Newslaundry Hindi
रिज़वाना तबस्सुम: एक मुस्लिम महिला फ्रीलांस पत्रकार का न होना
रिज़वाना तबस्सुम पत्रकारिता को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कहकर जा चुकी है. इतनी दूर जहां से वो साथी फ्रीलांसरों के साथ स्टोरी आइडिया डिस्कस नहीं कर सकेंगी. उनसे संपादकों के नंबर और ईमेल नहीं मांगा करेगी. वो अब स्टोरी एप्रूव होने की चिंता से भी मुक्त हो चुकी हैं. उसे अब कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि कौन सी वेबसाइट उसे एक स्टोरी के लिए कितने पैसे देगी, और कितने दिनों तक उसे इंतज़ार करना होगा.
जब से मैंने रिज़वाना के जाने की ख़बर सुनी है, मैं सोच रहा हूं कि वो खुद को कैसे याद किया जाना चाहेगी? रिज़वाना एक साथ ही कई धारणाओं को ध्वस्त कर रही थी. अपने साथ कई विशेषणों को सिद्ध करते हुए आगे बढ़ रही थी. बनारस में अपने क्षेत्र से पहली मुस्लिम लड़की जिसने पत्रकारिता में स्नातकोत्तर किया. पेशेवर पत्रकारिता में सक्रिय हुई. जमकर उत्तर प्रदेश के गांव-देहात घूमते हुए कहानियां लिखी. कुछ समय के लिए दिल्ली आई. डेस्क पर थी तब. मैं उन दिनों न्यूज़लॉन्ड्री में था. उसका दफ्तर मेरे दफ्तर से थोड़ा ही दूर था. कभी-कभार मिल जाया करते थे. वो अपने चेहरे पर हंसी बिखेरते हुए बताती कि कैसे वो डेस्क पर ‘चट’ रही थी.
उसके भी वही युवा यकीन थे कि लिखने से दुनिया-समाज बदल सकता है. वो वैसी ही रिपोर्टर थी जिसे ग्राउंड पर होने का चस्का था. लाज़मी है उसका मन डेस्क पर नहीं लगता होगा. थोड़े ही वक्त के बाद मालूम हुआ कि वो नौकरी छोड़कर वापस बनारस चली गई. फेसबुक पर जुड़े रहे लेकिन वैसी कभी बातचीत नहीं होती थी.
पिछले एक-डेढ़ साल से वो फ्रीलांस कर रही थी. इस दौरान उसके साथी फ्रीलांसरों से बातचीत होती थी. उसे मालूम था कि वो दिल्ली के पत्रकारों की जमात से अलग-थलग बनारस में है. उसका कोई गॉडफादर नहीं था. लॉबी से कोसों दूर. किसी संपादक से वैसे दोस्ताना रिश्ते नहीं है कि फेसबुक या व्हाट्सएप पर स्टोरी पिच करके एप्रूव करवा ले. कुल मिलाकर उसका एक अलग सोशल कैपिटल था लेकिन वहां दिल्ली सरीखा नेटवर्किंग नहीं था. उसके ललक और उत्साह को हर बार धक्का लगता जब उसके स्टोरी आइडिया ड्रॉप हो जाते. पर हताश नहीं होती थी. बार-बार ट्राई करती थी.
एक दिन उसने पूछा कि प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है बनारस फिर भी आइडिया ड्रॉप हो जाता है. सिर्फ़ चुनावों में ही होती है क्या स्टोरी? मैंने हंसते हुए कहा, “बस यही पकड़ना है.” आइडिया लिखते वक्त बनारस के बुनकर मत लिखिएगा. लिखिए कि प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में बुनकरों की हालत खराब. स्टोरी पेग अच्छा बनेगा! वो खिलखिलाती रही देर तक. उसके अंदर एक जिद थी रिपोर्टर होने की. उसकी रिपोर्ट्स को लोग सोशल मीडिया पर शेयर करें. संपादक स्तर के लोग उसकी रिपोर्ट की तारीफ करें. उसे लगता कि उसके काम को पहचाना जा रहा है. उसे एक निर्भीक महिला रिपोर्टर के नाम से पहचाना जाना अच्छा लगता था.
पिछले साल, महीना याद नहीं, रिज़वाना ने फोन किया. गंगा की सफाई पर कोई स्टोरी प्लान कर रही थी. बहुत देर तक बातचीत होती रही. उसने बहुत संकुचाते हुए पूछा- “फ्रीलांसर को औसतन कितने पैसे आ जाते हैं एक महीने में?” “आपको एक स्टोरी के कितने मिलते हैं?” ये कुछ बहुत ही आम सवाल हैं जो एक फ्रीलांस पत्रकार दूसरे पत्रकार से जानना चाहते हैं. दरअसल, वो उससे अंदाजा लगाते हैं कि क्या फ्रीलांसिंग करते हुए जिंदगी जी जा सकती है या नहीं! मैं कह देता था कि फ्रीलांस पैशन का मामला है. इसमें तभी आइएग जब जरूरत पड़ने पर अंडा बेचने को भी मन तैयार हो.
बात हुआ करती कि हिंदी फ्रीलांसर और अंग्रेजी फ्रीलांसरों में कुछ फर्क होता है क्या? उनकी वही रिपोर्टें वहां छप जाती हैं जहां से हमारे ईमेल के जवाब भी नहीं आते. कहते हुए ताना भी मार देती, “आपका ठीक है. हिंदी-इंग्लिश दोनों में लिखते हैं.” वो वेबसाइट के नाम लेकर पूछती थी कि कहां-कहां फ्रीलांस के अवसर है. वहां किसी को जानते हैं? फलां संपादक का नंबर या ईमेल दीजिए. वो कहती भी थी कि फलां से फेसबुक पर नंबर मांगे तो उन्होंने कहा कि देंगे पर कभी दिए नहीं.
तीन साल पहले रिज़वाना से पहली बार यूथ की आवाज़ के कार्यक्रम में मुलाकात हुई थी. उस रिज़वाना और अभी की रिज़वाना में बड़ा अंतर था आत्मविश्वास का. उसकी रिपोर्ट्स इसका प्रमाण हैं. वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे पर अपनी आखिरी रिपोर्ट में रिज़वाना ने पिछले साल नवंबर महीने का एक वाकया शेयर किया है. उन्होंने बताया कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर फिरोज़ खान का मुद्दा गरमाया हुआ था. फिरोज़ खान की नियुक्ति का विरोध करने वाले छात्रों ने रिज़वाना का नाम जानकर उसे ‘कटुआ’ और ‘मियां’ कहकर संबोधित किया. उसने लिखा कि परेशान होकर अंतत: उसे वापस आना पड़ा.
कोरोना वायरस, लॉकडाउन के दौरान भी वो फ्रीलांसिंग कर रही थी. ग्राउंड रिपोर्ट्स कर रही थी. वो लिख रही थी लॉकडाउन के कारण प्रभावित हुए लोगों की तकलीफों पर, सरकार की तैयारियों पर. वो लिख रही थी देश में बढ़ती सांप्रदायिकता को लेकर. रिज़वाना लिख रही थी गरीबी और भुखमरी पर. वो लिख रही थी कर्मनाशा नदी के अभिशप्त होने की कहानी. बता रही थी कैसे बुंदेलखंड में हाशिये का समाज जीने को है मजबूर. वो लिख रही थी उन मुद्दों पर जिस पर मीडिया ने लिखना कर दिया है बंद. जिन कहानियों में स्टोरी पेग नहीं दिख पाता है संपादकों को या वे अपने ऑडिएंस बेस के लिहाज़ से समझते हैं गैर-जरूरी.
रिज़वाना सीएए-एनआरसी के विरोध प्रदर्शनों को कवर कर रही थी. वो लिख रही थी मानवाधिकार के मुद्दों पर. वो एक छोटे से कस्बे से लिख रही थी जहां उसके गिरफ्तार किए जाने पर देश भर में अभिव्यक्ति की आजादी पर हुए हमले के तौर नहीं देखा जाता. उसे ये एहसास हो चुका था कि उसका मीडिया में होना उसके और उसके समुदाय के लिए कितना मायने रखता है.
तुम्हारे हौसले को सलाम है रिज़वाना. जिन प्रगतिशील हलकों में अक्सर मीडिया में प्रतिनिधित्व पर चिंता जताई जाती है, तुम उसके लिए एक उदाहरण थी. तुम्हारे न आगे कोई था, न पीछे. जब देश में सांप्रदायिकता भीतर तक अपनी जड़ें जमा रहा है. जहां एक समूचे कौम को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाए जाने की नींव रखी जा रही हो. मीडिया सांप्रदायिकता को हवा देने वाला और सत्ता के प्रौंपोगैंडा के विस्तार करने वाला बनकर रह गया हो वहां से रिज़वाना का जाना समाज और मीडिया दोनों के लिए एक अपूरणीय क्षति है.
तुम पत्रकारिता के चुनौतीपूर्ण काल में एक बहादुर मिसाल थी. हमने एक उभरते हुए रिपोर्टर को खो दिया है. एक फ्रीलांसर साथी खो दिया है. काश तुम ये जान पाती कि सोशल मीडिया पर लोग तुम्हारी रिपोर्ट्स को याद कर रहे हैं. तुम्हें दिल से सलाम भेज रहे हैं.
अलविदा रिज़वाना.
Also Read: बनारस: युवा महिला पत्रकार ने की आत्महत्या
Also Read
-
‘Foreign hand, Gen Z data addiction’: 5 ways Indian media missed the Nepal story
-
Mud bridges, night vigils: How Punjab is surviving its flood crisis
-
Adieu, Sankarshan Thakur: A rare shoe-leather journalist, newsroom’s voice of sanity
-
Corruption, social media ban, and 19 deaths: How student movement turned into Nepal’s turning point
-
Hafta letters: Bigg Boss, ‘vote chori’, caste issues, E20 fuel