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सत्यजीत रे की तीन शहरी फ़िल्में और संकट-ग्रस्त नैतिकताओं के संसार
सीमाबद्ध (1971) साल 1970 के अक्तूबर-नवम्बर में कलकत्ता (आज का कोलकाता) में 17 दिनों के फ़ासले से दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं. पहली थी सत्यजीत रे की प्रतिद्वंद्वी और दूसरी थी मृणाल सेन की इंटरव्यू. संयोगवश यह दोनों ही फ़िल्में एक ऐसी संज्ञा का सूत्रपात कर रही थीं जिसे सत्यजीत रे और मृणाल सेन,दोनों के सिनेमा के संदर्भ में ‘कलकत्ता ट्राइलोजी’ (Calcutta Trilogy) कहा जाता है.
इस श्रृंखला में दोनों निर्देशकों की तीन-तीन फ़िल्में सम्मिलित थीं. प्रतिद्वंद्वी (1970) के अतिरिक्त सत्यजीत रे की दो फ़िल्में थीं- सीमाबद्ध (1971) और जन-अरण्य (1976). वहीं इंटरव्यू के अतिरिक्त इस श्रृंखला में मृणाल सेन की दो अन्य फ़िल्में थीं कलकत्ता-71 और पदातिक (1973). फ़िल्म निर्माण के पर्याप्त शैलीगत और वैचारिक (विशेष रूप से फ़िल्मों में राजनीतिक अंतरवस्तु की मौजूदगी और उसकी अभिव्यंजनात्मक प्रस्तुति के स्तर पर, जो रे की तुलना में मृणाल सेन के सिनेमा में अधिक मुखर और उद्वेलित प्रतीकों का सहारा लेती थी) अंतर के बाबजूद दोनों निर्देशकों के इस काल-खंड के सिनेमा में एक प्रारूपिक समानता थी. दोनों का सिनेमा शहर के अंतर्ध्वंसी चरित्र के साथ-साथ भारतीय मध्यवर्गीय किरदार के संघर्ष, आकांक्षाओं, अस्तित्व की समझौतापरस्ती और संकटग्रस्त नैतिकताओं की डायस्टोपियन प्रस्तुति करता था.
ख़ास बात यह थी कि इस सिनेमा में संकट के यह स्रोत आंतरिक न होकर जीवन के ठीक बाहर दर्शाए गए थे. उन्हें किसी भी लैंडस्केप में बनी हुई मध्यमवर्गीय रिहाइश से बराबर महसूस किया जा सकता था फिर वो चाहे ऊंचे माले के एलीवेटरयुक्त अपार्टमेंट हों [जैसा ‘सीमाबद्ध’ के नायक का निवास है] अथवा साधारण कल्पनाओं की भूतल गृहस्थियां [जैसे ‘प्रतिद्वंद्वी’ और ‘जन-अरण्य’ के नायकों के घर हैं]. 70 और उसके निकट का दशक भारत की राजनीति में मनो-भंग से पैदा हुईं मायूसियों का दौर कहा जाता है. इसलिए यह अस्वाभाविक नहीं था कि सत्यजीत रे, जिनके ऊपर तब तक अपने समय के यथार्थबोध से कटे रहकर सिनेमा निर्माण करने के आक्षेप लगने लगे थे, कैमरे को आक्रोश, नैराश्य, असुरक्षा और नैतिक संशयों से भरे हुए शहरी मध्यवर्गीय जीवन की ओर घुमाते.
इस मध्यवर्गीय जीवन का नायक कहीं कोहनी तक क़मीज़ के स्लीव्ज़ ऊपर चढ़ाए हुए, बसों में धक्के खाता हुआ, हाथों में कॉलेज की डिग्रियों का गोल बंडल बनाकर सड़क की ज़ेब्रा क्रॉसिंग पार करता हुआ, तनाव की मनोदशा में सिगरेट की डिब्बी पर निर्भर, रोज़गार के लिए कार्यालय दर कार्यालय भटकने वाला युवा (प्रतिद्वंदी का नायक) था तो कहीं रोज़गार पा जाने के बाद पंखे बनाने वाली कम्पनी का कैरियरमुखी मुलाजिम (सीमाबद्ध का नायक) जो अपने प्रमोशन को बचाने के लिए षड्यंत्र रच कर अपनी ही कम्पनी में हिंसक हड़ताल करा देता है. वह अपने आदर्शवादी पिता की उम्मीदों के उलट ग्रैजुएशन में महज़ 40 फ़ीसदी अंकों से उत्तीर्ण होने वाला साधारण और संवेदनशील नौजवान भी था जो अपने चारों ओर फैले हुए ‘जन-अरण्य’ में फंसकर एक ‘मिडिलमैन’ बन जाता है.
अनुकरण करने के लिए, उसके एक ओर सरकारी बजट की योजनाएं थीं तो दूसरी तरफ़ स्वच्छंद हिप्पीज. इन फ़िल्मों के फ़्रेम (सीमाबद्ध को छोड़कर, क्योंकि उसके मध्यवर्गीय नायक का परिवहन निजीकार है) उन भिंची हुई मुट्ठियों से भरे हैं जो अपना दिनारम्भ सार्वजनिक परिवहन की बस के मध्य में जड़ी हुई रॉड या उस की खिड़की पर कसे हुए हत्थे को पकड़कर करती हैं.
‘प्रतिद्वंदी’ और ‘जन-अरण्य’ ऐसे काफ़्कीय वातावरण की रचना करती हैं जहां नायक स्वयं के ‘सफल’ होने की शर्तों की डोर मेज के दूसरी ओर बैठी सत्ताओं के हाथों में पाता है किंतु यह विडंबना इतने पर ही ख़त्म नहीं होती क्योंकि मेज के दूसरी ओर बैठे सत्ता-केन्द्र चयन की वस्तुनिष्ठता की कोई गारंटी नहीं देते. यह सिनेमा आधुनिकता के ऐसे कोलाज को गढ़ता है जहां तमाम प्रतिभा और संवेदना के बावजूद यह तय करना आप के हाथ में नहीं रहता कि आप सफलता के संवर्ग में चुने लिए जाएं. लोगों के सैलाब अर्थात ‘जन- अरण्य’ के बीच में इस सफलता को पाने में यदि आप सोमनाथ की तरह ‘मिडिलमैन’ बन भी जाएं तब भी टेण्डर और सप्लाई-ऑर्डर मितिर बाबू जैसे ‘पब्लिक रिलेशन ऑफ़िसर’ की मदद के बिना हासिल करना असंभव है और इन्हें हासिल करने की क़ीमतें इतनी बड़ी हैं कि उसके लिए आपको अपने कल्पित नैतिक संसार को अलविदा कह कर घर लौटना पड़ सकता है (जैसे जन-अरण्य का नायक सोमनाथ लौटता है).
इस पूरी प्रक्रिया में महानगर में भटकना इन नायकों की नियति बन जाता है किंतु यह भटकन दार्शनिक यायावरी नहीं है और न ही ये कोई अलक्षित नायक है. सत्यजीत रे के इन तीन शहर-केन्द्री सिनेमाओं और उनके मध्यवर्गीय जीवन के तीनों नायक सिद्धार्थ (प्रतिद्वंदी), सोमनाथ (जन-अरण्य) और श्यामलेंदु (सीमाबद्ध) वस्तुतः हमें एक ऐसी पेचीदा और स्पर्धात्मक आधुनिकता के लिए तैयार कर देते हैं जिसमें प्रतिदिन हमसे हमारा कुछ मूल्यवान हिस्सा, कभी सहमति तो कभी अन्यमनस्कता के बावजूद छिन जाता है.
प्रतिद्वंद्वी (1970)
प्रतिद्वंद्वी की कहानी एक शहरी बेरोज़गार सिद्धार्थ चौधरी (धृतिमान चटर्जी) के आस पास बुनी गयी है जिसे अपने पिता के निधन के बाद मेडिकल की पढ़ाई छोड़कर ‘चाकरी’ की खोज में लगना पड़ता है. वह बोटनीकल सर्वे ऑफ़ इंडिया में इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है. इंटरव्यू बोर्ड के सदस्य का सवाल होता है कि तुम्हारे हिसाब से इस दौर की सबसे महत्वपूर्ण घटना कौन सी है? सिद्धार्थ तपाक से उत्तर देता है कि वियतनामी लोगों का संघर्ष, और चांद पर मनुष्य की लैंडिंग का क्या? सिद्धार्थ स्पष्टीकरण देता है की वो भी महत्वपूर्ण है किंतु चंद्रमा पर मनुष्य का उतरना वैज्ञानिक रूप से आशातीत नहीं था. आदमी को कभी न कभी वहां उतरना ही था किंतु जैसा प्रतिरोध वियतनाम के साधारण लोगों ने पेश किया वह ‘अनप्रेडिक्टेबल’ और बेमिसाल है.
बोर्ड मेंबर की घाघ आंखें चश्मे के पीछे से नौजवान को घूरने लगती हैं. चंद्रमा पर लैंडिंग के बदले वियतनाम के लोगों के संघर्ष को वरीयता देने वाले इस जवाब में उसे एक ख़तरनाक नौजवान दिखता है और सिद्धार्थ नौकरी पाने का अवसर गंवा देता है. यह बड़ा दिलचस्प है कि मृणाल सेन की फ़िल्म ‘इंटरव्यू’ और सत्यजीत रे की दोनों फ़िल्मों, प्रतिद्वंद्वी और जन-अरण्य में इंटरव्यू की कल्पना एक भयावह मानसिक एंग्ज़ाइटी है. वह एक बेरोज़गार युवा का दुर्दम तनाव-लोक है. व्हेन, व्हिच, हू, व्हाट के प्रश्नवाचक सर्वनामों से बनने वाले वाक्य नौकरी खोजते परीक्षार्थी की दुनिया के सबसे ख़तरनाक वाक्य हैं.
जन-अरण्य में साक्षात्कार बोर्ड का मेम्बर पूछता है कि चंद्रमा का वजन कितना है? सोमनाथ से नहीं रहा जाता. वह पलटकर पूछ लेता है कि इससे मेरी प्रस्तावित नौकरी का क्या सम्बन्ध? और ‘यू मे गो नाउ’ के साथ ही जन-अरण्य का सोमनाथ भी प्रतिद्वंद्वी के सिद्धार्थ की तरह अचयनित रह जाता है. सिद्धार्थ की बहिन सान्याल बाबू के यहां काम करती है. उसका देर रात घर लौटना और सान्याल बाबू के परिवार में एक ख़लल डालने वाली औरत के रूप में रूपान्तरण सिद्धार्थ को अखरता है. वह मॉडल बनना चाहती है जिसके प्रति सिद्धार्थ वही प्रतिक्रिया देता है जैसी भारतीय मध्यवर्गीय चेतना की प्रतिक्रिया होती है.
इस बिंदु पर सत्यजीत रे बेहद गहन प्रतीकों से भारतीय परिवारों के चेतनागत द्वैत का संकट पेश करते हैं. चे ग़्वेरा को पढ़ने वाला नौजवान अपनी बहन के हिस्से के निर्णय भी खुद लेना चाहता है. वह अपनी बहन को नौकरी देने वाले सान्याल बाबू के घर चला जाता है और वहां जाकर उसे क़त्ल कर देने के दिमाग़ी बिंब बुनने लगता है. फ़िल्म का उत्कर्ष एक इंटरव्यू के दृश्य से होता है. जहां लड़कों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है वहां बैठने तक के लिए कोई व्यवस्था नहीं है. लड़कों को ऑफ़िस के बाहर एक लंबे कॉरिडोर में खड़े रहना है जिसमें भयानक गर्मी है और जिसके पंखे ख़राब होते हैं. जब एक लड़का गश खाकर गिर जाता है तो सिद्धार्थ का धैर्य जवाब दे जाता है और वह पहली बार अपनी प्रतिक्रियाओं को इंटरव्यू लेने वालों से बहस करके और बाद में उनकी मेज पलटकर चले आने के रूप में देता है.
सिद्धार्थ आख़िरकार नौकरी की सभी संभावनाओं को ख़त्म जानकर दवाइयों का सेल्समेन बन जाता है और मजबूरीवश कलकत्ते से बाहर एक छोटे से क़स्बे में चला जाता है. प्रतिद्वंद्वी की विशेषता यह है कि इसमें सत्यजीत रे ने एक जीविकाखोजी नौजवान के मानसिक संसार की अभिव्यंजना के लिए बहुत सघन प्रतीकों और बहुअर्थी रूपकों का इस्तेमाल किया है.
रे ने इस फ़िल्म में फ़ोटो नेगेटिव फ़्लेशबैक का इस्तेमाल किया था. रोज़मर्रा की दिनचर्या के अत्यंत भाव प्रवण स्थानों पर सिद्धार्थ अपने विद्यार्थी जीवन की उन स्मृतियों में बार बार लौटता है जब वह मेडिकल का विद्यार्थी था. वह मेडिकल साइंस के तथ्यनिष्ठ ज्ञान को जब अपने जीवन की वस्तुगत परिस्थितियों पर लागू करता है तो ऑफ़िस के गलियारे में इंटरव्यू देने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करते नौजवान उन कंकालों की तरह दिखने लग जाते हैं जिनका अध्ययन वह चिकित्सा विज्ञान की अपनी पढ़ाई में कर चुका था.
प्रतिद्वंद्वी के क्राफ़्ट में स्मृतियों का फ़्लैशबैक इसकी अन्यतम विशेषता है. सत्यजीत रे की इस शैली के मार्फ़त स्मृतियों का पुनर्चेतित होना सिद्धार्थ के जीवन की तात्कालिक वास्तविकताओं को और अधिक दारुण बना देता है और फ़िल्म एक असाधारण प्रभाव हासिल कर लेती है.
सीमाबद्ध (1971)
प्रतिद्वंदी के ठीक एक साल बाद सत्यजीत रे की अगली फ़िल्म आयी सीमाबद्ध (प्राइवेट लिमिटेड). प्रतिद्वंदी एक नौजवान के असुरक्षित जीवन और जीविका के संदर्भों में एक महानगर के भीतर उसके संघर्ष और उसके मानसिक संसार का निरूपण थी लेकिन सीमाबद्ध न केवल रोज़गारशुदा बल्कि लैंप और पंखे बनाने वाली एक विदेशी फ़र्म- हिंदुस्तान पीटर्स प्राइवेट लिमिटेड, में ऊंचे ओहदे पर काम करने वाले महत्वाकांक्षी नौजवान की कहानी थी.
सीमाबद्ध के नायक श्यामलेन्दु (वरुण चंदा) के जीवन में कोई आर्थिक अभाव नहीं है. प्रतिद्वंदी का नायक सिद्धार्थ ‘सेल्समेन’ है लेकिन सीमाबद्ध का नायक श्यामलेन्दु ‘सेल्स मेनेजर’. दोनों फ़िल्मों का कथानक ‘मेन’ और ‘मैनेजर’ होने के अंतर और अंतरविरोधों से निर्मित होता है. ‘जन-अरण्य’ के औसत विद्यार्थी सोमनाथ के उलट श्यामलेन्दु चटर्जी पढ़ने लिखने में होशियार है. वह भी ‘इंटरव्यू’ की प्रक्रिया से गुजरता है लेकिन हिंदुस्तान पीटर्स के मिस्टर डेविडसन के सवालों के जवाब बड़ी आसानी से देकर वह जल्दी ही नौकरी पा जाता है और अपने ओहदे के मुताबिक़ अच्छी रिहाइश भी.
श्यामलेन्दु चटर्जी का अपार्टमेंट ऊंचाई की ओर जाने वाली बहुमंज़िला इमारत में है. यह और बात है कि यह वो शहरी ऊंचाई है जिसके बारे में हिंदी के दिवंगत केदारनाथ सिंह ने अपनी बिंबधर्मी भाषा में लिखा था- ‘शहर की सारी सीढ़ियां मिलकर/ जिस महान ऊंचाई तक जाती हैं/ वहां कोई नहीं रहता'. परंतु सीमाबद्ध का नायक इसी ऊंचाई पर रहता है और इसी ‘ऊंचाई’ से उसके ‘संसार’ का निर्माण होता है. अपनी पत्नी और कुछ दिनों के लिए कलकत्ता रहने आयी हुई साली पुतुल (शर्मिला टैगोर) के साथ प्रसन्नता भरे दिन बिताते हुए सहसा एक दिन श्यामलेन्दु को पता चलता है कि अब से एक हफ़्ते बाद विदेश में उसकी कम्पनी के पंखों का निर्यात किए जाने के लिए रखे हुए स्टॉक में भारी ‘डिफ़ेक्ट’ आ गया है और उस ‘डिफ़ेक्ट’ के साथ पंखे नहीं भेजे जा सकते. नतीजन, न केवल उसकी कम्पनी की बाज़ार में साख ख़राब होगी बल्कि खुद कम्पनी में प्रमोशन पाने की उसकी अपेक्षित उम्मीदवारी भी ख़तरे में पड़ जाएगी.
श्यामलेन्दु के पास एक विकल्प यह है कि किसी आपदा की आड़ लेकर वह अगले हफ़्ते की उस तारीख़ तक, जिस दिन माल की सप्लाई होनी है, ऐसा कुछ करा दे कि फ़ैक्टरी ही बंद हो जाए और उस आधार पर बिना उसकी साख को बट्टा लगे उसे ऑर्डर टालने का वक़्त मिल जाए. वह फ़ैक्ट्री के कर्मचारियों के इंचार्ज से मिलकर अपनी ही कम्पनी के कारख़ाने में बम फ़िकवाकर हिंसक हड़ताल करा देता है और अंत में इस ‘उपलब्धि’ के लिए अपने एक सहकर्मी को पीछे छोड़कर सेल्स मेनेजर से कम्पनी के बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स द्वारा प्रमोशन पाकर एडिशनल डाइरेक्टर बन जाता है.
सीमाबद्ध में सत्यजीत रे ने श्यामलेन्दु के चरित्र के माध्यम से कारपोरेट जगत के भितरलोक की अनैतिकता की तस्वीर पेश की है. यहां श्यामलेन्दु का एक ही मक़सद है- ऊपर चढ़ना और ‘ऊपर चढ़ना’. एक ऐसी संभावना है जिसके लिए सत्यजीत रे द्वारा प्रयुक्त ‘एलीवेटर’ से लेकर ‘सीढ़ियों’ तक के प्रतीक श्यामलेन्दु के निर्नैतिक संसार के साक्ष्य बन जाते हैं. ऊपर चढ़ता हुआ श्यामलेन्दु दरअसल नीचे उतरता हुआ श्यामलेन्दु बन जाता है और पुतुल के हृदय में बनी उसकी आदर्श छवि की प्रतिमा एक मेलनकॉलिक दृश्य के साथ बिखर जाती है.
जन-अरण्य (1976)
1976 में कलकत्ता ट्राइलॉजी की आख़िरी फ़िल्म जन-अरण्य आयी जिसकी विषयगत अंतरवस्तु सीमाबद्ध से भी अधिक अंधकारपूर्ण थी. यहां कहानी का नायक सोमनाथ (प्रदीप मुखर्जी) पढ़ने लिखने में एक औसत नौजवान है जिसका बिना ‘ऑनर्स’ के ग्रेज़ुएट होना दुस्वप्न सरीखा बन जाता है. सोमनाथ का पिता अमरकान्त की कहानी ‘डिप्टी- कलक्टरी’ के मोहग्रस्त पिता की याद दिलाता है.
सोमनाथ भी सिद्धार्थ की तरह महानगर की सड़कों पर भटकता हुआ इंटरव्यू देता है और रोज़गार ढूंढ़ता है. पासपोर्ट साइज़ की फ़ोटो, पोस्टल ऑर्डर और टाइपराइटर की आवाज़ें ‘जन-अरण्य’ के सोमनाथ के अनस्थापित जीवन से सम्बद्ध हो जाती हैं. प्रेमिका के लिए और अधिक प्रतीक्षा करना संभव नहीं है और वह सोमनाथ को स्पष्टीकरण देते हुए परिवार द्वारा चुने गए नौकरीपेशा युवा के साथ विवाह की हामी भर देती है.
कोई नौकरी न पाकर सोमनाथ एक परिचित विशू बाबू (उत्पल दत्त) के कहने पर ट्रेडिंग का ‘मिडिलमेन’ बन जाता है. उसका काम होता है बाज़ार से किसी भी माल का ऑर्डर उठाकर उसकी सप्लाई करना. वह धीरे धीरे ‘मिडिलमेन’ होने के सबक़ सीखने लगता है कि चाहे जितने भरोसे का आदमी हो किसी के द्वारा दिए गए पैसे बिना किसी संकोच के उसी के सामने गिने जाने चाहिए.
बाज़ार का शब्दकोश सोमनाथ के मस्तिष्क को भर देता है- टका, पैसा, मूलधन, कमीशन.अब वह इतिहास का ही छात्र नहीं है. अर्थशास्त्र का ज्ञान बाज़ार में स्थापित होने के लिए ज़रूरी शर्त बन जाता है. दरअसल, जन-अरण्य में बाज़ार वह ताक़त है जो सोमनाथ को अन्यमनस्क होते हुए भी मूल्य-तटस्थता के ठहरे हुए कीचड़ में खींच ले जाती है. सत्यजीत रे की यह फ़िल्म बाज़ार के आगे वैयक्तिक नैतिक संहिताओं के निढाल समर्पण की मार्मिक प्रस्तुति बन जाती है.
श्यामलेन्दु की तरह ठीक उस क्षण जब सोमनाथ के जीवन में अवमूल्यन का आरंभ होता है, फ़िल्म के एक दृश्य में सत्यजीत रे सोमनाथ के पिता को रेडियो पर रवीन्द्रनाथ टैगोर का एक गीत सुनते हुए फ़िल्माते हैं. गीत के बोल होते हैं- ‘छाया घनाइछे वोने-वोने’- जिसका अर्थ है कि वन की छाया और घनी होती जाती है.
इस फ़िल्म में सत्यजीत रे का यह शॉट सोमनाथ के अवमूल्यित होते जीवन के संदर्भ में एक बेहद इंटेन्स प्रतीक की रचना करता है. इस अवमूल्यन का चरम तब आता है जब एक फ़र्म से सप्लाई ऑर्डर हासिल करने के लिए सोमनाथ को एक ‘पीआरओ’ मिस्टर नटवर मितिर की मदद से फ़र्म के मेनेजर को होटल में एक लड़की को भेजने के लिए तैयार होना पड़ता है. नटवर, जो कि बाज़ार की परिस्थितियों का नया नियंता है, सोमनाथ को सिखाता है कि बाज़ार में लोगों से काम कैसे निकाला जाता है.
नटवर उसे शहर के कुछ घरों में ले जाता है जहां कुलीन समझे जाने वाली महिलाएं कमीशन लेकर साथ देने के लिए तैयार रहती हैं लेकिन बात नहीं बनती. आख़िर में वह नटवर के साथ शहर की एक कुख्यात जगह से जिस लड़की को मैनेजर के पास होटल ले जाने के लिए टैक्सी में बिठाता है, वह लड़की सोमनाथ के दोस्त सुकुमार, जो स्वयं निम्न आर्थिक हालतों में जीता हुआ शख़्स है, की बहन निकलती है. उद्रेकित कर देने वाला यह जन-अरण्य का सबसे भाव-जटिल दृश्य है जिसे सत्यजीत रे असाधारण संवेदनशीलता से फ़िल्माते हैं.
सोमनाथ लड़की को उसके परिचित नाम से सम्बोधित करता है जिस पर वह उसे डांट देती है. सोमनाथ उसे होटल न ले जाकर वापस उसके घर छोड़ने के लिए कहता है किंतु वह तैयार नहीं होती और बेहद उलझनग्रस्त और अवसाद की मनःस्थिति में सोमनाथ उसे ले जाकर होटल के कमरे में छोड़ देता है और सप्लाई का ऑर्डर पा कर घर लौटता है.
सत्यजीत रे की ये तीनों फ़िल्में दरअसल तीन व्यक्तित्वों के सैबोटाज़ के चलचित्र हैं. हालात के चलते एक बड़े शहर को छोड़कर छोटे क़स्बे में प्रति-पलायन करके प्रतिद्वंदी का नायक आकांक्षाओं के स्थगन का बिंब बन जाता है. सीमाबद्ध का नायक आकांक्षाओं के ऐसे किसी स्थगन के बदले ‘ऊपर चढ़ने’ का विकल्प चुनता है, भले ही इस विकल्प का मूल्य उसका अपने ही स्वजनों की नज़र में गिर जाना हो. और जन-अरण्य का नायक अपनी तमाम संवेदनशीलता और मानसिक प्रतिरोध के बाबजूद बाज़ार के आगे घुटने टेक देता है. इन तीनों में से जिस को दर्शक की सबसे कम सहानुभूति मिलेगी वह संभवतः सीमाबद्ध का श्यामलेन्दु होगा.
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