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क्या ‘सार्वभौमिक मास्किंग’ कोरोनावायरस के एक ‘अनगढ़ टीके’ की तरह काम करती है?

दुनिया आज एक सुरक्षित और प्रभावी कोरोनावायरस टीके के आने का इंतजार कर रही है. इसी सिलसिले में शोधकर्ताओं के एक दल ने एक उकसाने वाली नयी थ्योरी पेश की है, कि फेस-मास्क (मुखौटा) वायरस के खिलाफ लोगों को प्रतिरक्षित करने में मदद करता है. न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ़ मेडिसिन में पिछले दिनों प्रकाशित एक टिप्पणी में छपा एक अप्रमाणित विचार जो कि ‘वेरिओलेशन’ की पुरानी अवधारणा से प्रेरित है. इसके अनुसार सुरक्षात्मक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के लिए किसी रोगजनक जरासीम (विषाणु,कीटाणु या कवक इत्यादि) को जानबूझकर किसी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में इंजेक्ट किया जाए. इसका उपयोग इतिहास में सबसे पहले चेचक के वायरस के खिलाफ किया गया था. ये निहायत जोखिम भरा प्रयोग था इसीलिए अंततः इसे दूसरे सक्रामक रोगों के लिए दोबारा प्रयोग नहीं किया गया, लेकिन इस प्रयोग ने आधुनिक टीकों के उदय का मार्ग प्रशस्त किया था.

ये ज़ाहिर सी बात है कि प्रतिरक्षा प्राप्त करने के लिए मास्क में रहकर वायरस की सीमित मात्रा प्राप्त करना कोई विकल्प नहीं हैं. लेकिन कोरोनोवायरस से संक्रमित जानवरों के शोध परिणाम तथा अन्य छूत की बीमारियों पर किये गए परीक्षण इसका सुझाव देते हैं, कि यदि बीमारी फैलने वाले जरासीम (विषाणु, जीवाणु इत्यादि) की मात्रा को कम कर दिया जाए, तो गंभीर बीमारी होने की सम्भावना भी कम हो जाती है. इसी तरह मास्क, किसी भी व्यक्ति के वायुमार्ग से मुठभेड़ करने वाले कोरोनावायरसों की संख्या में कटौती कर देता है, और इसे पहनने वाले के बीमार होने की संभावना या तो कम हो जाती है, और या तो वो बस आंशिक रूप से बीमार पड़ता है.

शोधकर्ताओं का तर्क है कि सीमित मात्रा में रोगकारक-जरासीम शरीर की प्रतिरक्षा कोशिकाओं के उत्प्रेरक की तरह काम कर सकता है. हमारे प्रतिरक्षा-तंत्र की वायरस के साथ इस तरह की सीमित मुठभेड़, उसकी ‘यादाश्त’ में क़ैद हो जाती है, और अगली बार हमारे शरीर पर जैसे ही रोगकारक-जरासीम का हमला होता है, तो हमारी प्रतिरक्षा तंत्र पहले से ही चाक-चौबंद रहती है, और उस रोगकारक-जरासीम को पटखनी दे देती है. "आपके पास यह वायरस हो सकता है लेकिन स्पर्शोन्मुख (बिना लक्षण वाला) हो सकता है". डॉ मोनिका गांधी ने बताया जो कि कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, सैन फ्रांसिसको में एक संक्रामक रोग चिकित्सक हैं, और न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ़ मेडिसिन के लेखकों में से एक हैं तो. "अगर आप मास्क के साथ स्पर्शोन्मुख संक्रमण (गंभीर रोगियों के मुकाबले) की दरों को बढ़ा सकते हैं, इसलिए शायद यह (सार्वभौमिक मास्किंग) पूरी आबादी को सीमित संक्रमण करने का एक तरीका हो सकता है".

इसका मतलब यह बिलकुल भी नहीं होगा कि लोगों को जानबूझकर वायरस के साथ खुद को टीका लगाने के लिए एक मास्क दान करना चाहिए. "यह बिल्कुल भी हमारी सिफारिश नहीं है. डॉ गांधी ने फिर कहा कि हम ‘पोक्स पार्टियों’ को प्रोत्साहित नहीं करते हैं. उन्होंने चेचक के इतिहास में होने वाले ऐसे सामाजिक समारोहों का ज़िक्र करते हुए कहा कि जिनमें प्रतिरक्षा उत्प्रेरित करने के लिए बच्चों के बीच जानबूझकर संक्रामक बीमारी को फ़ैलाया जाता था, उन्हें आज के युग में अनैतिक माना जायेगा. क्लिनिकल ​​परीक्षणों के बिना इस सिद्धांत को सीधे साबित नहीं किया जा सकता है, हालांकि, इसके लिए हमें उन समारोह जैसे ही अनैतिक प्रयोगात्मक सेट-उप की आवश्यकता होगी, जिनमें मास्क लगाने वाले ऐसे लोगों के परिणामों की तुलना करनी पड़ेगी जो कोरोनोवायरस की उपस्थिति में दूसरे बिना मास्क वाले लोगों से अर्जित किया जायेगा. अन्य विशेषज्ञों से पूछे जाने पर वे बिना बड़े आंकड़ों के इसे पूरी तरह से स्वीकार करने के अनिच्छुक दिखे, और उन्होंने इसकी सावधानीपूर्वक व्याख्या करने की सलाह दी.

एरिज़ोना में स्थित एक संक्रामक रोग महामारी विज्ञानी सस्किया पोपेस्कु ने कहा कि यह एक विस्मयकारी छलांग जैसा लगता है. हमारे पास इसका समर्थन करने के लिए बहुत कुछ नहीं है. इस फ़लसफ़े का गलत अर्थ निरूपण विचार शालीनता के साथ एक झूठ का भाव पैदा कर सकता है, संभवतः लोगों को पहले से अधिक जोखिम में डाल सकता है, या शायद गलत धारणा को भी बढ़ा सकता है कि कोरोनावायरस से बचने के लिए मास्क लगाना पूरी तरह से बेकार है, क्योंकि इसे पहनने के बावजूद ये विषाणुं आपके श्वसनतंत्र में दाख़िल होता है, इसका मतलब मास्क अपने आप में संक्रमण के लिए अभेद्य सुरक्षा कवच नहीं हैं. हम अभी भी चाहते हैं कि लोग अन्य सभी (बताई गयी) रोकथाम रणनीतियों का पालन करें.

डॉ पोपेस्कु ने आगे कहा कि इसका मतलब है कि भीड़-भाड़ वाली जगहों में जाने से बचना, शारीरिक दूरी और हाथ की स्वच्छता के बारे में सतर्क रहना. कोरोनोवायरस ‘वेरिओलेशन’ सिद्धांत की दो मान्यताओं पर टिका हुआ है जिनको साबित करना बहुत मुश्किल है- इनमे से पहला है कि वायरस की कम खुराक से कम गंभीर बीमारी होती है. और दूसरा, यह कि ये हल्की या स्पर्शोन्मुख (बिना लक्षण वाली) बीमारी के बाद, उसके खिलाफ लंबे समय तक सुरक्षा प्रदान कर सकता है. हालांकि अन्य रोगजनकों का महामारी- इतिहास, दोनों अवधारणाओं के लिए कुछ मिसाल ज़रूर पेश करता है, लेकिन इस परिपेक्ष्य में कोरोनोवायरस के लिए सबूत अभी बहुत कम हैं, क्योंकि वैज्ञानिकों को अभी तक केवल कुछ महीनों के लिए ही इस वायरस का अध्ययन करने का अवसर मिला है.

हैमस्टर (चूहों की प्रजाति का एक जानवर) पर किये गए कोरोनावायरस प्रयोगों ने खुराक और बीमारी के बीच संबंध पर कुछ संकेत भले ही दिये हैं. इस साल की शुरुआत में चीन में शोधकर्ताओं की एक टीम ने पाया कि सर्जिकल मास्क से बानी रुकावट के पीछे हैमस्टर्स को रखने पर कोरोनावायरस से संक्रमित होने की संभावना दर कम मापी गयी. और उनमें से जिन जानवरों को वायरस का संक्रमण हुआ भी उनकी बीमारी के लक्षण बिना मास्क वाले अन्य जानवरों की तुलना में बहुत कम गंभीर और हल्के पाए गए.

मनुष्यों में भी अवलोकन करने पर इस प्रवृत्ति का समर्थन मिलता है. भीड़-भाड़ वाली जगहों में जहां मास्क का व्यापक उपयोग होता है, संक्रमण की दर घट जाती है. हालांकि ये एक तथ्य है कि मास्क सौ फीसदी वायरस कणों को ब्लॉक नहीं कर सकते हैं, लेकिन वे बीमारी कम करने या लक्षणों को कम गंभीर करने से जुड़े हुए प्रतीत होते हैं.

शोधकर्ताओं ने बड़े पैमाने पर बिना लक्षण वाले रोग रहित संक्रमणों ​​को क्रूज जहाज़ों से लेकर खाद्य प्रसंस्करण संयंत्रों तक चिन्हित किया है. ज्यादातर इन सभी जगहों पर ‘सार्वभौमिक मास्किंग’ का कठोरता से पालन होता है. मिसाल के तौर पर इसके सबूत डायमंड प्रिंसेस क्रूज जहाज़ और अर्जेंटीना में एक दूसरे जहाज़ के तुलनात्मक अध्ययन से मिलते हैं. डायमंड प्रिंसेस क्रूज में केवल 18% यात्री स्पर्शोन्मुख थे जबकि अर्जेंटीना वाले जहाज़ में सार्वभौमिक मास्किंग के परिणामस्वरूप 81% (217 यात्रियों और कर्मचारियों में से 128) संक्रमित स्पर्शोन्मुख पाए गए थे.

ऐसा ही एक और दूसरा अध्ययन भी इस ओर इंगित करता है. ओरेगन में एक सी-फ़ूड प्रसंस्करण संयंत्र में सार्वभौमिक मास्किंग पूरी तरह से संक्रमण को रोक नहीं पायी थी लेकिन कुल 124 लोगों में से जो संक्रमित पाए गए थे, उनमें से 95% स्पर्शोन्मुख थे. इसी तरह अरकंसास में टायसन मांस संयंत्र में मास्किंग के उपयोग से वर्कर्स में पाए गए संक्रमितों में से 95% स्पर्शोन्मुख थे. पारिस्थितिक साक्ष्य कई दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से भी आते हैं. जिन्होंने महामारी की शुरुआत से ही सार्वभौमिक मास्किंग को अपनाया था. वहां से संक्रमण दर एवं मृत्यु दर दोनों ही रिपोर्ट की गयी है.

अन्य रोगाणुं से भी जैसे इन्फ्लूएंजा वायरस और तपेदिक (ट्यूबरक्लोसिस) का बैक्टीरिया जो की मनुष्यों में स्नायु-मार्ग और फेफड़ों का संक्रमण करते हैं. लक्षणों को खुराक से जोड़ने वाले शोध से मिले आंकड़े भी इसी तरफ इशारा करते हैं.

दशकों के शोध के बावजूद, हवा-जनित सक्रमणो की क्रियाविधि काफी हद तक एक ब्लैक बॉक्स के सामान है. ज्योति रेंगराजन ने कहा कि वे एमोरी विश्वविद्यालय में टीके और संक्रामक रोग की एक विशेषज्ञ हैं. यह बिल्कुल सही-सही बता पाना कि किसी व्यक्ति को बीमार कर देने के लिए कम-से-कम आवश्यक संक्रामक जीवाणुओं की ख़ुराक़ कितनी होनी चाहिए-असंभव सा है. इसलिए ये निर्धारित करना की उस खुराक से कम जीवाणुं ही उस व्यक्ति के अंदर जाएं ये बहुत जटिल है - डॉ रेंगराजन ने बताया. यहां तक ​​कि अगर शोधकर्ता अंततः एक औसत खुराक पर एक मत हो भी जाते हैं तो इन परीक्षणों में परिणाम एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में अलग-अलग होंगे.

क्योंकि उनकी आनुवांशिकी, प्रतिरोधक क्षमता और उनके स्नायु मार्ग और फेफड़ों की वास्तुकला सभी अलग हो सकते हैं. और ये सब कारक मिलकर ये तय करते हैं कि वायरस श्वसन पथ को कितनी गंभीरता से उपनिवेशित कर सकेगा. ‘वेरिओलेशन’ के सिद्धांत की पुष्टि के लिए मास्क प्रतिरक्षा प्रणाली को उत्प्रेरित करने के लिए सिर्फ पर्याप्त वायरस की मात्रा ही मास्क को भेद कर प्रवेश करने दें. इसका विनियमन करना बहुत मुश्किल हो सकता है. हालांकि कई हालिया अध्ययनों ने इस संभावना की ओर इशारा किया है कि कोविड -19 के हल्के मामले कोरोनोवायरस के लिए एक मजबूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को उत्प्रेरित कर सकते हैं. टिकाऊ सुरक्षा तब तक साबित नहीं हो सकती है जब तक कि शोधकर्ता बीमारी के ख़त्म होने के बाद भी महीनों या वर्षों तक संक्रमण पर डेटा एकत्र न कर लें, और उन परिणामों से अंतिम निष्कर्ष न निकाल लें. कुल मिलाकर इस सिद्धांत में कुछ गुण हैं कोलंबिया विश्वविद्यालय की एक वायरोलॉजिस्ट एंजेला रासमुसेन ने कहा. लेकिन मैं अभी भी इसको लेकर बहुत संशय में हूं.

यह याद रखना महत्वपूर्ण है. उन्होंने कहा कि आधुनिक युग के टीके वास्तविक संक्रमणों की तुलना में स्वाभाविक रूप से कम खतरनाक हैं. यही वजह है कि अंत में ‘वेरिओलेशन’ (कभी-कभी जिसको ‘इनोक्यूलेशन’ भी कहा जाता है) जैसी प्रथाएं पुरानी हो गईं हैं और इनका उपयोग अब नहीं होता. आधुनिक टीकों की खोज से पहले पुराने चिकित्सक चेचक संक्रमण के रोगियों के दागों या मवाद के टुकड़ों को स्वस्थ लोगों की त्वचा में रगड़ दिया करते थे. जिसके परिणामस्वरूप होने वाले संक्रमण आमतौर पर चेचक के गंभीर मामलों की तुलना में बहुत कम लक्षण वाले होते थे. लेकिन उनमे से बहुत से स्वस्थ लोग इसके

परिणामस्वरूप निश्चित रूप से चेचक के शिकार हो गए, और ‘वेरिओलेशन’ के द्वारा मारे गए, डॉ रासमुसेन ने आगे कहा. और ‘वेरिओलेशन’, टीकों के विपरीत, लोगों को दूसरे स्वस्थ लोगों के लिए संक्रामक भी बना सकते हैं.

डॉ. गांधी ने इन सीमाओं को स्वीकार किया और कहा इसे एक सिद्धांत से ज़्यादा और कुछ नहीं माना जाना चाहिए. उन्होंने फिर कहा कि जब तक हम वास्तविक टीके का इंतजार कर रहे हैं, तो क्यों न इसका (सार्वभौमिक मास्किंग) कठोरता से पालन करवाया जाए और लोगों की प्रतिरक्षा को उत्प्रेरित करने की सम्भावना को बढ़ाया जाये?

लेखक बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्विद्यालय, (केंद्रीय विश्विद्यालय), लखनऊ, में बायोटेक्नोलॉजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.

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