्यवहार करते हैं, यदि टीका प्रभावी है, तो प्लेसीबो समूह के वॉलंटियर्स संक्रमण/बिमारी से ज़्यादा ग्रस्त पाए जायेंगे, और इसी प्रकार टीका समूह में कम दुष्प्रभाव भी दिखने चाहिए. चूंकि स्वस्थ लोगों को टीके लगाए जाते हैं, इसलिए सुरक्षा सर्वोपरि है और तीनों चरणों में इसका परीक्षण करके आकड़ों से सुनिश्चित किया जाता है.
प्रभावकारिता एक ऐसा शब्द है जिसे ज़्यादातर लोग समझने में असमर्थ दिख रहे हैं. इसकी गणना 100x (1- टीका समूह में होने वाले बीमारों की संख्या/प्लेसीबो समूह में होने वाले बीमारों की संख्या) के रूप में की जाती है. आइए इसे समझने के लिए फ़ाइज़र/बायो-एन-टेक टीके के चरण-3 का आकड़े देखें. यह परीक्षण तीन महीनों की अवधि में 43,661 वॉलंटियर्स पर किया गया. इस समय के दौरान, 170 लोगों ने रोग विकसित किया, जिनमें से 162 प्लेसीबो समूह में थे और केवल आठ टीका समूह के थे. इस प्रकार गणना की गई प्रभावकारिता 100 x (1-8 / 162) है, जो 95 प्रतिशत के बराबर है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हमेशा टीका पाने वाले 5 फीसदी लोग कोविड-19 विकसित करेंगे. प्रभावकारिता इस बात की ओर इशारा देती है कि टीके कोविड-19 रोग के जोखिम को कितना कम कर सकते हैं.
प्रभावकारिता किसी परीक्षण में भाग ले रहे वॉलंटियर्स की अनुवांशिकी पर भी निर्भर करती है. उदाहरण के लिए नोवावैक्स टीके ने अमेरिका में 90 प्रतिशत प्रभावकारिता दिखाई, लेकिन दक्षिण अफ्रीका में वे केवल 49 प्रतिशत प्रभावकारिता ही दिखा पायी क्योंकि बाद के मामले में परीक्षण उस समय किए गए जब कोरोना विषाणु का एक बदला हुआ संस्करण उस देश में फ़ैल चूका था. एक नैदानिक परीक्षण की अत्यधिक नियंत्रित स्थितियों के तहत एक प्रतिनिधि आबादी में प्रभावकारिता का परीक्षण किया जाता है, लेकिन प्रभावशीलता तब बदल जाती है जब टीका वास्तव में पूरी आबादी के लिए इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि ऐसा बिलकुल मुमकिन है कि बाद के हालात में कुछ परिस्थितियां बदल जाएं.
अंत में, प्रभावकारिता सीमित समय तक ही वही बनी रहेगी जैसी की परीक्षणों में पायी गयी थी. फ़ाइज़र/बायो-एन-टेक टीके की 95 प्रतिशत प्रभावकारिता तीन महीने की अवधि के आंकड़ों पर आधारित है. यह छह महीने, एक साल या पांच साल में बदल सकती है. अभी इस्तेमाल हो रहे कोविड-19 टीकों की प्रभावशीलता के लिए सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि यह बीमारी की गंभीरता से बचाएंगे और मृत्यु दर निचले स्तर पर ले जायेंगे. इस बिंदु पर, अभी तक के सभी स्वीकृत टीके 100 प्रतिशत प्रभावी हैं. इसलिए, नैदानिक परीक्षणों में उनकी प्रभावकारिता के आधार पर विभिन्न टीकों की तुलना करना बेमानी है.
क्या म्युटेशन से बदले हुए कोरोना विषाणु के संस्करण बनना चिंता का विषय हैं, और वर्तमान में उपलब्ध टीके उनके खिलाफ प्रभावी होंगे? म्युटेशन एक प्राकृतिक और यादृच्छिक क्रिया है. जब कोई विषाणु प्रजनन करके अपनी संख्या बढ़ा रहा होता है, तो इसका जीनोम/अनुवांशिक सामग्री (आरएनए या डीएनए) भी उसकी कार्बन प्रतियां बनाता है, परन्तु इस प्रक्रिया के दौरान इसमें त्रुटियां होती हैं और इसी तरह की त्रुटियां जीवों में क्रम-विकास का कारण हैं. ये बहुत कुछ वर्तनी की त्रुटियों की तरह है जो हम लिखते समय कर जाते हैं. जबकि हम वापस जा सकते हैं और उन गलतियों को सुधार सकते हैं, परन्तु विषाणु, विशेष रूप से जिनका जिनोम आरएनए का बना होता है, वे नहीं सुधार सकते. अधिकांश ऐसे म्युटेशन विषाणु के लिए हानिकारक होते हैं, और इसलिए वे ऐसे दोषपूर्ण संस्करण बनाते हैं जो स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं और कभी नहीं देखे जाते हैं.
दूसरे जो बच जाते हैं वे प्रजनन जारी रखते हैं और आगे संक्रमण करते हैं, ऐसे म्युटेशन विषाणु को कुछ चुनिंदा फायदे देते हैं, जैसे कि बेहतर संक्रामकता, बढ़ा हुआ संचरण या प्रतिरक्षा की चोरी. प्रकृति द्वारा इन्हीं का चुनाव होता है, और यही विषाणुओं की नस्ल को आगे बढ़ाते हैं. दिसंबर 2019 में चीन के वुहान से आया विषाणु लगातार होने वाले म्युटेशन की वजह अब काफी बदल चुका है. D614G नामक एक म्युटेशन जो जनवरी 2020 के अंत के समय में उभरा था, इस म्युटेशन से बने इस संस्करण ने विषाणु को संक्रमित करने, उसको तेज़ी से प्रजनन करने और अधिक कुशलता से संचारित करने की ताकत दी है. नतीजतन, यह अब ये दुनिया भर में प्रमुख चिंता का कारण बन गया है, इसी संस्करण के अब 99% से अधिक विषाणु दुनिया भर में घूम रहे हैं. वैज्ञानिकों ने कुछ और कोरोना विषाणु के चिंताजनक संस्करणों को ढूंढा है जिनको उन्होंने ‘वैरिएंट्स ऑफ़ कंसर्न’ (वीओसी) कहा है.
इन विषाणु संस्करणों में बेहतर संक्रामकता होती हैं और ये बहुत तेज़ी से फैलते हैं या आंशिक रूप से टीके द्वारा उत्पन्न प्रतिरक्षा से बचने में सक्षम होते हैं. ब्रिटेन के वीओसी संस्करण को वंशावली B.1.1.7 भी कहा जाता है, जिसमें 23 म्युटेशन थे, पहली बार इंग्लैंड के दक्षिणी भाग में खोजा गया था, लेकिन अब यह 114 देशों में पाया जाता है. इस वंश में परिभाषित स्पाइक प्रोटीन म्यूटेशन N501Y और P681H हैं, लेकिन ब्रिटेन और अमेरिका में पाए गए इस वंश के अधिक हाल के विषाणु में E484K म्युटेशन पाया जाता है. दक्षिण अफ्रीकी वीओसी संस्करण- जिसे वंश B.1.351 भी कहा जाता है- में 9 म्युटेशन होते हैं और अब 68 देशों से रिपोर्ट किए जा रहें हैं. इस वंश के विषाणुओं में इनकी कवच पर पाये जाने वाले स्पाइक प्रोटीन में N501Y, E484K और K417N म्यूटेशन होते हैं. ब्राजील वीओसी संस्करण- जिसे वंश P.1 भी कहा जाता है. इसमें 16 म्युटेशन होते हैं और अब 36 देशों से रिपोर्ट किए जा रहें हैं. इस वंश वाले विषाणुओं के स्पाइक प्रोटीन में N501Y, E484K और K417T म्यूटेशन हैं.
इन सभी वीओसी विषाणु संस्करणों में स्पाइक प्रोटीन में म्यूटेशन केंद्रित होता है, N501Y म्युटेशन सभी तीनों में पाया जाता है. यह एक संयोग नहीं हो सकता. बल्कि, यह बताता है कि यह म्युटेशन विषाणु की मदद करता है, और उसे और अधिक मारक बनाता है. स्पाइक प्रोटीन विषाणु के मानव कोशिका में प्रवेश करने में मदद करती है, जो विषाणु के प्रजनन करने के लिए आवश्यक पहला कदम है. मानव कोशिका के संपर्क में आने वाले स्पाइक प्रोटीन के हिस्से, इस प्रकार इसकी सफलता के लिए सबसे महत्वपूर्ण भाग हैं, और टीके द्वारा उत्पन्न सुरक्षा करने वाली एंटीबॉडी के लिए सर्वोत्तम संभव लक्ष्य हैं. स्वाभाविक रूप से, म्युटेशन से विषाणु विकास का लक्ष्य स्पाइक प्रोटीन का यही हिस्सा होगा, जो इसे मानव कोशिका से बेहतर संपर्क बनाने में मदद करे और टीकाकरण के बाद एंटीबॉडी द्वारा इस संपर्क को बेअसर करने की प्रक्रिया को फ़ेल कर दे.
वीओसी संस्करणों में जो म्यूटेशन जमा हुए हैं, उन सबका लक्ष्य यही है. N501Y म्युटेशन विषाणु के साथ मानव कोशिका के संपर्क को बेहतर बनाता है और जबकि E484K म्युटेशन एंटीबॉडी को कम प्रभावी बनाता है. ये वीओसी संस्करण चिंता का कारण हैं, लेकिन इतनी ज़्यादा भी नहीं। 30 मार्च को प्रकाशित ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका टीके के एक अध्ययन में, एक E484K मुक्त B.1.1.7 वंशावली विषाणु से संक्रमित लोगों ने एक गैर-बी.1.1.7 विषाणु की तुलना में समान रूप से अच्छी तरह से बीमारी के खिलाफ सुरक्षा प्रदर्शित की, लेकिन प्रभावकारिता थोड़ी कम और अनिश्चित दोनों थी. हालांकि जिन वालंटियर्स पर परीक्षण किया गया था उनकी एंटीबॉडी बी.1.1.7 वंश के विषाणुओं से मानव कोशिकाओं से संपर्क करने में कम सक्षम थी, टीके सिर्फ एंटीबॉडी को बनना ही नहीं उत्प्रेरित करते हैं बल्कि ये प्रतिरक्षा प्रणाली के दूसरी भुजाओं को भी उत्प्रेरित करते हैं. नोवावैक्स और जॉनसन एंड जॉनसन दोनों के टीके भी यूके म्युटेशन संस्करण के खिलाफ प्रभावी हैं, लेकिन दक्षिण अफ्रीकी और ब्राजील वेरिएंट के खिलाफ प्रभावकारिता कम दिखाते हैं. भारत का कोवैक्सिन टीका भी प्रयोगशाला परीक्षणों में यूके संस्करण को अच्छी तरह से बेअसर करने में कामयाब लगता है, लेकिन परिणाम अभी तक देश की आबादी पर या अन्य म्युटेशन संस्करण के लिए उपलब्ध नहीं हैं.
“टीके जीवन नहीं बचाते हैं, बल्कि टीकाकरण से जानें बचतीं है”, वाल्टर ओरेंस्टीन ने कहा जो कि रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र, संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा संचालित प्रतिरक्षण कार्यक्रम के पूर्व निदेशक हैं. अब तक भारत में लगभग 1 करोड़ 23 लाख लोगों का टीकाकरण हुआ है, जिनमे से 180 की मौतें किन्ही कारणों से हो गई, मरने वालों की संख्या नगण्य है, 68000 टीकाकृत व्यक्तियों में से सिर्फ एक की मौत हुई है, फिर भी लोगों की तसल्ली के लिए इसकी भी वैज्ञानिक जांच होनी चाहिए. सोशल मीडिया में ऐसे भ्रामक संदेश भी देखने को मिले जिसमे ये बताने की कोशिश की जा रही है की जिन लोगों ने टीका लिया है उनको भी संक्रमण हो जा रहा है, जिसका तात्पर्य ये निकाला जा रहा है की टीकाकरण बेकार है. जबकि लोगों को ये समझना होगा कि टीके हमें संक्रमण से नहीं बीमारी की गंभीरता से बचाते हैं. कोरोना विषाणु से होने वाली मौतों का आकड़ा कम करने का सबसे कारगर तरीका टीकाकरण ही है. हमें शुक्रगुज़ार रहना चाहिए कि दुनिया के पास टीके हैं और टीकाकरण का उपयोग कर महामारी को समाप्त करने का एक ऐतिहासिक अवसर है. और इसमें भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है। आइए हम इस अवसर को बर्बाद न करें.
लेखक बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्विद्यालय, लखनऊ, में बायोटेक्नोलॉजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.
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