Newslaundry Hindi
नस्लवाद: भूल सुधार का वक्त
हम दशकों पहले ये बात जान चुके हैं कि नस्ल कोई जैविक सच्चाई नहीं है. आज हम विभिन्न नस्लों के वर्गीकरण का जो तरीका इस्तेमाल करते हैं, वो तरीके कई शताब्दियों पहले काफी मनमाने ढंग से ईजाद किए गए थे. ये तरीके मानवीय भिन्नताओं की बिल्कुल गलत व्याख्या करते हैं. असल में कोई “काला” या “गोरा” जीन नहीं होता. लगभग सभी तरह की आनुवंशिक भिन्नताएं, जो हम मनुष्यों के बीच देखते हैं, वह व्यक्तिगत स्तर पर मौजूद है. व्यक्ति से व्यक्ति के बीच अलग-अलग. यह जनसंख्या के स्तर पर भिन्न नहीं होता है. वास्तव में, विभिन्न समुदायों (जनसंख्या) के बीच की तुलना में किसी एक समुदाय (जनसंख्या) के बीच कहीं अधिक आनुवांशिक विविधता पायी जाती है.
लेकिन कई शताब्दियों तक पश्चिमी विज्ञान पर संभ्रांत गोरे लोगों के कब्जे का परिणाम है यह व्याख्या. 18वीं शताब्दी में, पश्चिमी दुनिया में जब ज्ञान का प्रचार-प्रसार तेजी से होने लगा तब लोगों के बीच एक आम धारणा थी कि महिलाएं और अन्य “नस्लें” बौद्धिक रूप से असमर्थ होते हैं. नस्लवाद को शुरू से ही विज्ञान में उलझा दिया गया और इसी आधार पर पश्चिमी वैज्ञानिकों ने सदियों से मानव भिन्नताओं का अध्ययन किया.
उन्होंने “रेस साइंस” (नस्ल विज्ञान) का आविष्कार किया. इस बेबुनियाद, दिखावटी वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल औपनिवेशिक व्यवस्था, दासता, नरसंहार और लाखों लोगों के साथ दुर्व्यवहार को जायज ठहराने के लिए किया गया. इसी सोच की निरंतरता आज हम अमेरिका में अश्वेत लोगों के साथ हो रहे व्यवहार के रूप में देख रहे हैं. यह हमारी सोच में इतना गहराई तक घुस चुका है कि हम अब भी हर दिन इसके विनाशकारी प्रभावों के साथ जी रहे हैं. हालांकि पिछले 70 वर्षों के दौरान, अधिकांश वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि केवल एक ही मानव जाति है और हम प्रजाति के रूप में एक हैं.
लेकिन, अब भी कुछ ऐसे हैं जो पुरानी सोच पर कायम हैं और मानते हैं कि हमारी नस्लीय श्रेणियों के कुछ विशेष अर्थ है. यह सोच इसलिए है क्योंकि वैज्ञानिकों को अक्सर महान वैज्ञानिकों की विरासत से संघर्ष करना पड़ता है. ये ऐसे महान वैज्ञानिक हैं, जिनके वैज्ञानिक, राजनीतिक और नैतिक विचार आपत्तिजनक थे. यूरोप में 19वीं शताब्दी में यह मानना काफी आम था कि मनुष्य को उप-प्रजाति में विभाजित किया जा सकता है और कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक आधुनिक मानकों के अनुसार नस्लवादी थे.
भयावह बात यह है कि 21वीं सदी में भी नस्लवादियों को बर्दाश्त किया जा रहा है. कई सम्मानित वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार विजेता और अमेरिकी जीवविज्ञानी जेम्स वास्टन (जो खुले तौर पर नस्लवादी थे) को नकारने में दशकों का समय लगा. कोई भी महान काम कर सकता है. लेकिन, हमें नस्लवादियों को वैज्ञानिक क्षेत्र में सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए क्योंकि उन्होंने कोई महान खोज या शोध किया है.
राह बदलने का वक्त?
इस वक्त दुनिया भर में नस्लवाद के खिलाफ विरोध जारी है. क्या ये वक्त अपनी भूल सुधारने और बदलाव का है? क्योंकि हम अब भी वहां है, जहां हमने समाज के लिए जरूरी सुधारों को नहीं अपनाया है. लेकिन मौजूदा समय निश्चित रूप से अलग दिख रहा है. संस्थान और कॉरपोरेशंस एक हद तक जवाब दे रहे हैं. बेशक, सरकारें उलझन में दिख रही हैं, लेकिन उम्मीद है कि हम आने वाले समय में कुछ प्रभावी बदलाव देखें. ऐसा इसलिए है क्योंकि दुनिया के कुछ हिस्सों में, जहां नस्लवाद की वजह से सत्ता असंतुलन है, कुछ-कुछ वैसा ही दुनिया के अन्य हिस्सों में भी देखा जा रहा है.
नस्लवाद की तर्ज पर ही सत्ता कई जगहों पर जातिवाद, वर्गवाद, लिंगवाद आदि का इस्तेमाल कर रही है. मैंने अपनी किताब, “सुपीरियर” में जाति का जिक्र किया है. नस्ल की तरह ही जाति को लेकर भी समाज में पूर्वाग्रह की जड़ें गहरी हैं. मुझे कोई संदेह नहीं है कि यह पूर्वाग्रह भारत में भी नस्लवाद की तरह ही भूमिका निभाता है, जिसे हम भारतीय समाज में लोगों के साथ हर दिन होने वाले व्यवहार के रूप में देखते हैं.
उदाहरण के लिए, अश्वेत अमेरिकियों की जीवन प्रत्याशा श्वेत अमेरिकियों की तुलना में कम है, क्योंकि उनके उत्पीड़न का एक लंबा इतिहास रहा है, जो उनके स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालता है. मैं ब्रिटेन में रहती हूं. यहां भारतीय मूल के डॉक्टर अन्य ब्रिटिश डॉक्टरों की तुलना में बड़ी संख्या में मर रहे हैं. ऐसा इसलिए नहीं कि वे आनुवांशिक रूप से भिन्न हैं, बल्कि वे कई तरह के नस्लीय भेदभाव को झेलते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है. हम पैदाइशी अलग नहीं होते हैं, हमें समाज अलग बना देता है.
कुछ लोगों का जीवन दूसरों की तुलना में तुच्छ माना जाता है. यहां, घोर- दक्षिणपंथी हमें यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि समाज में जो नस्लीय असमानताएं हैं, वे ऐतिहासिक कारकों से नहीं, बल्कि प्राकृतिक रूप से मौजूद हैं. यही कारण है कि वे 19वीं शताब्दी की पुरानी लाइन को आगे बढ़ा रहे हैं, जो कहती है कि नस्ल जैविक वास्तविकता है.
लेकिन मुख्यधारा का विज्ञान उनके पक्ष में नहीं है. घोर-दक्षिणपंथी विचारक अविश्वसनीय रूप से चालाक और धूर्त हैं और साथ ही ऑनलाइन मीडिया पर काफी सक्रिय भी हैं. सोशल मीडिया पर इन लोगों से अगर आमना-सामना हो जाए, तो मेरी सलाह है कि उनकी उपेक्षा करें. ये उनकी रणनीति है कि ऑनलाइन मीडिया में इस पर बहस हो और ये भ्रम पैदा हो कि इन मुद्दों पर किसी तरह की वैज्ञानिक बहस जारी है, जबकि वास्तविकता में ऐसा कुछ नहीं है.
सच्चाई यह है कि विज्ञान हर दिन इस मूल तथ्य की पुष्टि कर रहा है कि हम एक ही मानव प्रजाति हैं. हम किसी भी अन्य प्रजाति की तुलना में अधिक समरूप हैं. यहां तक कि कुछ समुदायों को, जिन्हें कभी भौगोलिक और सांस्कृतिक अलगाव के कारण, आनुवांशिक रूप से अलग माना जाता था, उन्हें भी अब अलग नहीं माना जाता है. लेकिन इन तथ्यों का तब तक कोई अर्थ नहीं है, जब तक हम अपने दिमाग में भरे पूर्वाग्रहों से आगे नहीं बढ़ जाते हैं.
नस्ल और जाति सामाजिक आविष्कार थे. हम एक-दूसरे के बारे में क्या और कैसे सोचते हैं, इस पर इन सामाजिक मान्यताओं का गहरा प्रभाव है. लेकिन, यह वक्त सत्य को जानने-समझने और मानने का है. ये ऐसा सच है, जिसके जरिए हम अपनी उस सोच को ठीक कर सकते हैं, जो हमें अन्य को देखने-समझने का रास्ता दिखा सकती है और हमारी पूर्व-निर्धारित धारणाओं को दुरुस्त कर सकती है.
(लेखक ब्रिटिश साइंस जर्नलिस्ट और “सुपीरियर: द रिटर्न ऑफ रेस साइंस” की लेखक हैं. लेख डाउन टू अर्थ से साभार.)
Also Read
-
6 great ideas to make Indian media more inclusive: The Media Rumble’s closing panel
-
In Chennai’s affluent lanes, pavements are eaten up by cars, ramps and debris
-
‘No pay, no info on my vehicle’: Drivers allege forced poll duty in Bihar
-
There’s a double standard about women cricket we’re not ready to admit
-
Not just freebies. It was Zohran Mamdani’s moral pull that made the young campaign for him