Newslaundry Hindi

कोविड-19 लॉकडाउन भले खत्म हो जाये, लेकिन गरीब भूखे ही रहेंगे

कोरोनावायरस (कोविड-19) के संक्रमण को रोकने के लिए लगाये गये लॉकडाउन के प्रभाव और इसके चलते आया आर्थिक संकट गरीबों व असुरक्षित तबके के लिए मुसीबतों का सबब बना हुआ है.

11 राज्यों के करीब 4000 असुरक्षित व हाशिये की आबादी को लेकर किये गये सर्वे में दो तिहाई आबादी ने बताया कि वे जो भोजन कर रहे हैं, वो लॉकडाउन से पहले के मुकाबले ‘कुछ हद तक कम’ या ‘काफी कम’ है.

इनमें से 28 प्रतिशत ने कहा कि उनके भोजन की खुराक में ‘काफी हद तक कमी’ आई गई है.

सर्वे में शामिल आबादी के एक बड़े हिस्से को भूखा भी रहना पड़ा. सितंबर और अक्टूबर में जब हंगर वाच को लेकर सर्वे किया गया था, तो पता चला कि हर 20 में से एक परिवार को अक्सर रात का खाना खाये बगैर सोना पड़ा.

वहीं, 56 प्रतिशत ने कहा कि लॉकडाउन से पहले उन्हें कभी भी खाली पेट नहीं रहना पड़ा था. लेकिन, लॉकडाउन की अवधि में हर सात में से एक को या तो अक्सर या कभी-कभी भोजन किये बिना रहना पड़ा.

राइट टू फूड कैम्पेन और कुछ अन्य संगठनों ने कोविड-19 महामारी के दौरान भारत के अलग-अलग हिस्सों में असुरक्षित व हाशिये पर खड़े समुदायों में भुखमरी की स्थिति को समझने के लिए सितंबर 2020 में हंगर वाच लांच किया था.

सर्वे के आधार पर 9 दिसंबर 2020 को एक रिपोर्ट जारी की गई.

ग्रामीण व शहरी इलाकों के असुरक्षित समुदायों की पहचान स्थानीय कार्यकर्ताओं/शोधकर्ताओं ने की. सर्वे छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में किया गया.

सर्वे में शामिल आबादी में से 53 प्रतिशत ने कहा कि चावल/गेहूं (केंद्र सरकार की जनवितरण प्रणाली का मुख्य खाद्यान्न) की उनकी खुराक सितंबर-अक्टूबर में कम हो गई. इनमें से हर चार में से एक ने कहा कि उनकी खुराक में ‘काफी कमी’ आई है.

नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट (एएसएफए) जनवितरण प्रणाली के जरिये 67 प्रतिशत आबादी को हर महीने ऊंची सब्सिडी पर प्रति व्यक्ति के हिसाब से पांच किलोग्राम खाद्यान्न की गारंटी देता है.

कम खुराक

रिपोर्ट के मुताबिक, 64 प्रतिशत आबादी ने बताया कि उनकी दाल की खुराक सितंबर-अक्टूबर में कम हो गई है. इनमें से 28 प्रतिशत ने कहा कि उनकी खुरात में ‘काफी कमी’ आई है. वहीं, 73 प्रतिशत आबादी ने बताया कि उनकी हरी सब्जियों की खुराक में गिरावट आई है जबकि 38 प्रतिशत ने हरी सब्जियों की खुराक में ‘काफी कमी’ की बात कही है.

भारत में कुपोषण चरम पर है और लॉकडाउन के दौरान सरकारी योजनाएं बहुत अहम थीं, लेकिन हंगर वाच के सर्वे में भुखमरी के चिंताजनक स्थिति में पहुंचना बताता है कि केंद्र सरकार की तरफ से शुरू की गई प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना नाकाफी थी.

रिपोर्ट में कहा गया है, “बहुत सारे लोगों को योजना का लाभ नहीं मिला और जिन्हें मिला भी उनकी खुराक लॉकडाउन से पहले के मुकाबले कम ही रही. इससे पता चलता है कि इन स्कीमों को मजबूत और विस्तृत किये जाने की जरूरत है.”

सर्वे करने वाले कार्यकर्ताओं व शोधकर्ताओं ने एक वेबिनार में कहा कि जिनके पास राशन कार्ड नहीं था, उन पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है. जनवितरण प्रणाली उन चंद सुरक्षात्मक स्कीमों में एक है, जो इसके अंतर्गत आने वाले लाभुकों के लिए काम करती है. शोधकर्ताओं ने जनवितरण प्रणाली को यूनिवर्सल कर हर व्यक्ति को कम से कम 6 महीने तक (जून 2021) तक 10 किलोग्राम अनाज, डेढ़ किलो दाल और 800 ग्राम तेल देने की मांग की.

रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे में शामिल आबादी में से बहुत लोगों ने ये भी कहा कि लॉकडाउन में उनकी दिक्कतें और बढ़ गईं क्योंकि लॉकडाउन के कारण स्कूल और आंगनबाड़ी केंद्र में बच्चों को मिलने वाला पौष्टिक आहार बंद हो गया.

करीब 71 प्रतिशत लोगों ने कहा कि लॉकडाउन से पहले के मुकाबले सितंबर-अक्टूबर में उनके भोजन की पौष्टिक गुणवत्ता भी खराब हो गई. इनमें से 40 प्रतिशत ने कहा कि भोजन की पौष्टिक गुणवत्ता ‘बेहद खराब’ हो गई.

कमाई में गिरावट

सर्वे में हिस्सा लेने वाले लोगों ने ये भी कहा कि लॉकडाउन के बाद उनकी कमाई रुक गई या फिर बिल्कुल कम हो गई. इनमें से 56 प्रतिशत आबादी को अप्रैल-मई में किसी तरह की कमाई नहीं हुई थी और सितंबर-अक्टूबर में भी यही क्रम जारी रहा.

करीब 62 प्रतिशत आबादी ने बताया कि अप्रैल-मई (लॉकडाउन से पहले) के मुकाबले सितंबर-अक्टूबर में उनकी कमाई में गिरावट आई. केवल तीन प्रतिशत ने कहा कि उन्हें सितंबर-अक्टूबर में भी अप्रैल-मई जितनी कमाई हुई.

सर्वे रिपोर्ट में हाशिये पर जीने वाले समुदाय की स्थिति पर भी चर्चा की गई है. रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे में शामिल असुरक्षित जनजातीय परिवारों में से 77 प्रतिशत ने कहा कि उनके भोजन की खुराक लॉकडाउन से पहले के मुकाबले सितंबर-अक्टूबर में कम हो गई. दलितों की 74 प्रतिशत आबादी में खुराक होने की बात कही, वहीं इनमें से 36 प्रतिशत ने बताया कि उनकी खुराक ‘काफी कम’ हो गई.

करीब 54 प्रतिशत आदिवासियों ने भोजन की खुराक कम मिलने की बात कही.

रिपोर्ट में इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि पिछले कुछ महीनों में लाये गये लेबर कोड व कृषि कानून जैसे नीति व विधेयकों के चलते इन तबकों की हालत और नाजुक हो सकती है.

“चार लेबर कोड असंगठित क्षेत्र के कामगारों को अशक्त करते हैं और काम के बदले मजदूरी के भुगतान को लेकर अनिश्चितता बढ़ाते हैं, जो अंततः भोजन खरीदने की उनकी क्षमता को प्रभावित करेगा. तीन कृषि कानूनों को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं और तर्क दिया जा रहा है कि ये कानून खाद्यान्न अधिप्राप्ति तंत्र के लिए खतरनाक है, जो आखिरकार जनवितरण प्रणाली के लिए भी खतरा हो सकता है,” रिपोर्ट कहती है.

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि कोविड-19 राहत के तहत अतिरिक्त खाद्यान्न दिया जा रहा है, लेकिन इसके बावजूद पूरक बजट में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) के लिए केवल 10,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बजट प्रावधान किया गया.

रिपोर्ट में कहा गया है, “एफसीआई की अंडरफंडिंग का मतलब किसानों को मिलने वाले समर्थन मूल्य को कमजोर करना व उन्हें और कर्ज में धकेलना है. केंद्र सरकार को एफसीआई को मजूत करने के लिए अतिरिक्त फंड देना चाहिए.”

(डाउन टू अर्थ से साभार)

कोरोनावायरस (कोविड-19) के संक्रमण को रोकने के लिए लगाये गये लॉकडाउन के प्रभाव और इसके चलते आया आर्थिक संकट गरीबों व असुरक्षित तबके के लिए मुसीबतों का सबब बना हुआ है.

11 राज्यों के करीब 4000 असुरक्षित व हाशिये की आबादी को लेकर किये गये सर्वे में दो तिहाई आबादी ने बताया कि वे जो भोजन कर रहे हैं, वो लॉकडाउन से पहले के मुकाबले ‘कुछ हद तक कम’ या ‘काफी कम’ है.

इनमें से 28 प्रतिशत ने कहा कि उनके भोजन की खुराक में ‘काफी हद तक कमी’ आई गई है.

सर्वे में शामिल आबादी के एक बड़े हिस्से को भूखा भी रहना पड़ा. सितंबर और अक्टूबर में जब हंगर वाच को लेकर सर्वे किया गया था, तो पता चला कि हर 20 में से एक परिवार को अक्सर रात का खाना खाये बगैर सोना पड़ा.

वहीं, 56 प्रतिशत ने कहा कि लॉकडाउन से पहले उन्हें कभी भी खाली पेट नहीं रहना पड़ा था. लेकिन, लॉकडाउन की अवधि में हर सात में से एक को या तो अक्सर या कभी-कभी भोजन किये बिना रहना पड़ा.

राइट टू फूड कैम्पेन और कुछ अन्य संगठनों ने कोविड-19 महामारी के दौरान भारत के अलग-अलग हिस्सों में असुरक्षित व हाशिये पर खड़े समुदायों में भुखमरी की स्थिति को समझने के लिए सितंबर 2020 में हंगर वाच लांच किया था.

सर्वे के आधार पर 9 दिसंबर 2020 को एक रिपोर्ट जारी की गई.

ग्रामीण व शहरी इलाकों के असुरक्षित समुदायों की पहचान स्थानीय कार्यकर्ताओं/शोधकर्ताओं ने की. सर्वे छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में किया गया.

सर्वे में शामिल आबादी में से 53 प्रतिशत ने कहा कि चावल/गेहूं (केंद्र सरकार की जनवितरण प्रणाली का मुख्य खाद्यान्न) की उनकी खुराक सितंबर-अक्टूबर में कम हो गई. इनमें से हर चार में से एक ने कहा कि उनकी खुराक में ‘काफी कमी’ आई है.

नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट (एएसएफए) जनवितरण प्रणाली के जरिये 67 प्रतिशत आबादी को हर महीने ऊंची सब्सिडी पर प्रति व्यक्ति के हिसाब से पांच किलोग्राम खाद्यान्न की गारंटी देता है.

कम खुराक

रिपोर्ट के मुताबिक, 64 प्रतिशत आबादी ने बताया कि उनकी दाल की खुराक सितंबर-अक्टूबर में कम हो गई है. इनमें से 28 प्रतिशत ने कहा कि उनकी खुरात में ‘काफी कमी’ आई है. वहीं, 73 प्रतिशत आबादी ने बताया कि उनकी हरी सब्जियों की खुराक में गिरावट आई है जबकि 38 प्रतिशत ने हरी सब्जियों की खुराक में ‘काफी कमी’ की बात कही है.

भारत में कुपोषण चरम पर है और लॉकडाउन के दौरान सरकारी योजनाएं बहुत अहम थीं, लेकिन हंगर वाच के सर्वे में भुखमरी के चिंताजनक स्थिति में पहुंचना बताता है कि केंद्र सरकार की तरफ से शुरू की गई प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना नाकाफी थी.

रिपोर्ट में कहा गया है, “बहुत सारे लोगों को योजना का लाभ नहीं मिला और जिन्हें मिला भी उनकी खुराक लॉकडाउन से पहले के मुकाबले कम ही रही. इससे पता चलता है कि इन स्कीमों को मजबूत और विस्तृत किये जाने की जरूरत है.”

सर्वे करने वाले कार्यकर्ताओं व शोधकर्ताओं ने एक वेबिनार में कहा कि जिनके पास राशन कार्ड नहीं था, उन पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है. जनवितरण प्रणाली उन चंद सुरक्षात्मक स्कीमों में एक है, जो इसके अंतर्गत आने वाले लाभुकों के लिए काम करती है. शोधकर्ताओं ने जनवितरण प्रणाली को यूनिवर्सल कर हर व्यक्ति को कम से कम 6 महीने तक (जून 2021) तक 10 किलोग्राम अनाज, डेढ़ किलो दाल और 800 ग्राम तेल देने की मांग की.

रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे में शामिल आबादी में से बहुत लोगों ने ये भी कहा कि लॉकडाउन में उनकी दिक्कतें और बढ़ गईं क्योंकि लॉकडाउन के कारण स्कूल और आंगनबाड़ी केंद्र में बच्चों को मिलने वाला पौष्टिक आहार बंद हो गया.

करीब 71 प्रतिशत लोगों ने कहा कि लॉकडाउन से पहले के मुकाबले सितंबर-अक्टूबर में उनके भोजन की पौष्टिक गुणवत्ता भी खराब हो गई. इनमें से 40 प्रतिशत ने कहा कि भोजन की पौष्टिक गुणवत्ता ‘बेहद खराब’ हो गई.

कमाई में गिरावट

सर्वे में हिस्सा लेने वाले लोगों ने ये भी कहा कि लॉकडाउन के बाद उनकी कमाई रुक गई या फिर बिल्कुल कम हो गई. इनमें से 56 प्रतिशत आबादी को अप्रैल-मई में किसी तरह की कमाई नहीं हुई थी और सितंबर-अक्टूबर में भी यही क्रम जारी रहा.

करीब 62 प्रतिशत आबादी ने बताया कि अप्रैल-मई (लॉकडाउन से पहले) के मुकाबले सितंबर-अक्टूबर में उनकी कमाई में गिरावट आई. केवल तीन प्रतिशत ने कहा कि उन्हें सितंबर-अक्टूबर में भी अप्रैल-मई जितनी कमाई हुई.

सर्वे रिपोर्ट में हाशिये पर जीने वाले समुदाय की स्थिति पर भी चर्चा की गई है. रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे में शामिल असुरक्षित जनजातीय परिवारों में से 77 प्रतिशत ने कहा कि उनके भोजन की खुराक लॉकडाउन से पहले के मुकाबले सितंबर-अक्टूबर में कम हो गई. दलितों की 74 प्रतिशत आबादी में खुराक होने की बात कही, वहीं इनमें से 36 प्रतिशत ने बताया कि उनकी खुराक ‘काफी कम’ हो गई.

करीब 54 प्रतिशत आदिवासियों ने भोजन की खुराक कम मिलने की बात कही.

रिपोर्ट में इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि पिछले कुछ महीनों में लाये गये लेबर कोड व कृषि कानून जैसे नीति व विधेयकों के चलते इन तबकों की हालत और नाजुक हो सकती है.

“चार लेबर कोड असंगठित क्षेत्र के कामगारों को अशक्त करते हैं और काम के बदले मजदूरी के भुगतान को लेकर अनिश्चितता बढ़ाते हैं, जो अंततः भोजन खरीदने की उनकी क्षमता को प्रभावित करेगा. तीन कृषि कानूनों को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं और तर्क दिया जा रहा है कि ये कानून खाद्यान्न अधिप्राप्ति तंत्र के लिए खतरनाक है, जो आखिरकार जनवितरण प्रणाली के लिए भी खतरा हो सकता है,” रिपोर्ट कहती है.

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि कोविड-19 राहत के तहत अतिरिक्त खाद्यान्न दिया जा रहा है, लेकिन इसके बावजूद पूरक बजट में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) के लिए केवल 10,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बजट प्रावधान किया गया.

रिपोर्ट में कहा गया है, “एफसीआई की अंडरफंडिंग का मतलब किसानों को मिलने वाले समर्थन मूल्य को कमजोर करना व उन्हें और कर्ज में धकेलना है. केंद्र सरकार को एफसीआई को मजूत करने के लिए अतिरिक्त फंड देना चाहिए.”

(डाउन टू अर्थ से साभार)