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कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के हाइवे पर दौड़ने से पहले पंजाब में पेप्सी के अनुबंध में बंधे किसानों का अनुभव

केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में पास किए गए तीन कृषि क़ानूनों को लेकर देशभर में विरोध चल रहा है. केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर दावा कर रहे हैं कि इस विधेयक से किसानों की आमदनी दोगुनी ही नहीं उससे कई गुनी ज़्यादा हो जाएगी. कृषिमंत्री के इस बयान से खेती-किसानी के जानकार असहमति जता रहे हैं.

केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए क़ानूनों में से एक क़ानून देश में कॉन्ट्रैक्ट खेती का रास्ता खोल देगा. किसान इससे डरे हुए हैं और उनको लगता है कि अगर ऐसा होगा तो वे अपने ही खेतों में बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों के बंधक बनकर रह जाएंगे. जिससे कारण वे जगह-जगह प्रदर्शन कर रहे हैं. देश में कानून बनाकर भले ही पहली बार इस तरह की कॉन्ट्रैक्ट खेती की पहल की गई हो लेकिन यह पहली बार नहीं हो रहा है. पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों की सरकारें अपने-अपने स्तर पर पहले भी कॉन्ट्रैक्ट खेती का प्रयोग बड़े पैमाने पर कर चुकी हैं. जाहिरन जब केंद्र सरकार पूरे देश में इस प्रयोग को आगे बढ़ाने जा रही है तब एक बार पंजाब और गुजरात में कॉन्ट्रैक्ट खेती के प्रयोग के अनुभवों को जान लेना बेहतर रहेगा.

न्यूज़लॉन्ड्री ने पंजाब के उन किसानों को ढूंढ़ा जिन्होंने 90 के दशक में कुछ विदेशी कंपनियों के साथ कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग शुरू की थी. यह पंजाब सरकार की पहल पर हुआ था. उन्हें क्या फायदा और नुकसान हुआ इसे समझ कर हम मौजूदा कानून के समझने की दिशा में थोड़ा आगे बढ़ सकते हैं. इसे लाने का जो मकसद था, क्या वह पूरा हुआ और सरकार जो कानून ला चुकी है उसकी कितनी ज़रूरत है, जैसे सवालों पर हमने उन जिम्मेदार अधिकारियों को भी खोजा जो पंजाब और गुजरात में कॉन्ट्रैक्ट खेती लाने के लिए जिम्मेदार थे.

पंजाब में कॉन्ट्रैक्ट खेती

कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली कंपनी पेप्सिको बीते 30 सालों से पंजाब में अलग-अलग फसलों को लेकर कॉन्ट्रैक्ट खेती कर रही है. पेप्सिको साल 1988-89 में अपना प्लांट पंजाब लेकर आई थी. इसके लिए उन्होंने पंजाब सरकार के साथ एमओयू साइन किया.

जिस वक़्त पेप्सिको और पंजाब सरकार के बीच यह एमओयू साइन हुआ उस वक़्त पंजाब एग्रो इंडस्ट्रीज़ के प्रमुख आईएएस अधिकारी अमिताभ पांडे थे. पांडे बताते हैं, “पेप्सिको को भारत में अपने उत्पाद बेचने की इजाज़त एक शर्त पर मिली थी. वह शर्त ये थी कि वे जितने का उत्पादन बेचते है उसका तीन गुना कीमत का कृषि से जुड़ा उत्पाद खरीदना होगा. इसी शर्त के आधार पर साल 1989-90 में पेप्सिको ने पंजाब के होशियापुर में अपना प्लांट लगाया जहां वह टमाटर और मिर्च की खरीदारी करते थे. इसके बाद ही उन्हें देश में सॉफ्ट ड्रिंक बेचने की इजाजत दी गई. तब पिज्जा हट भी पेप्सिको का हुआ करता था. उसके लिए उन्हें कैचप वगैरा बनाना पड़ता था. जहां तक मेरी जानकारी है यह आठ नौ साल तक सही से चला लेकिन बाद में बंद हो गया. ऐसा क्यों हुआ इसकी जानकरी मुझे नहीं है.’’

अमिताभ पांडे पंजाब में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की व्यवस्था शुरू करने के पीछे की सोच का जिक्र करते हुए कहते हैं, “पेप्सिको के जरिए हमें कॉन्ट्रैक्ट खेती का मौका मिला. इसके पीछे सिर्फ एक मकसद था कि किसानों की आमदनी बेहतर की जा सके. वहीं कंपनी लगने से स्थानीय युवाओं को रोजगार भी मिलेगा. इसका शुरुआती फायदा भी हुआ. किसानों की आमदनी भी बढ़ी और रोजगार भी मिला.’’

अमिताभ पांडे के बाद पंजाब एग्रो इंडस्ट्रीज़ के प्रमुख गोकुल पटनायक बने. वे न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग किसानों और मालिकों के लिए बहुत फ़ायदेमंद है. इससे किसानों को यह भरोसा मिल जाता है कि उनके उत्पादन को कोई खरीदने वाला है. वहीं कंपनी वालों को खासकर जो प्रोसेसर है उनको पता रहता है कि इतना कच्चा माल आएगा. जैसे की पंजाब में पेप्सिको का जो प्लांट था उसे वहां दिन में छह सौ टन टमाटर चाहिए था. उससे कम होने पर भी दिक्कत आती और ज़्यादा होने पर भी. लेकिन इसके लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी होता है किसान और कंपनी के बीच का भरोसा. इसमें दोनों एक दूसरे पर निर्भर होते है.’’

पंजाब के किसान क्या कहते हैं?

पंजाब में सबसे पहले टमाटर और हरी मिर्च को लेकर पंजाब एग्रो इंडस्ट्रीज़ की शुरुआत हुई थी. लेकिन आगे चलकर यह बंद हो गया और इसकी जगह आलू की खेती होने लगी.आज भी पंजाब के कई इलाकों में किसान पेप्सिको के साथ कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कर आलू पैदा कर रहे हैं. पंजाब एग्रो इंडस्ट्रीज़ करने वाले कुछ किसान खुश है, वहीं कुछ किसान नाराज़गी जाहिर करते हैं.

गांव कनेक्शन की एक रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी शब्दों में कॉन्ट्रैक्ट खेती का मतलब संविदा पर खेती यानी किसान का खेत होगा, कंपनी-व्यापारी का पैसा होगा, वो बोलेगी कि आप ये उगाइए, हम इसे इस रेट पर खरीदेंगे, जिसके बदले आपको खाद, बीज से लेकर तकनीकी तक सब देंगे. अगर फसल का नुकसान होगा तो उसे कंपनी वहन करेगी. कोई विवाद होगा तो एसडीएम हल करेगा.

लेकिन पंजाब में अगर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की प्रक्रिया की बात करें तो किसान और कंपनियों के बीच मौखिक करार होता है. पेप्सिको को शुगर फ्री आलू की ज़रूरत होती है. ऐसे में वो किसानों को अपना बीज देते हैं जिसके बदले वे किसानों से पैसे लेते हैं. इसके अलावा किसानों की खेतों की थोड़ी बहुत देखभाल करते और कैसे बेहतर उत्पादन हो इसके गुर सिखाते हैं. इसके बाद जो उत्पादन होता है उसे खरीद लेते हैं. अगर वो उत्पादन उनके स्तर का नहीं हुआ तो वे लेने से इंकार कर देते हैं जिससे किसानों को नुकसान भी होता है.

गोकुल पटनायक बताते हैं, ‘‘शुरुआती समय में पंजाब सरकार की तरफ भी लोग पेप्सिको के साथ मिलकर किसानों को बेहतर उत्पादन के लिए टिप्स देते थे. उन्हें टमाटर का पौधा दिया जाता था. उन्हें बताया जाता था कि खेती किस तरह करें. उन्हें खाद भी उपलब्ध कराया जाता था. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में क्वालिटी भी काफी मायने रखता है. अगर क्वालिटी कंपनी के स्तर की नहीं हुई तो वे उत्पाद क्यों लेंगे. इसी लिए हमारी कोशिश रहती थी कि किसान क्वालिटी को बनाए रखें.’’

पंजाब सरकार में अधिकारी रहे और अब आलू की खेती करने वाले एमबीएस संधू आजकल चंडीगढ़ में रहते हैं और रोपड़ जिले में खेती करते हैं. वे पेप्सिको के आने और किसानों के साथ उसके कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को काफी बेहतर बताते हुए कहते हैं, ‘‘पेप्सिको के आने से पंजाब में आलू की क्रांति आई है. यहां ज़्यादातर किसान अब आलू की खेती करने लगे हैं. आलू उगाने के दो फायदे हैं. एक तो किसानों को आसानी से खरीदार मिल जाता है तो उनको तंगी की स्थिति नहीं होती वहीं दूसरा फायदा है कि आलू खेत से निकलने के बाद किसान तीसरी फसल भी उगा लेता है. परंपरागत खेती में किसान साल में दो ही फसल उगाते रहते हैं. पेप्सिको को मैं बीते कई सालों से आलू बेच रहा हूं. मुझे काफी फायदा हुआ है.’’

एक तरफ संधू जैसे बड़े और सक्षम किसान हैं जो कहते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट खेती से किसानों को फायदा ही नहीं हुआ बल्कि यहां आलू की क्रांति आई है. दूसरी तरफ ऐसे किसान भी हैं जो कहते हैं कि इससे उन्हें खास फायदा नहीं हुआ. 15 एकड़ जमीन में खेती करने वाले फतेहपुर के किसान सुनारा सिंह आज भी पेप्सिको को आलू देते हैं, लेकिन उनका कहना है कि पेप्सिको से कोई फायदा हमें नहीं मिल रहा है.

संधू के क्रांति के दावे पर सिंह कहते हैं, ‘‘कुछ नहीं होया जी. पेप्सी के जो चमचे हैं, उन्हें गेट पास आसानी से मिल जाता है, वहीं लोग उन्हें अच्छा बोलते हैं. आम जमींदार (किसान) को तो गेट पास भी नहीं देते हैं. किसी पांच किले या 10 किले वाले किसान से पूछकर देखो. उनसे तो ये सीधे मुंह बात ही नहीं करते हैं. जो बड़ा किसान है उनका माल थोड़ा खराब भी होता है तो वो जांच करने आए अधिकारियों को कुछ दे-लेकर अपना सामान बेच लेता है. अब जिसका करोड़ों का आलू बिक रहा है वो तो दो-चार लाख दे ही सकता है. लेकिन जो छोटा किसान है वह ये सब नहीं कर सकता. यहां आलू को चार जगहों पर चेक किया जाता है. कई बार आखिरी जांच में भी आलू गलत निकल जाता है और किसान को वापस लौटा देते हैं. आप देखते होंगे कि कई बार पंजाब का किसान अपना आलू सड़कों पर फेंक देता है. अगर पेप्सिको उन्हें लेता तो ऐसा क्यों होता.’’ गेट पास किसानों को आलू से लदा ट्रैक्टर कंपनी के अंदर ले जाने की लिए मिलता है.

सुनारा सिंह जो बात बता रहे हैं वही बात 500 एकड़ में खेती करने वाले हैप्पी सिंह भी बताते हैं. वे कहते हैं, ‘‘कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग उन किसानों के लिए बेहतर हैं जो बड़ी जोत में खेती करते हैं. छोटे या माध्यम किसान के लिए यह घातक है. इसके अलावा सिर्फ किसानी करने और फसल उत्पादन करने वाले किसान इसमें पिछड़ जाएंगे. इसमें वो ही किसान फायदा उठा सकते हैं जो खेती के साथ-साथ व्यापार भी करना जानते हों. मैं पेप्सी और महिंद्रा के साथ काम करता हूं. हमारे यहां माल स्टॉक करने का भी इंतज़ाम है. जब कीमत कम होती है तो अपना माल रख लेते हैं और जब कीमत बढ़ती है तो बेच देते हैं. छोटा किसान तो ऐसा नहीं कर सकता है. उसके पास माल स्टॉक करने का इंतज़ाम नहीं है. इसलिए उसे तो हर हाल में बेचना ही पड़ेगा. छोटे किसानों के लिए इस सिस्टम में नुकसान ही नुकसान है.’’

गांव कनेक्शन के डिप्टी एडिटर अरविन्द शुक्ला भी सुनारा सिंह और हैप्पी सिंह से इत्तफ़ाक़ रखते हुए कहते हैं, ‘‘इसमें कोई दो राय नहीं है कि अब तक कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से बड़े किसानों को ही फायदा हुआ है. क्योंकि जो भी कंपनी है वो चाहती है कि उसे बल्क (एक ही जगह) माल मिले और एक गुणवत्ता का मिले. भारत के ज़्यादातर किसान एक एकड़ से दो एकड़ का किसान है वो उस क़्वालिटी का उगा ही नहीं सकता है. इसलिए जो बड़े किसान हैं वो पहले भी फायदा उठा रहे थे और अभी भी उठा सकते हैं. क्योंकि उनके पास पैसे हैं और संसाधन हैं. छोटे किसान बाहर रहे हैं और आगे भी बाहर हो जाएंगे.’’

क्या कानून की ज़रूरत थी?

किसानों और उनसे जुड़े संगठनों का कहना है इस बिल में किसानों के हित से ज़्यादा कंपनियों के हित को ध्यान में रखा गया है. उन्हें डर है कि इस बिल के कारण कॉरपोरेट खेती पर हावी हो जाएंगे और किसान अपनी ही जमीन पर मज़दूर बनकर रह जाएगा. वहीं सरकार इस कानून से किसानों को फायदा होने का दावा कर रही है. सबसे बड़ा सवाल है कि क्या इस कानून की ज़रूरत थी. इस सवाल के जवाब में गोकुल पटनायक और अमिताभ पण्डे इसका जवाब ना में देते हैं.

गोकुल पटनायक कहते हैं, ‘‘मैं नहीं समझता हूं कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए किसी कानून की ज़रूरत है. क्योंकि कानून से एक तो किसान डर जाता है और कंपनी वाले भी डर जाते है. किसान कागज़ात के मामलों में डरता है कि कल को कुछ होगा तो मेरे खिलाफ शिकायत करेंगे और कंपनी को भी पता है की वे किसानों के खिलाफ शिकायत करते हैं तो लोग उसके खिलाफ में खड़े हो जाएंगे. किसान और कंपनियों के बीच भरोसा होना चाहिए. यह भरोसे का मामला है, कानून का नहीं.’’

किसानों के लिए आवाज़ उठाने वाले स्वराज इंडिया के प्रमुख योगेंद्र यादव गांव कनेक्शन से बातचीत में कहते हैं, ‘‘कॉन्ट्रैक्ट दो बराबर की पार्टियों में होता है. कानून इसलिए आता है कि वो कमजोर पक्ष को बचाए, लेकिन यह जो कानून बना है यह कमजोर पक्ष को बचाता नहीं है. यह तो दरअसल किसान को बंधुआ बनाने वाला है.’’

इस कानून को लेकर यादव तीन सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘‘पहला, इसके अन्दर कोई न्यूनतम शर्त नहीं है कि किस दाम में किसान अपनी फसल बेचे, किसी भी दाम में हो सकता है. दूसरा, किसानों के जो अपने एफपीओ हैं उसको भी कंपनी के बराबर दर्जा दे दिया गया है. तीसरा इसमें सिविल कोर्ट की कोई दखलंदाज़ी नहीं हो सकती है. अगर एसडीएम ने फैसला दे दिया तो इसमें किसान कोर्ट में भी नहीं जा सकते.’’

ज़्यादातर किसान और किसान नेता भी कानून बनने के सवाल पर ऐसा ही जवाब देते हैं. वहीं अरविन्द शुक्ला कहते हैं, ‘‘ऐसा कहना गलत है कि इस कानून की कोई ज़रूरत नहीं थी. इसमें कुछ सुधार की संभावना तो ज़रूर है जिसकी तरफ किसान भी ध्यान दिला रहे हैं. किसान से बात करने पर वे यह नहीं कहते कि कानून गलत है वे भी कहते हैं इसमें कुछ और चीजें जुड़नी चाहिए थीं.’’

शुक्ला कानून की ज़रूरत का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘‘कल को आपने कोई फसल कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए उगाया और वो कंपनी माल उठाने नहीं आई तो किसान उसे कैसे पकड़ेगा? फसल बर्बाद हो गई इसकी जिम्मेदारी किस पर होगी. ऐसे में किसानों के पास लिखित कागज तो होगा. वहीं दूसरी तरफ कंपनी की नजर से देखें तो भी कानून की ज़रूरत है क्योंकि कल को अगर कहीं बवाल होता है तो वो भी चाहेंगे की नियम के तहत जाए. हमारे पास संविधान है, भले ही उसका कम या ज्यादा पालन होता है लेकिन उसका होना ही ताकत है. ऐसे ही इस कानून का होना किसानों को ताकत देगा.’’

अमिताभ पांडे कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के सफल होने और इससे किसानों और कंपनी दोनों को फायदा होने के सवाल पर कहते हैं, ‘‘जो कंपनी यह सोचकर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करेगी कि कुछ सालों के लिए काम करके मुनाफा कमा लेंगे तो ऐसे में न तो किसानों का फायदा होगा ना ही कंपनी को. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग सफल हो इसके लिए उस कंपनी की ज़रूरत होती है जो लॉन्ग टर्म फायदे को लेकर काम करे. हालांकि भारत की ज़्यादातर कंपनियां ऐसा नहीं करती हैं. इसीलिए उस वक्त हमने पेप्सी को चुना था क्योंकि उन्हें अपना पेय पदार्थ बेचने की ज़रूरत थी और उसके लिए शर्तें थी.’’

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