Newslaundry Hindi
मोदी व भाजपा सरकार के खिलाफ लिखने वाले प्रताप ने अशोक विश्वविद्यालय से क्यों दिया इस्तीफा?
पिछला हफ्ता सोशल मीडिया और कुछ हद तक सांस्थानिक मीडिया ने इस बात पर खर्च कर दिया कि अशोक विश्वविद्यालय से प्रताप भानु मेहता का इस्तीफा देश के लिए कितना अहम मुद्दा है. यह बहस कुछ इस रूप में पसरी कि कई जेनुइन बुद्धिजीवी भी प्रताप भानु मेहता के पक्ष में कूद पड़े. अधिकांश लोगों का तर्क था कि (जिसमें आंशिक रूप से मैं भी शामिल हूं) प्रताप को अशोक विश्वविद्यालय से इसलिए इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि वह लगातार मोदी व मोदी सरकार के खिलाफ लिख रहे थे.
इसके बाद दुनिया भर के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के 150 से अधिक अकादमिक विद्वानों ने अशोक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद से राजनीतिक टिप्पणीकार प्रताप भानु मेहता के इस्तीफा देने पर चिंता जतायी. उन्होंने इस संबंध में विश्वविद्यालय को खुला पत्र लिखा, जिसमें कहा गया है, "राजनीतिक दबाव के चलते अशोक विश्वविद्यालय से प्रताप भानु मेहता के इस्तीफा के बारे में जानकर हमें दुख हुआ. भारत की मौजूदा सरकार के जाने-माने आलोचक तथा अकादमिक स्वतंत्रता के रक्षक मेहता को उनके लेखों के चलते निशाना बनाया गया. ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक विश्वविद्यालय के न्यासियों ने उनका बचाव करने के बजाय उन पर इस्तीफा देने का दबाव डाला."
इस पत्र पर न्यूयॉर्क, ऑक्सफॉर्ड, स्टैनफोर्ड, प्रिंस्टन, कैम्ब्रिज, पेन्सिलवेनिया और कैलिफॉर्निया विश्वविद्यालय समेत अन्य विश्वविद्यालयों के अकादमिक विद्वानों के हस्ताक्षर हैं. पत्र में कहा गया है, "तंत्र वाद-विवाद, सहनशीलता तथा समान नागरिकता की लोकतांत्रिक भावना राजनीतिक जीवन का हिस्सा होते हैं. जब भी किसी विद्वान को आम जनता के मुद्दों पर बोलने की सजा दी जाती है, तो ये मूल्य खतरे में पड़ जाते हैं."
प्रताप भानु मेहता के विश्वविद्यालय से निकाले जाने के खिलाफ अशोक विश्वविद्यालय के 90 फैकल्टी सदस्यों ने भी विश्वविद्याल को चिट्ठी लिखी थी, जिसमें कहा गया है, "प्रोफेसर मेहता के विश्वविद्यालय से जाने की आधिकारिक घोषणा से पहले प्रसारित मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, यह संभव है कि उनका इस्तीफा एक बुद्धिजीवी और सरकार के आलोचक के रूप में उनकी सार्वजनिक भूमिका का परिणाम था. हम इससे बहुत परेशान हैं. इससे भी अधिक हताशा इस बात की आशंका से है कि हमारा विश्वविद्यालय शायद प्रोफेसर मेहता को हटाने के दबाव या आग्रह के सामने झुक गया हो और उनका इस्तीफ़ा स्वीकार कर लिया हो."
अशोक विश्वविद्यालय पर सबसे अधिक दबाव विदेश से लिखी अकादमिक चिट्ठियों से पड़ा क्योंकि वहां के छात्र-छात्राओं को यह कहकर दाखिला दिया जाता है कि यहां से ग्रेजुएशन करने के बाद सीधे विदेश में आगे पढ़ने का अवसर मिल सकता है. इस बात को आशुतोष वार्ष्णेय ने अपने ट्वीट में कहा भी.
और जैसा कि स्वाभाविक है, इसी तरह के टाइ-अप के खतरे में पड़ने के डर से अशोक विश्वविद्यालय को दबाव में स्पष्टीकरण भी देना पड़ा जिस पर दुर्भाग्यवश प्रताप भानु मेहता व अरबिंद सुब्रह्यण्यम के भी हस्ताक्षर हैं.
अशोक यूनिवर्सिटी द्वारा जारी किए गए इस बयान को संयुक्त बयान का नाम दिया गया, जिसमें कहा गया है, "हम मानते हैं कि संस्थागत प्रक्रियाओं में कुछ खामियां रही हैं, जिसे सुधारने के लिए हम सभी पक्षकारों के साथ मिलकर काम करेंगे. यह अकादमिक स्वायत्तता एवं स्वतंत्रता की हमारी प्रतिबद्धता को दोहराएगा जो अशोक यूनिवर्सिटी के आदर्शों में हमेशा अहम रही हैं."
हमारे देश में निजी विश्वविद्यालय खोलने की होड़ सन् 2005 के बाद लगी, जब तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह विश्वविद्यालयों ने पिछड़ों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी. इसे मंडल-2 का नाम दिया गया. इससे सत्ता-तंत्र व अकादमिक जगत में बैठे अधिकांश बुद्धिजीवियों (पिछड़े व दलित तो वहां से आज भी नदारद हैं) को परेशानी होने लगी. उन्हें लगने लगा कि ‘अपने बच्चों’ को आरक्षित बच्चों के साथ बैठाकर पढ़ाया जाना अब असंभव सा हो गया है. उसी समय दिल्ली एनसीआर में निजी विश्वविद्यालय कुकुरमुत्ते की तरह उग आए.
जब से ऐसे विश्वविद्यालय खुलना शुरू हुए, भारत के अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों ने तमाम निजी विश्वविद्यालयों के पक्ष में तर्क गढ़ना शुरू किया. अशोक, शिव नादर या जिंदल जैसे विश्वविद्यालयों की स्थापना को कुछ इस तरह से पेश किया गया जैसे कि उसके संस्थापकों ने देश सेवा के लिए अपनी कमाई देश के लोगों में लुटाने की ठान ली है. उन निजी विश्वविद्यालय के पक्ष में हमारे बुद्धिजीवियों का यह भी तर्क था कि वे लोग कड़ी मेहनत से करोड़ों रुपए कमाए हैं और अब वे समाज के ऋण से उऋण होना चाहते हैं क्योंकि इसी समाज से उन्होंने सब कुछ लिया है (कुछ हद तक अजीम प्रेमजी ऐसा विश्वविद्यालय है भी, लेकिन किसी स्वनामधन्य बड़े प्रोफेसर ने उस विश्वविद्यालय को ज्वाइन नहीं किया).
इस पूरे खेल को अशोक विश्वविद्यालय के अंडर ग्रेजुएट में नामांकन लेने वाले छात्र-छात्राओं के शुल्क संरचना को देखकर समझा जा सकता है. वहां पर पढ़ने वाले विद्यार्थियों को एक साल के लिए 9 लाख 40 हजार रूपए देने पड़ते हैं. विश्वविद्यालय ने यह भी लिखा है कि यह शुल्क पांच से दस फीसदी हर साल बढ़ाया जा सकता है, अर्थात अगर शुल्क दस फीसदी बढ़ता है तो अगले साल उसे 94 हजार रुपए अतिरिक्त (10 लाख 34 हजार) देने होंगे और तीसरे साल यह राशि 11.38 लाख होगी, मतलब 31 लाख से ऊपर! अब हम इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि इस लिबरल विश्वविद्यालय में कितने दलित-पिछड़े पढ़ते होंगे?
जब दिल्ली एनसीआर में निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ आनी शुरू ही हुई थी तो जेएनयू के समाजशास्त्र विभाग से वीआरएस लेकर बैठे एक पूर्व प्रोफेसर ने जेएनयू के ही एक रिटायर्ड प्रोफेसर को आह्लादित होते हुए बताया था, “मैंने ….. विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में ज्वाइन किया है, वह मेरे नाम का इस्तेमाल करता है और मुझे अपने नाम का इस्तेमाल करने के बदले हर महीने तीन लाख रुपए देता है.” तब उस इतिहासकार ने उनसे बांग्ला में कहा था- "मुझे पता नहीं था कि तुम सेल पर चढ़े हुए थे, अच्छा ही हुआ कि तुमको मनमाफिक कीमत मिल गयी."
लंबे समय से पब्लिक यूनिवर्सिटी को नष्ट किया जा रहा है (जिसकी शुरुआत वाजपेयी-मनमोहन सिंह के समय में हो चुकी थी, फिर भी मनमोहन सिंह के कार्यकाल में कई केन्द्रीय विश्वविद्यालय खोले गए), लेकिन प्रताप भानु मेहता के नाम पर हाय-तौबा मचाने वाले कई बड़े लिबरल बुद्धिजीवी उसी समय पब्लिक यूनिवर्सिटी को छोड़कर निजी विश्वविद्यालयों की ओर पलायन करने लगे थे. यहां एक मजबूरी यह भी है कि कई यंग स्कॉलर बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर जब विदेश से लौटे तो उनके पास सरकारी विश्वविद्यालयों में नौकरी नहीं थी, अंततः मजबूरी में उन्हें निजी विश्वविद्यालयों में नौकरी करनी पड़ी लेकिन जो प्रोफेसर बड़े-बड़े सरकारी संस्थानों को छोड़कर निजी विश्वविद्यालय जा रहे थे, क्या उन्हें पता नहीं था कि वे सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने के लिए वहां जा रहे हैं?
वैसे हमें एक बात और नहीं भूलनी चाहिए कि आज जब हमारे देश में एक आदमी की औसत आय साढ़े दस हजार (1 लाख 26 हजार 968 रुपए सालाना) रुपए प्रति महीने के करीब है तो हमारे देश में प्रोफेसरानों को तकरीबन ढाई लाख रुपए हर महीने मिलता है, फिर भी वे पब्लिक विश्वविद्यालय को छोड़कर निजी विश्वविद्यालय की तरफ दौड़े जा रहे हैं.
यह सही है कि प्रताप भानु मेहता ने पिछले सात वर्षों से लगातार नरेन्द्र मोदी व उनकी सरकार के खिलाफ लिखा है, लेकिन हम यह क्यों भूल जा रहे हैं कि ये वही प्रताप भानु मेहता हैं जिन्होंने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में भी लगातार कई लेख लिखे थे. वही प्रताप भानु मेहता आरक्षण के खिलाफ रहे हैं और आरक्षण के बदले ‘अफरमेटिव एक्शन’ के पक्ष में हैंः लेकिन कैसा अफरमेटिव एक्शन, इसका कोई खाका उनके दिमाग में नहीं है.
लिबरल प्रताप भानु मेहता एक लिबरल स्पेस (जिसमें विश्वविद्यालय भी शामिल है) बनाने के पक्षधर हैं लेकिन उनके लिबरल स्पेस में विनय सीतापति जैसे लिबरल होते हैं जो प्रायः दक्षिणपंथ के इर्द-गिर्द झूलते रहते हैं. साथ ही जो लोग अशोक विश्वविद्यालय में ही नहीं बल्कि कहीं के भी लिबरलों को जानते हैं, वे इस तथ्य को भी भली भांति जानते हैं कि लिबरल के साथ सुविधा यह है कि कभी वे परंपरा के नाम पर दक्षिणपंथियों के साथ हो जाते हैं तो कभी संस्कृति के नाम पर दक्षिणपंथ के अवयवों को स्वीकार कर लेते हैं.
और हां, यह भी एक तथ्य है कि जिन लिबरल विश्वविद्यालयों के इतने कसीदे काढ़े जा रहे हैं, उनमें से किसी भी विश्वविद्यालय में अध्यापकों को यूनियन बनाने की छूट नहीं मिली है- यहां तक कि अशोक विश्वविद्यालय में भी नहीं, जहां के वाइसचांसलर मेहता रहे हैं.
वैसे इस पूरी परिघटना में सबसे ऐतिहासिक बात वहां के छात्रों का इस पूरी घटना में प्रताप भानु मेहता के पक्ष में उतरना है. शिक्षा की इतनी कीमत चुकाकर उन्होंने सोमवार से कक्षाओं का दो दिन के लिए बहिष्कार करने का आह्वान किया है. कोई अभिभावक अपने बच्चों पर हर महीने लाख रुपए खर्च कर रहा है और वह छात्र-छात्रा न्याय के पक्ष में लड़ाई लड़ रहा है, इसे भी रेखांकित करने की जरूरत है. साथ ही हमें इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि वहां पता नहीं कितनी तनख्वाह लेकर पढ़ाने वाले शिक्षक जब न्याय की बात करते हैं तो उन्हें ‘राग दरबारी’ के गयादीन का वह वाक्य याद आता है या नहीं जो वह खन्ना मास्टर से कहता है, ‘क्या करोगे मास्टर साहब, प्राइवेट स्कूल की मास्टरी तो पिसाई का काम है ही, भागोगे कहां तक?’
मेरी तरह ही ‘राग दरबारी’ प्रताप भानु मेहता का भी पसंदीदा उपन्यास रहा है, जिसका उन्होंने कई बार जिक्र भी किया है. एक बार तो इंडियन एक्सप्रेस में उन्होंने पूरा लेख ही इस उपन्यास पर लिख दिया था. मेहता शायद गयादीन और खन्ना मास्टर की बातचीत को भूल चुके हैं. लगभग ऐसी ही परिस्थिति है, जैसी आज की है, जिस पर खन्ना मास्टर से गयादीन की कही बात सटीक बैठती है.
नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है. एक कोने में पड़ी है. सभा सोसाइटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है. तब बड़ी बढ़िया दिखती है. इस पर चढ़कर लेक्चर फटकार दिया जाता है. यह उसी के लिए है.
(साभार- जनपथ)
Also Read
-
‘Not a family issue for me’: NCP’s Supriya Sule on battle for Pawar legacy, Baramati fight
-
‘Top 1 percent will be affected by wealth redistribution’: Economist and prof R Ramakumar
-
Presenting NewsAble: The Newslaundry website and app are now accessible
-
A massive ‘sex abuse’ case hits a general election, but primetime doesn’t see it as news
-
Is the Nitish factor dying down in BJP’s battle for Bihar?