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रॉबर्ट फ़िस्क: आंखो देखी लिखने वाला पत्रकार
अपनी मशहूर किताब ‘द ग्रेट वार फ़ॉर सिविलाइज़ेशन: द कंक्वेस्ट ऑफ़ द मिडिल ईस्ट’ में एक जगह रॉबर्ट फ़िस्क ने इज़रायली पत्रकार अमीरा हास को उद्धृत किया है कि यह एक ग़लतफ़हमी है कि पत्रकारिता निष्पक्ष हो सकती है- पत्रकारिता तो असल में सत्ता और सत्ता के केन्द्रों की निगरानी है. अमीरा एक मात्र यहूदी इज़रायली पत्रकार हैं, जो बरसों से फ़िलिस्तीनियों के बीच रहकर रिपोर्टिंग कर रही हैं. उनका कहना है कि ऐसा करना उतना ही ज़रूरी है, जितना लंदन में रहकर ब्रिटेन और पेरिस में रहकर फ़्रांस के बारे में रिपोर्टिंग करना ज़रूरी है. यहां उनकी एक और बात का उल्लेख किया जाना चाहिए. वे कहती हैं कि इज़रायल में स्वतंत्र पत्रकार होना कोई कठिन नहीं है, लेकिन इस स्वतंत्रता के वास्तविक और प्रभावी होने के लिए दो स्थितियों का होना ज़रूरी है- एक, लेखों को प्रकाशित करने के लिए तैयार अख़बार और, दूसरा, पाठक.
अमीरा हास की इन बातों के संदर्भ में रॉबर्ट फ़िस्क की पत्रकारिता को देखा जा सकता है, जो सत्ता केन्द्रों से नज़र मिला सकती थी. वे हर उस जगह पर लंबे समय तक ठहरते थे और लगातार-आते-जाते रहते थे, जहां के बारे में उन्हें रिपोर्ट करना होता था. उन्होंने अपनी स्वतंत्रता के साथ कभी समझौता नहीं किया और उन्हें छापने के लिए अनेक प्रकाशन भी हमेशा तैयार रहते थे. बीते पांच दशकों के अपने सुदीर्घ पेशेवर जीवन में उन्होंने संभवत: हर उस बड़ी घटना को नज़दीक से देखा, जिसने हमारी आज की दुनिया को बनाने-बिगाड़ने में उल्लेखनीय भूमिका निभायी.
सत्तर के दशक के शुरू में ब्रिटेन और आयरलैंड के बीच सबसे अधिक तनाव के दौर में वे लंदन टाइम्स के उत्तरी आयरलैंड संवाददाता बनकर बेलफ़ास्ट गए थे. इससे पहले वे संडे एक्सप्रेस में स्तंभ लिखते थे, लेकिन संपादक से किसी मसले पर असहमति के कारण उन्होंने टाइम्स का दामन पकड़ लिया. कुछ समय के बाद उन्होंने 1975 में पुर्तगाली क्रांति की भी रिपोर्टिंग की और फिर उन्हें अख़बार का मध्य-पूर्व संवादाता बनाकर बेरूत भेज दिया गया. इस दौरान उन्होंने लेबनान के गृहयुद्ध, ईरान की क्रांति, ईरान-इराक़ युद्ध, अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत हमला जैसी घटनाओं की ख़बर पश्चिमी दुनिया तक पहुंचायी. इसके अलावा लेबनान में इज़रायली हमलों, जनसंहारों के अलावा उन्होंने सीरिया की ऐसी घटनाओं के बारे में भी लिखा. वे इज़रायल-फ़िलीस्तीन मसले के भी प्रमुख संवाददाता और टिप्पणीकार रहे थे. फ़िस्क ने पहले खाड़ी युद्ध के साथ अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ पर अमेरिका व नाटो देशों के हमलों और दख़ल, 2011 के अरब विद्रोहों आदि के भी गवाह रहे. जब बाल्कन युद्ध का दौर था, तब वे वहां थे और पिछले कई सालों से सीरिया में जारी संघर्ष पर भी लगातार लिखते रहे.
ईरान-इराक़ युद्ध के आख़िरी साल में अमेरिका में एक ईरानी नागरिक जहाज़ को ईरानी सीमा के भीतर मिसाइल से गिरा दिया था. इस हमले में विमान में सवार सभी 290 लोग मारे गए थे. इस घटना के बारे में रिपोर्टिंग को लेकर टाइम्स के प्रबंधन से उनका विवाद हो गया था. तब तक इस अख़बार का मालिकाना रूपर्ट मर्डोक के हाथ में आ गया था. अपनी स्वतंत्रता को लेकर आग्रही होने के कारण फ़िस्क टाइम्स छोड़कर द इंडिपेंडेंट में आ गए और अपनी मृत्यु तक वे उसी से जुड़े रहे थे. वैसे उनकी रिपोर्ट और लेखों का प्रकाशन यूरोप और अमेरिका के विभिन्न समाचार पत्रों और साहित्यिक पत्रिकाओं में होता था.
मध्य-पूर्व की घटनाओं पर उनकी पकड़ की एक वजह तो यह थी कि उन्हें अरबी भाषा का अच्छा ज्ञान था तथा वे अनेक क्षेत्रीय भाषाओं को समझ सकते थे. लेकिन सबसे अहम बात यह थी कि वे किसी भी घटनास्थल पर पहुंचने वाले पहले पत्रकारों में होते थे तथा घटनाओं से जुड़े अहम किरदारों से संपर्क करने में भी अव्वल थे. नब्बे के दशक में उन्होंने ओसामा बिन लादेन का तीन बार साक्षात्कार किया था. रिपोर्टिंग के दौरान वे घायल भी हुए और भीड़ के जानलेवा हमले के शिकार भी हुए. वे अपनी व्यक्तिगत त्रासदी को भी बड़े आयाम में देख पाने की क्षमता रखते थे. जब वे अफ़ग़ानी शरणार्थियों के हमले का निशाना बने, तो उसके बारे में विस्तार से लिखते हुए उन्होंने अफ़ग़ानी हिंसा के लिए पश्चिमी देशों की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया था, जिसके तहत उन्हें हथियार दिया जाता रहा है, लेकिन उनकी मुश्किलों को हल करने की कोशिश नहीं होती है तथा अपने भू-राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने के लिए पश्चिमी देश निर्दोष अफ़ग़ानियों या दूसरों को मारने से भी परहेज़ नहीं करते. वे पश्चिमी पत्रकारों के रवैए के भी बड़े आलोचक थे. बग़दाद के होटलों में बैठकर अमेरिकी हमले की रिपोर्टिंग को उन्होंने होटल जर्नलिज़्म की संज्ञा देते हुए लिखा था कि इससे अमेरिकी टुकड़ियों को खुली छूट मिल गयी है.
इतिहास की गहरी पृष्ठभूमि में पैठ रॉबर्ट फ़िस्क की पत्रकारिता की प्रमुख विशिष्टता थी. बेलफ़ास्ट में आयरलैंड के मसले पर रिपोर्टिंग के दौर में उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में आयरलैंड की तटस्थता पर पीएचडी हासिल की थी. अपने पिता के प्रथम विश्वयुद्ध में लड़ने और अपनी टुकड़ी के लिए रिपोर्ट लिखने की भूमिका का फ़िस्क पर गहरा प्रभाव रहा था, जिसका उल्लेख उनकी किताबों और उनके व्याख्यानों में अक्सर आता है. इतिहास के प्रति लगाव और शांतिवादी होने के नाते उनकी टिप्पणियों का महत्व बहुत बढ़ जाता है. उनके सबसे प्रसिद्ध पश्चिमी पत्रकार होने या पुराने मूल्यों का पत्रकार होने की संज्ञाओं पर जो भी चर्चा हो, पर यह तो तय है कि आधी सदी के सबसे बड़े संघर्षों का इतिहास रॉबर्ट फ़िस्क की रिपोर्टों, लेखों और टिप्पणियों के बिना लिखना संभव ही नहीं है. एक अर्थ में उनकी पत्रकारिता इतिहास का पहला प्रारूप ही नहीं, बल्कि इतिहास लेखन ही है. उन्होंने अनेक किताबें लिखी हैं, जो मध्य-पूर्व, अफ़ग़ानिस्तान, आयरलैंड, अलजीरिया आदि पर विस्तृत विश्लेषण करती हैं. मध्य-पूर्व, युद्ध और पत्रकारिता पर उनकी किताब तो पत्रकारिता की सीख देने के लिए बेहद अहम है. फ़िस्क पर पिछले साल बनी डॉक्युमेंट्री ‘दिस इज़ नॉट ए मूवी’ के कनाडाई फ़िल्मकार यंग चांग ने कहा है कि बेरूत में घूमते हुए मुझे लगा कि फ़िस्क के लिए सड़क सड़क नहीं है, बल्कि इतिहास की एक जगह है, जहां इतिहास वर्तमान के साथ जुड़ता है और यह फ़िस्क की सोच का एक बहुत चेतन हिस्सा है.
आज दुनियाभर की अशांति में पश्चिमी लोकतंत्रों की विनाशकारी भूमिका के बारे में हम जो जानते हैं, उसके प्राथमिक स्रोत रॉबर्ट फ़िस्क ही हैं. उन्होंने यूरोप और अमेरिका को कभी भी कटघरे में खड़ा करने से परहेज़ नहीं किया. साथ ही, वे अरब, अफ़्रीका और अफ़ग़ानिस्तान के भीतर सक्रिय समूहों, राजनेताओं और लड़ाकों के बारे में भी गहरी पड़ताल से भरे रिपोर्ट लिख सकते थे. इस लेख के शुरू में उल्लिखित उनकी किताब की समीक्षा करते हुए न्यूयॉर्क टाइम्स में सालों पहले ईथन ब्रोनर ने उनकी आलोचना करते हुए लिखा था कि वे एक ऐसे विदेशी संवाददाता हैं, जो रिपोर्टिंग के अलावा भी कुछ करते हैं. असल में यह रॉबर्ट फ़िस्क की प्रशंसा ही है, जिनकी पत्रकारिता का यही कुछ पश्चिम के सत्ता केन्द्रों को खटकता था क्योंकि सुदूर रेगिस्तानों, गांवों और गुफ़ाओं से निकलकर उनके आख्यान को समस्याग्रस्त करता था, और आगे भी करता रहेगा.
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