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क्यों बागपत में चाट वालों के बीच हुई लड़ाई को मीम और मजाक से हटकर देखना चाहिए

हम में से कोई माने ना माने अधिकतर लोगों के लिए सड़क पर या मोहल्ले में होने वाला झगड़ा एक मनोरंजक घटना होती है. इसमें शामिल होने से लेकर तटस्थ बने रहने तक के बीच की लोगों द्वारा अनेकों प्रकार की प्रतिक्रियाएं यह बताती हैं कि यह सार्वजनिक जगहों पर होने वाली हिंसक झड़पें और झगड़े, जनमानस में अपना एक अलग स्थान रखते हैं.

सार्वजनिक जीवन के इसी मंच के एक कोने पर, हमारी यह सामूहिक उत्सुकता वायरल हो गई जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के बड़ौत में चाट वालों के बीच होने वाली लड़ाई का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. इसमें तरह-तरह के मीम को भी जन्म दिया जिनमें लोगों ने अपने पसंदीदा पात्रों को चुनकर उनका समर्थन करना शुरू कर दिया.

बाद में खबर आई कि यह झगड़ा इसलिए शुरू हुआ था क्योंकि एक पुराना चाट विक्रेता अपने नए प्रतियोगियों से चिड़ा हुआ था क्योंकि वह ग्राहकों से उसके सामान की बुराई कर रहे थे. इस छोटे से वीडियो की मनोरंजक गुणवत्ता से अलग, इसके चारों ओर होने वाली सामाजिक टिप्पणियों में आमतौर पर होने वाली हिंसा और उसके कारणों की समझ की कमी दिखाई दी. इस तरह के झगड़ों के पीछे छुपे रोजमर्रा के अवसाद और लोगों का कामकाज में गहरा अकेलापन टिप्पणीकारों की समझ से दूर दिखाई दिया.

ऐसी ही एक टिप्पणी इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय ने ली जिसका कहना था कि जहां एक तरफ उत्तर प्रदेश में होने वाली अलग-अलग हिंसा की घटनाएं वहां के कड़वे यथार्थ से जुड़ी होती हैं, वहीं यह वायरल होने वाला वीडियो उनसे अलग हटकर हंसाने वाला था. हालांकि एक्सप्रेस का संपादकीय हिंसा के समर्थन से कुछ ही पहले रुका, लेकिन उसने क्षेत्र की हिंसक सच्चाई को परिभाषित करते समय क्षेत्र में होने वाली गैर राजनीतिक और गैर सांप्रदायिक घटनाओं की उपेक्षा की. ऐसे निष्कर्ष केवल अपराध और हिंसा की सामाजिक समझ में कमी ही दर्शाते हैं.

अगर कोई केवल पुलिस में दर्ज या स्थानीय अखबार में निकलने वाली रोज़ाना की अपराध सूची को देखें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि साधारण से दिखने वाले कारण जैसे कि संपत्ति या पारिवारिक झगड़े, प्रेम संबंधी विवाद, कामकाजी विवाद या यूं ही अजनबियों के बीच होने वाले झगड़े, ही एक बहुत बड़ी संख्या में हिंसक घटनाओं को जन्म देते हैं. हालांकि यह भी सत्य है कि इस "सच्चाई" में स्थानीय अपराधिक गुट जो कई बार वसूली, डकैती या और तरह के अपराधों में लिप्त होते हैं, इन झगड़ों का हिस्सा होते हैं. राष्ट्रीय मीडिया की रुचि संप्रदायिक या जातिगत कारणों से होने वाली, या प्रशासन की क्रूरता या लापरवाही से होने वाली हिंसात्मक घटनाओं में ज्यादा होती है, लेकिन तब किसी भी क्षेत्र में होने वाली हिंसा की घटनाओं में साधारण और आकस्मिक कारण कहीं ज्यादा होते हैं.

अगर कोई व्यक्तिगत ही राजनैतिक तर्क की लाइन न पकड़े, तो किसी भी समाज की हिंसक सच्चाई एक नागरिक के दूसरे नागरिक की तरफ की गई आम हिंसा से ज्यादा परिभाषित होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो पीड़ित और दोषी के बीच के समीकरण आम तौर पर सामाजिक और राजनीतिक खांचों से परे होते हैं. कई बार तो किसका कितना दोष है यह भी पता नहीं चल पाता क्योंकि झगड़ा वायरल नहीं होता. जैसा कि बड़ौत में अधेड़ उम्र के चाट विक्रेता को पता चला, लोगों के आम और रोजमर्रा के जीवन में अपने पड़ोसी या कामकाजी प्रतिद्वंदियों के प्रति द्वेष किसी भी राजनीतिक या सामाजिक प्रतिद्वंदी से कहीं ज्यादा होता है.

राष्ट्रीय मीडिया के राजनैतिक कारणों या उद्देश्यों से जुड़ी हिंसा को ज्यादा महत्व देने का एक परिणाम यह भी है कि वो ‌ दूसरे प्रकार के अपराधों को नजरअंदाज कर देता है. इसका हाल ही में सबसे अच्छा उदाहरण भीड़ द्वारा की गई सामूहिक हत्याओं के आसपास बुना परिवेश है जो इस तरह की हत्याओं के पीछे केवल सांप्रदायिक मुद्दों की बात करता है. जबकि भारत में भीड़ के द्वारा की गई इस प्रकार की हत्याओं के पीछे तुरंत न्याय और बदले की भावना जैसे कई कारण कहीं ज्यादा होते हैं, जो अपने आप को घटनाओं में अलग-अलग तरह से प्रदर्शित करते हैं.

उदाहरण के तौर पर बिहार पुलिस के द्वारा 2019 में पंजीकृत की गई इस प्रकार के सामूहिक हत्याओं को देखें. मैंने उस समय लिखा था-

"केवल ढाई महीने में 39 सामूहिक हिंसा की घटनाएं हुईं जिनमें 14 लोग मारे गए. इन घटनाओं के पीछे का सबसे आम कारण बच्चा चोरी था. मीडिया के कुछ धड़ों के द्वारा ऐसी ही एक घटना को सांप्रदायिक जामा पहनाने का प्रयास औंधे मुंह गिरा, जब यह दिखाकर इन घटनाओं में पीड़ित लोग समाज के सभी हिस्सों से आते थे. इस सब ने बिहार पुलिस को बच्चा चोरी और उससे होने वाली हिंसा के प्रति एक संवेदनशील अभियान चलाने के लिए प्रेरित किया. जिलाधिकारी और पुलिस अधिकारियों के द्वारा लाउडस्पीकर से, पोस्टर और होर्डिंग लगाकर, सोशल मीडिया पर अभियान चलाकर और शिविर लगाकर जनता को इस प्रकार की अफवाहों को फैलाने और विश्वास करने के खतरों के बारे में जागरूक करने के प्रयास किए गए."

यह साफ है कि इन अफवाहों की "भयावह सच्चाई", जिसे हम अब फेक न्यूज़ कहते हैं, के कई शिविर हैं. यहां तक की बागपत जिले के बड़ौत में हुई हिंसा में शामिल अधेड़ उम्र के दुकानदार की भी शिकायत यही थी कि उसके प्रतियोगी अफवाह उड़ा रहे थे कि उसकी चाट बासी है.

इसका एक पहलू यह भी है कि भले ही झगड़ा करने वाले चाट विक्रेताओं की प्रसिद्धि और बिक्री के बारे में हमें ज्यादा न पता हो, लेकिन ग्राहकों को आकर्षित करने के पीछे का विचलित एकाकीपन भी इस घटना से परिभाषित होता है. भारत में सड़कों पर सम्मान और सेवाएं बेचने वाले की ऊर्जा और अवसाद से भरे चेहरे आम हैं, जो कई बार अति उत्साहित भी हो जाया करते हैं. एक खाली बैठे दुकानदार को सड़क की तरफ ताकते देखने या अपने सामान या काम की न होने वाली बिक्री पर हथियार डाल देने से ज्यादा उदासी भरे दृश्य शायद ही देखने को मिलें.

यह आमतौर पर भदवासी में भी एक प्रक्रिया बना लेने के रूप में परिभाषित होता है, जैसे कि सवारियों के लिए चलने वाले ऑटो रिक्शा भारतीय शहरों में खुद ही लाइन लगाने लगते हैं. लेकिन इस प्रकार के सामाजिक अनकहे अनुबंध अपने साथ कई प्रकार के झगड़े साथ लाते हैं. इस प्रकार के झगड़ों के पीछे आम सहमति को न मानना, कहे अनकहे नियमों का उल्लंघन करना या उन्हें ताक पर रख देने की शिकायतें होती हैं. सभी लोग एक साथ काम करके अपनी महत्ता बनाए रखें, इसके लिए बन जाने वाले यह कहे अनकहे नियम, एक व्यक्ति के अंदर कम आमदनी या लाइन में लगने की वजह से होने वाली देरी और उससे होने वाला आभासी नुकसान के डर को खत्म नहीं कर सकती, जिसकी वजह से लोग इनका उल्लंघन करते हैं.

कई अर्थों में, बड़ौत में हुआ झगड़ा अपने पीछे के साधारण कारणों और सड़क पर होने वाले झगड़ों की छाप ही दिखाता है. भले ही इस घटना के पीछे रोचक या हास्यास्पद किरदार हों जिसकी वजह से यह सब के मज़े और आनंद का स्रोत बन गया, लेकिन इससे हमें यह भी पता चलता है कि सड़क पर सामान बेचने वालों के मन में छुपा अवसाद और ग्राहक ढूंढने के लिए होने वाले गंभीर इलाकाई झगड़े भी हमारे समाज की सच्चाई हैं.

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हम में से कोई माने ना माने अधिकतर लोगों के लिए सड़क पर या मोहल्ले में होने वाला झगड़ा एक मनोरंजक घटना होती है. इसमें शामिल होने से लेकर तटस्थ बने रहने तक के बीच की लोगों द्वारा अनेकों प्रकार की प्रतिक्रियाएं यह बताती हैं कि यह सार्वजनिक जगहों पर होने वाली हिंसक झड़पें और झगड़े, जनमानस में अपना एक अलग स्थान रखते हैं.

सार्वजनिक जीवन के इसी मंच के एक कोने पर, हमारी यह सामूहिक उत्सुकता वायरल हो गई जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के बड़ौत में चाट वालों के बीच होने वाली लड़ाई का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. इसमें तरह-तरह के मीम को भी जन्म दिया जिनमें लोगों ने अपने पसंदीदा पात्रों को चुनकर उनका समर्थन करना शुरू कर दिया.

बाद में खबर आई कि यह झगड़ा इसलिए शुरू हुआ था क्योंकि एक पुराना चाट विक्रेता अपने नए प्रतियोगियों से चिड़ा हुआ था क्योंकि वह ग्राहकों से उसके सामान की बुराई कर रहे थे. इस छोटे से वीडियो की मनोरंजक गुणवत्ता से अलग, इसके चारों ओर होने वाली सामाजिक टिप्पणियों में आमतौर पर होने वाली हिंसा और उसके कारणों की समझ की कमी दिखाई दी. इस तरह के झगड़ों के पीछे छुपे रोजमर्रा के अवसाद और लोगों का कामकाज में गहरा अकेलापन टिप्पणीकारों की समझ से दूर दिखाई दिया.

ऐसी ही एक टिप्पणी इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय ने ली जिसका कहना था कि जहां एक तरफ उत्तर प्रदेश में होने वाली अलग-अलग हिंसा की घटनाएं वहां के कड़वे यथार्थ से जुड़ी होती हैं, वहीं यह वायरल होने वाला वीडियो उनसे अलग हटकर हंसाने वाला था. हालांकि एक्सप्रेस का संपादकीय हिंसा के समर्थन से कुछ ही पहले रुका, लेकिन उसने क्षेत्र की हिंसक सच्चाई को परिभाषित करते समय क्षेत्र में होने वाली गैर राजनीतिक और गैर सांप्रदायिक घटनाओं की उपेक्षा की. ऐसे निष्कर्ष केवल अपराध और हिंसा की सामाजिक समझ में कमी ही दर्शाते हैं.

अगर कोई केवल पुलिस में दर्ज या स्थानीय अखबार में निकलने वाली रोज़ाना की अपराध सूची को देखें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि साधारण से दिखने वाले कारण जैसे कि संपत्ति या पारिवारिक झगड़े, प्रेम संबंधी विवाद, कामकाजी विवाद या यूं ही अजनबियों के बीच होने वाले झगड़े, ही एक बहुत बड़ी संख्या में हिंसक घटनाओं को जन्म देते हैं. हालांकि यह भी सत्य है कि इस "सच्चाई" में स्थानीय अपराधिक गुट जो कई बार वसूली, डकैती या और तरह के अपराधों में लिप्त होते हैं, इन झगड़ों का हिस्सा होते हैं. राष्ट्रीय मीडिया की रुचि संप्रदायिक या जातिगत कारणों से होने वाली, या प्रशासन की क्रूरता या लापरवाही से होने वाली हिंसात्मक घटनाओं में ज्यादा होती है, लेकिन तब किसी भी क्षेत्र में होने वाली हिंसा की घटनाओं में साधारण और आकस्मिक कारण कहीं ज्यादा होते हैं.

अगर कोई व्यक्तिगत ही राजनैतिक तर्क की लाइन न पकड़े, तो किसी भी समाज की हिंसक सच्चाई एक नागरिक के दूसरे नागरिक की तरफ की गई आम हिंसा से ज्यादा परिभाषित होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो पीड़ित और दोषी के बीच के समीकरण आम तौर पर सामाजिक और राजनीतिक खांचों से परे होते हैं. कई बार तो किसका कितना दोष है यह भी पता नहीं चल पाता क्योंकि झगड़ा वायरल नहीं होता. जैसा कि बड़ौत में अधेड़ उम्र के चाट विक्रेता को पता चला, लोगों के आम और रोजमर्रा के जीवन में अपने पड़ोसी या कामकाजी प्रतिद्वंदियों के प्रति द्वेष किसी भी राजनीतिक या सामाजिक प्रतिद्वंदी से कहीं ज्यादा होता है.

राष्ट्रीय मीडिया के राजनैतिक कारणों या उद्देश्यों से जुड़ी हिंसा को ज्यादा महत्व देने का एक परिणाम यह भी है कि वो ‌ दूसरे प्रकार के अपराधों को नजरअंदाज कर देता है. इसका हाल ही में सबसे अच्छा उदाहरण भीड़ द्वारा की गई सामूहिक हत्याओं के आसपास बुना परिवेश है जो इस तरह की हत्याओं के पीछे केवल सांप्रदायिक मुद्दों की बात करता है. जबकि भारत में भीड़ के द्वारा की गई इस प्रकार की हत्याओं के पीछे तुरंत न्याय और बदले की भावना जैसे कई कारण कहीं ज्यादा होते हैं, जो अपने आप को घटनाओं में अलग-अलग तरह से प्रदर्शित करते हैं.

उदाहरण के तौर पर बिहार पुलिस के द्वारा 2019 में पंजीकृत की गई इस प्रकार के सामूहिक हत्याओं को देखें. मैंने उस समय लिखा था-

"केवल ढाई महीने में 39 सामूहिक हिंसा की घटनाएं हुईं जिनमें 14 लोग मारे गए. इन घटनाओं के पीछे का सबसे आम कारण बच्चा चोरी था. मीडिया के कुछ धड़ों के द्वारा ऐसी ही एक घटना को सांप्रदायिक जामा पहनाने का प्रयास औंधे मुंह गिरा, जब यह दिखाकर इन घटनाओं में पीड़ित लोग समाज के सभी हिस्सों से आते थे. इस सब ने बिहार पुलिस को बच्चा चोरी और उससे होने वाली हिंसा के प्रति एक संवेदनशील अभियान चलाने के लिए प्रेरित किया. जिलाधिकारी और पुलिस अधिकारियों के द्वारा लाउडस्पीकर से, पोस्टर और होर्डिंग लगाकर, सोशल मीडिया पर अभियान चलाकर और शिविर लगाकर जनता को इस प्रकार की अफवाहों को फैलाने और विश्वास करने के खतरों के बारे में जागरूक करने के प्रयास किए गए."

यह साफ है कि इन अफवाहों की "भयावह सच्चाई", जिसे हम अब फेक न्यूज़ कहते हैं, के कई शिविर हैं. यहां तक की बागपत जिले के बड़ौत में हुई हिंसा में शामिल अधेड़ उम्र के दुकानदार की भी शिकायत यही थी कि उसके प्रतियोगी अफवाह उड़ा रहे थे कि उसकी चाट बासी है.

इसका एक पहलू यह भी है कि भले ही झगड़ा करने वाले चाट विक्रेताओं की प्रसिद्धि और बिक्री के बारे में हमें ज्यादा न पता हो, लेकिन ग्राहकों को आकर्षित करने के पीछे का विचलित एकाकीपन भी इस घटना से परिभाषित होता है. भारत में सड़कों पर सम्मान और सेवाएं बेचने वाले की ऊर्जा और अवसाद से भरे चेहरे आम हैं, जो कई बार अति उत्साहित भी हो जाया करते हैं. एक खाली बैठे दुकानदार को सड़क की तरफ ताकते देखने या अपने सामान या काम की न होने वाली बिक्री पर हथियार डाल देने से ज्यादा उदासी भरे दृश्य शायद ही देखने को मिलें.

यह आमतौर पर भदवासी में भी एक प्रक्रिया बना लेने के रूप में परिभाषित होता है, जैसे कि सवारियों के लिए चलने वाले ऑटो रिक्शा भारतीय शहरों में खुद ही लाइन लगाने लगते हैं. लेकिन इस प्रकार के सामाजिक अनकहे अनुबंध अपने साथ कई प्रकार के झगड़े साथ लाते हैं. इस प्रकार के झगड़ों के पीछे आम सहमति को न मानना, कहे अनकहे नियमों का उल्लंघन करना या उन्हें ताक पर रख देने की शिकायतें होती हैं. सभी लोग एक साथ काम करके अपनी महत्ता बनाए रखें, इसके लिए बन जाने वाले यह कहे अनकहे नियम, एक व्यक्ति के अंदर कम आमदनी या लाइन में लगने की वजह से होने वाली देरी और उससे होने वाला आभासी नुकसान के डर को खत्म नहीं कर सकती, जिसकी वजह से लोग इनका उल्लंघन करते हैं.

कई अर्थों में, बड़ौत में हुआ झगड़ा अपने पीछे के साधारण कारणों और सड़क पर होने वाले झगड़ों की छाप ही दिखाता है. भले ही इस घटना के पीछे रोचक या हास्यास्पद किरदार हों जिसकी वजह से यह सब के मज़े और आनंद का स्रोत बन गया, लेकिन इससे हमें यह भी पता चलता है कि सड़क पर सामान बेचने वालों के मन में छुपा अवसाद और ग्राहक ढूंढने के लिए होने वाले गंभीर इलाकाई झगड़े भी हमारे समाज की सच्चाई हैं.

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