Newslaundry Hindi
शिवरानी देवी: बरगद की छाया में छिपी रह गई लता
किसी महिला कहानीकार की उपेक्षा करना कई बार आसान लगता है, ये परेशानी हिंदी साहित्य में काफी मुखर है. जब हम हिंदी साहित्य की बात करते हैं तो हमारा सारा ध्यान प्रेमचंद, यशपाल, मुक्तिबोध जैसे पुरुष साहित्यकारों की कृतियों तक सीमित रह जाता है, हम कभी भी उन महिला साहित्यकारों को वो स्थान नहीं देते जो हमने पुरुषों को दिया. ऐसी ही एक कहानीकार शिवरानी देवी भी इतिहास की पुरुष प्रधानता का शिकार हुईं.
शिवरानी देवी मुंशी प्रेमचंद की धर्मपत्नी थीं. उन्होंने कई कहानियां लिखीं जिनमे से कुछ "कौमुदी" शीर्षक के साथ सरस्वती प्रेस द्वारा सन 1937 में प्रकाशित हुईं. उन्होंने प्रेमचन्द का संस्मरण "प्रेमचंद: घर में" भी लिखा जिसमें प्रेमचंद के इर्द गिर्द अपने जीवन का वे अभूतपूर्व विवरण देती हैं. उनकी रजनाओं से कोई भी ये अनुमान लगा सकता है कि वे कितनी सशक्त और स्वतंत्र महिला थीं. प्रेमचंद की पोती और लेखिका सारा राय कहती हैं, "शिवरानी देवी तिहरे विलोपन का शिकार रहीं हैं. एक तो वे स्त्री थीं, दूसरे स्त्री कथाकार, और तीसरे, वह प्रेमचंद की पत्नी थीं. इनको मद्देनजर रखते हुए उनका यह विलोपन कतई स्वाभाविक और अपेक्षित लगने लगता है."
शिवरानी देवी के बारे में लोगों ने यहां तक कहा कि उनकी कहानियां प्रेमचंद ने लिखीं. इसका विरोध स्वयं प्रेमचंद ने स्पष्ट शब्दों में किया था. बनारसी दास चतुर्वेदी, आत्माराम एंड संस् द्वारा प्रकाशित 'प्रेमचंद: घर में' के सन 2000 में छपे संस्करण में, श्रदांजलि लिखते हुए जानकारी देते हैं कि प्रेमचंद ने अंग्रेजी में कहा था, जिसका अनुवाद उन्होंने किया- "कहानियों की कल्पना श्रीमती प्रेमचंद की हैं, और उसे पूरे तौर पर रूप भी उन्हीं ने दिया है. एक योद्धा स्त्री उनकी प्रत्येक पंक्ति में बोल रही है. मेरे जैसा शांतिमय स्वभाव वाला आदमी इस प्रकार के अक्खड़पन से भरे जोरदार स्त्री जाति संबंधी प्लाटों की कल्पना भी नहीं कर सकता था."
शिवरानी देवी की मृत्यु 5 दिसंबर, 1976 में हुई मगर उनके जन्मतिथि के बारे में कोई स्पष्ट विवरण उपलब्ध नहीं है. वो एक बाल विधवा थीं जिसका उनके जीवन और लेखन पर रोचक प्रभाव था. सारा राय कहती हैं, "हिंदी शिक्षा जगत की एक विडंबना है कि सबसे पहले शिक्षा के लाभ समाज से बहिष्कृत या परित्यक्त स्त्रियों के लिए ही सुलभ हुए. क्योंकि शिक्षित होने के बाद, इन स्त्रियों के लिए, जिनमें बाल विधवायें भी शामिल थीं, स्कूल में पढ़ना या देश सेवा में लग जाना या लेखन और प्रकाशन द्वारा अपनी रोजी चलाना एक सामान्य जीवन चलाने का अच्छा तरीका समझा गया."
शिवरानी देवी सार्वजनिक जीवन में भी काफी सजग थीं. इसके लिये वे कई बार जेल भी गईं. "प्रेमचंद बीमार रहते थे तो शिवरानी देवी स्वतंत्रता आंदोलन में खुद चली जाती थीं. उन्होंने लखनऊ स्थित महिला आश्रम में काम किया और अपनी अगुवाई में 1929 में, गांधीजी से प्रभावित होकर 56 औरतों को विदेशी कपड़े के ख़िलाफ़ धरने पर ले गयीं."
शिवरानी देवी और प्रेमचंद के विवाह की कहानी भी काफी रोचक है. 1905 में, शिवरानी देवी के पिता मुंशी देवीप्रसाद, जो फतेहपुर जिले के कायस्थ जमींदार थे, ने "कायस्थ बाल विधवा उद्धारक पुस्तिका" नाम की किताब लिखी, जिसमें शिवरानी देवी के विवाह सम्बन्धी विज्ञापन छपा. चूंकि अपने पहले विवाह के बाद प्रेमचंद किसी विधवा से ही विवाह करना चाहते थे लिहाजा उन्होंने इस सम्बंध में देवी प्रसाद को एक प्रस्ताव भेजा जिसके बाद उनका विवाह हुआ.
शिवरानी देवी की कहानियां अभी हाल ही में "नई किताब प्रकाशन" ने पुनः प्रकाशित की हैं. इन कहानियों को पढ़कर ऐसा लगता है कि जो लोग शिवरानी देवी पर ये आरोप लगाते थे कि उनकी कहानियां प्रेमचन्द ने लिखी हैं, कितनी संकीर्ण मानसिकता के शिकार हैं. उनकी हर कहानी उन्हीं के विचारों की विषयवस्तु मालूम होती है. संकलन की पहली कहानी "तर्का" में कहानी के पात्र अवधी में संवाद करते हैं, जो कि शिवरानी देवी के गांव सलेमपुर की बोली थी जबकि प्रेमचंद की बोली भोजपुरी थी.
उनकी कहानियां स्त्री मर्यादा, सलज्जता, यौन सतीत्व इत्यादि से ओत प्रोत हैं. उनमें स्त्रियां काफी मजबूत और सशक्त हैं. कहानी "विध्वंस की होली" में उत्तमा अपना सब कुछ भूकंप में गवाने के बाद भी होली का महोत्सव मानती है. वो कहती है, "भाइयों और बहनों, खूब गाओ, खूब आनंद मनाओ. जो गए उनके नाम को रोकर क्या करोगे, जो हैं उनकी जान की खैर मनाओ. उन्हें आशीर्वाद दो."
शिवरानी देवी के महिला पात्र आपने धर्म और प्रतिज्ञा के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं. कहानी "आंसू की दो बून्दें" में सुरेश और कनक के बीच गहरा प्रेम होता है पर धन के लालच में सुरेश किसी और से विवाह कर लेता है, और कनक इस बात से विचलित नहीं होती. वह विवाह न करने का निर्णय लेती है और अपने आप को पर सेवा में लगा देती है. जब वह बिहार में बाढ़ पीड़ित लोगों के लिए कपड़े बांटने जाती है, वहां उसकी मुलाकात सुरेश से होती है. वो अपनी पत्नी से धोखा खाकर साधू बन चुका है. वह कनक से माफ़ी मांगता है लेकिन कनक अकेले ही जीवन बिताना स्वीकार करती है. ऐसी ही इस संकलन की 16 कहानियां स्त्रियों के जीवन और उनकी मनःस्थिति का बहुत अच्छा विवरण देती हैं.
शिवरानी देवी के साथ जैसा व्यवहार साहित्य की दुनिया ने किया है, वैसा नही होना चाहिए था. मुंशी प्रेमचंद ने भी एक बार कहा था कि "साहित्य जगत से उन्हें काफी कम इंसाफ़ मिला है". साहित्य जगत की अनदेखी का परिणाम उन जैसी कई महिलाओं ने भुगता होगा जिनका नाम शायद हम आप नहीं जानते. परन्तु एक बात हमें निश्चित रूप से मान लेनी होगी कि साहित्य अगर समाज का दर्पण है तो ये दर्पण समावेशी नहीं है. अर्थात ये साहित्य के उद्देश्य को पूरा करने में हमेशा नाकाम रहेगा. हमें एक ऐसा मापदण्ड तैयार करना होगा जो शिवरानी देवी जैसी लेखिका को अपना हिस्सा दे सके.
Also Read
-
The Cooking of Books: Ram Guha’s love letter to the peculiarity of editors
-
What’s Your Ism? Ep 8 feat. Sumeet Mhasker on caste, reservation, Hindutva
-
TV Newsance 250: Fact-checking Modi’s speech, Godi media’s Modi bhakti at Surya Tilak ceremony
-
‘1 lakh suicides; both state, central govts neglect farmers’: TN farmers protest in Delhi
-
‘His duty to protect all sections’: DK Shivakumar on PM’s Muslim remarks