Newslaundry Hindi
हिरासत में हत्या और एक रक्तपिपासु समाज की प्रतिक्रिया
यह तस्वीर प्रतीकात्मक है
“पुलिस कैसी होती है?” इस प्रश्न के उत्तर में शत प्रतिशत लोगों का जवाब होता है- बेहद भ्रष्ट, क्रूर बर्बर और आम जनता को बेवजह परेशान करने वाली आतंकी प्रवृत्ति की होती है. फिर क्या वजह है कि मैत्रेयी पुष्पा, मनीषा कुलश्रेष्ठ जैसी स्त्री बौद्धिकों से लेकर आंदोलनरत होंडा कंपनी के मजदूर तक सभी आम-ओ-खास चार कथित आरोपियों के फर्जी एनकाउंटर (हत्या) करने वाली हैदराबाद पुलिस को सैल्यूट कर रहे हैं, और पुलिस के इस संगीन अपराध को ही ‘गन का न्याय’ बता रहे हैं? क्या वजह है कि बौद्धिक और सामान्य व्यक्ति के बीच ‘सोच का अंतर’ खत्म हो गया है और दोनों की सोच एक सी, इतनी सरल और एकरेखीय हो गई? आखिर क्या वजह है कि लोगों को अब न्याय नहीं प्रतिशोध चाहिए?
ये कोई एक दिन में तो हुआ नहीं होगा. समाज के सामूहिक विवेक का क्षरण कोई एक दिन का काम हो ही नहीं सकता. याद कीजिए 2014 चुनाव के पहले ‘एक के बदले दस सिर लाने’ का वो वादा जो चुनावी मंचों से किया गया था. क्या तब हममें से किसी ने इसका प्रतिवाद किया था? नहीं किया था? उलटे हम इस ‘बर्बर प्रतिशोध’ की बात पर लहालोट होकर अपना-अपना वोट उस बर्बरता को भेंट दे आए थे. याद कीजिए मसाला हिंदी फिल्मों का ‘क्लाइमेक्स सीन’ जिसमें प्रतिशोध लेने वाले हीरो (नायक) को अपने बीच खड़ा देखकर भीड़ (मॉब) विलेन की लिंचिंग कर देती है.
याद कीजिए वो क्लाइमेक्स जिसमें बहन या प्रेमिका के सामूहिक बलात्कार का प्रतिशोध लेने के लिए हीरो ‘गन’ उठाता है और विलेन को मारकर दर्शकों को न्याय का (गन के न्याय) का रोमांच और संतुष्टि देता है. अब इसे अपनी परंपरा यानि मिथकों से जोड़कर महाभारत का वो सीन याद कीजिए जिसमें भीम द्रोपदी के केश धोने के लिए दुःशासन की छाती फाड़कर उसका लहू निकालता है. दरअसल हमारे बहुसंख्यक समाज की पूरी सांस्कृतिक मनोरचना ही क्रूरता द्वारा पोषित है. वो तो इस देश का संविधान और लोकतांत्रिक मूल्य हैं जो समाज की क्रूरता की मनोदशा को नियंत्रित करते हैं.
लेकिन वर्तमान समय का बहुसंख्यक समाज अपने मनोनुकूल नायक या ज़्यादा ठीक होगा यह कहना कि प्रतिनायक पा गया है जो अपनी बातों, वादों और घोषणाओं और हिंसक कार्रवाईयों से उनकी सुप्त वृत्तियों में निहित रक्तपात और क्रूरता को तुष्ट कर रहा है. लोग अलग अलग कारणों से उपजी अपनी कुंठा और पीड़ा को उस हिंसा में समावेशित होते देख, सुन और महसूस रहे हैं. इस तरह सत्ता प्रयोजित हिंसा, क्रूरता और हत्या को बहुसंख्यक समाज की सामूहिक स्वीकृति मिल रही है.
सामूहिक बर्बरता की मनोभावना समाज के सामूहिक विवेक का क्षरण करता है. इसे यूं समझिए कि पुलवामा में 40 जवानों की मौत के बाद जब पूरा देश शोक में डूबा होता है प्रधानमंत्री एंडवेंचर टूर कर रहे होते हैं, घूम-घूमकर ताबड़तोड़ शिलान्यास और उद्घाटन करते हैं बिल्कुल सामान्य रूप से हंसते मुस्कुराते. लेकिन बहुसंख्यक समाज उनकी असंवेदनशीलता पर प्रश्न नहीं खड़ा करता. समाज उनसे ये नहीं पूछता कि बार-बार मांगने के बावजूद आपने सैनिकों को वहां से निकालने के लिए हेलीकाप्टर क्यों नहीं मुहैया करवाए? बल्कि बहुसंख्यक समाज उनके इस जोक पर हंसता है कि ‘पाकिस्तान कटोरे लेकर भीख मांग रहा है.’ जब बालाकोट के जंगलों पर बम गिराकर देश पर युद्ध का संकट थोप दिया जाता है तो समाज का ‘मस्कुलिन इगो’ तुष्ट होता है. प्रधानमंत्री 56 इंच वाले ‘माचो मैन’ हैं, उनकी टीम को भली भांति पता है कहां कैसे खेलना है. 2019 लोकसभा चुनाव में वो और बड़े बहुमत से सत्ता में लौटते हैं.
इसी तरह 2016 में उरी हमला होता है. कैसे होता है? जज लोया की मौत की तरह आज तक पता नहीं. पहले सिर्फ़ सीमाओं पर जवान मारे जाते थे, फिर 2016 में उरी में घर में घुसकर आतंकियों ने सैनिक छावनी पर हमला किया जिसमें 16 जवानों की मौत हुई थी. कैसे ये हुआ? इसकी जवाबदेही किसकी है जैसे सवाल न पूछकर समाज प्रतिनायक के प्रतिशोध प्रतिशोध चिल्लाने पर कान धरे बैठा रहा और कथित ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के एवज में जश्न में डूबकर कई राज्य उनकी झोली में गिरा दिया.
इसी तरह अफ़जल गुरु केस के विवादास्पद फैसले में कोर्ट ने ‘समाज के सामूहिक विवेक को तुष्ट करने के लिए ’ फांसी पर लटकाने की बात कही थी जबकि उसके खिलाफ़ कोई सबूत नहीं था. सिर्फ़ पारिस्थितिजन्य साक्ष्य थे. इसी तरह अयोध्या केस में राममंदिर (हिंदू बहुसंख्यक) के पक्ष में तमाम किंतु परंतु के साथ विवादित फैसला भी कोर्ट द्वारा बहुसंख्यक समाज की सामूहिक भावना को ध्यान में रखकर दिया गया. जिस देश की न्याय व्यवस्था ही न्याय के बजाय बहुसंख्यक समाज की भवनाओं की तुष्टि में लग जाए उस समाज में सामूहिक विवेक, और न्याय का बोध पैदा ही नहीं हो सकता.
दरअसल इस क्रूरता चालित बहुसंख्यक समाज को न्याय नहीं प्रतिशोध चाहिए, हिंसा चाहिए जो इसके मैस्कुलिन इगो को तुष्ट करे, जो इसको एंटरटेन करे. आज ‘गन का न्याय’ कहने वाले ‘बलात्कार के बदले बलात्कार’ की मांग करें तो ताज्जुब नहीं होगा क्योंकि इससे भी मैस्कुलिन इगो तुष्ट होता है, ऐसे भी प्रतिशोध लिया जाता है.
यदि अंग्रेजों का रौलेट एक्ट– ‘न दलील, न अपील, न वकील’ का सिद्धांत गलत था जिसका विरोध करने के चलते विरोध करने वालों के खिलाफ़ तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा जलियावाला बाग जनसंहार को अंजाम दिया गया. तो आज ‘न दलील, न अपील, न वकील’ वाला गन का सिद्धांत कैसे सही हो सकता है. आज समाज को इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि बलात्कार रुकने के बजाय और क्यों बढ़ रहे हैं? इसके लिए पुलिस और सरकार की जवाबदेही होनी चाहिए.
यहां बहुसंख्यक समाज के वर्गीय और सांप्रदायिक राजनीति को भी ध्यान में रखना होगा जो अपने लिए ऐसे नायक/प्रतिनायक गढ़ता है जो न्याय, संविधान और विधान सबकी हत्या करके कहता है- बहुसंख्यकों को अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति कर लेने दो. जो क्रिया से ज़्यादा उसकी प्रतिक्रिया पर फोकस्ड रहता है. जो क्रियाओं को इसलिए नहीं रोकता और होने देता है ताकि उस पर प्रतिक्रिया हो. ये प्रतिक्रिया ही उसे नायकत्व प्रदान करती हैं. ये प्रतिक्रियाएं ही उसे जीवन देती हैं.
आप एक बार ठहरकर सोचिए कि अगर गुजरात दंगा नहीं हुआ होता तो क्या वो गुजरात में अजेय रहता. अगर उरी में 16 जवानों की हत्याएं नहीं हुई होती तो क्या सर्जिकल स्ट्राइक होता और क्या उसे इतने राज्यों में विजय मिलती और अगर पुलवामा में 40 जवान आतंकी हमले में नहीं मरे होते तो क्या 2019 में सत्ता हासिल होती? आप प्रतीक्षा करिए अभी बहुत सी क्रियाएं होंगी और प्रतिक्रियाएं भी. क्योंकि क्रियाओं से एक ‘टारगेट’ मिलता है जिसे प्रतिक्रिया में ‘हिट’ करना है (ध्यान बस इतना रखना होता है कि टारगेट दूसरे और अपेक्षाकृत कमजोर वर्ग, जाति और संप्रदाय का हो वर्ना ‘विवेक तिवारी हत्याकांड’ की तरह मामला उलटा भी पड़ सकता है).
जिस दिन प्रतिक्रिया रुक जाएगी नायक/प्रतिनायक मर जाएगा. और वो मरना नहीं चाहता इसलिए वो एक ओर मीडिया को इस बहुसंख्यक आबादी की भावनाएं भड़काने में लगाएगा दूसरी ओर पुलिस, सेना, कोर्ट समेत सभी संस्थाओं और बलों को बहुसंख्यक आबादी की मनोभावनाओं को तुष्ट करने में झोंक देगा. साथ ही इस बहुसंख्यक समाज को लगातार रक्तपिपासु बनाता जाएगा ताकि ये रक्तपिपासु समाज हर एक हत्या पर ऐसे ही नाचे, गाए और ज़श्न मनाए.
Also Read
-
TV Newsance 304: Anchors add spin to bland diplomacy and the Kanwar Yatra outrage
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
Let Me Explain: CBFC or censorship bureau? Who’s deciding what India can watch
-
Where tribal students are left behind