Newslaundry Hindi
क्या नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के लक्ष्य प्राप्त किए जा चुके हैं?
खेती से जुड़े तीन महत्वपूर्ण विधेयक संसद के उच्च सदन में विवादित ढंग से पारित करवाए गए. सत्तारूढ़ दल के पास पर्याप्त संख्या न होने पर भी तमाशे के बीच ध्वनि मत का ढकोसला रचा गया और विपक्ष की आवाज़ को महत्वहीन बना दिया गया. यह कानून किसानों और देश की खाद्य संप्रभुता के लिए जितना नुकसानदेह है उससे कहीं ज़्यादा नुकसानदेह देश की संसद के उच्च सदन में हुई मनमानी कार्यवाही है.
कई प्रदेशों के किसान इन क़ानूनों को लेकर तभी से आंदोलनरत हैं जब इन्हें अध्यादेशों के रूप में लाया गया था. जून से ही इन अध्यादेशों का विरोध जागरूक किसान कर रहे हैं. उनकी आवाज़ कोरोना के डर में सतह पर सुनाई नहीं दी. जिन्हें सुनना था और देश को सुनाना था वो फर्जी बहसों में मुब्तिला थे. जिन्हें नहीं सुनना था उन्होंने सुनकर भी नहीं सुना. बहरहाल, अब यह कानून देश के राष्ट्रपति की औपचारिक अनुशंसा के लिए भेजा जा चुका है. किसानों की शंकाएं, उनके डर ज्यों के त्यों बने हुए हैं. विपक्ष ने हाल के समय में लगभग पहली दफा बेहद आक्रामक रुख अख़्तियार किया. हालांकि इसे लेकर यह भी कहा जा रहा है इतना हंगामा करके कुछ हासिल न होना कहीं किसी पूर्व निर्धारित स्क्रिप्ट का हिस्सा तो नहीं लेकिन जो दिखलाई पड़ रहा है उससे विपक्ष को लेकर कम से कम अकर्मण्यता या कमजोर होने का भ्रम थोड़ी देर के लिए स्थगित किया जा सकता है.
इन क़ानूनों को लेकर विरोध और आपत्तियों का शातिराना ढंग से सरलीकरण कर दिया गया है. ऐसे बताया जा रहा है कि महज़ अब तक चलन में रही मंडी व्यवस्था और न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर ही किसानों की नाराज़गी है. तमाम आपत्तियों और शंकाओं को केवल एक वजह में सीमित कर देना कि इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी नहीं है इन क़ानूनों की भावभयताओं का महज़ एक छोटा चित्रण है. ज़रूरत है इस पूरे परिदृश्य और इसके पीछे वैश्विक नियंताओं की मुसलसल कोशिशों को समझने की.
केवल यह कहना भी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी न करके सरकार किसानों की नाराजगी का जोखिम उठा रही है और इस कानूनों की शक्ल में वह किसानों की मृत्यु के दस्तावेज़ तैयार कर चुकी है जिसे संसद में विपक्ष के कई सांसदों ने किसानों का डेथ वारंट कहा है, उस बड़ी तस्वीर को देखने से इंकार करने जैसा है. ‘काला कानून’ कह देने से या ‘संसद के लिए काला दिन’ कह देने से भी सामासिक लोकतन्त्र की हत्या ही होती है लेकिन यह औपनिवेशिक अनुकूलन और सामंतवाद के जड़ अवशेष हैं जो जाते-जाते जाएंगे शायद. ज़रूर इन अलग अलग क़ानूनों का मूल स्वर किसान विरोधी और विशुद्ध रूप से कारपोरेट हितैषी है. बल्कि ये कानून तलाक के कागज़ हैं जिसे सरकार रूपी पति ने अपनी पत्नी को आत्मनिर्भर बनाने और उसके बेहतर भविष्य के लिए उसे थमाए हैं. इसमें अगर एक विवाहेत्तर संबंधों का कोण भी शामिल कर दें तो यह सब एक पति ने पूरे होशो हवास में कारपोरेट रूपी प्रेमिका की खातिर किया है. इस एनालोजी या अपरूपता में किसी को हल्कापन लग सकता है लेकिन अपने ऊपर आश्रित और कानूनी रूप से आपके साथ सामाजिक संविदा में आबद्ध किसी भी रिश्ते में इस कदर दिये गए धोखे को शुद्ध भारतीय संदर्भों में शायद ऐसे ही समझा और समझाया जा सकता है.
इन क़ानूनों को सबसे पहले समग्रता में देखना चाहिए और हर कानून की एक एक धारा की व्याख्या करने के अनावश्यक छल-प्रपंच से भी बचना चाहिए. और यही तीन कानून क्यों? इसके साथ हमें नोटबंदी और जीएसटी से लेकर नई शिक्षा नीति, व्यावसायिक कोल माइनिंग, सरकारी उपक्रमों के बेतहाशा निजीकरण, श्रम क़ानूनों में संशोधन, ग्रामीण स्वामित्व योजना, भूमि संबंधी दस्तवाज़ों के डिज़टलीकरण, पर्यावरण प्रभाव आकलन की बाध्यताओं को कमजोर किये जाने और विदेशी अनुदान, से जुड़े एफसीआरए को भी इसी डिजाइन के तहत देखना चाहिए. आखिर ये सारे कदम अलग-अलग सेक्टर्स में आमूलचूल सुधारों के लिए ही उठाए गए थे. आप चाहें तो आधार कार्ड, यूएपीए जैसे निगरानी मूलक और इन सब को ऐसे देखना चाहिए कि इस सरकार के ऊपर भी कोई सत्ता है जो एक चेकलिस्ट लेकर बैठी है. जिसे तैयार किया है दुनिया को चलाने वाले उस वर्ग ने जिन्होंने पूरी दुनिया में अपने हितों की पूर्ति के लिए कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं बनायीं.
नब्बे के दशक के बाद दुनिया के अधिकांश देशों में अपने लिए मुफीद सरकारें बनवाईं और सरकार के दायित्वों में पहली प्राथमिकताओं में अपने कामों की सूची थमाई. यह सरकार इस दिशा में सबसे बेहतर काम कर रही है और अपने इन आकाओं द्वारा दी गयी चेक लिस्ट के आधार पर एक के बाद एक काम करती जा रही है. आका खुश होकर उस चेक लिस्ट पर टिक मार्क करते जा रहे हैं.
इन क़ानूनों को सुधार कहा जाता है. ऐसे सुधार जिनके बारे में सारा मार्गदर्शन विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, जी8, सार्क, ब्रिक्स और इनसे भी ज़्यादा कई ऐसी ऐसी संस्थाएं जो सीमित उद्देश्य के लिए बनाई गयी हैं. बेटर देन कैश एलायंस ऐसी ही एक संस्था वजूद में आयी जिसकी भूमिका नोटबंदी कें सदर्भ में देखी जाती है. कोरोना से निपटने के संकेत बिल गेट्स से जुड़ी संस्थाएं अलग-अलग नामों से भारत सरकार को मार्गदर्शन दे रही हैं. न केवल भारत बल्कि कई विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं को सुधारने के संकल्प इन्हीं स्रोतों से आए हैं. उदार, वैश्विक, निजी, सक्षम (इफिशिएंट), टीना (डेयर इज़ नो ऑल्टरनेटिव) जैसे एक से एक शानदार मुहावरे दुनिया के तेज़ और शातिर दिमागों की उपज हैं.
इन तमाम शहदमिले शब्दों का कुल तय हासिल यही रहा कि एक संप्रभु राष्ट्र का काम सुधार के इन निगमीकृत कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाना रह गया है. एक संप्रभु, स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य की तमाम शक्तियों का उपयोग करते हुए नीति-निर्धारण करते वक़्त कारपोरेट्स से सिफ़ारिशें लेना और महज़ एक मध्यस्थ यानी फेसिलिटेटर के तौर पर तटस्थ भाव से उस एजेंडे को लागू करवाना जो निर्वाचित सरकार के तौर पर करना लोकतंत्र में कठिन माना जाता था.
लोकतंत्र की अच्छी सेहत के एक हजार पैमाने नहीं हैं बल्कि केवल और केवल एक पैमाना है और वो ये कि एक निर्वाचित सरकार के तौर पर संप्रभु राष्ट्र-राज्य के सर्वस्वीकृत संविधान की स्थापनाओं और उद्देश्यों को लेकर किस हद तक तमाम हितधारकों के साथ संवाद करती है. और यह पहल खुद सरकार की तरफ से होती है या नहीं? कोई सरकार महज एक कार्यकाल से आबद्ध है और वह ऐसे फैसले या नीतियां नहीं बना सकती जिनके प्रभाव-दुष्प्रभाव को भविष्य में सुधारा न जा सके. इस लिहाज से मौजूदा सरकार एक से दस के पैमाने पर सिफर पर खड़ी नज़र आती है. यह मनमनापन, अहंकार या अहमन्यता नहीं है बल्कि एक तयशुदा कार्यक्रम का हिस्सा है. यह सरकार ठीक वही और वैसे ही कर रही है जिसके लिए उसे बनाया गया है.
पिछली यूपीए सरकार और इसमें इस लिहाज से यही एक गुणात्मक अंतर है कि आकाओं की मंशा को शिरोधार्य करते हुए भी जनता के प्रति संविधान की मर्यादाओं से वह अंत तक बंधी रही. यह सारे धतकर्म करने की पहले भी चर्चा हुई, विधेयक बने, मसौदे बंटे लेकिन जनता के विरोध का सम्मान हुआ, परामर्श हुए, संवाद स्थापित हुआ. अपने ही आकाओं को नाराज़ किया. वो चेक लिस्ट लिए बैठे तो रहे लेकिन टिक मार्क न लगा पाये.
इसी अकर्मण्यता से उपजी बौखलाहट ने देश को नरेंद्र मोदी नाम का ऐसा मजबूत फेसिलिटेटर दिया जिसका दिल पत्थर से बना हुआ है और दिमाग के सारे तार रोबोटिक्स की तरह इन आकाओं के हाथों में हैं. 2014 और 2019 के आम चुनावों में जो धुआंधार पैसा खर्च हुआ, मीडिया को अपनी गिरफ्त में लिया गया, सोशल मीडिया को लोगों के दिमाग केलिबेरेट करने में बड़े पैमाने पर लगाया गया उसका परिणाम इसी तरह के क़ानूनों के निर्माण में होना तय था. इसलिए जब हर एक्सट्रीम को कांग्रेस की पहलकदमी कह दिया जाता है तो महज़ कहने तक तो ठीक है लेकिन इसे मान लेने से पहले उन कारणों की पड़ताल भी कर लेना चाहिए कि जब पहलकदमी ली ही थी तो अंजाम तक पहुंचाने में कौन से कारण बाधा बन गए और यहां हम पाते हैं कि एक बारीक अंतर जो हालांकि लोकतंत्र के लिए एक बड़ी मर्यादा बन जाता है और वो ये कि वहां अपने संविधान और उसकी शक्ति का स्रोत जनता के लिए थोड़ी इज्ज़त थी. आंख में इतना पानी तो था कि उससे शर्म का एक आंसू टपक सकता था. बहरहाल.
अभी भी इस सरकार द्वारा लाये गए विभिन्न क़ानूनों, संशोधनों, नीतियों में में तानाशाही की उत्तेजना नज़र आ रही है तो एक नज़र उन सफेदपोश संस्थाओं की तरफ देखना ज़रूरी हो जाता है जिनके इशारों पर ये सब हो रहा है. ये सारे कदम लंबी समयावधि में उठाए गए लेकिन सही मौका कोरोना लेकर आया है और देश दुनिया के कई जानकार यह कहते पाये जा रहे हैं कि इस महामारी के बहाने दुनिया का पूंजीवाद अपनी केंचुल बदल रहा है. यह न्यू वर्ल्ड ऑर्डर रच रहा है.
जब कोरोना से भय की समाप्ति की आधिकारिक घोषणा होगी तब तक दुनिया पूरी तरह बदल चुकी होगी या इसके उलट जब पूंजीवाद लंबी अवधि के लिए अपने मुताबिक दुनिया को बदल लेगा उसी दिन कोरोना के भय से समाप्ति की आधिकारिक घोषणा कर दी जाएगी. तब तक हमारे हिस्से एक से बढ़कर एक खतरनाक नीति-नियमों के मसौदे लाये जाते रहेंगे और हम उनकी धारा, उपधारा की व्याख्या करते रहेंगे. अलग- अलग वर्ग अपने-अपने हिस्से के क़ानूनों पर आंदोलित होते रहेंगे और सरकार इसी तरह उनके आंदोलनों को विपक्ष की कारस्तानी बताते रहेंगे. मीडिया अपने आकाओं के कहे अनुसार अपना काम करती रहेगी.
अब इन नए क़ानूनों पर एक नज़र पुन: डालें और पीछे कही गयी बातों को ध्यान में रखें तो इतना तय है कि ये कानून किसानों के लिए नहीं हैं अलबत्ता उनके मार्फत दुनिया के आकाओं द्वारा बनाई गयी संस्थाओं के निर्देशों का पालन ज़रूर किया जाएगा. किसान यहां टार्गेट हैं क्योंकि वो उन संसाधनों पर बैठे हैं जिन्हें हासिल किए बिना दुनिया का पूंजीवाद लंबा नहीं चल सकता. कोरोना काल में पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को धक्का लगा है या धक्का पहले लग चुका था. तोहमत देने के लिए कोरोना जैसे किसी अमूर्त दानव को ईज़ाद किया गया है जैसे कुछ दशक पहले आतंकवाद नाम के अमूर्त दानव को ईज़ाद किया गया था और पूरी दुनिया को जबर्दस्त इस्लामोफोबिया की गिरफ्त में लाकर उस समय के लिए ज़रूरी कदम उठा लिए गए थे.
हमें समझना चाहिए कि सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने से कोई गुरेज़ नहीं है बल्कि आज तो आगे बढ़कर घोषणा भी कर दी गयी. कुछ सालों तक एमएसपी जारी रखना भी घाटे का सौदा नहीं है. अगर विरोध बढ़ता है तो यह मुमकिन है कि सरकार कानून में संशोधन भी कर देगी. लक्ष्य है मनुष्य की बुनियादी जरूरतों पर कारपोरेट का एकछत्र कब्जा. इस मृत्युलोक पर जब तक इंसान रहने वाला है उसे पानी, भोजन की ज़रूरत जिंदा रहने के लिए चाहिए. इसके बाद बेहतर ज़िंदगी जीने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं चाहिए, बिजली, परिवहन और मनोरंजन इक्कीसवीं सदी के मनुष्य की एक ज़रूरत है. शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, परिवहन और मनोरंजन पर सरकारों का कितना नियंत्रण बचा है हम देख रहे हैं. धीरे धीरे यह उनके सुपुर्द किए जा चुके हैं या आगामी दस वर्षों में किए जा चुके होंगे. पानी और भोजन (अन्न) और इनके स्रोतों पर कब्जे के ये कानून हैं जिनका विरोध केवल इस बिना पर नहीं किया जा सकता कि इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी नहीं है.
पूंजीवाद की एक आम परिभाषा सामाजिक संबंधों को लेकर भी की जाती है. ये तीन कानून सामाजिक संबंध, विशेष रूप से ग्रामीण भारत में हमेशा हमेशा के लिए बदल देने के कानून हैं. हमने देखा है खेती में मशीनीकरण के बाद कैसे गांव के सामाजिक संबंध जो पूरी तरह कृषि आधारित थे और जिनकी हिस्सेदारी उत्पादन की प्रक्रिया में रहती थी और जिन्हें उस उत्पादन का अंश मिलता था वो कैसे खत्म हुआ है?
दूसरा पहलू कृषि के उद्देश्य यानी ‘मोड ऑफ प्रोडक्शन’ को पूरी तरह बदल देने के लिए भी इन क़ानूनों को लाया गया है. खाद्य प्रसंस्करण जो कभी इस कृषि आधारित व्यवस्था में एक सह-उत्पाद की भूमिका में थे उन्हें मुख्य हितग्राही के तौर पर पेश किया गया है. इन क़ानूनों के बाद से कृषि अनिवार्य तौर पर कच्चा माल पैदा करने का उद्यम हो जाने वाला है. खेती से किसान अब अपना पेट नहीं बल्कि बाज़ार के लिए मुनाफा भरेगा. किसान क्या उगाएगा, कैसे उगाएगा और क्यों उगाएगा जैसे बुनियादी निर्णय अब उसके अख़्तियार में नहीं रहने वाले. अनुबंध खेती में प्रमुख बात है ‘अनुबंध’, खेती बहुत गौण है.
विश्व बैंक ने 2007 में भारत के लिए भूमि-सुधार की रणनीति तैयार की थी. वह रिपोर्ट अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं और असल में वही एक चेकलिस्ट है जिस पर टिक लगाई जा रही है. बीते 13 सालों में नीतियों और क़ानूनों में किए गए संशोधनों को अगर गौर से देखेंगे और इनका मिलान इस रिपोर्ट की पृष्ठ संख्या 62 में दिये गए सुझावों से करेंगे तो हम पाएंगे कि एक-एक निर्देश का पालन शब्दश: किया गया है.
हमें इस भरोसे को भूल जाना चाहिए कि अब भारतीय गणराज्य में एक चुनी हुई सरकार है और जो जनादेश के आधार पर काम करती है. जनता को हर बात पर इल्ज़ाम देना भी इसलिये ठीक नहीं है क्योंकि उसकी पहुंच इन अदृश्य ताकतों तक नहीं है. लड़ाइयां अब स्थानीय नहीं रहीं हैं, प्रांतीय भी नहीं और राष्ट्रीय भी नहीं. ‘विश्वग्राम’ के असल मतलब को समझने का वक़्त आ पहुंचा है जहां कोई ग्राम या गांव तो है लेकिन उसे पारंपरिक नक्शों में तलाश करना जटिल काम है.
Also Read
-
BJP’s ‘Bangladeshi immigrants’ claim in Jharkhand: Real issue or rhetoric?
-
Newsance 274: From ‘vote jihad’ to land grabs, BJP and Godi’s playbook returns
-
क्या महायुति गठबंधन की नैया पर लगा पाएगी 'लाड़की बहीण योजना'?
-
Who owns Shivaji’s legacy? The battle over Maharashtra's icon
-
In Vidarbha, not everyone’s enthusiastic about Mahayuti’s Ladki Bahin scheme