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पद्मश्री सिमोन उरांव की पोती घर चलाने के लिए कर रही है झाड़ू-पोछा

रांची से करीब 45 किलोमीटर दूर बेड़ो (प्रखंड) बजार पहुंच कर मुख्य चौराहे से बायीं तरफ लापुंग को जाने वाली सड़क पर करीब पांच मिनट तक पैदल चलने के बाद बायीं ओर टीन की चादर से बना एक दरवाजा आता है. इसी से ठीक सटा हुआ एक हरे रंग का साइनबोर्ड नज़र आता है जिस पर सफेद पेंट से लिखा है- ‘पद्मश्री सिमोन उरांव’. दरवाजे से अंदर दाखिल होने पर सामने खपरैल का बना एक घर दिखता है जिसकी बदरंग दिवारों पर पड़े झोल, जहां-तहां टंगी रस्सियां, मैले झोले और बिखरे बर्तन, किसी की बदहाल जिंदगी को बयां करने के लिए काफी हो सकते हैं. यह पद्मश्री सिमोन उरांव का घर है. जहां वो पिछले 15 साल से पत्नी विरजिनिया उरांइन (76 वर्ष) और पोती एंजेला (22 वर्ष) के साथ रह रहे हैं.

85 साल के सिमोन उरांव ने अपना 50 साल का जीवन झारखंड के जल, जंगल को बचाने में लगाया है. 2016 में जल और जंगल के सरंक्षण के प्रति उनके समर्पण को संज्ञान लेते हुए भारत सरकार ने उन्हें देश के चौथे सबसे बड़े सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किया. इससे पहले और बाद में मिले सौकड़ों सम्मान की गवाही उनके घर की रंग छोड़ती दिवारों पर लटके प्रशस्ति पत्र और अखबारों की कंटिंग देती हैं. लेकिन इतने इनाम और सम्मान बाद भी देश के इस पद्मश्री की जिंदगी आज भी जद्दोजहद से भरी है. उनकी एक पोती अपने परिवार को चलाने के लिए दिल्ली में किसी के घर झाड़ू-पोछा करती है.

सिमोन उरांव का पुश्तैनी घर बेड़ो से छह किलोमीटर दूर हरिहरपुर जामटोली गांव के ‘खक्सी टोला’ में है. वहां उनके तीनों बेटों का परिवार रहता है. उनकी तीन बेटियां भी हैं जिनका ब्याह आसपास के ही गांवों में हुआ है.

जनवरी की ठंड में अपने ओसारे में बैठकर धूप सेंक रहे सिमोन उरांव से हमारी मुलाकात हुई. बीच-बीच में वो मुलाकातियों से मिलने के लिए अपने कमरे में जाते और फिर उसी कुर्सी पर वापस आकर बैठ जाते. इस प्रक्रिया में हमसे मुखातिब होते हुए वो कहते हैं, “पद्मश्री देकर सरकार ने हमारा लोड बहुत बढ़ा दिया है. पूरे देश में लोग बुलाते रहते हैं. इससे बहुत दिक्कत होता है. पद्मश्री से पेट नहीं भरेगा. हमारे पीछे लाखों लाख आदमी हैं. सारा जनता को पद्मश्री होना चाहिए. इसीलिए हमने मना कर दिया था लेकिन फिर हमको समझाने लगे. कहा कि आप बचपन से इतना काम किए हैं इसलिए आपको मिल रहा है. तब हमने शर्त रखी कि घर-घर कुंआ होना चाहिए. इसका करार किए तब जाकर हम गए पद्मश्री लेने गए.”

सिमोन का पूरा परिवार आर्थिक तंगी और बदहाली की जिंदगी जी रहा है. इसे लेकर हाल-फिलहाल में कई बार बातें हुई हैं लेकिन इसके आगे कोई बात नहीं हुई. उरांव के तीन बेटों में जोसेफ मिंज बड़े और सुधीर मिंज मंझले हैं. सबसे छोटे बेटे आनंद मिंज का बीमारी के कारण 2013 में निधन हो चुका है. जोसेफ की छह बेटियां और दो बेटे हैं. सुधीर को एक बेटा और एक बेटी है. आनंद की चार बेटियां और दो बेटे हैं. तीनों का परिवार पुश्तैनी गांव में खेती, मजदूरी कर जीवन यापन कर रहा है.

सबसे ज्यादा तंगी की हालत सबसे छोटे बेटे आनंद के परिवार की है. उनकी चार बेटियों में सबसे बड़ी बेटी एंजेला है जो अपने दादा सिमोन उरांव के साथ ही बचपन से रहती आ रही हैं. हमारी मुलाकात उससे उरांव के घर पर ही हुई. वो बताती हैं, “मुझे दादू (सिमोन उरांव) ने अपने साथ रखकर बीए तक कि पढ़ाई कराई है. मैं बीएड करना चाहती हूं मगर घर पर पैसा नहीं है. पैसे की कमी के कारण मेरी बहन मोनिका (18 वर्ष) दाई का काम करने के दिल्ली चली गई है. वो दाई का काम करके घर में कुछ-कुछ पैसा भेजती है.”

एंजेला

एंजेला की तीसरी बहन अनिमा 16 वर्ष की है जो कोलकाता में किसी रिश्तेदार के यहां रहकर पढ़ाई कर रही है. छोटी बहन करुणा रांची में अपनी बुआ के साथ रहती है. दो भाई हैं सिमोन (12), अनूप (10) जो गांव खक्सी टोला में गाय-बैलों की देखरेख करते हैं.

मजबूरी में पलायन और झाड़ू-पोछा

मोनिका की मां और सिमोन उरांव की छोटी बहू सेवो उरांइन खक्सी टोला में अपने दोनों बेटों के साथ अकेले रहती हैं. दाई के काम के लिए मोनिका को दिल्ली भेजने के सवाल पर सेवो उरांइन कहती हैं, “छह बच्चों को पालना है. बड़ी बेटी को किसी तरह उसके दादा ने बीए तक पढ़ा दिया. एक फुआ के साथ रांची में रहती है और एक कोलकाता में. पति की मौत के बाद घर चलाना बहुत मुश्किल था. इसीलिए मंझली बेटी को बोले तुम जाओ, कुछ कमाओ-धमाओ ताकि तुम्हारे छोटे भाई-बहन पढ़ सकें. वो दिल्ली से पैसा भेजती है तो मदद मिलती है.”

मोनिका की मां सेवो उरांइन

सेवो के मुताबिक मोनिका दिल्ली के एक घर में झाड़ू-पोछा का काम करती है और वहीं रहती है. उसी से वो महीने में 6-7 हजार रुपया घर भेज देती है. मोनिका को उसकी मौसी ने छह महीने पहले घर की आर्थिक तंगी को देखते हुए इस कम पर लगाया था.

परिवार के लोग मोनिका के बारे में इससे ज्यादा जानकारी देने से कतराते हैं. मोनिका की बड़ी बहन एंजेला से हमने पूछा कि बहन से बातचीत कैसे होती है? इस पर एंजेला ने बताया, “मोनिका के पास कोई फोन नहीं है. उसकी मालकिन कभी-कभी अपने फोन से बात करवाती है. हमारे पास उनका नंबर सेव नहीं है.”

मोनिका की मां भी इस बारे में ज्यादा बातचीत से करने से झिझकती हैं. हमारे कई बार पूछने पर भी उन्होंने मोनिका का कोई नंबर या पता बताने से इनकार किया. जिस मौसी के जरिए मोनिका को दिल्ली काम करने के लिए भेजा गया उनका भी नंबर परिवार ने नहीं दिया. ऐसा लगा कि परिवार को मोनिका के जरिए होने वाली थोड़ी-बहुत आय के खत्म होने का डर है.

सिमोन का गांव बेड़ो मांडर विधानसभा क्षेत्र में पड़ता है. हाल ही में यहां संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में झारखंड विकास मोर्चा के बंधु तिर्की ने जीत दर्ज की है. उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि ख़बर मिलते ही वो अपने लोगों के साथ सिमोन उरांव के घर पहुंचे थे और उन्हें आर्थिक मदद दिलाने का भरोसा दिया था.

तिर्की कहते हैं, “सिमोन उरांव को पद्मश्री तो दे दिया गया पर उनकी हालात जस की तस बनी हुई थी. आज उनके परिवार की आर्थिक स्थिति काफी खराब है तो उसके लिए पूर्व की भाजपा सरकार जिम्मेदार है. हमारी मांग है कि वर्तमान सरकार जल्द से जल्द इसका संज्ञान ले और उनकी मदद की जाए. साथ ही उनकी पोती जो दाई का काम कर रही है उसे वापस घर बुलाया जाए.”

बंधु तिर्की ने बताया कि उन्होंने इस पूरे मामले पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पत्र लिखा है. साथ ही पोती एंजेला को बीएड में एडमिशन के लिए अपने मद से 50 हजार रूपये की मदद का वादा किया है.

पत्रकार आए लेकिन सरकार नहीं आई

खाकी रंग के पैबंद लगे पजामे और मरुन कलर का कुर्ता पहने सिमोन उरांव अपने कमरे में रखी उस तस्वीर (पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से पद्मश्री सम्मान लेती हुई) को दिखाते हुए कहते हैं, “हमको आवार्ड तो दिया, पर कठनाई दूर नहीं हुई. अब हमरा नाती पोता की स्थिति भी खराब है. एक पोती पैसे के आभाव में दिल्ली में दाई का काम करती है. हमरा कहना है कि जो पोती-पोता पढ़ा है उसकी शिक्षा के हिसाब से कोई जॉब दे दे सरकार. जुग जमाना ऐसा है कि बिना शिक्षा ज्ञान नहीं आता है. इसलिए ज्ञान होना चाहिए. सरकार की इच्छा हो तो हमारा वृद्धा पेंशन दे दें.”

उरांव कहते हैं, “पैसे के कमी के कारण वो नाती-पोते को पढ़ा नहीं सके. दो पोतियों ने बीए तक पढ़ाई की है, लेकिन उन्हें भी कोई काम नहीं मिला. आगे पढ़ाने में उनका परिवार सक्षम नहीं है. पोतों ने मैट्रिक-इंटर के बाद पढ़ाई छोड़ दी.”

पद्म श्री मिलने के बाद क्या आपको कोई सरकारी सहायता नहीं मिली? इस पर उरांव कहते हैं, “कॉलेज के छात्र-छात्राएं पूछने आते हैं हमारे काम के बारे में. पद्मश्री के बाद पत्रकार लोग भी बहुत आए लेकिन सरकार नहीं आई.”

पद्मश्री को वृद्धा पेंशन तक नहीं

85 साल के सिमोन उरांव ने अपने घर की बाड़ी में जड़ी-बूटियों के तमाम पेड़-पौधे लगा रखे हैं. इससे आयुर्वेदिक दवा बनाकर वे बेचते हैं जिससे उन्हें कुछ पैसा मिल जाता है. बाकि पत्नी विरजिनिया उरांइन के वृद्धा पेंशन से परिवार का भरण-पोषण हो रहा है. लेकिन जीवन के आखिरी पड़ाव पर खड़े सिमोन उरांव को वृद्धा पेंशन नहीं मिलता है.

इस पर वो कहते हैं, “उपचार के लिए लोग आते हैं. उनका दर्द, तकलीफ जड़ी-बूटियों से दूर करता हूं. जो खुशी से पैसा दिया तो ले लिया, मांगते नहीं हैं. हम पद्मश्री भी मांगने नहीं गए थे. पेंशन मांगने भी नहीं जाएंगे. हमको जैसे पद्मश्री दिया है वैसे हीं वृद्धा पेंशन देना होगा तो देगा.”

विदेश तक से मिला है सम्मान

सिमोन उरांव के पर्यावरण के संरक्षण के कामों की लंबी फेहरिस्त है. जल, जंगल, जमीन की लड़ाई के लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा. लेकिन अदालत ने उन्हें समाजिक कार्यकर्ता बताकर रिहा कर दिया. 1955-70 के बीच उन्होंने आदिवासी इलाको में बांध बनाने का अभियान चलाया. उनके इस काम के लिए देश-विदेश में प्रशंसा हुई. 2002 में सिमोन उरांव को इसके लिए अमेरिकन मेडल ऑफ ऑनर स्टारकिंग पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

सिमोन उरांव की शुरूआती जिंदगी काफी कठनाई से गुजरी है. उनके संघर्ष पर पिछले साल 30 मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘झरिया’ नाम से बनी है. इस फिल्म को बनाने वाले राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित बीजू टोप्पो कहते हैं कि उन्होंने जब सिमोन उरांव के बारे में ख़बर पढ़ी तो बेहद अफसोस हुआ.

टोप्पो कहते हैं, “सरकार ने पद्मश्री तो दे दिया, लेकिन उनका हाल लेने नहीं पहुंची. जिसके बारे में देश विदेश से लोग रिसर्च करने आते हैं, जिसे जल पुरूष की उपाधि दी गई, आज वो इंसान आर्थिक तंगी से जी रहा है. पद्मश्री की पोती दूसरों के यहां झाड़ू-पोछा करें ये दूर्भाग्यपूर्ण है. सरकार कि जिम्मेदारी है कि वो सिमोन उरांव का देखभाल करे. मैं सरकार से अनुरोध करता हूं कि जल्द से उन्हें छह-सात हजार रुपाय प्रति माह पेंशन की घोषणा करे ताकि उनका और पोते-पोतियों की पढ़ाई हो सके.”

स्थानीय अखबारों में उनकी खराब हालत की चर्चा होने के बाद राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने झारखंड के मुख्य सचिव को पत्र लिख सिमोन उरांव और उनके परिवार को उचित सुविधा और देखरेख के लिए निर्देश दिया और पूरे मामले पर सात दिनों के अंदर रिपोर्ट तलब की थी.

ताजा ख़बर ये है कि आयोग के पत्र के बाद प्रशासन जगा है. सिमोन उरांव के मुताबिक उन्हें सरकार की तरफ से एक पत्र मिला है. इसके अलावा स्थानीय ब्लॉक से दो लोग मिलने आए थे. उन्होंने नाम, पता अदि दर्ज किया है. भरोसा दिया है कि जल्द ही उनकी वृद्धा पेंशन शुरू हो जाएगी. हालांकि उनकी पोती मोनिका को वापस बुलाने के सवाल पर कोई भरोसा नहीं दिया गया है.