Newslaundry Hindi
‘आत्मनिर्भर भारत’: सरकार द्वारा जनता की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने का बहाना?
कोरोना महामारी के लगातार बढ़ते प्रभाव के कारण एक ओर देश की सामाजिक आर्थिक एवं शैक्षिक स्थिति बद से बदतर बनती जा रही है तो दूसरी तरफ केंद्र सरकार ने आत्मनिर्भरता की घोषणा के द्वारा जनता के प्रति कई जवाबदेहियों से अपने को मुक्त कर लिया है जिसके चलते सभी क्षेत्रों में घोर निराशा का वातावरण छाया हुआ है. आर्थिक मोर्चे पर गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले तथा निम्न मध्यम वर्ग के सामने रोजी रोटी का संकट मुंह बाए खड़ा है और इनके पास किसी भी तरह से आगे का रास्ता नहीं सूझ रहा है.
लॉकडाउन तोड़कर तथा अनलॉक होने के बाद जब मजदूर शहरों को छोड़कर गांव पहुंच गए हैं इससे गांवों की आर्थिकी पर दबाव अधिकतम तक बढ़ गया है. सरकारों की किसान विरोधी नीतियों के कारण गांवों की हालत पहले से ही आर्थिक रूप से बहुत खराब हो चुकी थी. देश के जीडीपी में आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद भी कुछ समय तक जिस कृषि क्षेत्र की भागीदारी सबसे ज्यादा हुआ करती थी वह बदलते हालात में औद्योगिक विकास एवं बढ़ते सर्विस सेक्टर में सरकार की पक्षधरता के कारण घटकर 15 प्रतिशत से नीचे आ गयी है जबकि सर्विस सेक्टर की भागीदारी 56 प्रतिशत से ऊपर हो गयी और बहुत कोशिश के बाद भी औद्योगिक सेक्टर की भागीदारी 29 प्रतिशत पर सिमटी हुई है.
रोजगार की दृष्टि से देखा जाए तो कृषि क्षेत्र में सबसे ज्यादा कामगार काम में लगे हुए हैं जिसमें अनस्किल्ड की संख्या ज्यादा है. कृषि क्षेत्र के घाटे में होने के कारण आर्थिक उपार्जन या मजदूरी के लिहाज से सबसे कम आय हो पाती थी जिसके कारण बड़ी संख्या में लोगों को औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों की ओर पलायित होना पड़ा है.
वहीं सर्विस सेक्टर की जीडीपी में सबसे बड़ी भागीदारी के बाद भी सबसे कम रोजगार के अवसर पाए जाते है जबकि औद्योगिक क्षेत्र में सरकार के बहुत प्रयास के बाद भी, चाहे एफडीआई हो चाहे सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण करने, श्रम कानूनों को बदलकर मजदूरों के काम के घंटे बढ़ाने, संविदा ठेका पट्टा और वो सारे उपाय जिसमे कौड़ियों के भाव किसान की जमीन छीनकर पूंजीपतियों को सौंपने तथा अनेको तरह से श्रम व कच्चे माल की लूट शामिल है, के बावजूद देश में मैन्युफ़ैक्चरिंग की स्थिति बदतर होने के कारण रोज़गार के अवसर प्रतिदिन प्रतिवर्ष लगातार कम होते चले गए हैं और आयात निर्यात की प्रक्रिया में बिगड़ते संतुलन के कारण भारत एक असेम्बलिंग हब तथा आयातित माल की बिक्री का बड़ा बाजार भर बन कर रह गया है.
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी जी ने दावा किया था कि प्रतिवर्ष दो करोड़ लोगों को रोजगार देंगे लेकिन देश में उत्पादन विरोधी नीतियों के कारण रोजगार देने के दावे और वादे खोखले साबित हुए जबकि ठीक उसका उल्टा पब्लिक सेक्टर एव संगठित, असंगठित प्राइवेट सेक्टरों में छंटनी की प्रक्रिया बहाल कर दी गयी और करोड़ों मजदूर काम से बाहर हो गए. संसद से लेकर सरकार एवं सरकारी पार्टी के लोगों द्वारा पकौड़ा-पकौड़ी बेचने को भी महत्वपूर्ण रोजगार की श्रेणी में लाकर के देश के करोड़ों पढ़े लिखे नवजवानों का मज़ाक उड़ाया गया. यहां मैं एक घटना का जिक्र करना चाहता हूं.
उसी दौरान जब पकौड़ी बेचने की चर्चा जोरों पर थी और ये बहस शहर एवं गावों के नुक्कड़ एवं चौराहों पर चल रही थी तब दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब के पास दो लोगों की आपसी बातचीत के दौरान एक बुजुर्ग ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए बहुत ही निराशापूर्ण भाव में मुझसे पूछा था कि “का हो बाबू, तू ही बताव, हम अपनी लइकवा के इंजीनियरी पढ़वले बानी, आ उ दिल्ली में नोकरी करता त एतना पढ़ा के ओ से पकौड़ी बेचवावल जाई, ई बात त ठीक नइखे. एहि खातिर इनके परधानमंत्री बनावल बा.”
उस बुजुर्ग आदमी की भोजपुरी में बातचीत से लगा कि पूरब के रहने वाले हैं. पूछने पर पता चला कि वो जौनपुर से हैं और उनका लड़का किसी प्राइवेट फैक्टरी में इंजीनियर के रूप में काम करता है और ये दोनों लोग अपने बच्चे के पास दिल्ली घूमने आए थे. धोती कुर्ता पहने इन व्यक्ति से बात करके यह अहसास हुआ कि जो मेहनत मशक्कत से बच्चे को पढ़ा कर इंजीनियर बनाने का सपना उनकी आंखों में दिख रहा था वह मोदीजी के पकौड़ी बेचने को रोजगार की वकालत करने से टूटता हुआ नजर आ रहा था. इसी तरह से पूरे देश में इन पढ़े लिखे नौजवानों के काबिल बनने का सपना निराशा में बदलते हुए दिखाई दिया.
यदि दो करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष रोजगार देने की प्रतिबद्धता किसी सरकार की होती तो उसके लिए यह जरूरी होता कि वह देश में नए उद्योगों की स्थापना कर उत्पादन को बढ़ाने और रोजगार के नए अवसरों को सृजित करती. कृषि क्षेत्र को ज्यादा से ज्यादा मजबूत कर कृषि कार्य में लगे हुए लोगों को पलायन से रोकने को प्राथमिकता देती. साथ ही शिक्षा पर भारी बजट खर्च करके सरकारी शिक्षा स्तर की गुणवत्त्ता को बढ़ाने तथा बड़े पैमाने पर शोधकार्य के द्वारा विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी को विकसित कर बाहर से तकनीकी खरीदने के व्यय को न्यूनतम करने का प्रयास करती. सरकारी स्तर पर चिकित्सा व्यवस्था को मजबूत करने के मौलिक प्रयासों में लगती जिससे कि कम आय वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ रखा जा सके ताकि उसकी मेहनत का बड़ा हिस्सा, जो बीमारी के नाम पर प्राइवेट अस्पतालों में लूट लिया जाता है, उससे बचाया जा सके.
मोदीजी के दो करोड़ लोगों को रोजगार देने का दावा इसलिए खोखला साबित हो जाता है कि वह जब 8 नवंबर,2016 को नोटबन्दी की घोषणा करते हैं तो उद्योगों की स्थापना के बजाय लाखों छोटे बड़े उद्योग बन्द हो जाते हैं. करोड़ों मजदूरों को बेरोजगार कर जाते हैं. पचास दिन की बाजार बंदी का समय मांगते हैं तो लाखों करोड़ का बाजार मरता है जिसकी भरपाई हो पाना भविष्य में कभी भी संभव नही रहा. उसके बाद रही सही कसर जीएसटी की घोषणा कर जनता पर भारी टैक्स लाद कर पूरी की जाती है जिससे जनता की कमर टूट जाती है.छोटे उद्यमी ध्वस्त हो जाते हैं और बेरोजगारी और तेज़ी से बढ़ जाती है. उस हालातमें मैन्युफैक्चरिंग और निर्यात दूर की कौड़ी साबित होते हैं.
इसी बीच रुपये के अवमूल्यन एवं भारी आयात से देश पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है जिसमें बजट का बड़ा हिस्सा ब्याज के रूप चला जाता है. अब जब देश की जनता एक तरफ बेरोजगारी, कुपोषण, अशिक्षा एवं तमाम किस्म के भय और भ्रष्टाचार से त्रस्त है तब एक तरफ इने गिने उद्योगपतियों को बचाने और उनके मुनाफे को बनाये रखने के लिए बजट में बड़ा हिस्सा एनपीए का राइट ऑफ किया जाता है जबकि दूसरी ओर सार्वजनिक संपत्ति को मामूली कीमत पर उन्हें सौंप दिया जाता है. ये वो संपत्तियां हैं जो कभी देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपक्रम के रूप में ख्याति प्राप्त रही हैं जैसे रेल, कोयले की खदानें, एयरपोर्ट, एयरलाइंस, पैट्रोलियम, गैस, बिजली आदि.
उपरोक्त सारी बातों को इस परिप्रेक्ष्य में कहा जा रहा है कि जब कोरोना महामारी को देश के प्रधानमंत्री ने अवसर में बदलने की घोषणा करते हुए, देश को आत्मनिर्भर बनने की घोषणा कर दी है तो इसका आशय साफ झलकने लगा है कि देश और प्रदेश की सरकारों ने जनता की जरूरतों, समस्याओं एवं जिम्मेदारियों से खुद को मुक्त कर लिया है. ऐसे में ताज्जुब तो तब होता है जब देश के प्रधानमंत्री अचानक सवा करोड़ लोगों को रोजगार देने की घोषणा कर देते हैं और उसका शुभारम्भ भी कर देते हैं. उनसे दो हाथ आगे बढ़कर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो यहां तक कह देते हैं कि ‘जितने मजदूर बाहर से वापस लौट कर आये थे उन सभी को रोजगार दे दिया गया’ और उनके बड़े-बड़े विज्ञापन अखबारों में छपवा दिए गए.
हो सकता है कि किसानों मजदूरों का देश जो शताब्दियों से शीर्ष पर बैठे लोगों की बातों पर भरोसा करता आया है, चाहे वो फ्रांसीसी हों, डच हों, पुर्तगाली हों या अंग्रेज हों, निश्चित ही अखबारों में छपे इश्तहार व कॉरपोरेट चैनलो में विज्ञापन की धूम सुनकर भरोसा कर सकते हैं लेकिन वास्तविकता यही है कि कोरोना महामारी में लॉकडाउन के दौरान देश की लगभग सारी इंडस्ट्रीज, सारे शहर, बाजार-यातायात एवं उत्पादन संबंधी या रोजगार संबधी सारे कारोबार बंद हैं, सड़कों और बाज़ारो में सन्नाटा है और कोरोना का भय आमजन को सता रहा है.
अखबारों में छपी खबरों के मुताबिक सरकारें जांच और इलाज में असमर्थता जाहिर कर रही हैं जबकि प्राइवेट अस्पतालों का इलाज अत्यंत महंगा और जनता का हाथ खाली होने के कारण स्वयं के बचाव के लिए और प्रतिदिन कोरोना संक्रमण को बढ़ते हुए देखकर लोगों के पास बचाव ही उपाय रह गया है. देश के तमाम अर्थशास्त्रियों के मुताबिक रोजगार की हालत अत्यंत दयनीय है और यदि सवा करोड़ लोगों को रोजगार देना है तो उसके लिए तत्काल में नए उद्योगों की स्थापनाएं, उत्पादन को बढ़ाना, सार्वजनिक क्षेत्र में लोगों की भर्ती करना होगा. सरकार द्वारा चलाई जा रही रोजगारपरक योजनाओं पर भारी बजट उपलब्ध कराना होगा ताकिजिससे रोजगार की वृद्धि हो सके और लोगों को काम मिल सके. लेकिन देखा जा रहा है कि अभी तक सरकार ने न कोई नए उद्योगों के लिए किसी मॉडल की बात की, न ही व्यापार को बढ़ावा देने की, तो नहीं लगता कि सवा करोड़ लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त हो सके होंगे.
ऐसे में उत्तर प्रदेश में मजदूरों की संख्या जो लगभग एक करोड़ से अधिक है उन्हें कहीं समायोजित किया होगा या किया जा सकेगा. यहां तक कि बाहर से आये लोगों की वजह से जिन किसानों की हालत पहले से ही खराब थी अब और खराब ही होती जाएगी और किसानों द्वारा उत्पादित माल को कोरोना की वजह से मंडियों में ले जाना या बिक्री करना स्वतः एक मुश्किल काम था जिसकी कठिनाइयां और भी बढ़ गयी हैं. बढ़ती हुई बिजली का दाम और डीजल का दाम उनकी कठिनाइयों को और बढ़ा देगा.
Also Read
-
Let Me Explain: How the Sangh mobilised Thiruparankundram unrest
-
TV Newsance 325 | Indigo delays, primetime 'dissent' and Vande Mataram marathon
-
The 2019 rule change that accelerated Indian aviation’s growth journey, helped fuel IndiGo’s supremacy
-
You can rebook an Indigo flight. You can’t rebook your lungs
-
‘Overcrowded, underfed’: Manipur planned to shut relief camps in Dec, but many still ‘trapped’