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बाघ, वन और उपनिवेशवाद

8 जून,1844 को दक्षिण मध्य टेक्सस के पर्वतीय इलाक़े में पंद्रह रेंजर्स की गश्ती टोली पर तक़रीबन 70 की संख्या में कोमेंचे नाम के स्थानीय आदिवासी छापामारों ने हमला किया तो वह पहली बार यह देखकर हैरान थे कि रेंजर्स के हाथों में जो असलहा था वह 30 सेकंड में रिलोड होने वाले पुराने असलहे के विपरीत लगातार गोलियां बरसा रहा था.

कोमेंचे के तीरों की गति 30 सेकंड के अंतराल में लोड वाले पुराने हथियार पर तो भारी थी, लेकिन इस नयी बंदूक़ से निरंतर निकलने वाली आग के सामने उनका पारंपरिक धनुष कौशलबेकार था.वे आदिवासी इस बात से बेख़बर थे कि दो सप्ताह पहले ही रेंजर्स को सेमुअल कोल्ट नाम के एक नौजवान द्वारा विकसित किए गए नए हथियारों का एक पूरा बक्सा मुहैया कराया जा चुका था.

जून 8, 1844 को अमेरिकन ‘वेस्ट’ में शक्ति का संतुलन पलट चुका था. पांच गोलियों के साथ घूमने वाली (बाद में छह गोलियां) एक चेंबरयुक्त रिवॉल्वर ने बाज़ी पलट दी थी. व्यक्तिगत शारीरिक शौर्य के रहे सहे युग का अंत हो चुका था. (अंडरस्टैंडिंग द ऑरिजिन्स ऑफ़ अमेरिकन गन कल्चर, जिम रेजेनबर्गर)कोल्ट की कोमेंचे लोगों से कोई निजी रंजिश नहीं थी लेकिन उसके द्वारा आविष्कृत एक नए तरह के शस्त्र ने सारा खेल पलट दिया था. एक ही प्रजाति के दो समूहों के भीतर महज़ एक शस्त्र के नवाचार ने जब शक्ति-संतुलन को इस क़दर पलट कर उन्हें निर्णायक विजेता बना दिया तब कल्पना की जा सकती है कि मनुष्य से इतर प्रजातियों पर इस शक्ति-संतुलन में परिवर्तन ने क्या क़हर बरपाया होगा.

दरअसल ‘होमो-सैपियन’ केंद्रित विमर्श में यह बात अक्सर भुला दी जाती है कि विस्तारवाद और उपनिवेशवाद ने केवल अपनी ही प्रजाति के ऊपर क़हर नहीं बरपाया. उसने हक़ीक़त में किसी को नहीं छोड़ा था अन्यथा नेपोलियन और अंग्रेज़ों की आपसी जंग में हज़ारों मील दूर भारत के किसी जंगल में चुपचाप उगे हुए सागौन के पेड़ को क्या लेना-देना था? लेकिन लेना-देना था. अपने यहां के बलूत के जंगलों को ख़त्म कर देने के बाद अंग्रेज़ों को नेपोलियन से लड़ने के लिए जहाज़ बनाने थे. इन जहाज़ों निर्माण के लिए जिस टिकाऊ लकड़ी की ज़रूरत थी, सागौन उसकी भारपाई करता था.

सोचिए लड़ाई यूरोप की और लकड़ी भारत की. अलग अलग उपनिवेशवादी ज़रूरतों की वजह दे जब वन उजड़ने शुरू हुए, तो यह अस्वाभाविक नहीं था कि उन वनों में रहते आ रहे वन्य जीव इस उजाड़ से बच पाते. किसी भी आदिम आखेटक समुदाय में लिए शिकार एक सामान्य बात थी.शिकार के इस खेल में मनुष्य द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक का निम्न-स्तरीय होना ही दरअसल शिकार के साथ शिकारी का प्राकृतिक न्याय था. लेकिन जैसे ही उसके हाथ तोड़ेदार बंदूक़ की तकनीक आयी, शक्ति-संतुलन पलट गया.

विक्टोरियन जीवन मूल्यों में पले-बढ़े और ‘नेटिव’ लोगों के ऊपर हुकूमत करने की हसरतों के साथ हिंदुस्तान आए हुए ‘साहेब’ न केवल प्रशासक बल्कि मंझे हुए शिकारी भी होते थे. इन औपनिवेशिक नौकरशाहों में से कुछ थोड़े लोगों द्वारा भारतीय वाइल्ड लाइफ़ पर लिखी गयी किताबों को पढ़कर ही आप जान पाते हैं कि उस दौर में भारत किस तरह से अपने प्राकृतिक और जैविक वैविध्य को धीरे धीरे गंवा रहा था.

ऐसी कुछ किताबें हैं- विलयम राइस की टाइगर शूटिंग इन इंडिया (1857), एच शेक्सपियर की वाइल्ड स्पोर्ट इन इंडिया (1860), जे. बॉल्ड्विन की ‘द लार्ज एंड स्मॉल गेम ऑफ़ बंगाल एंड नॉर्थ वेस्ट प्रॉविन्सेज़ ऑफ़ इंडिया (1877), जॉन इंगलिश की टेंटलाइफ़ इन टाइगरलैंड (1892), कैप्टन जे फ़ोरसाइथ की हाईलैंड्ज़ ऑफ़ सेंट्रल इंडिया(1889), स्टर्नडेल की कैंपलाइफ़ इन द सतपुड़ा (1884) जी. सैंडरसन की थर्टीन ईयर्स स्पोर्ट अमंग द वाइल्ड बीस्ट ऑफ़ इंडिया (1912) सिम्प्सन की स्पोर्ट इन ईस्टर्न बंगाल,कर्नल फ़ायर कुक्सॉन की टाइगर शूटिंग इन दून एंड अलवर, एस बेकर की वाइल्ड बीस्ट एंड देयर वेज़ (1890) पोलक की फ़िफ़्टी ईयर्स रिमेनिसेन्सेज़ ऑफ़ इंडिया (1896) और वाइल्ड स्पोर्ट ऑफ़ बर्मा एंड आसाम (1900).

भारत के उपनिवेशवादी हुक्मरानों ने भारत के वन तो उजाड़े ही उनकी नज़र यहां के वनों में विचर रहे एक विशेष वन्यजीव पर ख़ास तौर से पड़ गयी और यहीं से उसके जीवित बने रहने की संघर्ष-कथा शुरू हो गयी.यह वन्यजीव था,बाघ. बेचारे बाघ की बदकिस्मती यह भी थी कि उसके शिकार को हिंदुस्तानी और औपनिवेशिक एलीट वर्ग द्वारा स्टेट्स के साथ जोड़ लिया गया. उनके मुताबिक़ जंगल के भीतर खाद्य संरचना के शीर्ष पर मौजूद ‘राजा’ को मारने का हक़ केवल जंगल के बाहर की दुनिया में मौजूद ‘राजा’ को था.

बन्दूकों की उपलब्धता ने इस स्टेट्स को बनाए रखने में भारी मदद की. हाथी जैसे विशाल प्राणी को पूर्व-औपनिवेशिक युग में शिकार में मार दिया जाना एक असाधारण बात थी, वहीं अचूक निशाने वाली बन्दूकों के साथ औपनिवेशिक बंदूक़धारी के लिए यह महज़ चंद सेकंड का मनोरंजन था. 1860 के दशक में नीलगिरि के जंगलों में एक ब्रिटिश बाग़ान मालिक ने अकेले 400 से अधिक हाथी मारे.

सन 1900 में बहावलपुर के स्थानीय राजा की सेना को मांस उपलब्ध कराए जाने के लिए मशीनगन की मदद से शिकार किए जाने की जानकारी मिलती है. 1911-12 में नेपाल प्रवास के सात दिनों के भीतर ब्रिटेन के महाराज जॉर्ज पंचम ने अपने स्टाफ़ के साथ मनोरंजन के लिए 39 बाघ मारे. 1933 से 1940 के बीच में नेपाल के राजा और उनके आमंत्रित मेहमानों ने तक़रीबन 500 बाघों को मारा था.

1820 के आस पास के वर्षों में एक अंग्रेज़ अधिकारी विलियम फ़्रेज़र ने अकेले 84 शेरों को गोली मारी. कहा जाता है कि पंजाब और हरियाणा के इलाक़ों से इस जानवर को विलुप्त कर देने के लिए ‘वह अकेला ज़िम्मेदार था’. 1850 के दशक में कर्नल जॉर्ज ऑक्लेंड स्मिथ ने लगभग 300 शेर मारे जिसमें से 50 अकेले दिल्ली की जमुना नदी और आसपास के इलाक़ों से थे. इसी समय के आस पास बूंदी के राजा बिशन सिंह ने कोटा के जंगलों से 100 शेर मारे.

1880 तक वह यहां से पूरी तरह ख़त्म होकर कुछ सैकड़ा की तादाद में सिर्फ़ काठियावाड़ में बचे हुए थे. फ़ॉरेस्ट सर्विस के एक अधिकारी और ‘वाइल्ड लाइफ़ इन सेंट्रल इंडिया’ के लेखक ब्रेंडर ने लिखा था कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में इस देश में एक समय बाघों की तादाद यह सवाल पैदा करती थी कि बाघ और इंसान में आख़िर कौन सर्वाइव करेगा?

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में भारत की जैव-विविधता कितनी विपुल थी इसका अन्दाज़ बंगाल की ब्रिटिश रेजिमेंट के एक अधिकारी टॉमस विलियमसन की 1819 में लंदन से छपी हुई किताब ‘ओरिएंटल फ़ील्ड स्पोर्ट्स’ से लगता है. इस किताब की एक ख़ासियत यह थी कि विलियमसन ने अपनी आंखों से देखे हुए हर एक वाइल्ड लाइफ़ के रेखाचित्र भी खुद बनाए थे. बाघों की यह बहुलता इतनी अधिक थी कि उत्तर भारत के किसी भी हिस्से में पैदल या पालकी से चल रहे शख़्स को बाघों का अक्सर रास्तों पर सुस्ताते हुए दिख जाना क़तई हैरानी भरा नहीं होता था.

ब्रेंडर अपने पूर्ववर्तियों के हवाले से लिखते हैं कि गोरखपुर जैसे शहर में लोगों को रात में आग जलाकर बाघों को शहर की गलियों में आने से रोकना पड़ता था. लेकिन बाघों की इस बहुल मौजूदगी को धीरे-धीरे मानव प्रगति के विरुद्ध माना जाने लगा. नए औपनिवेशिक हुक्मरान जिनका उद्देश्य राजस्व में अधिक से अधिक इज़ाफत करना था, इन्हें दीमक समझने लगे जिनका संहार किए बिना खेती लायक़ भूमि हासिल नहीं की जा सकती थी.

एच शेक्सपियर और कैप्टन फ़ॉरसाइथ जैसे सिविल सर्वेंट्स के लिए ज़्यादा से ज़्यादा बाघों को मारना वस्तुतः मानवता की सेवा करने की तरह था. एस बेकर के मुताबिक़ कुछ लोग इतने ‘बेवक़ूफ़ और असंतुलित दिमाग़ के थे कि बाघों के मारे जाने पर हाय तौबा मचाते थे और यह नहीं समझते थे कि इनका मारा जाना लोगों के हित में था.’

यह विडम्बना ही कही जाएगी कि अरबों के बजट से जिस जीव को आज बचाया जा रहा है, उसे एक शताब्दी पहले तादाद में ज़्यादा होने के कारण ‘जनहित में’ इनाम रखकर मारा जा रहा था. 1864 में सेंट्रल प्रॉविन्स में केवल छह महीने में साढ़े तीन सौ बाघ मारे गए और इनाम में सोलह हज़ार चार सौ अस्सी रुपए बांटे गए. शताब्दी के अंत तक यही उपनिवेशवादी नौकरशाह यह कहने लगे थे कि बाघों की तादाद बहुत तेज़ी से कम हुई थी.

एक समर्पित वन सेवा के गठन के बाद कुछ प्रयासों से अब शिकार के नियमों में परिवर्तन और संरक्षण करने की पैरवी भी की जाने लगी थी. बाघों को पारिस्थितिकी के जटिल तंत्र से जोड़कर समझने और वनों में उसकी मौजूदगी को पर्यावरणीय एस्थेटिक्स से जोड़कर देखने का चलन एफडब्ल्यू चैम्पियन और बाद में जिम कॉर्बेट जैसे कुछ नगण्य लोगों के साथ शुरू हुआ. उपनिवेशवाद के शुरुआती दौर में क़ाबिज़ ब्रिटिश नौकरशाहों की पीढ़ी में से अधिकांश के लिए बाघ न केवल एक ‘ऑब्स्टकल’ (कैप्टन फ़ॉरसाइथ) वरन ‘एम्बॉडीमेंट ऑफ़ द डेवलिश क्रूअल्टी’ (जॉन इंग्लिश) थे.

इस पीढ़ी में सेंडरसन एक अकेले अपवाद थे बाघों को ‘अनस्पोर्टमेनलाइक मेथड’ से बेतहाशा मारा जाता हुआ देखकर बहुत दुखी थे.हालांकि तब भी वह बाघों के शिकार को बंद करने की हिमायत में नहीं थे. इसका कारण यही था की हाथी के हौदे पर बैठकर जंगलों में बाघ का शिकार ढूंढ़ने का शग़ल औपनिवेशिक नौकरशाहों का सबसे प्रिय और आकर्षक ‘टाइमपास’ था और इस रोमांच को अनुभव किए बिना हिंदुस्तान में रहने का कोई अर्थ नहीं था.विलियम राइस के लिए बाघों का आखेट एक ऐसा अनुभव था जिसे उसने इन शब्दों में बयान किया-‘द मोस्ट एक्साइटिंग एंड ग्लोरियस स्पोर्ट दिस वर्ल्ड अफ़ॉर्ड्ज़’.

45 रुपए में आने वाली ‘ब्रीच लोडर’ बंदूक़ के अलावा, आबादी में बढ़ोत्तरी, कृषि योग्य भूमि की तलाश कुछ ऐसे कारण थे जिन्होंने बाघों के पर्यावासों को (हैबिटैट) को उजाड़ने का काम किया.एक लंबी गहन पट्टी के रूप में क़ायम जंगलों को उन जगहों से काटना शुरू किया गया जहां वो सर्वाधिक पतले थे, नतीजन वो गलियारे ख़त्म होने लगे जिनसे होकर वन्य जीव एक लैंड्स्केप से दूसरे में प्रवेश किया करते थे.

आइना-ए-अकबरी में अबुल फ़ज़ल द्वारा दिए गए आंकड़ों के आधार पर इतिहासकार मोरलेंड ने 1601 में देश की जनसंख्या का अनुमान लगाया. उसके मुताबिक़ 1601 में यह क़रीब 100 मिलियन थी. सिंचाई के साधनों में उत्तरोत्तर हुई तकनीकी प्रगति और बढ़ते हुए जनसांख्यिकी दबाव ने अधिक से अधिक भूमि को कृषि भूमि में बदलने के लिए प्रेरित किया. 1650 में प्रति वर्ग किलोमीटर आबादी का घनत्व 35 था. मुग़ल साम्राज्य के चरम पर 1608 में आगरा सूबे में कुल उपलब्ध भूमि का केवल 27.5 प्रतिशत ही खेती बाड़ी के लिए इस्तेमाल हो रहा था.

1656 से 1668 तक भारत में रहे फ़्रेंच यात्री बर्नियर के आंखों देखे सूरतेहाल के मुताबिक दिल्ली से आगरा तक जमुना के किनारे और लाहौर तक जाने वाले प्रमुख मार्गों के दोनों ओर घास के बड़े बड़े मैदान थे. इससे राज्य सत्ता के राजस्व में भी बढ़ोत्तरी होती थी. इन सब कारकों का मिलाजुला परिणाम यही हुआ कि वन सिकुड़ने लगे.

मध्य भारत का वन क्षेत्र जो कि महानदी और गोदावरी के बीच बस्तर से लेकर झारखंड और गुजरात के दोहाद और राजपीपला तक फैला हुआ था, शाहजहां के समय तक पूरे देश में जंगलोंका सबसे बड़ा विस्तार था. शाहजहां के दरबारी इतिहासकार लाहौरी के मुताबिक़ इस पूरे इलाक़े से जंगली हाथियों को पकड़ा जाता था. लेकिन 18वीं शताब्दी के मध्य तक यह जंगल पर्याप्त रूप से सिमट चुका था.

गुजरात से प्राप्त मिरात-ए-अहमदी का लेखक बताता है कि राजपीपला से होकर जाने वाला वह रास्ता जो हाथियों के गुज़रने का कॉरिडोर था,बंद हो चुका था. (पेज 32,मैन एंड नेचर इन मुग़ल एरा,शीरीन मूशवी. इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस 1992)

हिमालय और तराई के उप-पर्वतीय इलाक़ों के वन उन्हें उच्च गुणवत्ता की सागौन और साल की लकड़ी उपलब्ध कराते थे. वनों से ज़्यादा से ज़्यादा कमाई करने के लक्ष्य घोषित किए गए. 1849 में लंदन की दो बड़ी कम्पनियों को जंगल की लकड़ी का ठेका दिया गया. एककिलोमीटर रेलवे लाइन बिछाने के लिए औसत ढाई सौ पेड़ काटने होते थे.साल की अच्छी से अच्छी लकड़ी के स्लीपर भी दस साल से ज़्यादा नहीं टिकते थे.इसलिए हर दस साल बाद फिर उतने ही पेड़ काटे जाते.

प्रो इरफ़ान हबीब के एक आंकलन के मुताबिक़ केवल 1879 तक रेलवे लाइन बिछाने के लिए क़रीब 20 लाख पेड़ काट डाले गए.इंजन का ईंधन अलग से.एक अनुमान के मुताबिक़ एक किलोमीटर की यात्रा के लिए हर साल क़रीब 50 टन लकड़ी रेल इंजन के लिए चाहिए होती थी.अकेले 1890 तक जब भाप के कोयला चालित इंजनों का चलन शुरू हुआ,लाखों पेड़ और हज़ारों वर्ग किलोमीटर के जंगल ‘प्रगति’ के लिए उजाड़े जा चुके थे.

गाडगिल और गुहा (p. 112, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस) द्वारा दिए गए हवालों से पता चलता है कि जब तक रत्नागिरि की कोयले की खानों ने पूरी तरह से काम करना शुरू नहीं किया तब तक रेलवे कम्पनियां पूरी तरह से अपने ईंधन के लिए वनों पर निर्भर थीं. इसके चलते दोआब में भारी मात्रा में वनों की कटाई हुई. रेलवे की प्रगति ने भारत की पारिस्थितिकी को जिस तरह बदला उसका वर्णन क्लेगार्न की किताब द फ़ॉरेस्ट एंड द गार्डेन्स ऑफ़ साउथ एशिया में मिलता है.

इस सबका असर परोक्ष रूप से भारत में उस पूरी पारिस्थितिकी पर पड़ा जिसके शीर्ष पर बाघों की नुमाइंदगी थी. दरअसल यह एक कठोर वास्तविकता है कि औद्योगिक अर्थों में प्रगति हमेशा और किसी न किसी रूप में प्रकृति के प्रति एक भयानक संवेदनहीनता के ज़रिए हासिल की गयी है. यह सिलसिला अब तक रुका नहीं है किंतु कोविड की महामारी के बीच में यह सही समय है जब हम अपनी प्रगति का एक क्षण ठहरकर पुनर्मूल्यांकन करें कि क्या यह वही प्रगति है जिसे हासिल किया जाना था और यदि यह वही अपेक्षित प्रगति है तब इस प्रगति की हमने और हमारे अन्य मानवेतर जैविक सहयोगियों ने कितनी बड़ी क़ीमत अदा की है.

क्या हम उन पलों की पूर्वकल्पना कर सकते हैं जब एक दिन पूरी धरती पर केवल एक आदमी और उसके लालच में सहयोग करके जीवित रहने वाली जैव-विविधता ही शेष रह जाएगी? शेष सभी को ख़त्म हो जाना पड़ेगा. यदि ऐसा हुआ तो वह पल कितना क्रूर होगा.नार्वे के दार्शनिक अर्ने नेस अपने जैव-मंडलीय समतावाद और डीप इकॉलजी के फ़लसफ़े के बाबत कहा करते थे कि मनुष्य को यह अधिकार क़तई नहीं है कि वह इस धरती को अपने उपयोगितावाद के चलते बर्बाद करके ही माने. अब जबकि एक वायरस ने हमारे अपने दृढ़ अस्तित्व के खोखलेपन को हमारे सामने लाकर रख दिया है, यह बिलकुल ठीक वक़्त है जब हम एक प्रजाति के तौर पर अपने पक्ष में झुके हुए शक्ति संतुलन के पलड़े को फिर से संतुलित करें. इस ख़ूबसूरत धरती पर हर किसी जीव को फलने फूलने दें.

(लेखक यूपी कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. व्यक्त विचार पूर्णतः निजी हैं)

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