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फिल्म लांड्री: किसानों के जीवन पर थी भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’

हिंदी की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ थी. यह भारतीय सिनेमा की भी पहली कलर फिल्म है. प्रोफेसर जियाउद्दीन की कहानी पर आधारित इस फिल्म की पटकथा और संवाद सआदत हसन मंटो ने लिखे थे. यह उनकी पहली फिल्म है. फरवरी 1938 के ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका में संपादक बाबूराव पटेल ने इसकी समीक्षा लिखी थी. इसकी समीक्षा में उन्होंने फिल्म के लेखकों को कोसा था. उन्होंने लिखा था, ‘विचित्र तथ्य है कि डॉ. टैगोर के विद्या आश्रम शांतिनिकेतन से आए लेखक गांव की आत्मा और परिवेश को दर्शाने वाले दृश्य नहीं रच पाए. कहानी का प्लॉट कमजोर है और वह गांव के एक ‘गुंडे’ तक सिमटी है.

वे उसके आगे लिखते हैं,’ सिनेरियो लेखक नए व्यक्ति जान पड़ते हैं, क्योंकि हर प्रसंग विकसित होने से रह गया है. दृश्य अधूरे लगते हैं और दर्शकों को प्रभावित नहीं कर पाते... संवाद बेहद कमजोर हैं और किसी भी दृश्य में कहानी के अनुकूल नहीं है. फिल्म की कमजोर अपील के लिए संवाद लेखक ही जिम्मेदार हैं. संवाद लेखन में दक्षता की कमी है. संवादों के उच्चारण में पंजाबी स्कूल का असर है. नतीजतन शब्दों की ध्वन्यात्मक महत्ता कम हो गई है. कोई बेहतरीन और अनुभवी लेखक होता तो यह कहानी निखर गई होती.

फिल्म के लेखन और फिल्म के प्रभाव की आलोचना करने के बाद कलाकारों के परफॉर्मेंस की बातें करते हुए बाबूराव पटेल लिखते हैं, ‘पद्मादेवी ने पॉपुलर परफॉर्मेंस दिया है. दुर्भाग्य से इस लड़की को कुछ नहीं करना था, जबकि फिल्म का शीर्षक उनके किरदार पर है. उनकी प्यारी और सुमधुर आवाज का सही इस्तेमाल निर्देशक ने नहीं किया है.

पद्मादेवी

सआदत हसन मंटो ने अपने संस्मरण और लेखों में यहां-वहां ‘किसान कन्या’ का जिक्र किया है. अपने जीवन की तीन बड़ी घटनाओं में से एक शादी के बारे में उन्होंने ‘मेरी शादी’ संस्मरण में लिखा है. इस संस्मरण में प्रसंगवश उन्होंने ‘किसान कन्या’ का उल्लेख किया है. नज़ीर के निमंत्रण पर मुंबई आने के बाद उन्होंने 40 रुपए माहवार पर ‘मुनव्वर’ साप्ताहिक में नौकरी कर ली थी. नाजिर को जब पता चला कि मंटो ऑफिस में ही सोते हैं तो उनके वेतन से 2 रुपए कटने लगे. नाजिर ने ही बाद में उन्हें इंपीरियल स्टूडियो में मुंशी की नौकरी दिला दी और वेतन घटाकर 20 रुपए कर दिया.

मंटो लिखते हैं कि तब इंपीरियल स्टूडियो की स्थिति अच्छी नहीं थी. इसके बावजूद आर्देशर ईरानी ने कलर फिल्म के निर्माण के बारे में सोचा. उन्होंने निर्देशन की जिम्मेदारी मोती बी गिडवानी को दी. साहित्य के शौकीन गिडवानी को मंटो पसंद थे. उन्होंने उन्हें कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया. मंटो ने फिल्म की कहानी लिखी. गिडवानी को कहानी पसंद आ गई. बात निर्माता आर्देशर ईरानी तक पहुंची. उन्हें भी कहानी पसंद आई, लेकिन वे स्टूडियो के मुंशी को लेखक का क्रेडिट नहीं देना चाहते थे. वे चाहते थे कि कोई बड़ा और प्रतिष्ठित नाम लेखक के तौर पर जुड़ जाए. तब मंटो को प्रोफेसर जियाउद्दीन की याद आई. वे शांतिनिकेतन में फारसी पढ़ाते थे. वह इस फ्रॉड (मंटो का शब्द) के लिए राजी हो गए. ‘किसान कन्या’ फिल्म प्रोफेसर जियाउद्दीन के क्रेडिट के साथ रिलीज हुई. सआदत हसन मंटो का नाम सिनेरियो और संवाद लेखक के रूप में गया.

फिल्म किसान कन्या में पद्मादेवी

मंटो ने ‘गंजे फरिश्ते’ में बाबूराव पटेल के संस्मरण में भी ‘किसान कन्या’ का उल्लेख किया है. फिल्मी हस्तियों के बेबाक रेखाचित्रों के संग्रह ‘गंजे फरिश्ते’ में हिंदी फिल्मों की कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं मिल जाती हैं. मंटो लिखते हैं- "मैं जिस जमाने में इंपीरियल फिल्म कंपनी में था उन दिनों वहां एक बहुत ही शरीफुल-तबा एक्ट्रेस पद्मादेवी नाम से थीं. मेरे पहले फिल्म ‘किसान कन्या’ की हीरोइन यही थीं. मेरे उसके बड़े दोस्ताना ताल्लुकात थे, लेकिन उसका सही यानी जिस्मानी ताल्लुक बाबूराव पटेल से था. जो उसे बड़ी कड़ी निगरानी में रखता था. ‘वे आगे लिखते हैं... ‘पद्मादेवी गुमनामी के गोशे में पड़ी थी मगर जब उसके आगोश में आई तो उसने ‘कलर क्वीन’ यानी रंगों की मलिका बना दिया. उन दिनों फिल्म इंडिया के हर शुमारे में उनके दर्जनों फोटो होते थे, जिनके नीचे बड़े चुस्त फिकरे और जुमले लिखता था."

मंटो और बाबूराव पटेल के बीच दोस्ती और बातचीत थी. बाद के दिनों में मुसीबतों के पल में पटेल ने मंटो की बार-बार मदद की. फिल्म कंपनियों से बकाया रकम दिलवाई. अपने यहां ‘कारवां’ की जिम्मेदारी सौंपी. मंटो की शादी के समय उनकी मां की मदद और मेहमाननवाजी के लिए पद्मादेवी को भेजा. यूं लगता है कि ‘किसान कन्या’ की रिलीज के समय दोनों का परिचय गाढ़ा नहीं था या यह भी हो सकता है कि अपनी नुकीली टिप्पणियों के लिए मशहूर बाबूराव पटेल फिल्म रिव्यू में परिचय और दोस्ती का लिहाज नहीं करते थे. हां, पद्मादेवी पर आसक्त थे और जैसा कि मंटो ने लिखा है, उन्होंने पद्मादेवी को ‘कलर क्वीन’ की संज्ञा दी थी, क्योंकि वह भारत की पहली कलर फिल्म टाकी ‘किसान कन्या’ की हीरोइन थी. 1937 में फिल्म इंडिया के एक अंक में ‘किसान कन्या’ की रिलीज़ के चांद महीनों पहले पूरे पृष्ठ पर पद्मादेवी की अकेली रंगीन तस्वीर छपी थी, जिसके नीचे ‘किसान कन्या’ का हवाला देते हुए पद्मादेवी को ‘कलर क्वीन’ कहा गया था.

पद्मादेवी को ‘कलर क्वीन’ की संज्ञा दी थी

पद्मादेवी के प्रति बाबूराव पटेल की आसक्ति कोई छिपी बात नहीं थी. ‘किसान कन्या’ के बारे में अनेक प्रचारात्मक सामग्री और तस्वीरें छापने के बाद रिव्यू लिखते समय अपनी बेलाग आलोचना के बावजूद पद्मादेवी की तारीफ से नहीं चूके. लेखक, निर्देशक और बाकी कलाकारों की कमियों के बारे में बताया और पहली कलर फिल्म होने की वजह से उसकी तकनीकी खूबियों की चर्चा और प्रशंसा की. इस फिल्म के प्रीमियर में तत्कालीन गवर्नर और उनकी पत्नी आए थे. प्रीमियर की उस तस्वीर में बाबूराव पटेल और पद्मादेवी अगल-बगल में बैठे दिखाई पड़ते हैं. ‘फिल्म इंडिया’ में ‘बॉम्बे कालिंग’ नाम से उनका कॉलम बहुत मशहूर था. इस कॉलम में वह पाठकों के सवालों के जवाब देते थे.

1937 के ही एक अंक में एक पाठक ने पूछा... पदमा देवी कौन हैं और उनकी पहली फिल्म कौन सी थी? क्या मुझे उनकी तस्वीर मिल सकती है? जवाब में बाबूराव पटेल ने लिखा...वह बंगाली अभिनेत्री है, जो सात साल पहले बॉम्बे आई. उनकी पहली फिल्म मूक थी, जिसका नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा. अभी वह ‘कलर क्वीन’ के नाम से विख्यात हैं, भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ में ऐतिहासिक भूमिका निभाने की वजह से. आप जितनी चाहें उतनी तस्वीरें पा सकते हैं. इन दिनों उनकी तस्वीरें अखबारों में छपती रहती हैं, लेकिन अगर आपको प्राइवेट फोटो चाहिए तो उन्हें लिखें मार्फत इंपीरियल फिल्म कंपनी, बॉम्बे.

दूसरे हवालों से जानकारी मिलती है कि पद्मादेवी की पहली मूक फिल्म ‘सी गॉडेस’ 1931 में आई थी. वह भारतीय सिनेमा की आरंभिक एक्शन हीरोइन थीं. जेबीएच वाडिया की अनेक मूक एक्शन फिल्मों में बोमन श्रॉफ के साथ उनकी जोड़ी दिखाई पड़ी थी. जेबीएच वाडिया की पद्मादेवी के साथ आखिरी फिल्म ‘द अमेजॉन उर्फ दिलरुबा डाकू’ थी. इस फिल्म की बॉक्स ऑफिस सफलता के बाद जेबीएच वाडिया ने टॉकी फिल्म ‘हंटरवाली’ के लिए फीयरलेस नाडिया को साइन किया था. ऑस्ट्रेलियाई मूल की फीयरलेस नदिया एक तरीके से भारतीय सिनेमा की पहली स्टंट और एक्शन स्टार रहीं.

इस पृष्ठभूमि और परिवेश में ‘किसान कन्या’ फिल्म के प्रोडक्शन में प्रदर्शन से संबंधित बातें...

1931 में पहली टॉकी फिल्म का निर्माण कर चुके आर्देशर ईरानी ने इंपीरियल फिल्म कंपनी के अधीन कलर फिल्म बनाने की बात सोची. उन दिनों कंपनी की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, इसलिए कंपनी का एक समूह नहीं चाहता था कि कलर फिल्म में भारी निवेश किया जाए. फिर भी सबसे पहले और कुछ नया करने की जिद में आर्देशर ईरानी को कलर फिल्म के निर्माण का फैसला लिया. इस फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी उन्होंने मोती बी गिरवानी को सौंपी. इंपीरियल फिल्म कंपनी में मुंशी के तौर पर कार्यरत सआदत हसन मंटो को गिडवानी बहुत पसंद करते थे. उन्होंने उनसे कहानी लिखने को कहा. मंटो ने एक कहानी लिखी. कहानी पसंद आने के बावजूद निर्माता चाहते थे कि कोई बड़ा नाम लेखक के तौर पर जुड़ जाए. मंटो की कोशिश से शांतिनिकेतन में फारसी के अध्यापक प्रोफेसर जियाउद्दीन जुड़ गए. मंटो ने ‘मेरी शादी’ संस्मरण में उनके इस जुड़ाव की सच्चाई (फ्रॉड) के बारे में बता दिया है.

सोशल मीडिया और तमाम जगहों पर यह फिल्म 1937 की रिलीज बताई गई है, जबकि यह 8 जनवरी 1938 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज हुई थी. हो सकता है कि 1937 में शूटिंग आरंभ होने के साथ चर्चित होने के कारण यह साल उससे चिपक गया हो. यह भी हो सकता है कि फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट 1937 में ही मिल गया हो. पहली कलर फिल्म होने की वजह से इस फिल्म के निर्माण की खबरें पत्र-पत्रिकाओं में लगातार सुर्खियां बटोर रही थीं.

फिल्म किसान कन्या का पोस्टर

कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ की रिलीज के सालों पहले प्रयोगवादी साहसी फिल्मकार वी शांताराम ने द्विभाषी फिल्म ‘सैरंध्री’ को कलर करने की कोशिश की थी. ब्लैक एंड ह्वाइट में बनी इस फिल्म को कलर करने के लिए उन्होंने फिल्म का प्रिंट जर्मनी भेजा था. जर्मनी में ‘बायपैक कलर प्रिंटिंग प्रोसेस’ से इसे कलर किया गया, लेकिन तकनीकी दिक्कतों के कारण यह प्रक्रिया अंतिम रूप में असफल रही. निराश होकर वि शांताराम ने ‘सैरंध्री’ को ब्लैक एंड ह्वाइट में ही रिलीज किया और फिर तुरंत किसी और फिल्म को कलर करने की कोशिश भी नहीं की. इस तरह पहली कलर फिल्म होने का श्रेय ‘किसान कन्या’ को मिला.

‘किसान कन्या’ अमेरिका की एक कंपनी ने कलर किया था. इसे ‘सिनेकलर प्रक्रिया’ से कलर किया गया था. बताते हैं कि कलर करने के लिए आवश्यक उपकरण और ज्ञान आर्देशर ईरानी ने आयातित किया था. ब्लैक एंड ह्वाइट में शूट हुई फिल्म को कलर किया गया था. तब तक फिल्मों की शूटिंग के लिए कलर नेगेटिव (फिल्में) अभी आविष्कृत नहीं हुई थीं. कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ को लेकर छप रही खबरों की वजह से फिल्म इंडस्ट्री समेत दर्शकों की जिज्ञासा बढ़ी हुई थी.

फिल्म किसान कन्या का पोस्टर

मैजेस्टिक सिनेमा में आयोजित इस फिल्म के प्रीमियर में तत्कालीन राज्यपाल सपत्निक आए थे. शहर के गणमान्य अतिथियों (बाबुराव पटेल भी) के सानिध्य में प्रीमियर के बाद फिल्म रिलीज हुई तो इसे देखने के लिए आरंभिक हफ्ते में दर्शकों की भरी भीड़ उमड़ आई थी. इस फिल्म की रिलीज को राष्ट्रीय घटना के तौर पर प्रचारित किया गया था. प्रीमियर की ‘फिल्म इंडिया’ में छपी रिपोर्ट में ‘भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ की सफलता’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट में लिखा गया था. घंटों पहले से गलियों में भीड़ एकत्रित होने लगी और सिनेमाघर की सभी सीटें भरी हुई थीं. ऐसा लग रहा था कि आज सारी गलियां मैजेस्टिक सिनेमा की तरफ आ रही हैं. गलियों में दर्शकों का जनसैलाब उमड़ आया था.

रविवार को पुलिस अधिकारियों को भारी भीड़ को नियंत्रित करना पड़ा. सड़कों से लोगों के ना हटने की वजह से ट्राम और कारों की रफ़्तार धीमी हो गयी थी. सिनेमाघर की सीमित सीटों की वजह से सभी दर्शकों को टिकट नहीं मिल पाया. मजबूरन हजारों दर्शकों को निराश होकर लौटना पड़ा. फिल्म के चारों शो में यही हालत रही. फिल्मप्रेमियों के लिए यह दुर्लभ नजारा था. वे पहली कलर टॉकी देखने के लिए उतावली भीड़ को देखकर दंग थे. दर्शकों ने इस फिल्म में जो रंगीनी देखी उससे लगता है कि यह फिल्म निश्चित रूप से सफल होगी और फिल्म इंडस्ट्री के भविष्य में क्रांतिकारी परिवर्तन ले आएगी, हर भारतीय को रंगों से विशेष प्रेम है और इस फिल्म को ‘सिनेकलर प्रक्रिया’ से जिस तरह रंगीन किया गया है, वह हर लिहाज से वास्तविक जिंदगी की तरह है. फिल्म को निश्चित ही बड़ी सफलता मिलेगी, जो अभी तक ब्लैक एंड ह्वाइट फिल्मों को मिलती रही है.

तमाम प्रचार और आरंभिक भीड़ के बावजूद फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाल नहीं कर सकी थी. इस फिल्म के लेखन और निर्देशन की काफी आलोचना हुई थी. ऐसी जानकारी मिलती है कि इंपीरियल फिल्म कंपनी में ही कुच्छ लोग नहीं चाहते थे कि ‘किसान कन्या’ सफल हो. फिल्म इंडस्ट्री में भी आर्देशर ईरानी की कामयाबी के कई दुश्मन थे. वे भी नहीं चाहते थे कि यह फिल्म कोई कमाल कर सके. बाबूराव पटेल ने अपने रिव्यू में आरोप लगाया था कि यह फिल्म ‘गुंडा’ का गरिमाकरण करती है. फिल्म में एक ‘गुंडा’ चरित्र था, जो क्लाइमेक्स में बदल जाता है. वह अपना अपराध स्वीकार कर लेता है और निर्दोष नायक को आजाद करवा देता है. मुमकिन है ‘किसान कन्या’ का ‘गुंडा’ कहीं ना कहीं जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडा’ के नायक के समान हो.

इस फिल्म का कोई भी प्रिंट अब उपलब्ध नहीं है. प्रचार सामग्रियों और छपी रिपोर्टों के आधार पर फिल्म संबंधी सारी जानकारियां एकत्रित की गई हैं. वहीं सही-गलत तरीके से हर जगह उपलब्ध है. ‘किसान कन्या’ भारतीय सिनेमा के इतिहास में पहली कलर फिल्म होने के कारण ऐतिहासिक महत्व रखती है. इस कलर फिल्म के निर्माण के बावजूद लंबे समय तक कलर फिल्म प्रचलन में नहीं आयी थी. आजादी के बाद ही इस दिशा में निर्माताओं ने ठोस कदम उठाए.

फिल्म का कथासार

किसान कन्या हमारे गांव की कहानी है. यह विस्तार से जमींदार और साहूकार की मनमानी और क्रूर व्यवहार को चित्रित करती है, जो खेतिहरों को परेशान करते रहते हैं. फिल्म में भारत के एक गांव को चुना गया है और कहानी को रोचक एवं नाटकीय मोड़ दिया गया है. गांव के किसानों की दुर्दशा को इस कहानी में गूंथा गया है. इसकी वजह से फिल्म शुरू से अंत तक बेहद रोचक हो गई है. गांव के ठेठ जमींदार ने किसानों की जिंदगी मुश्किल कर रखी है. वह उन्हें हर तरह से सताता रहता है. फिल्म की कहानी मुख्य रूप से जमींदार, उसकी पत्नी रामदाई, खलनायक रणधीर, नायक रामू और नायिका बांसुरी के बीच चलती है.

फिल्म किसान कन्या का प्रीमियर

रणधीर को ‘गुंडा’ चरित्र दिया गया है. ऐसे चरित्र गांव-देहात में मिल जाते हैं. लेखक ने विलेन के चरित्र को उदार और नरमदिल का भी बनाया है, जिसकी वजह से फिल्म में ‘गुंडा’ का गरिमाकाण हुआ है. बांसुरी जमींदार के यहां नौकरानी है. जमींदार अपने रैयतों का शोषण करता है और हर मुमकिन मौके पर उन्हें लूटता है. धार्मिक स्वभाव की जमींदार की पत्नी रामदाई अपने पति की दुष्टता से नाखुश रहती है. शोषण और परेशानी के दृश्यों के बीच कहानी आगे बढ़ती है. क्लाइमैक्स के ठीक पहले जमींदार की हत्या हो जाती है. रामू पर हत्या का आरोप लगता है. पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है. जमींदार की पत्नी सच्चाई से वाकिफ है. वह हत्यारे रणधीर के पास जाकर निर्दोष रामू को छुड़ाने की बात करती है. उदारदिल रणधीर राजी हो जाता है और अपना अपराध स्वीकार कर लेता है. रामू आजाद होने के बाद बांसुरी से मिल जाता है.

फिल्म में एक संदेश भी है कि गांव के अमीर लोग गरीब ग्रामीणों के प्रति अपना कर्तव्य निभाएं और गांव के विकास में योगदान करें.

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हिंदी की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ थी. यह भारतीय सिनेमा की भी पहली कलर फिल्म है. प्रोफेसर जियाउद्दीन की कहानी पर आधारित इस फिल्म की पटकथा और संवाद सआदत हसन मंटो ने लिखे थे. यह उनकी पहली फिल्म है. फरवरी 1938 के ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका में संपादक बाबूराव पटेल ने इसकी समीक्षा लिखी थी. इसकी समीक्षा में उन्होंने फिल्म के लेखकों को कोसा था. उन्होंने लिखा था, ‘विचित्र तथ्य है कि डॉ. टैगोर के विद्या आश्रम शांतिनिकेतन से आए लेखक गांव की आत्मा और परिवेश को दर्शाने वाले दृश्य नहीं रच पाए. कहानी का प्लॉट कमजोर है और वह गांव के एक ‘गुंडे’ तक सिमटी है.

वे उसके आगे लिखते हैं,’ सिनेरियो लेखक नए व्यक्ति जान पड़ते हैं, क्योंकि हर प्रसंग विकसित होने से रह गया है. दृश्य अधूरे लगते हैं और दर्शकों को प्रभावित नहीं कर पाते... संवाद बेहद कमजोर हैं और किसी भी दृश्य में कहानी के अनुकूल नहीं है. फिल्म की कमजोर अपील के लिए संवाद लेखक ही जिम्मेदार हैं. संवाद लेखन में दक्षता की कमी है. संवादों के उच्चारण में पंजाबी स्कूल का असर है. नतीजतन शब्दों की ध्वन्यात्मक महत्ता कम हो गई है. कोई बेहतरीन और अनुभवी लेखक होता तो यह कहानी निखर गई होती.

फिल्म के लेखन और फिल्म के प्रभाव की आलोचना करने के बाद कलाकारों के परफॉर्मेंस की बातें करते हुए बाबूराव पटेल लिखते हैं, ‘पद्मादेवी ने पॉपुलर परफॉर्मेंस दिया है. दुर्भाग्य से इस लड़की को कुछ नहीं करना था, जबकि फिल्म का शीर्षक उनके किरदार पर है. उनकी प्यारी और सुमधुर आवाज का सही इस्तेमाल निर्देशक ने नहीं किया है.

पद्मादेवी

सआदत हसन मंटो ने अपने संस्मरण और लेखों में यहां-वहां ‘किसान कन्या’ का जिक्र किया है. अपने जीवन की तीन बड़ी घटनाओं में से एक शादी के बारे में उन्होंने ‘मेरी शादी’ संस्मरण में लिखा है. इस संस्मरण में प्रसंगवश उन्होंने ‘किसान कन्या’ का उल्लेख किया है. नज़ीर के निमंत्रण पर मुंबई आने के बाद उन्होंने 40 रुपए माहवार पर ‘मुनव्वर’ साप्ताहिक में नौकरी कर ली थी. नाजिर को जब पता चला कि मंटो ऑफिस में ही सोते हैं तो उनके वेतन से 2 रुपए कटने लगे. नाजिर ने ही बाद में उन्हें इंपीरियल स्टूडियो में मुंशी की नौकरी दिला दी और वेतन घटाकर 20 रुपए कर दिया.

मंटो लिखते हैं कि तब इंपीरियल स्टूडियो की स्थिति अच्छी नहीं थी. इसके बावजूद आर्देशर ईरानी ने कलर फिल्म के निर्माण के बारे में सोचा. उन्होंने निर्देशन की जिम्मेदारी मोती बी गिडवानी को दी. साहित्य के शौकीन गिडवानी को मंटो पसंद थे. उन्होंने उन्हें कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया. मंटो ने फिल्म की कहानी लिखी. गिडवानी को कहानी पसंद आ गई. बात निर्माता आर्देशर ईरानी तक पहुंची. उन्हें भी कहानी पसंद आई, लेकिन वे स्टूडियो के मुंशी को लेखक का क्रेडिट नहीं देना चाहते थे. वे चाहते थे कि कोई बड़ा और प्रतिष्ठित नाम लेखक के तौर पर जुड़ जाए. तब मंटो को प्रोफेसर जियाउद्दीन की याद आई. वे शांतिनिकेतन में फारसी पढ़ाते थे. वह इस फ्रॉड (मंटो का शब्द) के लिए राजी हो गए. ‘किसान कन्या’ फिल्म प्रोफेसर जियाउद्दीन के क्रेडिट के साथ रिलीज हुई. सआदत हसन मंटो का नाम सिनेरियो और संवाद लेखक के रूप में गया.

फिल्म किसान कन्या में पद्मादेवी

मंटो ने ‘गंजे फरिश्ते’ में बाबूराव पटेल के संस्मरण में भी ‘किसान कन्या’ का उल्लेख किया है. फिल्मी हस्तियों के बेबाक रेखाचित्रों के संग्रह ‘गंजे फरिश्ते’ में हिंदी फिल्मों की कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं मिल जाती हैं. मंटो लिखते हैं- "मैं जिस जमाने में इंपीरियल फिल्म कंपनी में था उन दिनों वहां एक बहुत ही शरीफुल-तबा एक्ट्रेस पद्मादेवी नाम से थीं. मेरे पहले फिल्म ‘किसान कन्या’ की हीरोइन यही थीं. मेरे उसके बड़े दोस्ताना ताल्लुकात थे, लेकिन उसका सही यानी जिस्मानी ताल्लुक बाबूराव पटेल से था. जो उसे बड़ी कड़ी निगरानी में रखता था. ‘वे आगे लिखते हैं... ‘पद्मादेवी गुमनामी के गोशे में पड़ी थी मगर जब उसके आगोश में आई तो उसने ‘कलर क्वीन’ यानी रंगों की मलिका बना दिया. उन दिनों फिल्म इंडिया के हर शुमारे में उनके दर्जनों फोटो होते थे, जिनके नीचे बड़े चुस्त फिकरे और जुमले लिखता था."

मंटो और बाबूराव पटेल के बीच दोस्ती और बातचीत थी. बाद के दिनों में मुसीबतों के पल में पटेल ने मंटो की बार-बार मदद की. फिल्म कंपनियों से बकाया रकम दिलवाई. अपने यहां ‘कारवां’ की जिम्मेदारी सौंपी. मंटो की शादी के समय उनकी मां की मदद और मेहमाननवाजी के लिए पद्मादेवी को भेजा. यूं लगता है कि ‘किसान कन्या’ की रिलीज के समय दोनों का परिचय गाढ़ा नहीं था या यह भी हो सकता है कि अपनी नुकीली टिप्पणियों के लिए मशहूर बाबूराव पटेल फिल्म रिव्यू में परिचय और दोस्ती का लिहाज नहीं करते थे. हां, पद्मादेवी पर आसक्त थे और जैसा कि मंटो ने लिखा है, उन्होंने पद्मादेवी को ‘कलर क्वीन’ की संज्ञा दी थी, क्योंकि वह भारत की पहली कलर फिल्म टाकी ‘किसान कन्या’ की हीरोइन थी. 1937 में फिल्म इंडिया के एक अंक में ‘किसान कन्या’ की रिलीज़ के चांद महीनों पहले पूरे पृष्ठ पर पद्मादेवी की अकेली रंगीन तस्वीर छपी थी, जिसके नीचे ‘किसान कन्या’ का हवाला देते हुए पद्मादेवी को ‘कलर क्वीन’ कहा गया था.

पद्मादेवी को ‘कलर क्वीन’ की संज्ञा दी थी

पद्मादेवी के प्रति बाबूराव पटेल की आसक्ति कोई छिपी बात नहीं थी. ‘किसान कन्या’ के बारे में अनेक प्रचारात्मक सामग्री और तस्वीरें छापने के बाद रिव्यू लिखते समय अपनी बेलाग आलोचना के बावजूद पद्मादेवी की तारीफ से नहीं चूके. लेखक, निर्देशक और बाकी कलाकारों की कमियों के बारे में बताया और पहली कलर फिल्म होने की वजह से उसकी तकनीकी खूबियों की चर्चा और प्रशंसा की. इस फिल्म के प्रीमियर में तत्कालीन गवर्नर और उनकी पत्नी आए थे. प्रीमियर की उस तस्वीर में बाबूराव पटेल और पद्मादेवी अगल-बगल में बैठे दिखाई पड़ते हैं. ‘फिल्म इंडिया’ में ‘बॉम्बे कालिंग’ नाम से उनका कॉलम बहुत मशहूर था. इस कॉलम में वह पाठकों के सवालों के जवाब देते थे.

1937 के ही एक अंक में एक पाठक ने पूछा... पदमा देवी कौन हैं और उनकी पहली फिल्म कौन सी थी? क्या मुझे उनकी तस्वीर मिल सकती है? जवाब में बाबूराव पटेल ने लिखा...वह बंगाली अभिनेत्री है, जो सात साल पहले बॉम्बे आई. उनकी पहली फिल्म मूक थी, जिसका नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा. अभी वह ‘कलर क्वीन’ के नाम से विख्यात हैं, भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ में ऐतिहासिक भूमिका निभाने की वजह से. आप जितनी चाहें उतनी तस्वीरें पा सकते हैं. इन दिनों उनकी तस्वीरें अखबारों में छपती रहती हैं, लेकिन अगर आपको प्राइवेट फोटो चाहिए तो उन्हें लिखें मार्फत इंपीरियल फिल्म कंपनी, बॉम्बे.

दूसरे हवालों से जानकारी मिलती है कि पद्मादेवी की पहली मूक फिल्म ‘सी गॉडेस’ 1931 में आई थी. वह भारतीय सिनेमा की आरंभिक एक्शन हीरोइन थीं. जेबीएच वाडिया की अनेक मूक एक्शन फिल्मों में बोमन श्रॉफ के साथ उनकी जोड़ी दिखाई पड़ी थी. जेबीएच वाडिया की पद्मादेवी के साथ आखिरी फिल्म ‘द अमेजॉन उर्फ दिलरुबा डाकू’ थी. इस फिल्म की बॉक्स ऑफिस सफलता के बाद जेबीएच वाडिया ने टॉकी फिल्म ‘हंटरवाली’ के लिए फीयरलेस नाडिया को साइन किया था. ऑस्ट्रेलियाई मूल की फीयरलेस नदिया एक तरीके से भारतीय सिनेमा की पहली स्टंट और एक्शन स्टार रहीं.

इस पृष्ठभूमि और परिवेश में ‘किसान कन्या’ फिल्म के प्रोडक्शन में प्रदर्शन से संबंधित बातें...

1931 में पहली टॉकी फिल्म का निर्माण कर चुके आर्देशर ईरानी ने इंपीरियल फिल्म कंपनी के अधीन कलर फिल्म बनाने की बात सोची. उन दिनों कंपनी की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, इसलिए कंपनी का एक समूह नहीं चाहता था कि कलर फिल्म में भारी निवेश किया जाए. फिर भी सबसे पहले और कुछ नया करने की जिद में आर्देशर ईरानी को कलर फिल्म के निर्माण का फैसला लिया. इस फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी उन्होंने मोती बी गिरवानी को सौंपी. इंपीरियल फिल्म कंपनी में मुंशी के तौर पर कार्यरत सआदत हसन मंटो को गिडवानी बहुत पसंद करते थे. उन्होंने उनसे कहानी लिखने को कहा. मंटो ने एक कहानी लिखी. कहानी पसंद आने के बावजूद निर्माता चाहते थे कि कोई बड़ा नाम लेखक के तौर पर जुड़ जाए. मंटो की कोशिश से शांतिनिकेतन में फारसी के अध्यापक प्रोफेसर जियाउद्दीन जुड़ गए. मंटो ने ‘मेरी शादी’ संस्मरण में उनके इस जुड़ाव की सच्चाई (फ्रॉड) के बारे में बता दिया है.

सोशल मीडिया और तमाम जगहों पर यह फिल्म 1937 की रिलीज बताई गई है, जबकि यह 8 जनवरी 1938 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज हुई थी. हो सकता है कि 1937 में शूटिंग आरंभ होने के साथ चर्चित होने के कारण यह साल उससे चिपक गया हो. यह भी हो सकता है कि फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट 1937 में ही मिल गया हो. पहली कलर फिल्म होने की वजह से इस फिल्म के निर्माण की खबरें पत्र-पत्रिकाओं में लगातार सुर्खियां बटोर रही थीं.

फिल्म किसान कन्या का पोस्टर

कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ की रिलीज के सालों पहले प्रयोगवादी साहसी फिल्मकार वी शांताराम ने द्विभाषी फिल्म ‘सैरंध्री’ को कलर करने की कोशिश की थी. ब्लैक एंड ह्वाइट में बनी इस फिल्म को कलर करने के लिए उन्होंने फिल्म का प्रिंट जर्मनी भेजा था. जर्मनी में ‘बायपैक कलर प्रिंटिंग प्रोसेस’ से इसे कलर किया गया, लेकिन तकनीकी दिक्कतों के कारण यह प्रक्रिया अंतिम रूप में असफल रही. निराश होकर वि शांताराम ने ‘सैरंध्री’ को ब्लैक एंड ह्वाइट में ही रिलीज किया और फिर तुरंत किसी और फिल्म को कलर करने की कोशिश भी नहीं की. इस तरह पहली कलर फिल्म होने का श्रेय ‘किसान कन्या’ को मिला.

‘किसान कन्या’ अमेरिका की एक कंपनी ने कलर किया था. इसे ‘सिनेकलर प्रक्रिया’ से कलर किया गया था. बताते हैं कि कलर करने के लिए आवश्यक उपकरण और ज्ञान आर्देशर ईरानी ने आयातित किया था. ब्लैक एंड ह्वाइट में शूट हुई फिल्म को कलर किया गया था. तब तक फिल्मों की शूटिंग के लिए कलर नेगेटिव (फिल्में) अभी आविष्कृत नहीं हुई थीं. कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ को लेकर छप रही खबरों की वजह से फिल्म इंडस्ट्री समेत दर्शकों की जिज्ञासा बढ़ी हुई थी.

फिल्म किसान कन्या का पोस्टर

मैजेस्टिक सिनेमा में आयोजित इस फिल्म के प्रीमियर में तत्कालीन राज्यपाल सपत्निक आए थे. शहर के गणमान्य अतिथियों (बाबुराव पटेल भी) के सानिध्य में प्रीमियर के बाद फिल्म रिलीज हुई तो इसे देखने के लिए आरंभिक हफ्ते में दर्शकों की भरी भीड़ उमड़ आई थी. इस फिल्म की रिलीज को राष्ट्रीय घटना के तौर पर प्रचारित किया गया था. प्रीमियर की ‘फिल्म इंडिया’ में छपी रिपोर्ट में ‘भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ की सफलता’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट में लिखा गया था. घंटों पहले से गलियों में भीड़ एकत्रित होने लगी और सिनेमाघर की सभी सीटें भरी हुई थीं. ऐसा लग रहा था कि आज सारी गलियां मैजेस्टिक सिनेमा की तरफ आ रही हैं. गलियों में दर्शकों का जनसैलाब उमड़ आया था.

रविवार को पुलिस अधिकारियों को भारी भीड़ को नियंत्रित करना पड़ा. सड़कों से लोगों के ना हटने की वजह से ट्राम और कारों की रफ़्तार धीमी हो गयी थी. सिनेमाघर की सीमित सीटों की वजह से सभी दर्शकों को टिकट नहीं मिल पाया. मजबूरन हजारों दर्शकों को निराश होकर लौटना पड़ा. फिल्म के चारों शो में यही हालत रही. फिल्मप्रेमियों के लिए यह दुर्लभ नजारा था. वे पहली कलर टॉकी देखने के लिए उतावली भीड़ को देखकर दंग थे. दर्शकों ने इस फिल्म में जो रंगीनी देखी उससे लगता है कि यह फिल्म निश्चित रूप से सफल होगी और फिल्म इंडस्ट्री के भविष्य में क्रांतिकारी परिवर्तन ले आएगी, हर भारतीय को रंगों से विशेष प्रेम है और इस फिल्म को ‘सिनेकलर प्रक्रिया’ से जिस तरह रंगीन किया गया है, वह हर लिहाज से वास्तविक जिंदगी की तरह है. फिल्म को निश्चित ही बड़ी सफलता मिलेगी, जो अभी तक ब्लैक एंड ह्वाइट फिल्मों को मिलती रही है.

तमाम प्रचार और आरंभिक भीड़ के बावजूद फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाल नहीं कर सकी थी. इस फिल्म के लेखन और निर्देशन की काफी आलोचना हुई थी. ऐसी जानकारी मिलती है कि इंपीरियल फिल्म कंपनी में ही कुच्छ लोग नहीं चाहते थे कि ‘किसान कन्या’ सफल हो. फिल्म इंडस्ट्री में भी आर्देशर ईरानी की कामयाबी के कई दुश्मन थे. वे भी नहीं चाहते थे कि यह फिल्म कोई कमाल कर सके. बाबूराव पटेल ने अपने रिव्यू में आरोप लगाया था कि यह फिल्म ‘गुंडा’ का गरिमाकरण करती है. फिल्म में एक ‘गुंडा’ चरित्र था, जो क्लाइमेक्स में बदल जाता है. वह अपना अपराध स्वीकार कर लेता है और निर्दोष नायक को आजाद करवा देता है. मुमकिन है ‘किसान कन्या’ का ‘गुंडा’ कहीं ना कहीं जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडा’ के नायक के समान हो.

इस फिल्म का कोई भी प्रिंट अब उपलब्ध नहीं है. प्रचार सामग्रियों और छपी रिपोर्टों के आधार पर फिल्म संबंधी सारी जानकारियां एकत्रित की गई हैं. वहीं सही-गलत तरीके से हर जगह उपलब्ध है. ‘किसान कन्या’ भारतीय सिनेमा के इतिहास में पहली कलर फिल्म होने के कारण ऐतिहासिक महत्व रखती है. इस कलर फिल्म के निर्माण के बावजूद लंबे समय तक कलर फिल्म प्रचलन में नहीं आयी थी. आजादी के बाद ही इस दिशा में निर्माताओं ने ठोस कदम उठाए.

फिल्म का कथासार

किसान कन्या हमारे गांव की कहानी है. यह विस्तार से जमींदार और साहूकार की मनमानी और क्रूर व्यवहार को चित्रित करती है, जो खेतिहरों को परेशान करते रहते हैं. फिल्म में भारत के एक गांव को चुना गया है और कहानी को रोचक एवं नाटकीय मोड़ दिया गया है. गांव के किसानों की दुर्दशा को इस कहानी में गूंथा गया है. इसकी वजह से फिल्म शुरू से अंत तक बेहद रोचक हो गई है. गांव के ठेठ जमींदार ने किसानों की जिंदगी मुश्किल कर रखी है. वह उन्हें हर तरह से सताता रहता है. फिल्म की कहानी मुख्य रूप से जमींदार, उसकी पत्नी रामदाई, खलनायक रणधीर, नायक रामू और नायिका बांसुरी के बीच चलती है.

फिल्म किसान कन्या का प्रीमियर

रणधीर को ‘गुंडा’ चरित्र दिया गया है. ऐसे चरित्र गांव-देहात में मिल जाते हैं. लेखक ने विलेन के चरित्र को उदार और नरमदिल का भी बनाया है, जिसकी वजह से फिल्म में ‘गुंडा’ का गरिमाकाण हुआ है. बांसुरी जमींदार के यहां नौकरानी है. जमींदार अपने रैयतों का शोषण करता है और हर मुमकिन मौके पर उन्हें लूटता है. धार्मिक स्वभाव की जमींदार की पत्नी रामदाई अपने पति की दुष्टता से नाखुश रहती है. शोषण और परेशानी के दृश्यों के बीच कहानी आगे बढ़ती है. क्लाइमैक्स के ठीक पहले जमींदार की हत्या हो जाती है. रामू पर हत्या का आरोप लगता है. पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है. जमींदार की पत्नी सच्चाई से वाकिफ है. वह हत्यारे रणधीर के पास जाकर निर्दोष रामू को छुड़ाने की बात करती है. उदारदिल रणधीर राजी हो जाता है और अपना अपराध स्वीकार कर लेता है. रामू आजाद होने के बाद बांसुरी से मिल जाता है.

फिल्म में एक संदेश भी है कि गांव के अमीर लोग गरीब ग्रामीणों के प्रति अपना कर्तव्य निभाएं और गांव के विकास में योगदान करें.

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