Newslaundry Hindi
छत्तीसगढ़: नक्सलियों ने हमारी आंखें खोलने का माहौल बनाया है
बस्तर में कुछ भी, किसी के बस में नहीं है. छत्तीसगढ़ सरकार और नक्सलियों के बीच छत्तीस का नाता था, है और जो दिख रहा है वह बताता है कि आगे भी यह रिश्ता ऐसा ही रहेगा.
3 अप्रैल 2021 को वही हुआ जो इससे पहले भी कई बार, कई जगहों पर हो चुका है. जिंदा इंसानों का लाशों में बदलना और फिर हमारा लाशों को गिनना! बस्तर में पैरामिलिट्री सेंट्रल रिजर्व पुलिस के अपने 22 जवानों की लाशें गिन-बटोर कर दोनों सरकारें निकल गई हैं; छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की मानें तो अपने साथियों की अनगिनत लाशें दो ट्रैक्टरों में लाद कर नक्सली भी गुम हो चुके हैं. बस्तर के इलाके में सन्नाटा पसरा है. मौत जब भी जिंदगी से जीतती है तो ऐसा ही सन्नाटा होता है.
अब वहां क्या हो रहा है? मौत के अगले झपट्टे की तैयारी- बस्तर के भीतरी जंगलों में भी और शासन के गलियारों में भी! मीडिया में कहानियां भी बहुत चल रही हैं और कयास भी बहुत लगाए जा रहे हैं. लेकिन इस बीच एक खास बात हुई है. 3 अप्रैल के खूनी मुकाबले के बाद मार-मर कर नक्सली भागे तो पुलिस के एक जवान राकेश्वर सिंह मन्हास
को उठा भी ले गए. सब यही मान रहे थे कि जिसे नक्सली तब नहीं मार सके, उसे अब मार डालेंगे. यह भी बात फैल रही थी कि राकेश्वर सिंह को अमानवीय यंत्रणा दी जा रही है. लेकिन उस वारदात के 5 दिन बाद, नक्सलियों ने राकेश्वर सिंह को सार्वजनिक रूप से सही सलामत और बेशर्त रिहा कर दिया. यह अजूबा हुआ जो अचानक और अनायास नहीं हुआ. जो अचानक व अनायास नहीं होता है, उसमें कई संभावनाएं छिपी होती हैं. उन संभावनाओं को पहचानने की आंख हो और उन संभावनाओं को साकार करने का साहस हो तो बहुत कुछ असंभव संभव हो जाता है. ऐसी आंख व ऐसा साहस राज्य के पास है, ऐसा लगता तो नहीं है. पर यह भी सच है कि जो लगता नहीं है, वह होता नहीं है, यह सच नहीं है. आंखें खुलने और साहस जागने का क्षण कब आ जाए, कोई कह नहीं सकता है.
3 अप्रैल की घटना के बाद सदा-सर्वदा चुनाव-ज्वरग्रसित गृहमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री ने मीडिया से जो कुछ कहा और जिस मुखमुद्रा में कहा, वह अंधकार पर काली स्याही उड़लने से अधिक कुछ नहीं था. आंतरिक असंतोष से निबटने में युद्ध की भाषा, धमकी का तेवर और सत्ता की हेंकड़ी दूसरा कुछ नहीं करती, आपके भीतर के बंजर और भयभीत मन की चुगली खाती है.
नक्सली समस्या हमारे वक्त की वह ठोस हकीकत है जिसकी जड़ें विफल सरकार, असंवेदशील प्रशासन, बांझ लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में छिपी हैं. जब राजनीति का स्वार्थी, क्रूर और संवेदना-शून्य घटाटोप घिरता है तब सामान्य असमर्थ नागरिक बिलबिला उठता है. वह भटक जाता है, भटका लिया जाता है और फिर सब कुछ हिंसा-प्रतिहिंसा के चक्रव्यूह में फंस जाता है. अगर कहीं कोई संभावना बनती है तो वह हिंसा-प्रतिहिंसा के इस विषचक्र को तोड़ने से बनती है. सिपाही राकेश्वर सिंह की रिहाई इसकी तरफ ही इशारा करती है. हम इस इशारे को समझें.
यह रिहाई बताती है कि बस्तर के नक्सली राक्षस नहीं हैं, हमारी-आपकी तरह के इंसान हैं. यह रिहाई बताती है कि सरकारों के अक्षम्य दमन और प्रशासन की निष्ठुरता और उसकी प्रतिक्रिया में निरुपाय आदिवासियों की क्रूर जवाबी हिंसा के बाद भी नक्सलियों के भीतर कोई मानवीय कोना बचा हुआ है. वहीं आशा का दीपक जलता है. आप सोच कर देखिए कि यदि 3 अप्रैल की वारदात में कोई नक्सली ‘राकेश्वर सिंह’ पुलिस के हाथ लग गया होता तो क्या उसकी ऐसी बेशर्त व बे-खरोंच रिहाई की जाती? एक तरफ हर तरह की हिंसा और मनमानी का लाइसेंस लिए बैठी सत्ता है, दूसरी तरफ गुस्से से भरी असहाय आदिवासी जनता है.
ऐसे में हिंसा का दर्शन मानने वाला कोई संगठन उन्हें बतलाता-सिखलाता है कि इनसे इनके ही रास्ते बदला लेना चाहिए, तो आदिवासियों की छोड़िए, हम या आप भी क्या करेंगे? उबल पड़ेंगे और रास्ता भटक जाएंगे. तो क्या जवाब में राज्य-सत्ता भी ऐसा ही करेगी? अगर राज्य-सत्ता भी ऐसी ही आदिवासी मानसिकता से काम लेगी तो हिंसा और भटकाव की यह श्रृंखला टूटेगी कैसे?
जवाब धर्मपाल सैनी व उनके सहयोगियों ने दिया है. उन्हें छत्तीसगढ़ सरकार की सहमति व प्रोत्साहन प्राप्त था लेकिन सारा नियोजन तो धर्मपाल सैनी का था. धर्मपाल सैनी कौन हैं? बस्तर या छत्तीसगढ़ के नहीं हैं लेकिन पिछले 40 से अधिक सालों से बस्तर को ही अपना संसार बना कर, वहीं बस गये हैं. बस्तर के घरों में ‘ताऊ’ तथा बाहर ‘बस्तर के गांधी’ नाम से खूब जाने-माने जाते हैं. आचार्य विनोबा भावे के शिष्य, 92 वर्षीय धर्मपाल सैनी जब युवा थे तब उन्होंने छत्तीसगढ़ जा कर काम करने की सोची. अनुमति लेने विनोबा के पास गये तो विनोबा ने मना कर दिया.
युवा धर्मपाल के लिए यह समझ के बाहर था कि विनोबा लोगों की भलाई का काम करने से उन्हें रोक क्यों रहे हैं? जब दोबारा अनुमति मांगी तो विनोबा ने उनसे ही एक वचन मांग लिया: अगर वहां जाने के बाद 10 सालों तक वहीं खूंटा गाड़ कर रहने की तैयारी हो तो मेरी अनुमति है! इसके बाद धर्मपाल ने अपना जीवन ही वहां गाड़ दिया. यह कहानी इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि किसी का गुणगान करना है. इसलिए लिख रहा हूं कि हम भी और राज्य भी यह समझे कि अहिंसा जादू की छड़ी नहीं है, समाज विज्ञान और मनोविज्ञान की वैज्ञानिक प्रक्रिया है.
बस्तर हो कि नक्सली हिंसा की अशांति में घिरा कोई भी क्षेत्र, राज्य यदि लोगों को डराने-धमकाने-मारने की असभ्यता दिखाएगा तो जवाब में उसे भी वही मिलेगा. हिंसा का विषचक्र तोड़ना हो तो किसी धर्मपाल सैनी को आगे आना होगा. राज्य को उसे आगे लाना होगा. ऐसा कोई इंसान जिसकी ईमानदारी, सेवा की साख हो और सत्य पर टिके रहने के जिसके साहस को लोग जानते हों. हम देखते ही तो हैं कि रेगिस्तान में बारिश का पानी बहता नहीं, धरती में जज्ब हो जाता है. प्रताड़ित-अपमानित निरुपाय लोगों को जहां और जिससे सहानुभूति, समर्थन व न्याय की आस बनती है, वे उसे जज्ब कर लेते हैं. विनोबा या जयप्रकाश के चरणों में चंबल के डाकू समर्पण करते हैं तो यह कोई चमत्कार नहीं, विज्ञान है.
सिपाही राकेश्वर सिंह की वापसी कह रही है कि हम सभी वापस लौटें! राज्य ईमानदार बने, न्यायवान बने और धर्मपाल सैनी जैसों को पहल करने में अपना पूरा साथ-सहयोग दे, तो रास्ते आज भी निकल सकते हैं. रास्ते कभी बंद नहीं होते, बंद होती हैं हमारी आंखें! बस्तर के नक्सलियों ने हमारी आंखें खोलने का माहौल बनाया है.
Also Read: छत्तीसगढ़ में नक्सली आत्मसमर्पण का गोरखधंधा
Also Read
-
Manu Joseph: Hindi cannot colonise the South because Hindi is useless
-
Modi govt spent Rs 70 cr on print ads in Kashmir: Tracking the front pages of top recipients
-
When caste takes centre stage: How Dhadak 2 breaks Bollywood’s pattern
-
Gold and gated communities: How rich India’s hoarding fuels inequality
-
1 lakh ‘fake’ votes? No editorial, barely any front-page lead, top Hindi daily buries it inside