Newslaundry Hindi
"सर" परस्पर भरोसे और हमदर्दी का एहसास
सामान्य स्थितियों में रोहेना गेरा की फिल्म ‘सर’ इसी साल मार्च में रिलीज हो गई होती. कोरोना वायरस के प्रकोप से हुई तालाबंदी और थिएटरबंदी की वजह से यह फिल्म अब 13 नवंबर को रिलीज हो रही है. यह देश के कुछ सिनेमाघरों में लग रही है. 2018 में कान फिल्म फेस्टिवल के ‘इंटरनेशनल क्रिटिक वीक’ में ‘सर’ प्रदर्शित हुई थी. यह फिल्म हिंदी की उल्लेखनीय फिल्म है. कान की इस श्रेणी में किसी निर्देशक की पहली या दूसरी फिल्म प्रदर्शित की जाती है. 1989 में इसी श्रेणी में हांगकांग के मशहूर फिल्मकार ओंग कार-वाई की फिल्म ‘ऐज टीयर्स गो बाई’ दिखाई गई थी. 2013 में रितेश बत्रा की ‘द लंच बॉक्स’ भी इसी श्रेणी में प्रदर्शित हो चुकी है.
रोहेना गेरा ने पहले कुछ धारावाहिक लिखे. फिर ‘कुछ ना कहो’ और ‘थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक’ की क्रमशः कहानी और पटकथा लिखी. 2013 में गेरा ने ‘व्हाट्स लव गॉट टू विद इट?’ डॉक्यूमेंट्री बनाई. इस डॉक्यूमेंट्री में पारंपरिक अरेंज मैरिज में प्यार की गुंजाइश और वास्तविकता की तलाश थी. गेरा ने छह दंपतियों के दांपत्य के विवरण से इसे प्रस्तुत किया था. ‘सर’ का विचार तो 2014 में ही आ गया था, लेकिन गेरा को स्क्रिप्ट लिखने में वक्त लगा. और फिर ऐसी फिल्म के निर्माण की अपनी समस्याएं रहीं. देरी होती गयी. 2016 में स्क्रिप्ट पूरी हुई और फिल्म 2018 में आ सकी. फिर से दो सालों के बाद यह आम दर्शकों के बीच पहुंच रही है.
‘सर’ मे भी ‘प्यार’ मूल विषय है. यहां एक परिवार नहीं है. इस फिल्म में समाज के दो वर्गों से आए स्त्री और पुरुष एक साथ रहते हुए एक- दूसरे के प्रति आकृष्ट होते हैं. यह आकर्षण किसी लालच, आवेश, वासना या फौरी जरूरत से नहीं है. महानगरों और बड़े शहरों में ऐसा स्वभाविक मानवीय संबंध विकसित होता है, लेकिन वर्गीय भेदभाव और व्यवहार से इसे पहचान और स्वीकृति नहीं मिलती. उच्च मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय परिवारों में सेविका, नौकरानी, मेड आदि के रूप में काम कर रही स्त्री (और कुछ मामलों में पुरुष) परिवार के सभी सदस्यों के बेहद करीब और उनकी राजदार होती है, लेकिन उसके इस संबंध और भाव को उचित सम्मान और श्रेय नहीं मिलता. मान लिया जाता है कि उसे उसकी सेवा (ड्यूटी) के पैसे दिए जा रहे हैं, लेकिन जिस कर्तव्यबोध, स्नेह, सहानुभूति और प्यार के वशीभूत होकर कोई सेविका अपना समय और इमोशन दूसरे परिवार में लगाती है, उसे अमीर-गरीब होने के अंतर के कारण पाटा नहीं जा सका है.
‘सर’ मैं रत्ना तिलोत्तमा शोम ऐसी ही सेविका (मेड) है. वह अश्विनी (विवेक गोंबर) के यहां काम करती है. मराठी भाषी निम्नवर्गीय परिवार की रत्ना महाराष्ट्र के किसी गांव से अश्विनी के यहां काम करने मुंबई में आई एक विधवा है, जिसने कभी फैशन डिजाइनर बनने के ख्वाब देखे थे. अमीर बिल्डर परिवार का युवक अश्विनी न्यू यॉर्क में रहता था. अपने भाई के बीमार होने पर वह लौटता है और फिर जा नहीं पाता. वह मूलतः लेखक है, लेकिन अभी पिता की कंस्ट्रक्शन कारोबार में हाथ बंटा रहा है. शुरुआत में ही पता चलता है कि अश्विनी की मंगनी टूट गई है. टूटे संबंध और परिस्थिति की वजह से वह हमेशा खीझ, चिढ़, घुटन में रहता है. उसके जीवन में एकाकीपन है. उसकी इस तकलीफ को मां, बहन या पिता से अधिक बेहतर रत्ना समझती है. लगे हाथ वह अपनी जिंदगी के अनुभव से अश्विनी को दो ऐसी सीख दे देती है, जिससे उसकी शिथिल, एकरस, एकाकी और स्तंभित जीवन में उत्साह और उम्मीद का संचार होता है.
सेविका (मेड) के साथ घर के मालिकों के अवैध रिश्तो की खबरें आती रहती हैं. हर बिल्डिंग और सोसाइटी में ऐसे किस्सों की अनुगूंज फ्लोर दर फ्लोर कभी-कभार सुनाई पड़ जाती है. फिल्म में भी संकेत मिलता है, जब अश्विनी का ड्राइवर रत्ना से पूछता है कि तुम्हारे लिए कोई और नौकरी खोजूं क्या? उसकी सहज चिंता अकेले पुरुष के फ्लैट में अकेली बाहरी औरत के रहने और काम करने से संबंधित है. वह साफ मना कर देती है. वह किसी प्रकार से डरी या आशंकित नहीं है कि अश्विनी उसके साथ बुरा या गंदा बर्ताव करेगा. अश्विनी आम अमीर युवकों की तरह है भी नहीं. वह व्यक्ति और उसके श्रम का सम्मान करना जानता है. तभी तो रत्ना के पानी का ग्लास देने पर भी वह थैंक यू कहना नहीं भूलता. वह रत्ना के सपनों को अंकुरित होते देखना चाहता है.
धीरे-धीरे रत्ना साअधिकार अश्विनी के लिए आये कॉल रिसीव कर लेती और उसके मूड के हिसाब से सच-झूठ जवाब दे देती है. कह सकते हैं कि घर की चारदीवारी के अंदर दोनों एक-दूसरे को पर्याप्त सम्मान देते हुए परस्पर ख्याल रखते हैं. दोनों की निकटता में एक बार आवेशित आकस्मिक चुंबन होता है. रत्ना उसे भूलने-भुलाने की कोशिश करती है. और यही बात वह अश्विनी से भी कहती है. अपनी वर्गीय पृष्ठभूमि के कारण उसे इस संबंध की जगहंसाई और ताने का एहसास है. वह पूछती है ‘लोग क्या कहेंगे?’ यह चुंबन प्यार का परिणाम है या दोनों के अकेलेपन से उपजा है?
हिंदी फिल्मों में दशकों से अमीर-गरीब किरदारों की प्रेम की कहानियां चित्रित की जाती रही हैं. इस फिल्म के अमीर-गरीब किरदार स्फुरित भावुकता और मेलोड्रामा से परे हैं. अश्विनी कोई जोर-जबरदस्ती नहीं करता और ना ही रत्ना मौका देखकर उसकी तरफ फिसलती है. निम्नवर्गीय परिवार की रत्ना मुखर, स्पष्ट, महत्वाकांक्षी और दृढ इच्छाशक्ति की औरत है. ग्रामीण परिवेश में विधवा होने के दर्द और संताप को वह अच्छी तरह समझती है. उसे वह जी चुकी है. फिल्म में मुंबई आते समय बस में रत्ना का चूड़ी पहनने का दृश्य लेखक-निर्देशक की बारीक़ सोच-समझ को जाहिर करता है. रत्ना की आकांक्षाएं हरी हैं अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद. अश्विनी समृद्ध होने के कारण भौतिक मदद दे सकने की स्थिति में है और वह देता भी है, लेकिन उसका प्रेम और ख्याल उस भरोसे और हमदर्दी से पनपा है, जो उसने रत्ना के व्यवहार में महसूस किया है. रत्ना भी उसे देती है, जीने और नई शुरुआत की सीख. रत्ना की दी सीख देखी नहीं जा सकती और न उसका मूल्य आंका जा सकता है. उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है.
फिल्म में लेखक-निर्देशक रोहेना गेरा ने उनके संबंधों के निष्कर्ष को पति-पत्नी के रूप में नहीं दिखाया है. और न इस संबंध की आड़ में कोई वितंडा खड़ा किया है. अश्विनी रत्ना के प्रति अपने एहसास को एक दोस्त से जाहिर करता है. रत्ना यह एहसास अपने अंदर रखती है. फिल्म के अंतिम दृश्य में रत्ना जब ‘सर’ की जगह अश्विनी को ‘अश्विनी’ नाम से संबोधित करती है तो उनके बीच का प्रेम का स्थायित्व प्रकट होता है. इस प्रेम में शारीरिक निकटता नहीं है. सिर्फ प्रेम का एहसास है, जो वर्गीय दीवार को मिटा देता है. प्रेम को पहचान मिति है. गुलजार ने बहुत पहले ‘खामोशी’ फिल्म में कुछ ऐसे ही प्यार को शब्द दिए थे...
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो.
Also Read
-
Hafta X South Central: Highs & lows of media in 2025, influencers in news, Arnab’s ‘turnaround’
-
TV Newsance 2025 rewind | BTS bloopers, favourite snippets and Roenka awards prep
-
Is India’s environment minister lying about the new definition of the Aravallis?
-
How we broke the voter roll story before it became a national conversation
-
BJP got Rs 6000 cr donations in a year: Who gave and why?