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पार्ट 3: क्या आज रिपब्लिक टीवी माफ़ी मांगेगा?

न्यूज़ चैनलों के दिन पर दिन एकतरफा और जहरीले, अंध-राष्ट्रवादी, सांप्रदायिक और विभाजनकारी प्रोपैगंडा के मंच और प्रचार के भोंपू बनते जाने और इस प्रक्रिया में पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों और खुद अपनी बनाई आचार संहिता या एथिक्स कोड की खुलेआम धज्जियां उड़ाने के बढ़ते मामलों के बीच एक बार फिर उनके नियमन (रेगुलेशन) व्यवस्था की परीक्षा का समय आ गया है.

न्यूज़ चैनलों के संगठन- न्यूज़ ब्राडकास्टिंग एसोसिएशन (एनबीए) की ओर से स्व-नियमन (सेल्फ-रेगुलेशन) के लिए गठित- न्यूज़ ब्राडकास्टिंग स्टैण्डर्डस अथारिटी (एनबीएसए) ने अर्नब गोस्वामी की अगुवाई वाले अंग्रेजी चैनल- रिपब्लिक को आदेश दिया है कि वह एनबीएसए के प्राधिकार को नीचा दिखाने के लिए 14 अक्तूबर (सोमवार) को रात दस बजे माफ़ी मांगे. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस एके सीकरी की अध्यक्षता वाली अथॉरिटी ने रिपब्लिक टीवी के खिलाफ यह आदेश इस साल 12 मार्च को रात दस बजे चैनल पर प्रसारित एक कार्यक्रम “कांग्रेस भारतमाता क्लेम” को लेकर की गई एक शिकायत की सुनवाई के दौरान बीते 7 अक्तूबर को दिया है.

(http://www.nbanewdelhi.com/assets/uploads/pdf/72_ORDER_NO_70_DT__7_10_19.pdf )

अथॉरिटी ने रिपब्लिक टीवी को निर्देश दिया है कि वह 14 अक्तूबर को रात 10 बजे अपने चैनल पर माफ़ी मांगते हुए अपने पूरे स्क्रीन पर धीमे वायस-ओवर के साथ यह आदेश स्थिर और बड़े टेक्स्ट में दिखाएं: “रिपब्लिक टीवी 7 जुलाई के उस ईमेल के लिए बिना शर्त माफ़ी मांगता है जिसमें यह कहा गया था कि इस मामले में “इतना दम नहीं है कि इसकी इतनी गहन छद्म-न्यायायिक जांच-पड़ताल की जाए”, जोकि 1 मई के एनबीएसए के उस फैसले के जवाब में था जिसमें चैनल को उस मामले में अपना पक्ष रखने के लिए 7 जुलाई को बुलाया गया था जो चैनल पर 12 मार्च की रात 10 बजे प्रसारित कार्यक्रम ‘कांग्रेस भारतमाता क्लेम’ के बारे में मिली शिकायत के सम्बन्ध में थी. हम यह कहना चाहते हैं कि चैनल का किसी भी तरह से एनबीएसए की अथॉरिटी को नीचा दिखाने का इरादा नहीं था. हम एनबीएसए, इसके अध्यक्ष और सदस्यों का अत्यधिक सम्मान करते करते हैं. कृपया, इस मामले को समाप्त करने के लिए हमारी बिना शर्त माफ़ी स्वीकार करें.”

पार्ट 1:  कांस्टेबल खुशबू चौहान के बहाने

असल में, रिपब्लिक टीवी ने इस मामले की सुनवाई में यह कहते हुए आने से इनकार कर दिया था कि इसमें “इतना दम नहीं है कि इसकी इतनी गहन छद्म-न्यायिक जांच-पड़ताल की जाए.” जाहिर है कि यह न सिर्फ सीधे-सीधे एनबीएसए के अधिकारों और सम्मान को चुनौती थी बल्कि अथारिटी को “छद्म-न्यायिक” कहकर चैनल उसका खुलेआम मजाक भी उड़ा रहा था. रिपब्लिक टीवी के इस रवैये के बाद एनबीएसए के लिए आगे काम करना मुश्किल था क्योंकि इस तरह के दूसरे मामलों की सुनवाई में अन्य चैनल भी इस नजीर का इस्तेमाल करते हुए अथॉरिटी को अंगूठा दिखा सकते हैं.

अब लाख टके का सवाल है कि क्या रिपब्लिक टीवी एनबीएसए के इस आदेश को मानेगा? इसके लिए 14 अक्तूबर की रात का इंतजार करना पड़ेगा. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह एनबीएसए और उससे अधिक न्यूज़ ब्रॉडकास्टरों के संगठन- एनबीए के लिए एक और बड़ा टेस्ट केस है जिसमें उनके सामने एनबीएसए की साख और उससे अधिक स्व-नियमन के अपने दावे की विश्वसनीयता को बनाए रखने की बड़ी चुनौती है.

इसकी बड़ी वजह यह है कि ऐसे ही एक मामले में डेढ़ साल पहले एक अन्य न्यूज़ चैनल- ज़ी न्यूज़ ने एनबीएसए के आदेश पर माफ़ी प्रसारित करने और एक लाख का जुर्माना भरने से मना कर दिया था. ज़ी न्यूज़ ने एनबीएसए के दो-दो बार आदेश के बावजूद उसका पालन नहीं किया और लाचार एनबीए इस मामले में न तो चैनल को इस आदेश को मानने पर मजबूर कर पाया और न ही उसके खिलाफ कोई कार्रवाई कर पाया. ज़ी न्यूज़ के खिलाफ अभी भी अनेकों शिकायतें आती रहती हैं लेकिन एनबीएसए ज्यादातर मामलों में उसे चेतावनी देकर खानापूर्ति कर रहा है.

पार्ट 2: नफरत फैलाने में लगे न्यूज चैनलों ने इतिहास से कुछ नहीं सीखा

वैसे यह पहली बार नहीं हो रहा है. ज़ी न्यूज़ के मामले से बहुत पहले जब एनबीए का अभी गठन ही हुआ था और एनबीएसए के पहले अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस वर्मा ने इंडिया टीवी को एथिक्स कोड के गंभीर उल्लंघन के एक मामले में चैनल पर माफ़ी मांगने और एक लाख का जुर्माना भरने का आदेश दिया था. लेकिन एनबीए के मौजूदा अध्यक्ष रजत शर्मा के नेतृत्ववाले इंडिया टीवी ने उस समय एनबीएसए के इस फैसले के मानने से इनकार दिया था और विरोध में एनबीए छोड़ने का एलान कर दिया था. बाद में एनबीए के सदस्य किसी तरह समझा-बुझाकर उन्हें संगठन में वापस ले आये लेकिन कहते हैं कि वह फैसला कभी लागू नहीं हुआ.

मजे की बात है कि एनबीए के मौजूदा अध्यक्ष रजत शर्मा ने वर्ष 2018-19 की सालाना रिपोर्ट में दावा किया है कि, “ब्रॉडकास्टरों की स्व-नियमन व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता ने एक बेहतरीन (स्व-नियमन का) माडल बनाया है जिसका अनुकरण करने की जरूरत है. यह पूरी तरह एक स्वैच्छिक व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता के कारण ही संभव हुआ है कि एनबीएसए उसके सामने आनेवाले सभी मामलों को निरंतर, प्रभावी और विशिष्ट तरीके से निपटा पाने में सक्षम हो पा रही है… मेरी हार्दिक उम्मीद है कि सरकार सराहेगी कि पिछले एक दशक से स्व-नियमन की मौजूदा व्यवस्था कितने बेहतर तरीके से काम कर रही है और हमारी लम्बे समय की मांग को स्वीकार करेगी कि एथिक्स कोड और शिकायतों को सुनने की एनबीएसए की व्यवस्था को केबल टेलीविजन नेटवर्क कानून और केबल टेलीविजन नेटवर्क नियमों के तहत प्रोग्राम कोड का हिस्सा बनाया जाए.”

साफ़ है कि न्यूज़ ब्रॉडकास्टरों और उनकी संस्था- एनबीए को लगता है कि उनकी स्व-नियमन की व्यवस्था शानदार तरीके से काम कर रही है. मतलब कहीं कोई समस्या नहीं है. न्यूज़ चैनलों की दुनिया में “सब चंगा सी”. लेकिन सच्चाई सबके सामने है. पिछले एक दशक से ज्यादा समय से काम कर रहे स्व-नियमन और शिकायतों को सुनने और एथिक्स कोड को लागू कराने की व्यवस्था- एनबीएसए होने के बावजूद न्यूज़ चैनलों के कामकाज में पत्रकारीय मूल्यों, नैतिकता और खुद के बनाए एथिक्स कोड के पालन को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिखाई पड़ता है. उल्टे ज्यादातर न्यूज़ चैनलों में एथिक्स कोड को अंगूठा दिखाने और कंटेंट (न्यूज़ रिपोर्टों से लेकर बहसों) के मामले में नीचे गिरने की होड़ जारी है.

जैसे रिपब्लिक टीवी से जुड़े ताजा मामले को ही लीजिए. इस मामले में शिकायतकर्ता और रिपब्लिक टीवी के पक्ष पर विचार करने के बाद एक अलग फैसले में एनबीएसए यानी अथारिटी ने चैनल को चेतावनी दी है कि वह पैनल चर्चा के कार्यक्रमों में भविष्य में सावधानी बरते ताकि एनबीए के एथिक्स कोड और उसके सिद्धांतों- “निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता” और “तटस्थता” का उल्लंघन न हो. अथॉरिटी ने फैसले में यह भी कहा है कि चैनल भविष्य में यह ध्यान रखे कि पैनल चर्चा के कार्यक्रम के दौरान वह किसी पैनलिस्ट को धमकाए नहीं और सुनिश्चित करे कि उन्हें पूरी आज़ादी से अपनी राय रखने का मौका मिले.

लेकिन क्या रिपब्लिक टीवी के रवैये में कोई फर्क आया है? तथ्य यह है कि रिपब्लिक टीवी और ज़ी न्यूज़ सहित कई न्यूज़ चैनल खुद के बनाए एथिक्स कोड और सिद्धांतों के एक तरह से सीरियल आफेंडर हैं. इन चैनलों ने एथिक्स कोड को सिर के बल खड़ा कर दिया है. ऐसा लगता है कि उन्हें एथिक्स कोड, पत्रकारीय मूल्यों और एनबीएसए के निर्देशों की कोई परवाह नहीं है. उनके इस रवैये के कारण न सिर्फ एथिक्स कोड और उससे जुड़े सिद्धांत और गाइडलाइंस बेमानी हो गए हैं बल्कि उनकी खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. एनबीएसए, प्रेस काउन्सिल की ही तरह ‘कागजी और दंतविहीन शेर’ बनकर रह गया है.

कुछ हालिया मामलों का जिक्र करना उपयुक्त होगा. इनका विवरण एनबीए के सालाना रिपोर्ट में है. उदाहरण के लिए, बीते साल 9 जनवरी को रिपब्लिक टीवी पर रात 9 के बजे के शो में इस चैनल के संपादक और स्टार एंकर अर्नब गोस्वामी ने अपनी खास गली-गलौज वाली शैली में गुजरात के दलित नेता और विधायक जिग्नेश मेवाणी की युवा रैली को फ्लाप शो बताते हुए उसमें शामिल एक व्यक्ति (शिकायतकर्ता ए सिंह) को ‘वल्गर ठग’, ‘परवर्ट’, ‘गून’, ‘सेक्सिस्ट’, ‘हाएना’ और ‘एंटी-इंडिया’ कहा जिसकी शिकायत उसने एनबीएसए से की. चैनल का आरोप था कि उस व्यक्ति ने उनकी महिला रिपोर्टर के साथ बदतमीजी की थी और आक्रामक और धमकाने वाले अंदाज़ में उससे कहा था- ‘झूठ बोल रही है ये.’

एनबीएसए ने दोनों पक्षों को सुना, पूरे कार्यक्रम के टेप को सुना और पाया कि चैनल के आरोपों में तथ्य नहीं है. अथॉरिटी के मुताबिक, शिकायतकर्ता के शब्दों और व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं दिखाई देता है जिसे धमकी भरा या भद्दा कहा जाए. उसने यह भी कहा कि एंकर अर्नब गोस्वामी ने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया और चैनल पर जिस तरह से शिकायतकर्त्ता के चेहरे को रेड गोले में घेरकर दिखाया गया, वह पूरी तरह से अवांछित और अनुचित था और यह ब्राडकास्टिंग स्टैण्डर्ड कोड का भी उल्लंघन था. अथॉरिटी ने इस मामले में रिपब्लिक टीवी को माफ़ी मांगने और स्पष्टीकरण दिखाने का निर्देश दिया था. (सालाना रिपोर्ट 18-19, पृष्ठ: 119)

इसी तरह एक और शिकायतकर्ता मोहम्मद इकबाल अंसारी ने हिंदी चैनल न्यूज़-18 पर “आर-पार” शो में पांच दिनों तक विभिन्न शीर्षकों (जैसे, ‘मुहर्रम के लिए दुर्गापूजा पर पाबन्दी क्यों?’, ‘इस्लामिक आतंकवाद पर नेता चुप क्यों?’, ‘टेंट से निकलेंगे ‘रामलला’?’, ‘राम मंदिर वहीं, मस्जिद और कहीं’, और ‘मंदिरों की घर वापसी’) के साथ ऐसे कार्यक्रम करने का आरोप लगाया जिसका उद्देश्य विभाजक, दो समुदायों में नफरत और साम्प्रदायिकता का ज़हर फैलाना था.

एनबीएसए ने एक बार फिर दोनों पक्षों की दलीलें सुनी और इन कार्यक्रमों की सीडी देखी. उसने पाया कि इस कार्यक्रम में बार-बार बिना जरूरत के ‘इस्लामिक आतंक’ शब्द का इस्तेमाल किया गया और यह एनबीएसए गाइडलाइंस का स्पष्ट उल्लंघन है. अथॉरिटी ने माना कि इन बहसों की प्रकृति ऐसी लगती है जिसका प्रभाव हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच विभाजन पैदा करने या उसे और बढ़ाने में पड़ सकता है. इन कार्यक्रमों ने मुद्दों को सनसनीखेज बनाया और इसका नतीजा दो समुदायों के बीच शत्रुता बढ़ने के रूप में आ सकता है.

इस मामले में एनबीएसए की राय थी कि अगर चैनल ने अपने रवैये में सुधार नहीं किया और कार्यक्रमों की नकारात्मक प्रकृति को हल्का नहीं किया तो इससे कानून और व्यवस्था की गंभीर समस्या खड़ी हो सकती है. एनबीएसए ने चैनल को चेतावनी देते हुए चैनल पर माफ़ी मांगने को कहा. ऐसे अन्य और कई मामलों में एनबीएसए चैनलों को एथिक्स कोड और ब्रॉडकास्टिंग स्टैण्डर्ड के उल्लंघन का दोषी माना, उन्हें चेतावनी दी और कुछ मामलों में तीखी टिप्पणियां की. यह सब उनकी वेबसाईट पर उपलब्ध है.

लेकिन सवाल है कि एनबीएसए की चेतावनियों का चैनलों पर कितना असर पड़ रहा है? क्या उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, लव जिहाद-गोरक्षा जैसे मुद्दों पर भड़काऊ शीर्षकों के साथ विभाजनकारी बहसें कराना या उनमें कथित फ्रिंज तत्वों को बुलाकर ज़हर उगलने का मौका देना या बहसों में गाली-गलौज करना या किसी सरकार विरोधी बुद्धिजीवी को निशाना बनाना और तमाम तरह के नकारात्मक विशेषणों से अपमानित करना बंद कर दिया है?

अफ़सोस, इसका उत्तर नकारात्मक है. स्व-नियमन आड़ में न्यूज़ चैनलों की ओर से एथिक्स कोड और पत्रकारीय मूल्यों को ठेंगा दिखाना जारी है. आज रात 14 अक्तूबर को एक बार फिर साफ़ हो जाएगा कि रिपब्लिक टीवी जैसे न्यूज़ चैनलों के लिए स्व-नियमन का क्या मतलब है?

( लेखक भारतीय जन संचार संस्थान दिल्ली में प्रोफेसर हैं )