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टैगलाइन में सिमटे राष्ट्रवाद की हिंसा

सम एक महत्वपूर्ण शब्द है, जिसका शब्दकोषीय अर्थ हुआ–तुल्य या बराबर. आम तौर पर इस शब्द का प्रयोग किसी के जैसा बताने के लिए किया जाता है.जैसे दो अलग-अलग लोगों द्वारा एक जैसी बात कहने पर ये कहा जा सकता है कि अमुक व्यक्ति की बात और उनके मित्र की बात सम ही है– यानि एक जैसी है.हालांकि वाक्यों की अपनी संरचना के अनुसार सम शब्द के अर्थ अलग हो सकते हैं और इस प्रकार उनका वाक्य-प्रभाव भी अलग-अलग हो सकता है. भाषा विज्ञान में इस वाक्य-प्रभाव को यमक और श्लेष अलंकार से और बेहतर समझा जा सकता है.यमक अलंकार में शब्द की आवृत्ति होती है,यानि सम शब्दों का प्रयोग दो या उससे अधिक बार होता है लेकिन उन एक जैसे शब्दों का अर्थ भिन्न होता है. जबकि एक शब्द में ही एक से अधिक अर्थ चिपके हों तो वहां श्लेष होता है.अंग्रेज़ी में यमक के लिए पन और श्लेष के लिए होमोनिम का प्रयोग होता है.

राजनीति में सम शब्दों की भिन्न अर्थों वाली ये आवृत्ति और अनेक अर्थ रखने वाले एक शब्द का प्रयोग बहुधा सामान्य है.उसमें भी सबसे सक्रिय और आधुनिक आईटी सेल से सुसज्जित वर्तमान सरकार- जिसके पास हर अवसर, समस्या, मुद्दे पर एक मीडिया टैगलाइन, एक मार्केटिंग कोट (बाजारू उद्धरण भी कह सकते हैं) मौजूद है, या यूं कहें जिसके लिए समस्या ही व्यापारका अवसर हो– के लिए ऐसे सम अर्थों का अलग-अलग अर्थ-प्रयोग होना उनके कौशल का बहुत ही मामूली नमूना है. ज़ाहिर है! जब सरकार कह रही हो कि अच्छे दिन फिर आएंगे, तो समझ लेना होगा कि अच्छे दिन से श्लेष (चिपके हुये) कौन से अर्थ को लेना है और उन्हें किस संदर्भ के साथ लेना है.

हालांकि ऊपर का उदाहरण सरकार के सभी बाजारू उद्धरणों पर सटीक नहीं. जैसे ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे में श्लेष और यमक दोनों ही का उदाहरण मिल जाएगा– विकास वाले अंश में नहीं, यहां इसका एक ही अर्थ है और ये तो अब स्पष्ट ही है कि ‘सबका विकास’में ‘किसका विकास’ हो रहा है.यहां पर जो सबका साथ मांगा गया है,स्पष्ट ही है कि उसमें तमाम सरकारी-प्रशासनिक तंत्र,लोकतन्त्र के विलुप्तप्राय धड़े (मीडिया समेत) और जनता भी शामिल है.लेकिन कितना और कहां तक इनका साथ लेना है और कहां से विकास वाली ओर साथ लेने के लिए भी रुख़ कर लेना है– यही तो इनका कौशल है जो लबालब है इनके उद्दीपक-कूटनीतिक आत्मविश्वास से.यहां रघुवीर सहाय का‘जल्दी हंसो’ का आदेश याद आ जाता है-

हंसो तुम पर निगाह रखी जा रही है.

हंसो अपने पर न हंसना क्योंकि उसकी कड़वाहट

पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे

कविता ‘हंसो हंसो जल्दी हंसो’की आदेशमूलक हंसी पीड़ा और हिंसा की विसंगतियों की ओर इशारा करती है.हंसी जैसी एक परम मानवीय अभिव्यक्ति भी अपनी असहायता-अवशता में कैसे नए संदर्भों के साथ अपने लिखित रूप से ध्वनि-भेद में अलग हो जाती है.

वर्ष 2014 लोकसभा चुनावों से बाजारू उद्धरणों का जो क्रमिक दौर चला, वो इन्हीं असंगतियों में फलित हुआ.‘नामुमकिन अब मुमकिन है’और ‘अबकी बार मोदी सरकार’ के टैग लाइन के साथ लोकसभा चुनावों में शंखनाद करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने श्लेष और यमक के जो अर्थ-प्रयोग किए,उसने इन शब्दों के साथ नए (और असंगत) समाजशास्त्रीय संदर्भ खड़े कर दिये. जैसे 2014 के टैगलाइन ‘नामुमकिन अब मुमकिन है’ को छ: साल के अनुभवों के साथ रखकर देखने पर समझ आयेगा कि ‘मुमकिन’ तो असल में ‘नामुमकिन’ था और,‘नामुमकिन’ ठीक उलट- ‘मुमकिन’.

क्या 2014 में नोटबंदी जैसा कोई प्रसंग ‘मुमकिन’ भी लगता था?ठीक बात है कि लैंगिक-जातिगत-धार्मिक-वर्गीय आधारों पर भेदभाव परक समाज में हाशिये पर धकेल दिये गए समुदायों के साथ व्यापक एकता (सॉलिडेरिटी) बना पाना अभी भी भविष्य का स्वप्न ही है. फिर भी नोटबंदी के समय अपने पैसे के लिए ही लाइन में खड़ी होने वाली आम तौर पर आत्म-केन्द्रित जनता का ‘स्थायी भक्तिभाव’ क्या इस हद तक ‘मुमकिन’ लगता था?या फिर महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर और कुछ नहीं तो सामान्य हो-हल्ला तक मचा देने वाली जनता की ऐसी सुरमई शांति ठीक इसी रूप में ‘मुमकिन’ थी क्या?जैसे इस सरकार के लिए जनता ने ही ‘अच्छे दिनों’ का वायदा कर दिया हो. जैसे कह दिया हो कि जो कुछ भी सम था,उसे सहूलियत अनुसार विषम के अर्थ में ही समझ लिया जाएगा. और विषम को इसी प्रकार सम मान लिया जाएगा.तभी तो तबलीगी जमात के लोगों का मरकज़ में बीमार पड़ना मरकज़ ही के विरुद्ध सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक कार्रवाई का कारक बन गया और अपराधी विकास दूबे का उज्जैन के मंदिर में पाया जाना अभी भी कईयों के लिए जाति-विरुद्ध बदले की कार्रवाई ही है.

हेमलेट में शेक्सपियर लिखते हैं –आई मस्ट बी क्रुएल ओन्ली टू बी काइंड (मुझे दयालु बने रहने के लिए क्रूर होना होगा.)

इस वाक्य में जो विरोधाभास है, जनता इन तमाम विरोधाभासों से पार हो गयी लगती है. मानों अब वो इन शब्दों में उलट-फेर करना भी सीख चुकी हो. वो कब तक ऐसी ही बनी रहे, कब क्रूएल (क्रूर) को काइंड (दयालु) की जगह फिट कर दे और कब उनके सम-विषम अर्थों को परस्पर मिश्रित कर दे,जैसे उसे इसकी कला आ चुकी हो.

वर्ष 2015 में मोदी सरकार के एक साल का कार्यकाल पूरा होने के उपलक्ष्य में टैग लाइन आया– साल एक, शुरुआत अनेक. तमाम दूसरे कारनामों के साथ यह साल नदियों को अंतर्देशीय जलमार्ग में बदलने, बुलेट ट्रेन जैसी घोषणाओं के नाम रहा.‘लोकतन्त्र, जनसांख्यिकी और मांग’ (डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी ऐंड डिमांड) की एक और शब्दावली के साथ ये वर्ष सरकार के अनुसार देश (राष्ट्र ही सटीक होगा वैसे) का सामर्थ्य दिखाने की भावना का रहा. वाक़ई! लोकतन्त्र की नज़र में यह एक साल अनेक शुरुआतों का ही था.यहां भाव में शब्दों के सम-विषम व्यूह का कमाल तो देखिये.

एक तरफ 101 नदियों को व्यापार के लिए जलमार्ग में परिवर्तित कर दिया गया, पर्यावरण संरक्षण से जुड़े तमाम क़ानूनों में औद्योगिक-हितों के अनुरूप संशोधन कर दिया गया, स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को पूंजीपतियों के हितों के समक्ष तिलांजलि देते हुये आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों (जेनेटिकली मोडीफ़ाइड क्रॉप्स) का परीक्षण वापस ज़ोर-शोर से शुरू किया गया; तो दूसरी ओर इसी वर्ष संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन के विषय पर हुये अधिवेशन में वैश्विक तापमान की लगातार बढ़ोत्तरी (ग्लोबल वार्मिंग) पर बात करते हुये प्रधानमंत्री नेसौर ऊर्जा के विकल्प को लेकर अपनी प्रतिबद्धता भी रखी.‘लोक’ अब लोकतन्त्र के अर्थ-विन्यास से निकाल दिया गया. लोकतन्त्र शब्द रह तो गया,मगर भाव में तंत्र ही बचा.

विडम्बना यह है कि इस तंत्र से लोक निकल गया और जनता फिर भी ‘मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है’ जैसे नए बाज़ारू टैग लाइन की पूरे उत्साह से फरमाबरदारी करती रही.लोक तो कबका जनता के लिए भी किसी एक धर्म के खांचे में आ गया. कुछ इस तरह कि कुछ भी और बेमानी हो गया. तभी तो छात्र इस जनता को अब छात्र जैसे नहीं दिखते, औरतें औरतों जैसी नहीं दिखती, बच्चे भी बच्चों जैसे कहां दिखते हैं.ये पहले ‘मुसलमान’ दिखते हैं. गर मुसलमान न हो तो ईसाई दिखते हैं,गैर-जातियों के दिखते हैं और कुछ भी समझ न आए तो जैसे इन छात्रों, औरतों, बच्चों, किसानों, मजदूरों की शक्ल सामने होकर भी दिखाई न दे रही हो, जैसे इनके चेहरों के आगे कोई टैग-लाइन टांग दिया गया हो, जिसे बड़ी सहजता से जनता ने समग्र भाव से अपना भी लिया हो और इस समूचे ‘लोक’ की शक्ल उस टैग-लाइन में ही बदल गयी हो.

ग़ालिब का एक शेर है – काबे किस मुंह से जाओगे ‘ग़ालिब’ शर्म तुमको मगर नहीं आती.

शायद इस फरमाबरदार जनता को अब कहीं नहीं जाना है. शायद इसने अपना लोक-परलोक अपने सिकुड़े-संकीर्ण दायरों में ही मान लिया है. अध्यात्म अब अपने सम अर्थ-विन्यास में नहीं,सिमटे हुये भावों भर तक रह गया है. शब्द वही है, अर्थ अलग हैं. शायद भाव-शून्यता ही भाव बन चुकी है. आत्मा का न होना ही आत्मिक होना भी रह गया हो शायद!

तभी तो सड़कों पर तंत्र लोक को पीटता रहा और दूसरी ओर ‘फिर एक बार, मोदी सरकार’का जयघोष भी लग गया.रघुवीर सहाय फिर याद आते हैं –

सुनो वहां कहता है मेरा प्रतिनिधि मेरी हत्या की करुण कथा –

हंसती है सभा-

तोंद मटका ठठा कर अकेले अपराजित सदस्य की व्यथा पर

फिर मेरी मृत्यु से डर कर

चिचिया कर कहती है – अशिव है, अशोभन है, मिथ्या है –

मिथ्या ही तो मान ली गईं वो तमाम आवाज़ें जिन्होने लोकतन्त्र के होने का एहसास दिलाना चाहा था, जो सड़कों पर निकले थे,जिनकी आत्माएं थी, जिनकी सामूहिकता में संगीत था. तभी तो महामारी के इस दौर में लोकतन्त्र को बचाने निकली उन आवाज़ों को कैद कर देने के लिए ‘आपदा में अवसर’ का नारा निकला और यकायक आपदा अवसर बन गयी.

अवसर के इस शोर में भूखे मीलों नापते कदमों की आवाज़ मद्धिम पड़ गयी. पटरियों पर पड़ी लाशें सम-विषम शब्दों की कसौटी पर समायोजित कर दी गईं. शहरों को बनाने वाले घर की तलाश में निकल गए और फिर अपने उन घरों से वापस नाउम्मीदी में शहर की ओर लौटने भी लगे– और सभा इस पूरे समय हंसती ही रही.

इस बीच ‘लोकल के लिए वोकल’की एक और टैग लाइन के साथ कोयला व्यावसायिक (कमर्शियल) हो गया, पर्यावरण संरक्षण और उस जैसे तमाम क़ानूनों में संशोधन के मसौदे भी तैयार हो गए और सरकार के लिए सबसे पहले ‘लोकल’ की सहमति का मूल अधिकार ही विसंगत हो गया. पर्यावरण तो ख़ैर कबका पूंजी के विस्तार के इस चक्र में पर्यावरण सुरक्षा के अंतरराष्ट्रीय अधिवेशनों के लिए आरक्षित खांचों में डब्बा बंद कर दिया गया. अब उसे समय-समय पर निकाला जाता है – बड़े समारोहों के अवसर पर जहां ग्लोबल वार्मिंग पर वैश्विक स्तर की चिंताएं व्यक्त की जाती हैं. लोकल के लिए पर्यावरण सुरक्षा का मामला अब काफी आउटडेटेड हो गया है.

अब जो कुछ भी आउटडेटेड लग रहा है, वह देशद्रोह को सुपुर्द कर दिया जा रहा है. देशद्रोह इन कुछ सालों में अपने ही नए अर्थ-विन्यास लेकर खड़ा हो गया है.सरकार ही देश है- यह मान लिया गया है. लोकतन्त्र, न्याय, समता, समानता, धर्मनिरपेक्षता जैसे मानवीय मूल्यों की ढाल बना संविधान किसी मनु की स्मृति के साथ तत्पर हिंसक, उन्मादी और संरक्षित भीड़ के हमलों से चौतरफ़ा घिरा हुआ है. हालांकि अब भी कुछ आवाज़ें हैं जो अपनी सामूहिकता में साथ खड़ी हैं– ये वही कुछ आवाज़ें हैं जिनकी आत्माएं अभी उनके साथ हैं,जिनमें से कई देशद्रोह के जुर्म में बंद कर दिये गए हैं, और कईयों का आपदा के इस दौर में लोकतन्त्र के साथ खड़े होने की कीमत चुकाना शायद अभी बाकी है.

इस बीच ‘विस्तारवाद’ से जुड़ा एक नया सम्बोधन आया है. वैसे इसे अभी टैग लाइन में बदला नहीं गया है. शायद आई टी सेल कहीं और सक्रिय है इन दिनों!

कहा गया कि - विस्तारवाद का युग समाप्त हो चुका है, यह युग विकासवाद का है.इस अनुभाव को लद्दाख यात्रा के दौरान ही आगे विस्तार से समझाया भी गया - विस्तारवाद की नीति ने विश्व शांति के लिए खतरा पैदा किया है और इसी अनुभव के आधार पर पूरे विश्व ने इस बार फिर विस्तारवाद के खिलाफ मन बना लिया है.

यहां‘विस्तारवाद’ का अर्थ अभिधा ही में लेने का विशेष आग्रह किया गया है- एक दूसरे देश द्वारा ‘भौगोलिक विस्तारवाद’. इसका अर्थ जम्मू-कश्मीर में लॉकडाउन के दौरान लाये गए ‘डोमिसाइल कानून’ से बिल्कुल नहीं है,जिसके तहत आनन-फानन में नियमों को शिथिल करते हुये जनसांख्यिकीय बदलाव करने की कोशिशें अपने चरम पर हैं. इसका अर्थ नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के तैयार किए जाने से भी नहीं है, धार्मिक विस्तारवाद जिसका केंद्र है.

कितना सरल हो चुका है,सरकारों का इन अर्थ-विन्यासों के साथ वाक्य-प्रयोग और जनता के साथ संवादहीन सम्प्रेषण! जैसे इन शब्दावलियों की प्रयोगस्थली ही राजनीति का मूल स्थान हो गयी हो. जैसे सत्ता समझ चुकी हो कि अब ये जनता और कहीं नहीं जाएगी,जान चुकी हो कि शायद ये वो ही समाज है जिसके लिए रघुवीर सहाय ने ‘हिंसा में मनोरंजन’ कविता की रचना की हो -

अत्याचार के शिकार के लिए समाज के मन में जगह नहीं

तब जो बताते हैं

वह उसका दुख नहीं

आपका मनोरंजन होता है.

ख़ैर! इन सबके बीच अब भी सामूहिकता के संगीत की आवाज़ मद्धिम नहीं पड़ी है. आत्माएं अब भी जीवित हैं.संविधान हाथों में लिए,तंत्र के साथ लोक को बनाए रखने की कोशिश में सुरीली आवाज़ों का ‘हम देखेंगे’ अब भी उतना ही जोशीला और आशान्वित करने वाला है.

विसंगतियों के इस दौर में बेहद मौजूं फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ का आखिरी दृश्य याद आता है–व्यापारी, राजनीतिज्ञ और मीडिया की सांठगांठ में फंसे दो मासूम फोटोग्राफर जेल के कपड़ों में सूली पर लटकने का इशारा कर रहे हैं और पृष्ठभूमि में ‘हम होंगे कामयाब’ की धुन बज रही है.

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