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तस्करी के जाल से निकल के घर लौटी गरीब परिवार की लड़की मुड़की की आपबीती
मेरे गांव में एक मेहमान आई हुई थी जो मुझे दिल्ली जाने के लिए बोल रही थी. उसने मुझसे कहा कि अगर दिल्ली जाओ तो तुम्हें पैसे भी मिलेंगे और अच्छा खाना भी मिलेगा. इसके बाद मैं उस लड़की के साथ दिल्ली आ गई. दिल्ली आने के बाद मैंने तीन घरों में काम किया था. सबसे पहले घर में 1 साल के लिए थी, उसके बाद उसे दूसरे घर में काम दे दिया गया जहां मैंने दो साल के लिए काम किया और फिर मुझे एक और घर में भेज दिया गया जहां मैंने फिर से 2 साल के लिए काम किया गया.
एक बार मैं अपने मालिक को ये बोलना भूल गई कि आटा खत्म हो गया है. इसके बाद मालिक ने बहुत डांटा लेकिन और खुद बाहर से खाना ऑर्डर कर लिया और मेरे लिए कुछ खाना ऑर्डर किया ही नहीं. मैं पूरी रात भूखे सोई रही. मुझे बाहर निकलने की इजाज़त तक नहीं थी. मालिक जब भी बाहर जाते तो गेट को बाहर से लॉक कर देते थे.
एक समय तो ऐसा आ गया था जब मुझे लग रहा था कि मैं यहीं मर जाऊंगी. गांव से दिल्ली आने के फैसले पर मैं बहुत पछता रही थी. कई बार ऐसा लगता कि शायद मुझे सुसाइड कर लेना चाहिए.
मुड़की ने अपने इंटरव्यू में यह आपबीती सुनाते हुए अंत में कहा था, ‘’मैं उड़ कर अपने गांव पहुंच जाना चाहती हूं.‘’ ये कल की ही बात है जब मुड़की मेरे दफ्तर आयी थी. आज उसके चेहरे पर मुस्कान थी और आंखों में चमक. वो घर जा रही थी. अपने गांव, पेड़-पौधे, पहाड़ और सबसे मिलने को बेताब थी. इस दिन के इंतजार में पांच साल गुजर चुके थे. ट्रेन सुबह 10 बजे की थी लेकिन घर पहुंचने की आतुरता ऐसी कि मुड़की अपने परिवार वालों और पुलिस के साथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर करीब एक घंटा पहले पहुंच चुकी थी.
एक भारी बैग अपने कंधे पर टांगे वह प्लेटफार्म की तरफ चले जा रही थी. एक बार के लिए मैंने उससे कहा भी कि मैं बैग का एक हिस्सा पकड़ लेता हूं. उसने मुस्कुराते हुए ना कह दिया. फिर मैंने उससे पूछा कि कुछ नाश्ता किया है तुमने? उसने मुस्कराते हुए ना में सिर हिला दिया. मैं मुड़की और उसके परिवार वालों के लिए कुछ स्नैक्स लेकर आया. ट्रेन के आने में अभी भी 40-45 मिनट का समय बाकी था. उसने मुझसे पूछा- ट्रेन किधर से आएगी? उंगली के इशारे से मैंने ट्रेन के आने की दिशा बतायी. उसकी उत्सुकता का पता इसी से लगता है कि ट्रेन जैसे ही प्लेटफॉर्म पर लगी, वो पहली थी जो सामान लेकर खड़ी हो गई. आख़िरी बार के लिए मैंने उसे बोगी के दरवाज़े के पास देखा.
दो
छह महीने पहले 13 सितंबर 2020 को मानव तस्करी पर मेरी एक रिपोर्ट पब्लिश हुई थी. इस रिपोर्ट में मैंने तीन लड़कियों (सीता, मुड़की और दुखी) का जिक्र किया था जो पिछले पांच-छह साल से अपने घर नहीं आई थीं क्योंकि दिल्ली में सुखदेव नाम के किसी व्यक्ति ने इन्हें बेच दिया था.
स्टोरी के लिखे जाने तक सिर्फ सीता अपने गांव लौट सकी थी. मुड़की दूसरी है, जो अब पाकुड़ में अपने घर जा रही थी. दिल्ली में मुड़की को छुड़ाने के दौरान ज्यादातर वक्त मैं पुलिस के साथ रहा. मुड़की के केस पर काम कर रही एक स्वयंसेवी संस्था ‘नयी दिशाएं’ चलाने वाले धर्मनाथ भगत के साथ मैं पिछले साल अगस्त से ही संपर्क में था. धर्मनाथ पिछले 6 महीनों में तीन लड़कियों को तस्करी के चंगुल से छुड़ाने में कामयाब रहे हैं.
धर्मनाथ बताते हैं, "जब लॉकडाउन शुरू हुआ तो मैं मिजोरम और मेघालय में फंसे मजदूरों को वापस उनके घर लाने का प्रयास कर रहा था. इसी दौरान मैं सबसे पहले पुसरभीटा नाम के एक गांव में गया. जब मैं वहां के प्रवासी मजदूरों के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रहा था उस दौरान मुझे वहां के प्रधान देवा पहाड़िया ने गांव की ऐसी छह लड़कियों के बारे में बताया जो पिछले पांच-छह साल से अपने गांव वापस नहीं आयी हैं. इनमें से एक लड़की धर्मी पहाडि़न ऐसी थी जो अपने परिवार वालों से फोन पर बात करती थी. वो लगातार कहती थी कि वो घर आना चाहती है, लेकिन उसे घर आने नहीं दिया जा रहा है. मैंने उसके परिवार वालों से उसका फोन नंबर मांगा और पुलिस को इस घटना की जानकारी दी. पुलिस की मदद से हम धर्मी को दिल्ली से वापस गांव लाने में सफल हो चुके थे, लेकिन बाकी लड़कियों की तलाश अब भी जारी थी. इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी था उन्हें बेचने वाले व्यक्ति सुखदेव का पता लगा कर पुलिस को दिया जाए ताकि बाकी का पता मिल सके. इसके बाद मैंने इस मामले में तहकीकात करने लगा और प्रशासन से बातचीत करने लगा."
धर्मनाथ ने बताया, "वे झारखण्ड के पाकुड़, साहिबगंज और गोड्डा में 100 से ज्यादा ऐसे परिवारों को जानते हैं जिनकी बेटियों को बहला-फुसला कर शहरों में बेच दिया गया है. ट्रैफिकिंग की शिकार लड़कियों को दिल्ली ले जाकर उनकी बोली लगाई जाती है. ज्यादातर लड़कियों का छह साल का कांट्रैक्ट रहता है. उसके बाद उन्हें अलग-अलग घरों में काम करने के लिए भेजा जाता है. उन्हें जब किसी घर में काम के लिए भेजा जाता है तो यह भी देखा जाता है कि उस घर में सीसीटीवी है या नहीं या फिर उस घर में कोई सिक्यूरिटी गार्ड है या नहीं ताकि लड़कियां वहां से भाग न जाएं."
ट्रैफिकिंग की शिकार किसी लड़की को छुड़ाकर वापस लाना इतना आसान काम नहीं है. प्रशासनिक उपेक्षा और तस्करों के प्रशासनिक गठजोड़ के चलते संभावित हिंसा का भय भी होता है. धर्मनाथ के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. वे पहले कई दिनों तक पुलिस की उपेक्षा से जूझते रहे. उन्हें बार -बार कहा गया कि इस मामले में न पड़ें, लेकिन वे अडिग रहे.
वे बताते हैं, "पहले पहल तो मैंने पाकुड़ जिले की चाइल्ड लाइन और जिले के अमरापाड़ा थाना से मदद लेने की कोशिश की लेकिन मेरा ये प्रयास असफल रहा. कोई कहता कि लड़की के मां-बाप को बोलो कि आकर केस करे, कोई कहता कि लड़कियों के मां-बाप ने अब तक क्यों केस नहीं किया तो कोई कहता कि इन बच्चियों के मां-बाप खुद लड़कियों को भेज देते हैं और बाद में जब उन्हें पैसे नहीं मिलते तो वो केस करने आते हैं. कुल मिलाकर इस मामले को प्रशासन गंभीरता से नहीं ले रहा था. इसके बाद मैंने ‘दिया फ़ाउंडेशन’ नाम के एक एनजीओ से मदद मांगी और हमारे क्षेत्र में हो रही ह्यूमन ट्रेफिकिंग के संदर्भ में एक केस फाइल बनाने लगा"
इस स्टोरी को अंजाम देने के लिए मैं पुसरभीटा गांव जा चुका था. राजमहल की पहाड़ियों में बसा ये गांव पाकुड़ जिला मुख्यालय से तकरीबन 75 किलोमीटर दूर घने जंगलों में बसा हुआ है. लॉकडाउन के दौरान झारखंड में अपने गांव में रहते हुए भी मुझे ह्यूमन ट्रैफिकिंग के पूरे नेक्सस को समझने का काफी मौका मिला था. संथाल परगना सबडिवीजन के तीन जिलों (पाकुड़, साहिबगंज और गोड्डा) में ऐसी लड़कियां हैं जिन्हें पैसे और एक बेहतर जिंदगी का लालच देकर शहर में बेच दिया जाता है. वर्षों से यह प्रक्रिया बदस्तूर चली आ रही है लेकिन इसे रोकने के लिए प्रशासन या किसी भी राजनीतिक दल ने कोई कदम नहीं उठाया है. इसीलिए मैं समझ रहा था कि किसी सामाजिक संस्था के द्वारा इस रैकेट को रोकना हद से ज्यादा कठिन है. दूसरा कारण यह भी है कि अगर कोई व्यक्ति पीड़ित परिवार या लड़कियों की मदद भी करना चाहे तो ये उसके साथ हिंसा हो सकती है, जो इस इलाके में आम है.
आखिरकार, धर्मनाथ इस मामले में कुछ और संस्थाओं की मदद लेकर एक एफआइआर दर्ज कराने में सफल हो गए और 11 नवंबर 2020 को पुलिस सुखदेव को पकड़ने में कामयाब रही. सुखदेव ने पुलिस को मुड़की के बारे में बताया. उससे मिली जानकारियों के आधार पर पुलिस ने मुड़की का पता लगा लिया. ठीक एक दिन बाद धर्मनाथ मुझे मैसेज कर के बताते हैं कि सुखदेव पकड़ा गया है और उसने पुलिस को मुड़की के बारे में बता दिया है. पुलिस उसे दिल्ली लेने आएगी. उन्होंने कहा, ‘’हो सके तो तुम पुलिस अधिकारियों के साथ रहना और जितनी मदद हो सके कर देना.‘’
उसके बाद से मैं लगातार धर्मनाथ और अमरापाड़ा थाना के पुलिस अधिकारी एसआई संतोष कुमार के साथ संपर्क में रहा. बीते साल 1 दिसंबर को मुड़की के परिवार के दो सदस्य (मौसा-मौसी) को लेकर झारखण्ड पुलिस दिल्ली आती है. इस पूरे रेस्कयू ऑपरेशन में मैं काफी समय तक पुलिस के साथ रहता हूं लेकिन मुड़की को जिस दिन पुलिस लेने जा रही थी, उस दिन दुर्भाग्य से मैं पुलिस के साथ नहीं था.
मैं मुड़की के इस पूरे पांच साल के सफर पर उससे बात करना चाहता था. पुलिस अधिकारियों से मैंने अनुरोध किया कि उसे घर भेजने से पहले स्टोरीजज़ एशिया के ऑफिस आने दें. वे राज़ी हो गए.
तीन
जिस दिन मुड़की और उसका पूरा परिवार हमारे ऑफिस आ रहे थे, मैं किसी और ही दुनिया में था. कुछ दिन पहले ही मैं उसके गांव गया हुआ था जहां से मैंने इस कहानी की पहली कड़ी को अंजाम दिया था. मुड़की के रोते हुए मां-बाप को देखना बहुत दुखद था. पाकुड़ जिले के दूर-दराज के जंगलों में बसा पुसरवीटा, राजमहल की पहाड़ियां, वहां के लोग, उनका रहन-सहन, मुड़की के रोते हुए माता-पिता- उस वक्त सब याद आ रहे थे. जिस इलाके में मैं बड़ा हुआ, जिन जंगलों में मैं घूमा, जिन आदिवासियों ने मुझे प्रकृति को समझने का एक नया नज़रिया दिया, आज उनकी खोई हुई लड़की अपने जंगलों से तकरीबन 1800 किलोमीटर दूर दिल्ली में मुझसे मिलने आ रही थी.
सबसे पहले पुलिस अधिकारी संतोष कुमार से हमारी बात हुई. इस कारवाई के बारे में उन्होंने बताया, "जैसे ही हमने सुखदेव को पकड़ा, उसने हमें बताया कि दिल्ली में बसंती नाम की एक लड़की के पास मुड़की का पता है. इसके बाद बसंती से मिली जानकारी पर हम मुड़की को छुड़ाने में कामयाब हुए."
मुड़की पहले तो बात करने में शरमा रही थी, लेकिन बाद में वो खुल गयी. उसके गांव से पांच लड़कियां उसके साथ दिल्ली आई थीं. सुखदेव का काम उसे दिल्ली तक पहुंचाना था, उसके बाद उसे एक होटल में सौंप दिया गया जहां बसंती नाम की एक लड़की ने उन्हें उनका काम बताया.
उसने बताया, "जिस होटल में हमें रखा गया था वहां तकरीबन 25 लड़कियां थीं. मुझे नवंबर में ही पता चल गया था कि मैं अपने गांव वापस जाने वाली हूं. मुझे लेने के लिए पुलिस आने वाली है. इस दौरान मेरी मालकिन को बसंती बार-बार कॉल कर रही थी कि मैंने आपको लड़की दी है, आप मुझे दे दो. अगर आपने ऐसा नहीं किया तो मैं दोबारा काम करवाने के लिए आपके पास कोई और लड़की नहीं भेजूंगी, लेकिन मेरी मालकिन ने ऐसा करने से मना कर दिया. मालकिन ने कहा कि इतने सालों से गैरकानूनी तरीके से काम करवाया और पैसे भी नहीं दिए हैं.
मुड़की बताती है, "इसके कुछ दिन बाद ही मेरी मालकिन को एक वीडियो कॉल आया. तब मैं किचन में काम कर रही थी. मालकिन ने मुझे पुकारा. मैं वहां गई तो देखा कि मेरी मालकिन वीडियो कॉल पर कुछ लोगों से बात कर रही है. उन्होंने जैसे ही मुझे फोन दिया, सामने मेरी मम्मी और पापा थे. वो लगातार पहाड़िया भाषा में कुछ बोल रहे थे और मेरी मम्मी रो रही थी, लेकिन उनकी ज्यादातर बात मैं नहीं समझ पा रही थी. मैं अपनी पहाड़िया भाषा को ही नहीं समझ पा रही थी"
कई ऐसी बातें थीं जो मुड़की ने मुझे इस वीडियो के बाद बतायी थीं क्योंकि कैमरे के सामने बात करने में वह सहज महसूस नहीं कर रही थी. इस बातचीत से हमें पता चला कि सुखदेव पाकुड़ जिले के कई गांवों से लड़कियों को दिल्ली में बसंती के पास लाकर बेच देता है. बसंती लड़कियों के खरीदने के बाद उनकी फोटो खिंचवाती है और फिर खरीददारों के पास उस फोटो को दिखाकर काम पर भेजने के लिए पैसों की डील करती है. बाद में उन्हें घरेलू काम की हल्की-फुल्की ट्रेनिंग देकर काम पर भेज देती है.
अभी तक इस बात का पता नहीं चल पाया है कि लड़कियों को बेचने की एवज में सुखदेव को कितने पैसे मिले, लेकिन चाइल्ड ट्रैफिकिंग से जुड़े अन्य सूत्रों से हमें पता चला कि अमूमन एक लड़की के एवज में किसी भी तस्कर को 40 से 50 हजार रूपये तक मिलते हैं.
मुड़की से जब उसकी सैलरी के बारे में पूछा गया तो उसने बताया कि उसे आज तक एक भी रूपया नहीं मिला. जब कभी वो अपनी सैलरी मांगती, उसे कहा जाता कि बसंती को उसकी सैलरी भेज दी गई है, वो उसके मम्मी-पापा को पैसे भेज देगी. ऐसा कभी नहीं हुआ. मुड़की जिस दिन दिल्ली से अपने गांव के लिए निकल रही थी, केवल उस दिन उसकी मालकिन ने उसे दो हजार रूपये दिए थे. यही उसकी पांच साल की कमाई थी. बातचीत के बाद मैंने उन्हें विदा किया और होटल तक छोड़ने आया. मुड़की अब अपने घर जा रही थी.
मैने और मेरे साथी पत्रकार समीर ने तय किया था कि मुड़की की स्टोरी के तहत हम जानने का प्रयास करेंगे कि कैसे झारखंड में बच्चे ट्रैफिकिंग का शिकार हो रहे हैं. आगे उनका भविष्य क्या है. चूंकि दिल्ली में मुड़की को रेस्क्यू किए जाने के दौरान ज्यादातर वक्त मैं मौजूद रहा अब जबकि मुड़की अपने परिवार और पुलिसवालों के साथ अपने गृह जिले पाकुड़ जा रही थी तो वहां समीर को उनके साथ होना था, इसलिए उसके आने वाले कल के बारे में लिखने की जिम्मेदारी समीर के हाथों में थी. आगे की कहानी समीर की जुबानी.
चार
राजन ने मुझसे कहा था कि मुड़की से जल्द से जल्द मिल लेना. मैं भी मुड़की से इस मुलाकात को लेकर काफी उत्सुक था. ट्रेन में खड़ी मुड़की को देखना काफी सुखद था. हर बार अखबारों और खबरों में अपने क्षेत्र के बारे में पढ़ता था कि कैसे राजमहल हिल्स के आसपास बसे गांव मानव तस्करों का गढ़ बनते जा रहे हैं, लेकिन पहली बार किसी लड़की को वापस लौटते हुए देख कर काफी बढ़िया महसूस हो रहा था.
पाकुड़ के अमड़ापाड़ा पहुंचने के बाद सबसे पहले मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक के सामने मुड़की का बयान करवाया गया, फिर देर शाम उसे घर पहुंचा दिया गया.
मैं 8 दिसंबर को अपनी बाइक से पुसरवीटा के लिए निकला. दुर्गम पहाड़ियों में बसे इस गांव के रास्ते को बताने में गूगल आपको बार धोखा-धोखा दे सकता है. सालों इस क्षेत्र में बिताने के बाद भी मैं जंगल के बीचों-बीच बना 4 फुट चौड़ा सीमेंटेड रोड मेरे लिए काफी नया था. मेरे लिए अच्छी बात ये थी कि धर्मनाथ वहां पहले से मौजूद थे. उन्होंने पहले ही मुझे पुसरवीटा को जाने वाली सड़क का थोड़ा-मोड़ा आइडिया दे दिया था.
घर से निकलते वक्त मैंने मुड़की से फोन पर बात की थी, लेकिन रास्ते में फिर से जब उसका नंबर ट्राय किया तो नहीं लगा. मैं बार-बार मुड़की को कॉल कर रहा था लेकिन उसका नंबर अनरीचेबल आ रहा था. राजन ने मुझे पहले ही बता दिया था कि उस गांव में कुछ चुनिंदा जगहों पर ही नेटवर्क आता है.
खैर, जैसे-तैसे मैं पुसरवीटा पहुंच गया. गांव के मुहाने पर ही धर्मनाथ से मुलाकात हो गई. वे मुझे अपने साथ मुड़की के घर तक ले गये. वो घर क्या था, मिट्टी की बनी दीवारों वाला दो कमरों का एक ढांचा. इसी के एक कमरे में मुड़की, उसके मम्मी-पापा और उसका भाई रहते हैं. दूसरा कमरा बकरियों, मुर्गियों और अन्य पालतू जानवरों के लिए था. पास में ही मिट्टी और ईंट से बना एक छोटा सा टैंक था जो थोड़ा पुराना जान पड़ता है. मैंने सुना है कि गर्मी के दिनों में ऐसे मकानों में काफी ठंड रहती है, लेकिन बरसात के दिनों में इनमें रहना बहुत मुश्किल है. सांप निकलना, दीवार गिर जाना, छत से पानी टपकना, ऐसे मकानों में आम बात है.
धर्मनाथ ने मुड़की को आवाज लगायी. भीतर से पारंपरिक परिधान में एक लड़की बाहर आती है. ये मुड़की थी. वो साड़ी में थी और उसका शरीर आभूषणों से लदा हुआ था. एक बार के लिए तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया क्योंकि मुड़की की जिस फोटो को मैंने देखा था उसमें वह वेस्टर्न परिधान में थी. इस इलाके में जनजातीय समुदाय की लड़कियां ऐसी ड्रेस अमूमन साप्ताहिक हाट के दिन पहनती हैं. पूरे सप्ताह काम करने के बाद हाट का दिन ऐसा होता है जब ज्यादातर लोग अच्छे कपड़े पहनते हैं और सप्ताह भर के सामान की ख़रीददारी करते हैं. इसका एक और कारण है कि दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लोगों को भी साप्ताहिक हाट के दिन ही पूरे सप्ताह भर की मजदूरी मिलती है.
साफ झलक रहा था कि मुड़की ने ऐसी ड्रेस मेरे स्वागत में पहनी थी. उसे लगा होगा कि दिल्ली से राजन का पत्रकार साथी उससे मिलने आ रहा है.
सबसे पहले मुड़की आई, पीछे-पीछे उसकी मम्मी आईं. उन्होंने नमस्कार किया, इस बीच मुड़की ने अपने आंगन में एक चारपाई बिछा दी. इसके बाद बातचीत का दौर शुरू हुआ. मैंने मुड़की की मां से पूछा कि इतने दिन बाद आपकी बेटी घर आई है, कैसा लग रहा है? उन्होंने दबी हुई आवाज में कहा कि अच्छा लग रहा है. धर्मनाथ ने बताया कि जिस दिन ये वापस आई थी, इसके अगले दिन इसके पिता ने खस्सी काटा था और उन्हें लगा था कि बेटी वापस आई है तो गांव के लोग बहुत खुश होंगे, लेकिन मामला बिल्कुल उल्टा था.
मैं भी यही सोच कर गया था कि मुड़की अपने गांव वापस आकर काफी खुश होगी. वर्षों के बाद खुद को आजाद महसूस कर रही होगी, लेकिन उससे बात कर के सारी धारणा गलत साबित हो गयी. मुड़की ने मुझे बताया कि गांव का कोई भी इंसान उससे बात नहीं करता. यहां तक की लड़कियां भी उससे बात नहीं करती हैं.
"अभी बस पूरे दिन मैं अकेले घर में पड़ी रहती हूं", मुड़की ने कहा. ऐसा क्यों है, इसका जवाब मुड़की के पास नहीं था.
इसका जवाब धर्मनाथ देते हैं, "जब भी किसी लड़की को धोखे से शहर में बेच दिया जाता है तो गांव के लोग उस लड़की के बारे में कई बातें बनाते हैं, जैसे शहर में उन लड़कियों के साथ गलत काम करवाया जाता होगा या वो लड़की वापस आकर गांव की अन्य लड़कियों को बहका कर शहर में ले जाकर बेच देगी. अगर कोई लड़की किसी शहर में कुछ साल बिता कर आ जाती है तो लोग मान लेते हैं कि वो अब समाज से ज्यादा नहीं जुड़ी हुई है."
पता चला कि जून 2020 में जब धर्मी नाम की लड़की को ट्रैफिकिंग के जाल से छुड़ा कर गांव लाया गया था तब भी कुछ ऐसा ही हुआ था. अंत में उसके माता-पिता ने उसकी शादी करवा दी. धर्मनाथ बताते हैं कि इस इलाके में कई ऐसे परिवार हैं जिनकी बेटी को शहर में बेच दिया गया है लेकिन आज तक उन्होंने एफ़आइआर दर्ज नहीं करवायी की है. इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे पुलिस स्टेशन जाने से डरना, कानूनी जागरूकता की कमी और बदनामी का डर व कई तरह के सामाजिक दबाव.
मैं मुड़की से दोबारा बात करने का प्रयास करने लगा. उससे एक अदभुत बात पता चली कि उसे गांव पसंद नहीं आ रहा है. उसे घर में रहना भी पसंद नहीं है. मुड़की बताती है कि दिल्ली में उसका जीवन बेहतर था, वहां उसे बेहतर खाना मिलता था और रहने के लिए भी अच्छी जगह थी.
मैंने सोचा कि पांच साल पहले जो मुड़की अपने गांव से दिल्ली गई थी, क्या वो सच में वापस आ गई है? उसे आगे क्या करना है, क्या वो जानती है? मैंने पूछा- "तुम वापस क्यों आई फिर?" उसने मुस्कराते हुए कहा, "यहां मम्मी-पापा हैं न!" दिल्ली वापस जाना चाहोगी? इस पर मुड़की कहती है कि अब वो दिल्ली नहीं जाएगी क्योंकि परिवार तो यहां है. अपने भविष्य को लेकर मुड़की आश्वस्त नजर नहीं आती, लेकिन उसे पढ़ने का मन है. नाम लिखवाने के सवाल पर मुड़की शुरू में ना करती है, लेकिन उसकी मम्मी कहती हैं कि वे मुड़की को पढ़ाना चाहते हैं.
शाम होने को थी. अब विदा लेने का वक्त था, लेकिन मुड़की से इस मुलाकात के बाद हम कई सवाल अपने साथ लेकर जा रहे थे. पिछले पांच साल में मुड़की जिस मानसिक प्रताड़ना से गुजरी है, क्या वापस आने के बाद वो अपने गांव, जंगल और परिवार सबको पहले की ही तरह अपना पाएगी? आज उसके पास कोई काम नहीं है. परिवार आर्थिक समस्याओं से गुजर रहा है. जिस कारण से उसने पांच साल पहले गांव छोड़ा था वो आज भी उसी स्थिति में खड़ी है. तो क्या उसके गांव वापस आ जाने मात्र से उसकी सारी समस्याओं का हल हो चुका है? पूरे गांव से अलग-थलग होकर अपने घर में बैठी मुड़की के मन में आखिर क्या चल रहा होगा? उसे ट्रैफिकर्स से तो रेस्क्यू करवा लिया गया, लेकिन उसकी समस्याओं से उसे बाहर निकालने का रास्ता क्या है. इसका जवाब कौन देगा?
(साभार- जनपथ)
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