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महामारी और जलवायु संबंधी आपदाएं मजदूरों के लिए युद्ध से बड़ा खतरा हैं
जलवायु से जुड़ी आपदाएं जैसे बाढ़, सूखा, तूफान आदि युद्धों से ज्यादा श्रमिकों के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही हैं. ऊपर से महामारी कोविड-19 ने आग में घी का काम किया है. जिसने पहले से ही इन आपदाओं का बोझ सह रहे मजदूरों की दिक्कतों को और बढ़ा दिया है. गौरतलब है कि 2000 के बाद से इन आपदाओं के घटने की दर दोगुनी हो गई है.
कोविड-19 महामारी ने पूरे श्रम बाजार को बुरी तरह प्रभावित किया है. लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा चिंतित करती है वह है श्रम उत्पादकता में आ रही गिरावट. जिसका मतलब है कि किसी श्रमिक द्वारा हर दिन किये जा रहे काम में कमी आना. किसी मजदूर द्वारा हर दिन किया जाने वाला काम सीधे तौर पर उसकी रोज की मजदूरी से जुड़ा होता है और उत्पादकता के घटने का सीधा मतलब है मजदूरी का घटना. 2007 से 09 के बीच आए वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से दुनिया पहले ही श्रम उत्पादकता में गिरावट के एक दशक से भी ज्यादा लम्बे दौर से गुजर रही है. ऐसे में कोविड-19 और आपदाओं के बीच आने वाला भविष्य क्या होगा यह बात अर्थशास्त्रियों को चिंतित कर रही है.
विश्व बैंक द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में वित्तीय संकट और युद्ध से अधिक बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं को श्रम उत्पादकता के लिए खतरा बताया है. साथ ही इस रिपोर्ट में कोविड-19 जैसी महामारियों को भी इन आपदाओं में शामिल किया है. जिसका असर श्रम उत्पादकता और मजदूरों के भविष्य के लिए और दुखदायी होगा.
"ग्लोबल प्रोडक्टिविटी: ट्रेंड्स, ड्राइवर्स, और पॉलिसीज" नामक इस रिपोर्ट में पहली बार कोविड-19 के श्रम उत्पादकता पर पड़ने वाले असर का अध्ययन किया गया है. इसमें श्रम उत्पादकता पर असर डालने वाली अनेक घटनाओं जैसे युद्ध, संघर्ष, प्राकृतिक आपदाओं और महामारियों के असर का तुलनात्मक विश्लेषण किया है.
जिसके निष्कर्ष के अनुसार भले ही युद्ध और संघर्ष का श्रमिक उत्पादकता पर गंभीर असर पड़ रहा है, लेकिन जलवायु आपदाओं की संख्या इतनी अधिक बढ़ गई है कि पहले की तुलना में कहीं ज्यादा श्रम उत्पादकता और बाजार पर असर डाल रही हैं. जोकि युद्ध और संघर्ष की तुलना में कहीं ज्यादा है.
रिपोर्ट के अनुसार युद्ध के कारण पूंजी और उत्पादकता से जुड़े कारकों पर गंभीर और लंबे समय तक रहने वाले असर पड़ते हैं, लेकिन जलवायु से जुड़ी आपदाओं के बढ़ने से श्रमिक उत्पादकता पर व्यापक असर पड़ रहा है.
यदि आंकड़ों पर गौर करें तो उसके अनुसार 1960 से 2018 के बीच आई प्राकृतिक आपदाओं की संख्या युद्धों की तुलना में 25 गुना और 2008 जैसे वित्तीय संकटों से 12 गुना ज्यादा थी. वहीं प्राकृतिक आपदाओं में विशेषकर जलवायु संबंधी आपदाएं जैसे चक्रवात और चरम मौसम संबंधी घटनाएं बार-बार हमला कर रही हैं. इससे ने केवल अर्थव्यवस्था बल्कि श्रम उत्पादकता पर भी व्यापक असर पड़ रहा है. रिपोर्ट के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं में विशेषकर जलवायु से जुड़ी घटनाएं दुनिया भर में बढ़ती जा रही हैं. इनके घटने की दर 2000 के बाद से लगभग दोगुना बढ़ चुकी है. जबकि सभी प्राकृतिक आपदाओं में जलवायु संबंधी आपदाओं का हिस्सा करीब 70 फीसदी था. और वो कोविड-19 महामारी जैसी जैविक आपदाओं की तुलना में दो बार घटित हुई हैं.
इस अवधि के दौरान, जलवायु से जुड़ी आपदाओं ने श्रम उत्पादकता में 0.5 फीसदी सालाना की दर से कमी की है. यह श्रम उत्पादकता पर युद्ध के प्रभाव का लगभग पांचवां हिस्सा है. लेकिन यदि जलवायु से जुड़ी आपदाओं की संख्या को देखें तो वो इतनी अधिक हैं कि उनके द्वारा पड़ने वाला संयुक्त असर श्रम उत्पादकता में बड़े नुकसान का कारण बनता है. इससे भी बढ़कर इन घटनाओं का असर श्रम उत्पादकता पर लम्बे समय तक रहता है, जो ज्यादा कष्टकारी होता है.
रिपोर्ट के अनुसार तीन वर्षों में जलवायु से जुड़ी इन विनाशकारी आपदाओं ने श्रम उत्पादकता में लगभग 7 फीसदी की कमी की है. जिससे कुल उत्पादकता में भी कमी आई है. इन आपदाओं से वित्तीय संकट और युद्ध जैसी घटनाओं में भी वृद्धि होती है. जो श्रम उत्पादकता को भी प्रभावित करती हैं. इस तरह यह आपदाएं श्रम उत्पादकता में कमी लाने वाली अन्य घटनाओं को भी हवा देती हैं.
महामारी जैसी जैविक आपदाओं से भी श्रम उत्पादकता में भारी कमी आई है. पिछले दो दशकों में, हमने चार प्रमुख महामारियों- सार्स, मर्स, इबोला और जीका के असर को झेला है. विश्व बैंक के आकलन के अनुसार इन आपदाओं के घटने के तीन साल बाद भी श्रम उत्पादकता में 4 फीसदी की कमी दर्ज की गई है.
यदि पिछली घटनाओं के आधार पर देखें तो कोविड-19 महामारी श्रम उत्पादकता पर बहुत गहरा असर डालेगी. यह महामारी अब तक की सबसे ज्यादा व्यापक महामारी है. जिसका असर दुनिया के लगभग हर देश पर पड़ा है. अनुमान है कि इसके कारण दुनिया के 90 फीसदी देशों में प्रति व्यक्ति आय घट जाएगी. दुनिया भर पर असर करने के कारण महामारी पिछली सभी आपदाओं से ज्यादा विनाशकारी होगी. साथ ही इसको रोकने के लिए जो लॉकडाउन और शारीरिक दूरी जैसे उपायों को अपनाया गया है उसका एक व्यापक असर श्रमिकों की उत्पादकता और अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ेगा.
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