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कोरोना और सर्दी के बीच एम्स के बाहर रात गुजारने को मजबूर मरीज
राजधानी दिल्ली में स्थित देश के सबसे बड़े अस्पताल एम्स में अच्छे व सस्ते इलाज की उम्मीद में देश के कोने-कोने से लोग आते हैं. यहां आम आदमी ही नहीं बल्कि नेता, मंत्री और देश की जानी मानी हस्तियां भी इलाज के लिए अखिल भारतीय आयुविज्ञान संस्थान (एम्स) को प्रमुखता देती हैं. एक आम आदमी जो प्राइवेट अस्पताल का खर्च वहन नहीं कर सकता, वह एम्स को अपनी आखिरी उम्मीद के रूप में देखता है. लेकिन दूरदराज से इलाज के लिए आए मरीजों को काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है. अभी दिल्ली में कोरोना के कहर और बढ़ती ठंड के बावजूद मरीज और उनके परिजन बाहर खुले में सोने को मजबूर हैं. देश के अलग- अलग हिस्सों से इलाज करवाने आए लोगों का रात में ठिकाना यहां एम्स मेट्रो स्टेशन, बस स्टॉप, फुटपाथ और अंडरपास ही है.
अस्पताल में रात गुजारने के लिए पर्याप्त जगह नहीं होने के कारण मजबूरी में इन लोगों में से किसी को बस स्टॉप पर तो किसी को मेट्रो स्टेशन के बाहर सोना पड़ रहा है. इन लोगों में कोई बिहार से इलाज करवाने आया है तो कोई राजस्थान, यूपी और बंगाल व अन्य राज्यों से. लेकिन अस्पताल और एम्स धर्मशाला में पर्याप्त जगह न होने के कारण इन लोगों को सर्दी में इस तरह रात गुजारनी पड़ रही है.
दरअसल कोरोना वायरस संक्रमण को देखते हुए बीते 24 मार्च को एम्स में ओपीडी सेवाएं भी अस्थाई रूप से बंद कर दी गई थीं. ऐसा पहली बार हुआ था जब देश के सबसे बड़े अस्पताल एम्स में ओपीडी विभाग को मरीजों के लिए बंद किया गया था. इससे मरीजों को ओर परेशानी का सामना करना पड़ा. कुल मिलाकर यहां रोजाना ही सैकड़ों लोग इसी तरह मेट्रो स्टेशन और बस स्टॉप के बाहर खुले में सोते हैं. और खाने के लिए दानदाताओं और एनजाओ पर निर्भर हैं, जो यहां आकर खाना बांट जाते हैं.
कोरोना वायरस और बढ़ती ठंड के बीच देश के कोने-कोने से आए ये लोग कैसे रात गुजार रहे हैं. हमने एम्स जाकर इसे जानने की कोशिश की. शाम लगभग 6 बजे जब हम यहां पहुंचे तो काफी चहल-पहल थी. एम्स की तरफ जाने के लिए हमें अंडरपास से गुजरना था. जब हम सीढ़ियों से उतर कर अंडरपास पर पहुंचे तो वहां दुकानों के बीच सैंकड़ों की तादाद में मरीज और उनके रिश्तेदार जमीन पर कपड़ा बिछाए लेटे हुए थे. कोरोना और सोशल डिस्टेंसिंग की वहां शायद ही किसी को परवाह थी. क्योंकि उससे पहले शायद उन्हें अपने रात गुजारने की परवाह थी. जो आमतौर पर इसी तरह सिकुड़ते, जागते और सामान चोरी के डर में आधी-अधूरी नींद लेते हुए गुजरती है. दूर दराज से आने वाले उन सैंकड़ों लोगों का यही ठिकाना था जो दिल्ली जैसे शहर में किराए पर नहीं रह सकते.
बिहार के दरभंगा से आए 45 साल के दिनेश मंडल अंडरपास में कंबल ओढ़ कर लेटे हुए थे. पास में ही उनकी पत्नी शीला देवी बैठी हुईं थीं. पेट की बीमारी से परेशान दिनेश 15 दिन पहले एम्स में इलाज कराने आए थे. तब से ये अंडरपास ही उनका रात का ठिकाना है. दिनेश का कहना है, “हमने रैन बसेरे में सोने के लिए जगह मांगी थी मगर वहां जगह नहीं मिली. कीमती सामान सिर के नीचे रख लेते हैं और जब सब सो जाते हैं तब सोते हैं, जिससे सामान चोरी न हो जाए. जब इलाज करा कर थक गए तब एम्स आए हैं.”
दरभंगा से मैनपुरी की दूरी भले ही 800 किमी हो लेकिन बीमारी ने यहां रहने वाले लोगों को पड़ोसी बना दिया. उत्तर प्रदेश के मैनपुरी निवासी 50 साल के योगेंद्र सिंह का बिस्तर दिनेश से सटा हुआ है. अपने पड़ोसी के साथ बैठे योगेंद्र बताते हैं, “बच्चे को सफेद दाग की और मुझे गले में समस्या है. पहले काफी जगह दिखाया लेकिन कोई आराम नहीं लगा, अब एम्स ही आखिरी उम्मीद है. कल डॉ. ने अपॉइंटमेंट दिया है.” खाने का पूछने पर योगेंद्र कहते हैं, “कभी खरीद लेते हैं और कभी एनजीओ वाले यहां आकर दे जाते हैं.”
यहां अंडरपास में हमने देखा कि चारों तरफ मरीज ही मरीज लेटे हुए थे. कुछ के रिश्तेदार भी उनसे मिलने आए थे. यहां से आगे बढ़ने पर हमारी मुलाकात 55 वर्षीय अनवार अहमद से हुई जो अपनी पत्नी अलीमा का इलाज कराने बिजनौर से आए थे. एक महीने से एम्स के उसी बरामदे में सोते हैं, जहां उनकी पत्नी भर्ती हैं. मजदूरी करने वाले अबरार ने हमें बताया पत्नी को पथरी है, पहले भी वहीं काफी इलाज कराया लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा. कोविड हो या कुछ, क्या करें इलाज तो कराना ही है.”
पीलीभीत यूपी के रहने वाले रवि कुमार भी बेटी की सर्जरी कराने आए थे और उनका ठिकाना भी यही अंडरपास है. रवि के रिश्तेदार संजय बताते हैं, “बेटी की सर्जरी हुई है. अब जब तक छुट्टी नहीं होती तब तक ऐसे ही रहेंगे. एम्स परिसर में गार्ड बैठने नहीं देते, भगा देते हैं. तो इधर-उधर रहना हमारी मजबूरी है. एम्स धर्मशाला में भी वह लोग नहीं रुकने देते. कहते हैं, आई-डी प्रूफ लाओ, डॉ. से लिखवाकर लाओ. इस सब में काफी समय गुजर जाता है. बाकी यहां भी दिन में कभी गार्ड आकर भगाते हैं, कि पानी फेंक देंगे. यही स्थिति है.”
“बाकी कोविड चल रहा है तो मास्क लगाकर और लोगों से दूरी बना कर रखते थे. खाना-पीना कभी मिल जाता है तो कभी खरीद लेते हैं. काफी मुश्किल हो रही है,” संजय ने कहा.
हम संजय से बात कर ही रहे थे कि ललिता देवी हमारे पास अपना दुखड़ा सुनाने चली आईं. मानो उन्हें किसी का इंतजार था कि कोई उनका दर्द सुने. उनके बीमार पति झगड़ूराम थोड़ी दूर पर ही लेटे हुए थे, उन्हें कैंसर की समस्या है. बिहार के पश्चिमी चंपारण के रहने वाले झगड़ूराम बताते हैं, “कोई नहीं सुनता इधर-उधर घूम रहे हैं. डॉ. सिर्फ जांच कराने के लिए बोल देते हैं. उसके बाद ही तभी भर्ती करेंगे और दवाई देंगे. हम गरीब आदमी हैं तो कहां से जांच कराएं! साढ़े दस हजार रूपए जांच के मांग रहा है. बहुत ठंड लगती है, मजबूरी है, एम्स से भगा दते हैं. मजबूरी है.”
“10 दिन हो गए, छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर आए हैं, अब कुछ इलाज हो तो वापस जाएं. वहां भी दिखाया था, लेकिन आराम नहीं लगा. कोई सुन ही नहीं रहा अब कुछ नहीं हुआ तो लौट कर वापस चले जाएंगे, क्या करें. मरें या जिएं,” ललिता ने कहा.
इस अंडरपास को पार कर जैसे ही हम मुख्य एम्स परिसर में पहुंचे तो वहां का नजारा भी खास जुदा नहीं था. एम्स के मुख्य गेट के पास ही मैट्रो स्टेशन का इलाका लोगों के बिस्तर से पटा पड़ा था. पहले हमने अंदर एम्स का जायजा लेने का निर्णय लिया.
अंदर भी चारों तरफ मरीज नजर आ रहे थे. लेकिन सामान्य दिनों के मुकाबले चहल-पहल कुछ कम नजर आई. शायद कोविड का असर हो जिस कारण ट्रेन और यातायात भी बाधित है. कुछ एंबुलेंस मरीजों को लेकर आ-जा रही थीं. अंदर घुसते ही बाएं हाथ की तरफ जैसे ही हम आगे बढ़े तो कुछ लोंगों ने वहां भी अपने बिस्तर लगाए हुए थे.
यहीं हमें मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले के 50 वर्षीय बालका प्रसाद मिले जो हाथ में हुए फ्रैक्चर का इलाज कराने आए थे. उनके पास उनके दामाद भी थे. शुरू में तो वे बात करने से हिचकिचाते रहे लेकिन फिर थोड़ी- बहुत बात कर यही बताया कि कोई खास परेशानी नहीं है, कोई नहीं भगाता. अभी 2-3 दिन और लगेंगे फिर वापस चले जाएंगे.”
कुछ इसी तरह जगह-जगह लोग बैठे हुए थे. जब हम अंदर कैंटीन के पास पहुंचे तो यहां भी कुछ लोग नीचे पड़े हुए थे. वेटिंग रूम में भी भीड़ लगी हुई थी. कुछ लोग कुर्सियों पर ही सोने की कोशिश कर रहे थे तो कुछ नीचे. लोगों ने कोरोना के कारण मास्क जरूर लगाए थे लेकिन भीड़ की वजह से सोशल डिस्टेंसिंग का सही पालन हो पाना मुश्किल था. जब हम बाहर निकल कर आए तो रात के लगभग 9 बज चुके थे. मेट्रो स्टेशन के पास लोग सोने की कोशिश कर रहे थे.
बरेली निवासी 45 साल के हरपाल कश्यप अपनी बेटी के कैंसर का इलाज कराने आए थे. वे तीन महीने से यहीं एक छोटे से पेड़ के चारों ओर पिन्नी डालकर पूरे परिवार के साथ रहते हैं. इस तिरपाल को दिन में उतार लेते हैं और रात को डालते हैं. एक रेहड़ी वाला अपनी छतरी दे जाता है. कुछ उससे काम चलाते हैं.
हरपाल बताते हैं, “सभी जगह लखनऊ, बरेली मना कर दिया तब एम्स आए, यहां तो आराम है. धर्मशाला में भी रहे, वहां भी 14 दिन ही रखते हैं. खाना बांटने वाले आते हैं तो खा लेते हैं. बाकी कोरोना में अलग रहते हैं. टाइम तो पास करना ही है छह महीने लगेंगे, अभी तीन महीने और रहना है. जो पैसा था सब लग गया.”
बिहार के बेगुसराय निवासी आलम भी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ यहीं खुले आसमान के नीचे लेटे हुए थे. आलम भी डेढ़ महीने से यहीं सोकर गुजारा कर रहे हैं. उनके बच्चे को ट्यूमर है. जिसका 2-3 साल तक इलाज कराकर आखिर में एम्स में कराने आए हैं. खाना-पीना कभी खरीदकर तो कभी एनजीओ वालों से मिल जाता है. बात करने के दौरान ही उनकी पत्नी थोड़ी नाराज होकर कहती हैं कि ठंड में बच्चों की तबीयत खराब हो जाती है और कंबल बांटने वाले भी मुंह देखकर कंबल देते हैं.
हम इन लोगों से बात कर ही रहे थे कि यहीं पास ही रहने वाले एक सज्जन (प्रवीण मानव) केले बांटने के लिए आ गए. उन्हें देखते ही इन लोगों ने उन्हें घेरकर सामान लेना शुरू कर दिया. हमने उनसे बात करनी चाही तो वे ज्यादा कुछ तो नहीं बताना चाहते थे लेकिन इतना कहा कि ये लोग जरूरत मंद हैं तो हम इन्हें ही दे जाते हैं. मंदिर वगैरह में नहीं देते.
अंत में हम बिहार के खगरिया जिले के निवासी जुबैर आलम से मिले. जुबैर अपने भाई का ब्रेन ट्यूमर का इलाज कराने के लिए तीन महीने से यहीं रह रहे हैं. वे सरकार के इंतजामों से काफी नाराज दिखे.
जुबैर ने कहा, “मैं बहुत परेशान हूं, कोई नहीं सुनता. बहुत मुश्किल से अपॉइंटमेंट मिल पाया है. इसके अलावा बाहर से 30 हजार रूपए की जांच करा चुका हूं. डॉ. कहता है कि एक साल बाद सर्जरी करूंगा और वह यह भी कहता है कि ऑपरेशन बहुत जरूरी है. अगर आज ही करा सकते हो तो करा लो.”
“कोरोना का बहाना बना देता है, अगर कोरोना का बहाना बनाता रहेगा तो इतने में तो मरीज मर ही जाएगा. पहले भी तो ज्यादा मरीज देखते होंगे. इस एक रजाई में जैसे-तैसे गुजारा कर रहे हैं. जो कंबल बांटने आते हैं वह भी रजाई देखकर भाग जाते हैं. बाकि चोरी का भी डर रहता है. मेरा मोबाइल भी चोरी हो गया. बस इसकी जिंदगी बचाने की जद्दोजहद है. और जो पेट की जलन होती है वह सब चीजों को भुला देती है. हमने सोचा था एम्स अच्छा होगा. लेकिन कोई खास व्यवस्था नहीं है, धक्का मारकर निकाल देते हैं,” जुबैर ने कहा.
कोरोना के बाद एम्स की स्थिति के बारे में जानने के लिए हमने एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया को फोन किया तो उन्होंने फोन रिसीव नहीं किया. हमने अपने सवाल उन्हें व्हाटसएप्प पर भी भेजे, जो उन्होंने रीड भी किए. लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया.
लगभग 3-4 घंटे यहां गुजारने के बाद जब हम रात लगभग 10 बजे वापस आने लगे तो यहां कुछ लोग सो चुके थे और कुछ सोने की तैयारी में थे. इस दौरान हमने देखा कि अच्छे इलाज की तलाश में देशभर से आने वाले लोग यहां बेहद मुश्किल हालात में रहने को मजबूर हैं.
राजधानी दिल्ली में स्थित देश के सबसे बड़े अस्पताल एम्स में अच्छे व सस्ते इलाज की उम्मीद में देश के कोने-कोने से लोग आते हैं. यहां आम आदमी ही नहीं बल्कि नेता, मंत्री और देश की जानी मानी हस्तियां भी इलाज के लिए अखिल भारतीय आयुविज्ञान संस्थान (एम्स) को प्रमुखता देती हैं. एक आम आदमी जो प्राइवेट अस्पताल का खर्च वहन नहीं कर सकता, वह एम्स को अपनी आखिरी उम्मीद के रूप में देखता है. लेकिन दूरदराज से इलाज के लिए आए मरीजों को काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है. अभी दिल्ली में कोरोना के कहर और बढ़ती ठंड के बावजूद मरीज और उनके परिजन बाहर खुले में सोने को मजबूर हैं. देश के अलग- अलग हिस्सों से इलाज करवाने आए लोगों का रात में ठिकाना यहां एम्स मेट्रो स्टेशन, बस स्टॉप, फुटपाथ और अंडरपास ही है.
अस्पताल में रात गुजारने के लिए पर्याप्त जगह नहीं होने के कारण मजबूरी में इन लोगों में से किसी को बस स्टॉप पर तो किसी को मेट्रो स्टेशन के बाहर सोना पड़ रहा है. इन लोगों में कोई बिहार से इलाज करवाने आया है तो कोई राजस्थान, यूपी और बंगाल व अन्य राज्यों से. लेकिन अस्पताल और एम्स धर्मशाला में पर्याप्त जगह न होने के कारण इन लोगों को सर्दी में इस तरह रात गुजारनी पड़ रही है.
दरअसल कोरोना वायरस संक्रमण को देखते हुए बीते 24 मार्च को एम्स में ओपीडी सेवाएं भी अस्थाई रूप से बंद कर दी गई थीं. ऐसा पहली बार हुआ था जब देश के सबसे बड़े अस्पताल एम्स में ओपीडी विभाग को मरीजों के लिए बंद किया गया था. इससे मरीजों को ओर परेशानी का सामना करना पड़ा. कुल मिलाकर यहां रोजाना ही सैकड़ों लोग इसी तरह मेट्रो स्टेशन और बस स्टॉप के बाहर खुले में सोते हैं. और खाने के लिए दानदाताओं और एनजाओ पर निर्भर हैं, जो यहां आकर खाना बांट जाते हैं.
कोरोना वायरस और बढ़ती ठंड के बीच देश के कोने-कोने से आए ये लोग कैसे रात गुजार रहे हैं. हमने एम्स जाकर इसे जानने की कोशिश की. शाम लगभग 6 बजे जब हम यहां पहुंचे तो काफी चहल-पहल थी. एम्स की तरफ जाने के लिए हमें अंडरपास से गुजरना था. जब हम सीढ़ियों से उतर कर अंडरपास पर पहुंचे तो वहां दुकानों के बीच सैंकड़ों की तादाद में मरीज और उनके रिश्तेदार जमीन पर कपड़ा बिछाए लेटे हुए थे. कोरोना और सोशल डिस्टेंसिंग की वहां शायद ही किसी को परवाह थी. क्योंकि उससे पहले शायद उन्हें अपने रात गुजारने की परवाह थी. जो आमतौर पर इसी तरह सिकुड़ते, जागते और सामान चोरी के डर में आधी-अधूरी नींद लेते हुए गुजरती है. दूर दराज से आने वाले उन सैंकड़ों लोगों का यही ठिकाना था जो दिल्ली जैसे शहर में किराए पर नहीं रह सकते.
बिहार के दरभंगा से आए 45 साल के दिनेश मंडल अंडरपास में कंबल ओढ़ कर लेटे हुए थे. पास में ही उनकी पत्नी शीला देवी बैठी हुईं थीं. पेट की बीमारी से परेशान दिनेश 15 दिन पहले एम्स में इलाज कराने आए थे. तब से ये अंडरपास ही उनका रात का ठिकाना है. दिनेश का कहना है, “हमने रैन बसेरे में सोने के लिए जगह मांगी थी मगर वहां जगह नहीं मिली. कीमती सामान सिर के नीचे रख लेते हैं और जब सब सो जाते हैं तब सोते हैं, जिससे सामान चोरी न हो जाए. जब इलाज करा कर थक गए तब एम्स आए हैं.”
दरभंगा से मैनपुरी की दूरी भले ही 800 किमी हो लेकिन बीमारी ने यहां रहने वाले लोगों को पड़ोसी बना दिया. उत्तर प्रदेश के मैनपुरी निवासी 50 साल के योगेंद्र सिंह का बिस्तर दिनेश से सटा हुआ है. अपने पड़ोसी के साथ बैठे योगेंद्र बताते हैं, “बच्चे को सफेद दाग की और मुझे गले में समस्या है. पहले काफी जगह दिखाया लेकिन कोई आराम नहीं लगा, अब एम्स ही आखिरी उम्मीद है. कल डॉ. ने अपॉइंटमेंट दिया है.” खाने का पूछने पर योगेंद्र कहते हैं, “कभी खरीद लेते हैं और कभी एनजीओ वाले यहां आकर दे जाते हैं.”
यहां अंडरपास में हमने देखा कि चारों तरफ मरीज ही मरीज लेटे हुए थे. कुछ के रिश्तेदार भी उनसे मिलने आए थे. यहां से आगे बढ़ने पर हमारी मुलाकात 55 वर्षीय अनवार अहमद से हुई जो अपनी पत्नी अलीमा का इलाज कराने बिजनौर से आए थे. एक महीने से एम्स के उसी बरामदे में सोते हैं, जहां उनकी पत्नी भर्ती हैं. मजदूरी करने वाले अबरार ने हमें बताया पत्नी को पथरी है, पहले भी वहीं काफी इलाज कराया लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा. कोविड हो या कुछ, क्या करें इलाज तो कराना ही है.”
पीलीभीत यूपी के रहने वाले रवि कुमार भी बेटी की सर्जरी कराने आए थे और उनका ठिकाना भी यही अंडरपास है. रवि के रिश्तेदार संजय बताते हैं, “बेटी की सर्जरी हुई है. अब जब तक छुट्टी नहीं होती तब तक ऐसे ही रहेंगे. एम्स परिसर में गार्ड बैठने नहीं देते, भगा देते हैं. तो इधर-उधर रहना हमारी मजबूरी है. एम्स धर्मशाला में भी वह लोग नहीं रुकने देते. कहते हैं, आई-डी प्रूफ लाओ, डॉ. से लिखवाकर लाओ. इस सब में काफी समय गुजर जाता है. बाकी यहां भी दिन में कभी गार्ड आकर भगाते हैं, कि पानी फेंक देंगे. यही स्थिति है.”
“बाकी कोविड चल रहा है तो मास्क लगाकर और लोगों से दूरी बना कर रखते थे. खाना-पीना कभी मिल जाता है तो कभी खरीद लेते हैं. काफी मुश्किल हो रही है,” संजय ने कहा.
हम संजय से बात कर ही रहे थे कि ललिता देवी हमारे पास अपना दुखड़ा सुनाने चली आईं. मानो उन्हें किसी का इंतजार था कि कोई उनका दर्द सुने. उनके बीमार पति झगड़ूराम थोड़ी दूर पर ही लेटे हुए थे, उन्हें कैंसर की समस्या है. बिहार के पश्चिमी चंपारण के रहने वाले झगड़ूराम बताते हैं, “कोई नहीं सुनता इधर-उधर घूम रहे हैं. डॉ. सिर्फ जांच कराने के लिए बोल देते हैं. उसके बाद ही तभी भर्ती करेंगे और दवाई देंगे. हम गरीब आदमी हैं तो कहां से जांच कराएं! साढ़े दस हजार रूपए जांच के मांग रहा है. बहुत ठंड लगती है, मजबूरी है, एम्स से भगा दते हैं. मजबूरी है.”
“10 दिन हो गए, छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर आए हैं, अब कुछ इलाज हो तो वापस जाएं. वहां भी दिखाया था, लेकिन आराम नहीं लगा. कोई सुन ही नहीं रहा अब कुछ नहीं हुआ तो लौट कर वापस चले जाएंगे, क्या करें. मरें या जिएं,” ललिता ने कहा.
इस अंडरपास को पार कर जैसे ही हम मुख्य एम्स परिसर में पहुंचे तो वहां का नजारा भी खास जुदा नहीं था. एम्स के मुख्य गेट के पास ही मैट्रो स्टेशन का इलाका लोगों के बिस्तर से पटा पड़ा था. पहले हमने अंदर एम्स का जायजा लेने का निर्णय लिया.
अंदर भी चारों तरफ मरीज नजर आ रहे थे. लेकिन सामान्य दिनों के मुकाबले चहल-पहल कुछ कम नजर आई. शायद कोविड का असर हो जिस कारण ट्रेन और यातायात भी बाधित है. कुछ एंबुलेंस मरीजों को लेकर आ-जा रही थीं. अंदर घुसते ही बाएं हाथ की तरफ जैसे ही हम आगे बढ़े तो कुछ लोंगों ने वहां भी अपने बिस्तर लगाए हुए थे.
यहीं हमें मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले के 50 वर्षीय बालका प्रसाद मिले जो हाथ में हुए फ्रैक्चर का इलाज कराने आए थे. उनके पास उनके दामाद भी थे. शुरू में तो वे बात करने से हिचकिचाते रहे लेकिन फिर थोड़ी- बहुत बात कर यही बताया कि कोई खास परेशानी नहीं है, कोई नहीं भगाता. अभी 2-3 दिन और लगेंगे फिर वापस चले जाएंगे.”
कुछ इसी तरह जगह-जगह लोग बैठे हुए थे. जब हम अंदर कैंटीन के पास पहुंचे तो यहां भी कुछ लोग नीचे पड़े हुए थे. वेटिंग रूम में भी भीड़ लगी हुई थी. कुछ लोग कुर्सियों पर ही सोने की कोशिश कर रहे थे तो कुछ नीचे. लोगों ने कोरोना के कारण मास्क जरूर लगाए थे लेकिन भीड़ की वजह से सोशल डिस्टेंसिंग का सही पालन हो पाना मुश्किल था. जब हम बाहर निकल कर आए तो रात के लगभग 9 बज चुके थे. मेट्रो स्टेशन के पास लोग सोने की कोशिश कर रहे थे.
बरेली निवासी 45 साल के हरपाल कश्यप अपनी बेटी के कैंसर का इलाज कराने आए थे. वे तीन महीने से यहीं एक छोटे से पेड़ के चारों ओर पिन्नी डालकर पूरे परिवार के साथ रहते हैं. इस तिरपाल को दिन में उतार लेते हैं और रात को डालते हैं. एक रेहड़ी वाला अपनी छतरी दे जाता है. कुछ उससे काम चलाते हैं.
हरपाल बताते हैं, “सभी जगह लखनऊ, बरेली मना कर दिया तब एम्स आए, यहां तो आराम है. धर्मशाला में भी रहे, वहां भी 14 दिन ही रखते हैं. खाना बांटने वाले आते हैं तो खा लेते हैं. बाकी कोरोना में अलग रहते हैं. टाइम तो पास करना ही है छह महीने लगेंगे, अभी तीन महीने और रहना है. जो पैसा था सब लग गया.”
बिहार के बेगुसराय निवासी आलम भी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ यहीं खुले आसमान के नीचे लेटे हुए थे. आलम भी डेढ़ महीने से यहीं सोकर गुजारा कर रहे हैं. उनके बच्चे को ट्यूमर है. जिसका 2-3 साल तक इलाज कराकर आखिर में एम्स में कराने आए हैं. खाना-पीना कभी खरीदकर तो कभी एनजीओ वालों से मिल जाता है. बात करने के दौरान ही उनकी पत्नी थोड़ी नाराज होकर कहती हैं कि ठंड में बच्चों की तबीयत खराब हो जाती है और कंबल बांटने वाले भी मुंह देखकर कंबल देते हैं.
हम इन लोगों से बात कर ही रहे थे कि यहीं पास ही रहने वाले एक सज्जन (प्रवीण मानव) केले बांटने के लिए आ गए. उन्हें देखते ही इन लोगों ने उन्हें घेरकर सामान लेना शुरू कर दिया. हमने उनसे बात करनी चाही तो वे ज्यादा कुछ तो नहीं बताना चाहते थे लेकिन इतना कहा कि ये लोग जरूरत मंद हैं तो हम इन्हें ही दे जाते हैं. मंदिर वगैरह में नहीं देते.
अंत में हम बिहार के खगरिया जिले के निवासी जुबैर आलम से मिले. जुबैर अपने भाई का ब्रेन ट्यूमर का इलाज कराने के लिए तीन महीने से यहीं रह रहे हैं. वे सरकार के इंतजामों से काफी नाराज दिखे.
जुबैर ने कहा, “मैं बहुत परेशान हूं, कोई नहीं सुनता. बहुत मुश्किल से अपॉइंटमेंट मिल पाया है. इसके अलावा बाहर से 30 हजार रूपए की जांच करा चुका हूं. डॉ. कहता है कि एक साल बाद सर्जरी करूंगा और वह यह भी कहता है कि ऑपरेशन बहुत जरूरी है. अगर आज ही करा सकते हो तो करा लो.”
“कोरोना का बहाना बना देता है, अगर कोरोना का बहाना बनाता रहेगा तो इतने में तो मरीज मर ही जाएगा. पहले भी तो ज्यादा मरीज देखते होंगे. इस एक रजाई में जैसे-तैसे गुजारा कर रहे हैं. जो कंबल बांटने आते हैं वह भी रजाई देखकर भाग जाते हैं. बाकि चोरी का भी डर रहता है. मेरा मोबाइल भी चोरी हो गया. बस इसकी जिंदगी बचाने की जद्दोजहद है. और जो पेट की जलन होती है वह सब चीजों को भुला देती है. हमने सोचा था एम्स अच्छा होगा. लेकिन कोई खास व्यवस्था नहीं है, धक्का मारकर निकाल देते हैं,” जुबैर ने कहा.
कोरोना के बाद एम्स की स्थिति के बारे में जानने के लिए हमने एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया को फोन किया तो उन्होंने फोन रिसीव नहीं किया. हमने अपने सवाल उन्हें व्हाटसएप्प पर भी भेजे, जो उन्होंने रीड भी किए. लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया.
लगभग 3-4 घंटे यहां गुजारने के बाद जब हम रात लगभग 10 बजे वापस आने लगे तो यहां कुछ लोग सो चुके थे और कुछ सोने की तैयारी में थे. इस दौरान हमने देखा कि अच्छे इलाज की तलाश में देशभर से आने वाले लोग यहां बेहद मुश्किल हालात में रहने को मजबूर हैं.
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