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रिपोर्टर की डायरी: 26 जनवरी को जो कुछ हुआ वो ऐतिहासिक था या कलंक?
मंगलवार दोपहर तीन बजे लगभग पांच हजार किसानों का समूह लाल किले में घुसा हुआ था. उस वक़्त वीडियो करते हुए मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस पल को ऐतिहासिक कहा जाय या कुछ और. पास खड़े एक सीनियर पत्रकार से पूछा तो उन्होंने कहा- 'हिस्टोरिक पल' तो है ही.
यह वो जगह थी जहां देश के प्रधानमंत्री हर 15 अगस्त को तिरंगा फहराते हैं. जाहिर है यहां पर किसानों की किसी भी तरह की गतिविधि का बड़ा संदेश जाएगा. किसानों के एक गुट ने वहां निशान साहेब का झंडा फहराया. हालांकि वहां पहले से फहरा रहे तिरंगे को उन्होंने नहीं छुआ. लाल किले पर कोई धार्मिक झंडा फहराने की एक अलग बहस हो सकती है लेकिन यह सच है कि तिरंगा जिस जगह पर फहरा जा रहा था वह अपनी जगह उसी शान से फहरा रहा था.
अच्छा था या बुरा, इस बहस में न जाकर मैं इतना कहूंगा कि मैं एक ऐतिहासिक पल का गवाह बन रहा था. हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहां हर कुछ दिनों बाद कुछ न कुछ ऐतिहासिक ही हो रहा है. मसलन जेएनयू विवाद, राम मंदिर, जीएसटी, नोटबन्दी, सीएए-एनआरसी को लेकर प्रदर्शन, दिल्ली दंगा, कोरोना, लॉकडाउन और उसके कारण लाखों लोगों का पलायन आदि. बेहतर होता इस दौर का नाम ही ऐतिहासिक दौर रख दिया जाता. क्योंकि टू मच ऐतिहासिक दौर है यह..
ख़ैर, 26 जनवरी के इस ऐतिहासिक दिन जब किसानों की ट्रैक्टर परेड निकल रही थी तब मैं उसे कवर करते हुए किसानों की उस भीड़ के साथ हो लिया जो पुलिस और किसान नेताओं के बीच तय हुए रुट को छोड़कर केंद्रीय दिल्ली की तरफ चल दी. तब तक मुझे अहसास भी नहीं था कि ये लोग कुछ इतना बड़ा करने जा रहे हैं.
सुबह के 9 बजे रहे थे. गाजीपुर बॉर्डर पर बने किसानों के स्टेज पर तिरंगा-झंडा फहराया गया. राष्ट्रगान खत्म होने के बाद मंच से कई नेताओं ने भाषण दिया. इन नेताओं ने कई बार दोहराया, 'अनुशासन का पालन करना है. जो रुट तय हुआ है उसके इतर नहीं जाना है. हंगामा नहीं करना है. दुनिया की निगाहें हम पर हैं. अब तक आंदोलन जिस तरह शांतिपूर्ण रहा, आगे भी रखना है. 11 बजे हम यहां से निकलेंगे.' यह बात कम से कम पच्चास लोगों ने दोहराई होगी.
मंच पर भाषण चलता रहा इधर किसान ट्रैक्टर परेड में जाने की तैयारी शुरू कर चुके थे. जहां तक, जिस भी तरफ नज़र जा रही थी वहां तक ट्रैक्टर ही ट्रैक्टर थे. हज़ारों ट्रैक्टर लिए भारी भीड़. बुजुर्ग, बच्चे, महिलाएं. हर उम्र के. देशभक्ति गानों पर झूमते, झांकी लिए हुए.
सुबह, 10 बजकर 50 मिनट
दिल्ली-यूपी के गाजीपुर बॉर्डर के पास पुलिस ने एहतियातन एक-दो कैंटेनर और कुछेक बैरिकेड लगा रखे थे. ट्रैक्टर परेड के लिए निकालते हुए नौजवानों ने सुबह के 10 बजकर 55 मिनट पर ही पुलिस के सामने उस कैंटेनर को हटा दिया और बैरिकेड को नाले में फेंक दिया. दिल्ली पुलिस किसानों को रोकने में असफल हुई. वो हरियाणा पुलिस की नाकामी से शायद कुछ नहीं सीख पाई थी तभी तो कैंटेनर और दो चार बैरिकेड लगाकर निश्चित हो गए थे.
किसान नेता राकेश टिकैत लगातार किसानों को रोकते और संयम बरतने की सलाह देते दिखे. लेकिन मामला उनके हाथों से निकलने में महज 3 से 4 मिनट लगा. सारे ट्रैक्टर्स का मुंह दिल्ली की तरफ हो गया. टिकैत और उनके दो-चार साथियों के अलावा कोई भी इन्हें रोकने वाला नहीं था. पुलिस चुप खड़ी थी. नौजवान रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. स्टेज से थोड़ी देर पहले जिस अनुशासन की बात की जा रही तो वो परेड शुरू होते ही हवा हो गई थी.
यहां स्टेज के नीचे मेरी मुलाकात एक छोटे लड़के से हुई. जिसकी उम्र महज 12 से 13 साल रही होगी. जब राकेश टिकैत भीड़ को रोकने की कोशिश कर रहे थे तब ये लड़का उनके ऊपर चिल्ला रहा था- 'अरे हम दिल्ली जाएंगे. क्यों रोक रहे हो. हमें कोई नहीं रोक सकता है.'
यह बात बच्चे ने कई दफा दोहराई. मैंने उससे पूछा, “क्यों दिल्ली जाना चाहते हो.” उसने भड़कते हुए कहा- 'तो यहां क्या मरते रहे. दो महीने से ठंड में मर रहे हैं. सरकार सुन नहीं रही. सरकार को सुनाएंगे.'
लड़के से बात पूरी होती कि हंगामा शुरू हो गया. राकेश टिकैत के हाथ से नियंत्रण छूट चुका था. किसानों की भीड़ किसी को सुनने को राजी नहीं थी. ट्रैक्टर्स का काफिला दिल्ली की तरफ चल पड़ा. आसमान में गणतंत्र दिवस की परेड से शामिल होकर लौट रहे जहाज थे और दिल्ली की सड़कों पर किसानों के ट्रैक्टर. मैं भी उसी भीड़ में शामिल एक ट्रैक्टर पर सवार होकर उनके साथ दिल्ली की ओर चल पड़ा.
26-27 नवम्बर को दिल्ली के लिए निकले किसानों को दिल्ली की सरहदों पर रोक दिया गया था. अब दो महीने बाद वो दिल्ली पहुंच गए. ट्रैक्टर पर बैठे एक नौजवान ने चिल्लाते हुए कहा- 'हम दिल्ली आ गए. मोदी जी हम दिल्ली आ गए.' इस समय हम लोग अक्षरधाम मंदिर के सामने से गुजर रहे थे.
किसान अक्षरधाम, आईपी एक्सटेंशन होते हुए आईटीओ पहुंच गए. रास्ते में उन्हें कहीं भी रोका नहीं गया. जबकि यह गणतंत्र दिवस का मौका था, इस मौके पर दिल्ली मं हाई अलर्ट होता है. उन्हें तब रोका गया जब किसान आईटीओ से इंडिया गेट की तरफ बढ़ने लगे. यहां से राजपथ महज एक-दो किलोमीटर की दूरी पर हैं. वहां थोड़ी देर पहले ही गणतंत्र दिवस की परेड खत्म हुई थी. तिलक ब्रिज के नीचे हज़ारों की संख्या में पुलिस बल तैनात था. गाजीपुर से चले किसानों का पहली बार यहां आकर पुलिस से आमना-सामना हुआ. राजपथ से दो किलोमीटर पहले. थोड़ी देर के लिए आईटीओ का चौराहा युद्ध का मैदान बन गया.
आईटीओ पर विकास मार्ग की तरफ से किसान आगे की तरफ बढ़े तो पुलिस ने आंसू गैस के गोले दागते हुए उन्हें आईटीओ चौराहे तक वापस पहुंचा दिया. किसान ट्रैक्टर पर थे. फिर पुलिस ने ट्रैक्टर पर बैठे किसानों को पीटना शुरू किया. सैंकड़ो किसान ट्रैक्टर छोड़कर भाग गए. उसके बाद पुलिस ट्रैक्टर को तोड़ने लगी. पुलिस के कुछ सीनियर अधिकारियों के हस्तक्षेप के बाद इसे रोका गया. लेकिन कई ट्रैक्टर्स को नुकसान पहुंचाया जा चुका था.
पुलिस किसानों को भगाकर निश्चित थी, तभी किसानों के एक समूह ने पलटवार किया. कई किसानों ने पुलिस पर हमला कर दिया. पुलिस एक बार फिर किसानों को भगाने में सफल रही. इस बीच लगातार पुलिस की तरफ से आंसू गैस के गोले दागे जा रहे थे. दोनों तरफ से ईट-पत्थर फेंके जा रहे थे. यहां कई पत्रकारों को भी प्रदर्शनकारियों ने पीटा. इंडिया टुडे के रिपोर्टर और कैमरामैन को भगा दिया गया.
पुलिस एक बार फिर किसानों को खदेड़कर निश्चित हो पाती कि कुछ नौजवान किसानों ने पैंतरा बदला और विकास मार्ग के पीछे से होते हुए सीधे बहादुरशाह जफर मार्ग पर पहुंच गए. उनके हाथों में मोटे-मोटे डंडे और तलवारें थी. चहेरे पर कोई डर नहीं था. उन्होंने पुलिस पर हमला कर दिया. पुलिस के साथ यह आंख-मिचौली चल रही थी. पुलिस का ध्यान दूसरी तरफ देख विकास मार्ग पर अपने ट्रैक्टर लेकर खड़े किसानों को मौका मिल गया. दो किसान ट्रैक्टर लेकर चौराहे पर पहुंच गए और लोगों के बीच ट्रैक्टर दौड़ाने लगे. यह संयोग ही था कि कोई उनकी चपेट में नहीं आया. वे पुलिस की तरफ बेहद तेज रफ्तार से अपना ट्रैक्टर लेकर बढ़े. सब डरकर पीछे हो गए. इसके बाद देखते-देखते किसान अपने ट्रैक्टर पर सवार होकर लाल किले की तरफ चल पड़े.
आईटीओ के पास ही उत्तराखण्ड के उधम सिंह नगर जिले के विलासपुर के रहने वाले एक किसान की मौत हो गई. पुलिस का दावा है कि ट्रैक्टर पलटने से उनकी मौत हुई, दूसरी तरफ प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि आंसू गैस का गोला लगने से उनकी मौत हुई है. मौत कैसे हुई इसकी असली वजह तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ही सामने आएगी.
आईटीओ पर लगभग 40 से 50 मिनट की झड़प के बाद किसान डेढ़ बजे के आस पास लाल किले की तरफ बढ़ने लगे. रास्ते में उन्हें जो कुछ मिला सबको तोड़ा. पुलिस ने भी उनके कई ट्रैक्टर को पंचर कर दिया था.
आईटीओ से लाल किला जा रहे किसानों के चेहरों पर डर तो था, लेकिन विजय का भाव भी दिख रहा था. वे लगातार नारे लगा रहे थे कि हम दिल्ली पहुंच गए. वे दिल्ली में आ चुके थे.
लाल किला
लाल किला पर गाजीपुर के अलावा सिंघु बॉर्डर से भी किसान पहुंचे थे. यहां पहुंचते-पहुंचते किसानों का यह झुंड कुछ हद तक धार्मिक रंग ले चुका था.
सिख समुदाय से जुड़े लोगों ने लाल किले के प्राचीर पर चढ़कर अपना धार्मिक झंडा (निशान साहिब) लगा दिया. सिख धर्म को मानने वालों का कहना था कि लाल किले पर पहले हमारा झंडा लगा रहता था. बाद में उसे हटा दिया गया. आज हमने फिर लगा दिया. यहां पर जितनी मुंह उतनी बातें हो रही थी. हालांकि लाल किले पर भारत के तिरंगे के अलावा कोई और झंडा शायद ही किसी भारतीय को पसंद आए.
इसी बीच सोशल मीडिया पर एक और प्रोपेगैंडा चला कि प्रदर्शनकारियों ने तिरंगे को हटा दिया. बिल्कुल ऐसा नहीं हुआ. भारत का झंडा अपनी जगह पर मौजूद रहा. उसके आसपास दूसरे झंडे लगाए गए. सोशल मीडिया पर यह झूठ भी खूब फैलाया गया. इसमें मुख्यधारा के टीवी चैनलों ने भी योगदान दिया.
ख़ैर, लाल किले के ऊपर हज़ारों की संख्या में लोग मौजूद थे. आसपास के बुजुर्ग लोगों की माने तो उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी लाल किले पर ऐसी तस्वीर नहीं देखी. करीब आधे घण्टे तक वहां लोग रहे लेकिन देखते-देखते पुलिस ने उन्हें वहां से भगा दिया. इस दौरान कई प्रदर्शनकारी और पुलिसकर्मी घायल हुए. अफवाह ये उड़ी की अंदर पुलिस ने गोली चलाई है, लेकिन इसकी कोई स्पष्ट जानकारी सामने नहीं आई. थोड़ी देर बाद करीब पांच एम्बुलेंस में घायल पुलिस वालों को ले जाया गया. कई प्रदर्शनकारी भी लाल किले के सामने खून से लथपथ नजर आए.
यहां अफरा तफरी का माहौल था. पत्रकारों का कैमरा तोड़ दिया गया. मोबाइल तोड़ा गया. तोड़ने और मारने की धमकी लगातर दी जा रही थी.
यहां पहुंचने के बाद कोई भी किसान पत्रकारों से बात नहीं करना चाह रहा था. पंजाब से आए एक बुजुर्ग किसान से जब हमने पूछा कि लाल किला आने का फैसला सही था. इतनी हिंसा हुई जबकि आपका आंदोलन शांतिपूर्ण था. उन्होंने कहा, "दिल्ली में दो महीने से शांतिपूर्ण ही प्रदर्शन कर रहे थे. उसके पहले पंजाब में किए. कोई हादसा सुना आपने. हमारे 53 से ज़्यादा लोग दो महीने में ठंड से मर गए. बारिश हुई. कड़ाके की ठंड पड़ी. हम खुले आसमान के नीचे थे. सरकार मीटिंग पर मीटिंग करती रही लेकिन कानून वापस नहीं ली. हमारे लिए कानून बना और हमें ही मारा जा रहा था. थक गए थे हम लोग."
बुजुर्ग ने कहा, "ट्रैक्टर परेड रैली के लिए दिल्ली आने की मांग जब हमने कि तो हमें मूर्ख बनाते हुए इधर-उधर घूमने की इजाजत दी गई. आप बताओ हम ठंड में मरते रहें हर रोज. आप लोगों को (मीडिया को) तो हमारे लोगों के मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता. आज हिंसा हुई तो सब चिल्ला रहे हैं. ठंड में रहते-रहते, हर रोज अपनों को खोते हुए सब परेशान हो गए है. गलती है लेकिन मज़बूरी में की गई. सरकार सुन नहीं रही है."
थोड़ी देर बाद किसानों को पुलिस ने लाल किले से बाहर कर दिया, लेकिन तभी निहंग सिखों का एक जत्था वहां पहुंच गया. निहंग, सिख समुदाय का वो तबका जो योद्धा कहलाता है. उनके पास अक्सर कई तरह के शस्त्र होते हैं. निहंगों के पहुंचने के बाद एक बार फिर से किसान लाल किले के भीतर आ गए. उसके बाद देर रात तक आते जाते रहे. लाल किले के बाहर सेल्फी लेते रहे. पुलिस के नियंत्रण से लाल किला बाहर हो गया था.
लाल किले के पास गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल अलग अलग राज्यों का झांकियां रखी हुई थी. किसान उस पर चढ़ गए. किसानों के चेहरे पर जीत का भाव था. अब धीरे-धीरे वे वहां से लौटने लगे. देर रात को पुलिस ने भारतीय झंडे के अलावा बाकी झंडों को लाल किले से उतार दिया. कुछेक किसान नीचे हंगामा करते रहे.
कुछ सवाल
एक तरफ पुलिस ने हंगामा करने वालों की जांच की बात की है वहीं किसान संगठनों ने आंदोलन जारी रखने की बात कही है. आरोप-प्रत्यारोप का दौर जा रही है. नेशनल मीडिया दो हिस्सों में बंट गया है. एक हिस्सा आंदोलन को कोस रहा है दूसरा हिस्सा सरकार के रवैये को कोस रहा है. लेकिन कुछ सवाल हैं जिनका जवाब आना अभी बाकी है.
1. गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में सबसे ज़्यादा सुरक्षा होती है. तमाम सुरक्षा एजेंसियां सक्रिय रहती है. कहां चूक हुई कि यह पता नहीं चल पाया कि किसानों का एक हिस्सा दिल्ली आने की बात कर रहा है. जबकि प्रदर्शन स्थलों पर कई लोग इस तरह की बात करते नजर आ रहे थे कि वे सरकारी रूट को नहीं मानेंगे और दिल्ली जाएंगे.
2. दिल्ली पुलिस जो प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए कई स्तर पर बैरिकेड लगाती है लेकिन कल एक हद तक खामोश क्यों रही. आईटीओ और लाल किले को छोड़ दिया जाए तो कहीं भी पुलिस इन्हें रोकने की कोशिश करती नज़र नहीं आई.
3. दो महीने से दिल्ली में किसानों का जो आंदोलन शांतिमय चल रहा था. पुलिसकर्मियों को जो किसान लंगर खिलाते नजर आए थे. वे उनसे ही क्यों लड़ने को तैयार हो गए?
4. लाल किला पर जो भीड़ गई वो नेतृत्वहीन थी. कम से कम मैंने पूरी यात्रा के दौरान ऐसा ही पाया. उनका कोई नेता नहीं था. हमें तो कोई नेता नजर नहीं आया. किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने दीप सिधु को इसके लिए जिम्मेदार बताया है. क्या उन्होंने ऐसा किया?
5. अब आंदोलन का क्या होगा? सरकार क्या तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेगी. अभी तक इसका कोई संकेत नहीं मिला. वहीं किसान संगठन अपने आंदोलन को सफल बताते हुए आगे इसे जारी रखने का ऐलान कर चुके हैं.
6. सबसे बड़ा सवाल एक साल के भीतर दिल्ली में दो बड़े हादसे हुए. बीते साल दिल्ली दंगा, हुआ जिसमें 50 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई. दंगे की बरसी से पहले ही एक और हादसा. इसके लिए कौन जिम्मेदार है? किसी की जिम्मेदारी बनती भी है या नहीं?
कल जो कुछ हुआ वो ऐतिहासिक था या कलंक यह एक अलग बहस है.
मंगलवार दोपहर तीन बजे लगभग पांच हजार किसानों का समूह लाल किले में घुसा हुआ था. उस वक़्त वीडियो करते हुए मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस पल को ऐतिहासिक कहा जाय या कुछ और. पास खड़े एक सीनियर पत्रकार से पूछा तो उन्होंने कहा- 'हिस्टोरिक पल' तो है ही.
यह वो जगह थी जहां देश के प्रधानमंत्री हर 15 अगस्त को तिरंगा फहराते हैं. जाहिर है यहां पर किसानों की किसी भी तरह की गतिविधि का बड़ा संदेश जाएगा. किसानों के एक गुट ने वहां निशान साहेब का झंडा फहराया. हालांकि वहां पहले से फहरा रहे तिरंगे को उन्होंने नहीं छुआ. लाल किले पर कोई धार्मिक झंडा फहराने की एक अलग बहस हो सकती है लेकिन यह सच है कि तिरंगा जिस जगह पर फहरा जा रहा था वह अपनी जगह उसी शान से फहरा रहा था.
अच्छा था या बुरा, इस बहस में न जाकर मैं इतना कहूंगा कि मैं एक ऐतिहासिक पल का गवाह बन रहा था. हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहां हर कुछ दिनों बाद कुछ न कुछ ऐतिहासिक ही हो रहा है. मसलन जेएनयू विवाद, राम मंदिर, जीएसटी, नोटबन्दी, सीएए-एनआरसी को लेकर प्रदर्शन, दिल्ली दंगा, कोरोना, लॉकडाउन और उसके कारण लाखों लोगों का पलायन आदि. बेहतर होता इस दौर का नाम ही ऐतिहासिक दौर रख दिया जाता. क्योंकि टू मच ऐतिहासिक दौर है यह..
ख़ैर, 26 जनवरी के इस ऐतिहासिक दिन जब किसानों की ट्रैक्टर परेड निकल रही थी तब मैं उसे कवर करते हुए किसानों की उस भीड़ के साथ हो लिया जो पुलिस और किसान नेताओं के बीच तय हुए रुट को छोड़कर केंद्रीय दिल्ली की तरफ चल दी. तब तक मुझे अहसास भी नहीं था कि ये लोग कुछ इतना बड़ा करने जा रहे हैं.
सुबह के 9 बजे रहे थे. गाजीपुर बॉर्डर पर बने किसानों के स्टेज पर तिरंगा-झंडा फहराया गया. राष्ट्रगान खत्म होने के बाद मंच से कई नेताओं ने भाषण दिया. इन नेताओं ने कई बार दोहराया, 'अनुशासन का पालन करना है. जो रुट तय हुआ है उसके इतर नहीं जाना है. हंगामा नहीं करना है. दुनिया की निगाहें हम पर हैं. अब तक आंदोलन जिस तरह शांतिपूर्ण रहा, आगे भी रखना है. 11 बजे हम यहां से निकलेंगे.' यह बात कम से कम पच्चास लोगों ने दोहराई होगी.
मंच पर भाषण चलता रहा इधर किसान ट्रैक्टर परेड में जाने की तैयारी शुरू कर चुके थे. जहां तक, जिस भी तरफ नज़र जा रही थी वहां तक ट्रैक्टर ही ट्रैक्टर थे. हज़ारों ट्रैक्टर लिए भारी भीड़. बुजुर्ग, बच्चे, महिलाएं. हर उम्र के. देशभक्ति गानों पर झूमते, झांकी लिए हुए.
सुबह, 10 बजकर 50 मिनट
दिल्ली-यूपी के गाजीपुर बॉर्डर के पास पुलिस ने एहतियातन एक-दो कैंटेनर और कुछेक बैरिकेड लगा रखे थे. ट्रैक्टर परेड के लिए निकालते हुए नौजवानों ने सुबह के 10 बजकर 55 मिनट पर ही पुलिस के सामने उस कैंटेनर को हटा दिया और बैरिकेड को नाले में फेंक दिया. दिल्ली पुलिस किसानों को रोकने में असफल हुई. वो हरियाणा पुलिस की नाकामी से शायद कुछ नहीं सीख पाई थी तभी तो कैंटेनर और दो चार बैरिकेड लगाकर निश्चित हो गए थे.
किसान नेता राकेश टिकैत लगातार किसानों को रोकते और संयम बरतने की सलाह देते दिखे. लेकिन मामला उनके हाथों से निकलने में महज 3 से 4 मिनट लगा. सारे ट्रैक्टर्स का मुंह दिल्ली की तरफ हो गया. टिकैत और उनके दो-चार साथियों के अलावा कोई भी इन्हें रोकने वाला नहीं था. पुलिस चुप खड़ी थी. नौजवान रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. स्टेज से थोड़ी देर पहले जिस अनुशासन की बात की जा रही तो वो परेड शुरू होते ही हवा हो गई थी.
यहां स्टेज के नीचे मेरी मुलाकात एक छोटे लड़के से हुई. जिसकी उम्र महज 12 से 13 साल रही होगी. जब राकेश टिकैत भीड़ को रोकने की कोशिश कर रहे थे तब ये लड़का उनके ऊपर चिल्ला रहा था- 'अरे हम दिल्ली जाएंगे. क्यों रोक रहे हो. हमें कोई नहीं रोक सकता है.'
यह बात बच्चे ने कई दफा दोहराई. मैंने उससे पूछा, “क्यों दिल्ली जाना चाहते हो.” उसने भड़कते हुए कहा- 'तो यहां क्या मरते रहे. दो महीने से ठंड में मर रहे हैं. सरकार सुन नहीं रही. सरकार को सुनाएंगे.'
लड़के से बात पूरी होती कि हंगामा शुरू हो गया. राकेश टिकैत के हाथ से नियंत्रण छूट चुका था. किसानों की भीड़ किसी को सुनने को राजी नहीं थी. ट्रैक्टर्स का काफिला दिल्ली की तरफ चल पड़ा. आसमान में गणतंत्र दिवस की परेड से शामिल होकर लौट रहे जहाज थे और दिल्ली की सड़कों पर किसानों के ट्रैक्टर. मैं भी उसी भीड़ में शामिल एक ट्रैक्टर पर सवार होकर उनके साथ दिल्ली की ओर चल पड़ा.
26-27 नवम्बर को दिल्ली के लिए निकले किसानों को दिल्ली की सरहदों पर रोक दिया गया था. अब दो महीने बाद वो दिल्ली पहुंच गए. ट्रैक्टर पर बैठे एक नौजवान ने चिल्लाते हुए कहा- 'हम दिल्ली आ गए. मोदी जी हम दिल्ली आ गए.' इस समय हम लोग अक्षरधाम मंदिर के सामने से गुजर रहे थे.
किसान अक्षरधाम, आईपी एक्सटेंशन होते हुए आईटीओ पहुंच गए. रास्ते में उन्हें कहीं भी रोका नहीं गया. जबकि यह गणतंत्र दिवस का मौका था, इस मौके पर दिल्ली मं हाई अलर्ट होता है. उन्हें तब रोका गया जब किसान आईटीओ से इंडिया गेट की तरफ बढ़ने लगे. यहां से राजपथ महज एक-दो किलोमीटर की दूरी पर हैं. वहां थोड़ी देर पहले ही गणतंत्र दिवस की परेड खत्म हुई थी. तिलक ब्रिज के नीचे हज़ारों की संख्या में पुलिस बल तैनात था. गाजीपुर से चले किसानों का पहली बार यहां आकर पुलिस से आमना-सामना हुआ. राजपथ से दो किलोमीटर पहले. थोड़ी देर के लिए आईटीओ का चौराहा युद्ध का मैदान बन गया.
आईटीओ पर विकास मार्ग की तरफ से किसान आगे की तरफ बढ़े तो पुलिस ने आंसू गैस के गोले दागते हुए उन्हें आईटीओ चौराहे तक वापस पहुंचा दिया. किसान ट्रैक्टर पर थे. फिर पुलिस ने ट्रैक्टर पर बैठे किसानों को पीटना शुरू किया. सैंकड़ो किसान ट्रैक्टर छोड़कर भाग गए. उसके बाद पुलिस ट्रैक्टर को तोड़ने लगी. पुलिस के कुछ सीनियर अधिकारियों के हस्तक्षेप के बाद इसे रोका गया. लेकिन कई ट्रैक्टर्स को नुकसान पहुंचाया जा चुका था.
पुलिस किसानों को भगाकर निश्चित थी, तभी किसानों के एक समूह ने पलटवार किया. कई किसानों ने पुलिस पर हमला कर दिया. पुलिस एक बार फिर किसानों को भगाने में सफल रही. इस बीच लगातार पुलिस की तरफ से आंसू गैस के गोले दागे जा रहे थे. दोनों तरफ से ईट-पत्थर फेंके जा रहे थे. यहां कई पत्रकारों को भी प्रदर्शनकारियों ने पीटा. इंडिया टुडे के रिपोर्टर और कैमरामैन को भगा दिया गया.
पुलिस एक बार फिर किसानों को खदेड़कर निश्चित हो पाती कि कुछ नौजवान किसानों ने पैंतरा बदला और विकास मार्ग के पीछे से होते हुए सीधे बहादुरशाह जफर मार्ग पर पहुंच गए. उनके हाथों में मोटे-मोटे डंडे और तलवारें थी. चहेरे पर कोई डर नहीं था. उन्होंने पुलिस पर हमला कर दिया. पुलिस के साथ यह आंख-मिचौली चल रही थी. पुलिस का ध्यान दूसरी तरफ देख विकास मार्ग पर अपने ट्रैक्टर लेकर खड़े किसानों को मौका मिल गया. दो किसान ट्रैक्टर लेकर चौराहे पर पहुंच गए और लोगों के बीच ट्रैक्टर दौड़ाने लगे. यह संयोग ही था कि कोई उनकी चपेट में नहीं आया. वे पुलिस की तरफ बेहद तेज रफ्तार से अपना ट्रैक्टर लेकर बढ़े. सब डरकर पीछे हो गए. इसके बाद देखते-देखते किसान अपने ट्रैक्टर पर सवार होकर लाल किले की तरफ चल पड़े.
आईटीओ के पास ही उत्तराखण्ड के उधम सिंह नगर जिले के विलासपुर के रहने वाले एक किसान की मौत हो गई. पुलिस का दावा है कि ट्रैक्टर पलटने से उनकी मौत हुई, दूसरी तरफ प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि आंसू गैस का गोला लगने से उनकी मौत हुई है. मौत कैसे हुई इसकी असली वजह तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ही सामने आएगी.
आईटीओ पर लगभग 40 से 50 मिनट की झड़प के बाद किसान डेढ़ बजे के आस पास लाल किले की तरफ बढ़ने लगे. रास्ते में उन्हें जो कुछ मिला सबको तोड़ा. पुलिस ने भी उनके कई ट्रैक्टर को पंचर कर दिया था.
आईटीओ से लाल किला जा रहे किसानों के चेहरों पर डर तो था, लेकिन विजय का भाव भी दिख रहा था. वे लगातार नारे लगा रहे थे कि हम दिल्ली पहुंच गए. वे दिल्ली में आ चुके थे.
लाल किला
लाल किला पर गाजीपुर के अलावा सिंघु बॉर्डर से भी किसान पहुंचे थे. यहां पहुंचते-पहुंचते किसानों का यह झुंड कुछ हद तक धार्मिक रंग ले चुका था.
सिख समुदाय से जुड़े लोगों ने लाल किले के प्राचीर पर चढ़कर अपना धार्मिक झंडा (निशान साहिब) लगा दिया. सिख धर्म को मानने वालों का कहना था कि लाल किले पर पहले हमारा झंडा लगा रहता था. बाद में उसे हटा दिया गया. आज हमने फिर लगा दिया. यहां पर जितनी मुंह उतनी बातें हो रही थी. हालांकि लाल किले पर भारत के तिरंगे के अलावा कोई और झंडा शायद ही किसी भारतीय को पसंद आए.
इसी बीच सोशल मीडिया पर एक और प्रोपेगैंडा चला कि प्रदर्शनकारियों ने तिरंगे को हटा दिया. बिल्कुल ऐसा नहीं हुआ. भारत का झंडा अपनी जगह पर मौजूद रहा. उसके आसपास दूसरे झंडे लगाए गए. सोशल मीडिया पर यह झूठ भी खूब फैलाया गया. इसमें मुख्यधारा के टीवी चैनलों ने भी योगदान दिया.
ख़ैर, लाल किले के ऊपर हज़ारों की संख्या में लोग मौजूद थे. आसपास के बुजुर्ग लोगों की माने तो उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी लाल किले पर ऐसी तस्वीर नहीं देखी. करीब आधे घण्टे तक वहां लोग रहे लेकिन देखते-देखते पुलिस ने उन्हें वहां से भगा दिया. इस दौरान कई प्रदर्शनकारी और पुलिसकर्मी घायल हुए. अफवाह ये उड़ी की अंदर पुलिस ने गोली चलाई है, लेकिन इसकी कोई स्पष्ट जानकारी सामने नहीं आई. थोड़ी देर बाद करीब पांच एम्बुलेंस में घायल पुलिस वालों को ले जाया गया. कई प्रदर्शनकारी भी लाल किले के सामने खून से लथपथ नजर आए.
यहां अफरा तफरी का माहौल था. पत्रकारों का कैमरा तोड़ दिया गया. मोबाइल तोड़ा गया. तोड़ने और मारने की धमकी लगातर दी जा रही थी.
यहां पहुंचने के बाद कोई भी किसान पत्रकारों से बात नहीं करना चाह रहा था. पंजाब से आए एक बुजुर्ग किसान से जब हमने पूछा कि लाल किला आने का फैसला सही था. इतनी हिंसा हुई जबकि आपका आंदोलन शांतिपूर्ण था. उन्होंने कहा, "दिल्ली में दो महीने से शांतिपूर्ण ही प्रदर्शन कर रहे थे. उसके पहले पंजाब में किए. कोई हादसा सुना आपने. हमारे 53 से ज़्यादा लोग दो महीने में ठंड से मर गए. बारिश हुई. कड़ाके की ठंड पड़ी. हम खुले आसमान के नीचे थे. सरकार मीटिंग पर मीटिंग करती रही लेकिन कानून वापस नहीं ली. हमारे लिए कानून बना और हमें ही मारा जा रहा था. थक गए थे हम लोग."
बुजुर्ग ने कहा, "ट्रैक्टर परेड रैली के लिए दिल्ली आने की मांग जब हमने कि तो हमें मूर्ख बनाते हुए इधर-उधर घूमने की इजाजत दी गई. आप बताओ हम ठंड में मरते रहें हर रोज. आप लोगों को (मीडिया को) तो हमारे लोगों के मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता. आज हिंसा हुई तो सब चिल्ला रहे हैं. ठंड में रहते-रहते, हर रोज अपनों को खोते हुए सब परेशान हो गए है. गलती है लेकिन मज़बूरी में की गई. सरकार सुन नहीं रही है."
थोड़ी देर बाद किसानों को पुलिस ने लाल किले से बाहर कर दिया, लेकिन तभी निहंग सिखों का एक जत्था वहां पहुंच गया. निहंग, सिख समुदाय का वो तबका जो योद्धा कहलाता है. उनके पास अक्सर कई तरह के शस्त्र होते हैं. निहंगों के पहुंचने के बाद एक बार फिर से किसान लाल किले के भीतर आ गए. उसके बाद देर रात तक आते जाते रहे. लाल किले के बाहर सेल्फी लेते रहे. पुलिस के नियंत्रण से लाल किला बाहर हो गया था.
लाल किले के पास गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल अलग अलग राज्यों का झांकियां रखी हुई थी. किसान उस पर चढ़ गए. किसानों के चेहरे पर जीत का भाव था. अब धीरे-धीरे वे वहां से लौटने लगे. देर रात को पुलिस ने भारतीय झंडे के अलावा बाकी झंडों को लाल किले से उतार दिया. कुछेक किसान नीचे हंगामा करते रहे.
कुछ सवाल
एक तरफ पुलिस ने हंगामा करने वालों की जांच की बात की है वहीं किसान संगठनों ने आंदोलन जारी रखने की बात कही है. आरोप-प्रत्यारोप का दौर जा रही है. नेशनल मीडिया दो हिस्सों में बंट गया है. एक हिस्सा आंदोलन को कोस रहा है दूसरा हिस्सा सरकार के रवैये को कोस रहा है. लेकिन कुछ सवाल हैं जिनका जवाब आना अभी बाकी है.
1. गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में सबसे ज़्यादा सुरक्षा होती है. तमाम सुरक्षा एजेंसियां सक्रिय रहती है. कहां चूक हुई कि यह पता नहीं चल पाया कि किसानों का एक हिस्सा दिल्ली आने की बात कर रहा है. जबकि प्रदर्शन स्थलों पर कई लोग इस तरह की बात करते नजर आ रहे थे कि वे सरकारी रूट को नहीं मानेंगे और दिल्ली जाएंगे.
2. दिल्ली पुलिस जो प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए कई स्तर पर बैरिकेड लगाती है लेकिन कल एक हद तक खामोश क्यों रही. आईटीओ और लाल किले को छोड़ दिया जाए तो कहीं भी पुलिस इन्हें रोकने की कोशिश करती नज़र नहीं आई.
3. दो महीने से दिल्ली में किसानों का जो आंदोलन शांतिमय चल रहा था. पुलिसकर्मियों को जो किसान लंगर खिलाते नजर आए थे. वे उनसे ही क्यों लड़ने को तैयार हो गए?
4. लाल किला पर जो भीड़ गई वो नेतृत्वहीन थी. कम से कम मैंने पूरी यात्रा के दौरान ऐसा ही पाया. उनका कोई नेता नहीं था. हमें तो कोई नेता नजर नहीं आया. किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने दीप सिधु को इसके लिए जिम्मेदार बताया है. क्या उन्होंने ऐसा किया?
5. अब आंदोलन का क्या होगा? सरकार क्या तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेगी. अभी तक इसका कोई संकेत नहीं मिला. वहीं किसान संगठन अपने आंदोलन को सफल बताते हुए आगे इसे जारी रखने का ऐलान कर चुके हैं.
6. सबसे बड़ा सवाल एक साल के भीतर दिल्ली में दो बड़े हादसे हुए. बीते साल दिल्ली दंगा, हुआ जिसमें 50 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई. दंगे की बरसी से पहले ही एक और हादसा. इसके लिए कौन जिम्मेदार है? किसी की जिम्मेदारी बनती भी है या नहीं?
कल जो कुछ हुआ वो ऐतिहासिक था या कलंक यह एक अलग बहस है.
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