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‘मीडिया रंगमंच’ की इन कठपुतलियों की अदृश्य डोर किसके हाथ में है?
भारत में कोरोना के बढ़ते खतरे को देखते हुए 24 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया गया था. 14 अप्रैल को यानी जिस दिन भारत में 21 दिनों के लॉकडाउन की मियाद पूरी हो रही थी, उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुबह 10 बजे देश को संबोधित करते हुए लॉकडाउन को 19 दिन और बढ़ाते हुए 3 मई तक करने का ऐलान किया. इसकी कुछ विपक्षी पार्टी के नेताओं ने आलोचना भी की और कहा कि सरकार को लॉकडाउन बढ़ाने की घोषणा अंतिम क्षणों में नहीं करनी चाहिए साथ ही उसे ज्यादा से ज्यादा टेस्ट करने पर ध्यान देना चाहिए.
जैसे ही प्रधानमंत्री का भाषण खत्म हुआ, देश के तमाम बड़े मीडिया हाउस के प्राइम टाइम एंकरों ने लॉकडाउन और प्रधानमंत्री के समर्थन में ट्वीट करना शुरू कर दिया. इसमें कोई खास हैरानी की बात नहीं, लंबे समय से ये एंकर सत्ताधारी दल के सुर से सुर मिलाते आ रहे हैं. हैरानी की बात यह थी कि इन सभी ट्वीट की भाषा और विषयवस्तु में इतनी समानता थी कि बरबस ही आपके मन में एक सवाल कुलबुलाने लगता है कि क्या इस देश के तमाम एंकरों और पत्रकारों की डोर किसी अदृश्य शक्ति के हाथ में है. क्या पत्रकारिता और बौद्धिक संपदा के क्षेत्र में काम कर रहे 20-20, 30-30 साल का अनुभव रखने वाले पत्रकारों की मानसिक मेधा एक स्वतंत्र ट्वीट लिख पाने भर की भी नहीं है. आखिर ऐसा कैसे है कि एक ही तरह की बातें, एक ही तरह के फार्मूले सब के सब सिर्फ शब्दों का हेरफेर करके ट्वीट कर रहे हैं.
उदाहरण के लिए 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री मोदी का संबोधन खत्म होने के कुछ ही समय बाद देश की बड़ी न्यूज़ एजेंसी एएनआई के नेशनल ब्यूरो चीफ नवीन कपूर ने सुबह 10.43 पर अपने ट्वीटर हैंडल से अंग्रेजी में एक ट्वीट किया. “यह बहुत मायने रखता है- कि लॉकडाउन 3 मई तक इस प्रकार बढ़ाया गया है: 1 मई को राष्ट्रीय छुट्टी है, 2 मई को शनिवार है और 3 मई को रविवार.”
इसके अगले ही पल 10.44 पर एबीपी न्यूज़ के राजनीतिक संपादक राजकिशोर ने भी लगभग वही ट्वीट किया-“लॉकडाउन 3 मई तक इस प्रकार बढ़ाया गया है: 1 मई को राष्ट्रीय छुट्टी है, 2 मई को शनिवार है और 3 मई को रविवार.”
इसी सिलसिले को थोड़ा और ट्विस्ट देते हुए 10.56 पर आगे बढाया ज़ी न्यूज़ के एंकर सुधीर चौधरी ने. उन्होंने ट्वीट किया- “बहुत से लोग पूछ रहे हैं कि लॉकडाउन को 3 मई तक ही क्यों बढ़ाया गया- 1 मई को राष्ट्रीय छुट्टी है, 2 मई को शनिवार है और 3 मई को रविवार. आशा है सोमवार 4 मई को भारत एक नया सवेरा देखेगा.”
इसके बाद लगता है कि टीवी एंकरों के बीच पीएम के सम्मुख हाजिरी दर्ज कराने की एक स्पर्धा शुरू हो गई. सुधीर चौधरी के साथ रिपोर्टिंग करने शाहीन बाग गए न्यूज़ नेशन के एंकर दीपक चौरसिया भी पीछे नहीं रहे, उन्होंने सुधीर के ट्वीट के 8 मिनट बाद ट्वीट किया- “लॉकडाउन 3 मई तक इस प्रकार बढ़ाया गया है: 1 मई को राष्ट्रीय छुट्टी है, 2 मई को शनिवार है और 3 मई को रविवार.” अगर गौर किया जाए तो दीपक चौरसिया का ट्वीट एबीपी न्यूज़ के संपादक राजकिशोर का बिलकुल कॉपी-पेस्ट था. और बिलकुल ऐसा ही ट्वीट सीएनएन-आईबीएन के पूर्व एडिटर भूपेन्द्र चौबे ने भी किया. इनके शब्दो में जरा भी हेरफेर नहीं था.
यानि तीनों के ट्वीट देखकर किसी को भी यह भ्रम हो सकता था कि भले ही तीनों अलग-अलग काम करते हों लेकिन ट्वीट तीनों आपस में सालह-मशविरा करके करते हैं. कुछ ऐसा ही हाल न्यूज़-24 के मानक गुप्ता था. सुबह 11.19 पर मानक ने ट्वीट किया-“लॉकडाउन 3 मई तक बढ़ाया गया है क्योकि: 1 मई को राष्ट्रीय छुट्टी है, 2 मई को शनिवार है और 3 मई को रविवार.”
यही हालत एबीपी न्यूज़ की रूबिका लियाकत की रही. उन्होंने हिंदी में ट्वीट किया- “जो ये सोच रहे हैं कि आखिर 3 मई तक क्यों? दरअसल होना तो 30 अप्रैल तक था- 1 मई को राष्ट्रीय अवकाश है-मजदूर दिवस, 2 मई को शनिवार है, 3 मई को रविवार है.” रूबिका ने इसे बस विस्तार से समझा दिया कि इस 3 मई के पीछे क्या रणनीति थी. इस बारे में पता नहीं प्रधानमंत्री ने सोचा भी था या नहीं. इंडिया टुडे के गौरव सावंत ने भी कुछ ऐसा ही ट्वीट कर प्रधानमन्त्री के इस निर्णय की तारीफ़ की.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर डॉ. अपूर्वानन्द मीडिया और एंकरों के इस समान सोच के रवैये पर कहते हैं, “जब तक हमारे पास सबूत नहीं है तब तक हम डायरेक्ट तो इन्हें दोष नही दे सकते लेकिन इन्फरेंस तो निकले ही जा सकते हैं, कि कोई आइडेंटिकल मेसेज कहीं से बना और सभी ने इस्तेमाल कर लिया. इससे पहले भी ऐसा हुआ है जब सब ने एक जेसा मेसेज ट्वीट किया. ये अनुमान निकाला जा सकता है कि सरे मीडिया हाउस इस बात के लिए तैयार बैठे हैं कि वे सरकार के माउथ ऑर्गन की तरह काम करेंगे. और ये जो हमें दिखाई पड़ रहा है वो हिंदुस्तान के इतिहास में एक अनोखी चीज है. सरकार के साथ मीडिया का रिश्ता हमेशा टेंस रहता है, सरकारें चाहती हैं कि इनके खिलाफ बात न आए. लेकिन मीडिया हाउस इस तरह से कभी भी सरकार के माउथ ऑर्गन नहीं बने, जैसे इस बार बन गए हैं.इसकी वजह सिर्फ रेवेन्यू मॉडल और डर नहीं है बल्कि ये एक ‘विलिंग को-ऑपरेशन’ है.”
इन पत्रकारों ने जिस तरह एक ही समय पर लगभग एक जैसे ट्वीट किए उसे देखकर एक हर किसी के मन में यह सवाल उठ सकता है कि अलग-अलग मीडिया घरानों से जुड़े इन एंकरों को एक ही समय पर एक ही प्रकार का ट्वीट कैसे दिमाग में आ सकता है. यह अहम प्रश्न है. क्या इन एंकरों की ख़बर का स्रोत एक ही है, जो सत्ताधारी दल से जुड़ा है. क्या ये एंकर किसी ऐसे स्रोत से जुड़े हैं जो इन्हें इस तरह के ट्वीट करने का आदेश जारी करता है. यह सब अटकलें हैं, इन्हें यहीं छोड़कर हम कुछ और तथ्यों की बात करते हैं.
प्रधानमंत्री के 25 मिनट के भाषण में लॉकडाउन से सम्बन्धित जो सावधानियां और दिशा-निर्देश दिए गए थे उनको लेकर इन पत्रकारों ने ज्यादा कुछ नहीं लिखा.
मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार ने कहा, “इसे मैं इस तरह समझता हूं कि पहले जितने चैनल और अख़बार होते थे उनके सबके न्यूज़रूम अलग-अलग होते थे. लेकिन अब न्यूज़रूम और प्रोडक्शन सेंटर एक सा है. और न्यूज़रूम अब एक डिस्ट्रीब्यूशन सेंटर हो गए हैं. जैसे- एक अख़बार एक जगह से छपता है लेकिन अलग-अलग इलाकों में बंटता है. इसी तरह न्यूज़ चैनल के न्यूज़रूम अब दरअसल डिस्ट्रीब्यूशन सेंटर हैं. प्रोडक्शन और न्यूज़ गेदरिंग का काम कहीं और हो रहा है और आप उसे पॉलिटिकल पार्टी या आईटी सेल कह सकते हैं. चैनल जिसे आप कह रहे हैं वो मूलतः अब ‘न्यूज़ का चैनल नहीं’ बल्कि ‘खबरों को डिस्ट्रीब्यूटर’ है. और मैं ये आरोप नही लगा रहा हूं बल्कि अब ये एक पैटर्न बन चुका है.”
ये पहला मौका नहीं है जब एंकर और इनके चैनल पत्रकारिता के मूल दायित्वों को दरकिनार कर सत्ता की हां में हां मिलाते दिखे हैं. और आश्चर्यजनक रूप से उस काम में भी इन चैनलों की विषयवस्तु और भाषा कमोबेस एक समान रही है. आजकल शाम को टीवी पर आने वाले शो और डिबेट पर उस अदृश्य स्रोत की छाया स्पष्ट रूप से दिखती है. दिन के एक पहर में ही मानो तय हो जाता है कि शाम को चैनलों के अखाड़े में क्या दंगल होगी. उसके नायक, खलनायक, बलि के बकरे आदि सब पहले से ही तय हो जाते हैं.
इसके तमाम उदाहरण हैं. पिछले दिनों तबलीगी जमात और मुंबई का बांद्रा प्रकरण इस कड़ी में सबसे ताजा है. जिस पर पुलिस को आगे आकर उन समाचारों का खंडन करना पड़ा और सम्बन्धित मीडिया समूहों से ख़बर को डिलीट कराकर, आगे से ऐसा न करने की चेतावनी दी गई.
जैसे ही पीएम मोदी ने 14 अप्रैल को लॉकडाउन को बढ़ाने का ऐलान किया, मुंबई के बांद्रा में हजारों लोग सड़क पर उतर आए. बताया जाता है कि ये लोग बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के प्रवासी मजदूर थे, जो घर जाने की मांग कर रहे थे. क्योकि उन्हें वहां खाने-पीने की समस्या हो रही थी. इन एंकरों ने इसे न सिर्फ साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की बल्कि इसे साजिश तक बता दिया. और इस पूरी प्रक्रिया में एक बार फिर से संकेत उसी अदृश्य सत्ता की ओर जाता है जो इन्हें संचालित कर रहा है.
आजतक पर शाम 5 बजे के शो दंगल में एंकर रोहित सरदाना इस सवाल पर जोर देते रहे कि “अगर ये घर के लिए निकले थे तो इनके पास सामान क्यों नहीं था.”
ठीक उसी दिन शाम को रूबिका लियाकत एबीपी न्यूज़ पर अपने सहयोगी से पूछती हैं, “ऐसा कैसे हो सकता है कि वो (प्रवासी मजदूर) वहां पर पहुंचे और उनके पास सामान न हो.”
टाइम्स नाउ की नविका कुमार भी अपने पैनालिस्ट से कड़क अंदाज में यही सवाल पूछती रहीं, क्या षड्यंत्र है, क्या कांस्पीरेसी है...No luggage in thehand of migrant labrour.”
जी न्यूज़ के सुधीर चौधरी भी उन मजदूरों की परेशानियों से बेखबर इस बात का डीएनए करते नजर आए कि “क्या बांद्रा की भीड़ को किसी साजिश के तहत इकट्ठा किया गया था?”
वहीं इंडिया टीवी के एडिटर इन चीफ ने भी अपने शो में कहा, “आप भी पूछेंगे, इतने लोग यहां कैसे पहुंचे, इन्हें किसने बुलाया, ये कौन थे...अगर इसके पीछे कोई शाजिश या प्लानिंग थी तो इंटेलीजेंस क्या कर रही थी? साथ ही कई पत्रकारों ने इसे पास ही स्थित मस्जिद से जोड़कर साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश भी की.
बिना बैग, गठरी के मजदूरों के इकट्ठा होने का फार्मूला कहां से आया. हमने पाया कि बीजीपी आईटी सेल के प्रुमख अमित मालवीय ने 14 अप्रैल को एक ट्वीट कर यह थियरी फैलाई थी.
इस घटना के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने इस पर कड़ा रुख अख्तियार करते हुए अफवाह फ़ैलाने वालो के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने को कहा और चेतावनी दी कि उन्हें बख्शा नहीं जाएगा. एबीपी न्यूज़ के एक पत्रकार को भी अफवाह फ़ैलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया जिसे बाद में जमानत पर छोड़ा गया.
विनीत कुमार कहते हैं, “इस पैटर्न के मैं 2-3 बुनियादी कारण समझता हूं. पहला अगर आप बिज़नेस एंगल से देखें तो, सरकारी विज्ञापनों का अनुपात पहले के मुकाबले बहुत तेजी से बढ़ा है.टॉप 10 विज्ञापनों में राजनीतिक पार्टियों का बड़ा हिस्सा बढ़ा है. दूसरी बात है कि पहले मीडिया और राजनीतिक दलों के बीच जो एक औपचारिक स्तर की दूरी होती थी जिसे हम शर्म, हया या लिहाज कह सकते है वो खत्म हो गई है. चैनल अब साफ तौर पर राजनीतिक पक्ष धरता के हामी हैं. और तीसरी बड़ी बात जो मैं देख रहा हूं, पहले ये लोग सिर्फ पत्रकार या एम्प्लॉयी होते थे, उसमें उनका पर्सनल इंटरेस्ट नहीं रहता था. लेकिन अब खासकर प्राइम टाइम एंकर या एडिटर के पर्सनल ट्वीट अकाउंट को देखेंगे तो पाएंगे कि किसी एक समुदाय या जमात को खलनायक बनाने में उनका पर्सनल इंटरेस्ट है. 4-5 साल पहले हम कह सकते थे कि पेशे की मजबूरी है, दबाव है. लेकिन आज एक खास समुदाय को और खासकर उसे जो पहले ही हाशिए पर है, टारगेट करना इनका पर्सनल इंटरेस्ट बन गया है.”
वो आगे कहते हैं, “अब ये रुकेगा भी नहीं. क्योंकि अगर आप किसी समाज के खिलाफ़ कुछ गलत कह रहे हैं, तो एक एजेंसी होती थी जो रोकती थी, कि नहीं! आप ऐसा नहीं कह सकते. दुर्भाग्य से अब ऐसी कोई एजेंसी भी नहीं रही है. उनका मनोबल बढ़ा हुआ है. आप देखिये कैसे ग्लोबल क्राइसिस में भी इन एन्करों की भाषा नहीं बदली है. आप यहां के चैनल की तुलना विदेशी मीडिया अलजज़ीरा और सीएनएन से करें तो पाएंगे कि उनका न सिर्फ टोन बदल गया बल्कि उनके न्यूज़रूम के कलर भी नीले, सफेद एकदम सुकून वाले हैं और यहां देखिए अभी भी लाल, नारंगी जैसे कलर चल रहे हैं. मतलब रंग, भाषा और टोन के जरिए भी न्यूज़रूम में आक्रमक माहौल बनाया गया है.”
अपूर्वानन्द अंत में कहते हैं, “डेमोक्रेसी टिकती है लोगों के निर्णय लेने की ताकत पर. और वो ये तभी कर सकते हैं जब उनके पास सारी चीजों की दुरुस्त सूचना हो. हम अभी ऐसे दौर में हैं जहां लोगों को गलत निर्णय लेने की ओर धकेला जा रहा है. हालांकि अभी हिंदी मीडिया में ऐसे रिपोर्टर हैं, जिन्हें काम नहीं करने दिया जा रहा है, फिर भी वे मौका निकालकर कही 6-7 पेज पर कुछ ले आते हैं. लेकिन वो ऐसी जगह आती है जहां सही से निगाह नहीं जाती. ये सब दबाव में नहीं बल्कि अपनी मर्जी से किया जा रहा है. क्योंकि हिंदी मीडिया के बारे में मैं ये कह सकता हूं कि वो यही सोचता था. और अब हुकुमत उसके मन मुताबिक आ गई है तो वह दोगुने उत्साह के साथ ये काम कर रहा है.”
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