Newslaundry Hindi
स्वच्छ भारत मिशन : इतने मल-मूत्र का निपटारा कैसे होगा?
पिछले चार साल में भारत के 6 लाख गांवों में 10 करोड़ और शहरों में 63 लाख शौचालय बन गए हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक बड़ी बात है. देश को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित कर दिया गया है, जो कुछ साल पहले तक असंभव कार्य था. सरकार के अनुमान के मुताबिक, फरवरी 2019 तक देश के 93 फीसदी ग्रामीण घरों में शौचालय बन चुके थे, जबकि इनमें से 96 फीसदी ग्रामीण इनका इस्तेमाल भी कर रहे थे, जिससे पता चलता है कि लोगों के व्यवहार में महत्वपूर्ण बदलाव आया है. उसी वक्त 99 फीसदी शौचालयों को बिल्कुल अच्छी तरह बनाया गया था, जो साफ सुथरे थे और 100 फीसदी शाचौलयों में मल को ‘सुरक्षित’ तरीके से निपटाया जा रहा था. वहां कोई प्रदूषण नहीं था और यहां तक कि 95 फीसदी गांवों में कहीं पानी रोड़ा नहीं था, कोई गंदा पानी नहीं था और गंदगी थी लेकिन बहुत कम. यह आश्चर्य से भर देने वाली स्थिति है.
हमें यह कैसे पता चला? दरअसल जल शक्ति मंत्रालय द्वारा दो निजी कंसल्टेंसी एजेंसियों आईपीई ग्लोबल और कंटर को देश भर में सर्वेक्षण का काम सौंपा गया, ताकि विश्व बैंक से ऋण लेने के लिए इस सर्वेक्षण का इस्तेमाल किया जा सके. राष्ट्रीय वार्षिक ग्रामीण स्वच्छता सर्वेक्षण (एनएआरएसएस) का दूसरा चरण नवंबर 2018 से फरवरी 2019 के बीच किया गया. इस सर्वेक्षण में 6,136 गांव और 92,411 घरों को शामिल किया गया. इसके अलावा आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में भी कहा गया है कि शौचालय कार्यक्रम की वजह से स्वास्थ्य संकेतकों में काफी सुधार हुआ है. खासकर जिन जिलों में शौचालयों की संख्या काफी बढ़ गई है, वहां पांच साल तक के बच्चों में डायरिया और मलेरिया के मामलों में बड़ी तेजी से कमी आई है.
यहां किन्तु-परंतु की बात नहीं है. प्रमाण बताते हैं कि देश ने एक लगभग असंभव लक्ष्य को हासिल कर लिया है. भारत की यह उपलब्धि दुनिया को एक राह दिखाएगी, ताकि मल-मूत्र के सुरक्षित निपटान और शौचालय कवरेज के सतत विकास लक्ष्यों को हासिल किया जा सके. हालांकि, इस सफलता को चिरस्थायी बनाना होगा, जो अंत तक जारी रहे. यह वह बिंदु है, जहां सबसे ज्यादा जोखिम निहित है. इसलिए, भले ही हम जश्न मनाने के लिए एक क्षण लेते हैं, हमें शौचालय की चुनौती को थामना नहीं होगा. ऐसा इसलिए है, क्योंकि अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है और बहुत कुछ गलत हो सकता है.
पहला, यह स्पष्ट है कि लगभग सभी कार्यक्रमों में एक समय के बाद गिरावट आती है. ऐसे में, अगर शौचालय बने हैं और लोगों ने इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, तब यह भी हो सकता है कि यह उल्टा हो जाए. जब ‘डाउन टू अर्थ’ के संवाददाताओं ने देश के अलग-अलग जिलों में जाकर इसकी पड़ताल की तो उन्हें अच्छी और बुरी दोनों खबरें मिली. कुछ समय पहले तक शौचालयों की भारी कमी झेल रहे उत्तर प्रदेश के कई जिलों में लोगों, खासकर महिलाओं में शौचालयों का इस्तेमाल बढ़ा है और वे अधिक शौचालयों की मांग कर रही हैं. लेकिन 2017 में खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित हरियाणा में लोगों की आदत नहीं बदली है. यह भी तब हो रहा है, जब हरियाणा ने लोगों के व्यवहार में बदलाव के लिए अच्छा खासा पैसा खर्च किया है.
दूसरा, मल-मूत्र के निपटान का मुद्दा है. एनएआरएसएस 2018-19 सर्वेक्षण में ‘सुरक्षित निपटान’ की जो परिभाषा दी गई है, वह न केवल अपर्याप्त है, बल्कि दोषपूर्ण है. इस परिभाषा में कहा गया है कि सुरक्षित निपटान से आशय है कि शौचालय किसी सेप्टिक टैंक, एकल या दोहरे गड्ढे या किसी नाले से जुड़ा हुआ है.
हकीकत यह है कि यह केवल मल-मूत्र को फैलने से रोकने की व्यवस्था भर है, इसे मल-मूत्र का सुरक्षित निपटान नहीं कहा जा सकता. एनएआरएसएस 2018-19 के मुताबिक, लगभग 34 फीसदी शौचालय एक गड्डे (सोक पिट) वाले सेप्टिक टैंक से जुड़े हैं, जबकि 30 फीसदी शौचालय दोहरे गड्ढे (लीच पिट) वाले सेप्टिक टैंक से जुड़े हैं और शेष 20 फीसदी शौचालय एकल गड्ढे वाले सेप्टिक टैंक से जुड़े हुए हैं. इससे अनुमान लगाया जाता है कि शौचालयों से निकलने वाले मल का वहीं सुरक्षित तरीके से निपटान किया जा रहा है.
लेकिन यहां यह उल्लेख नहीं किया गया है कि क्या यह पूरी तरह से शौचालय के निर्माण की गुणवत्ता पर निर्भर करेगा, जो समस्या की जड़ है. यदि सेप्टिक टैंक या दोहरे गड्ढे (लिच पिट) वाले शौचालय के डिजाइन से बनाए गए हैं- उदाहरण के लिए, अगर दोहरे लिच पिट में मधुमक्खी के छत्ते जैसे ईंटों से बनाया गया है तो मल-मूत्र सुरक्षित तरीके से मिट्टी में मिल जाएगा और जब उसे हटाया जाएगा तो उसका इस्तेमाल मिट्टी में सुरक्षित तरीके से दोबारा किया जा सकेगा.
हालांकि यह सब ‘अगर’ के दायरे में आता है. सेंटर फॉर साइंस एंड इनवॉयरमेंट द्वारा शहरी क्षेत्रों में कराए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि सेप्टिक टैंक की गुणवत्ता काफी खराब है. टैंकर चालकों द्वारा जमीन पर मल-मूत्र का निपटान सुरक्षित नहीं किया जाता, खासकर जलाशयों में बुरे तरीके से निपटान किया जाता है. तो, क्या ग्रामीण भारत में बने ये शौचालय डिजाइन से बने हैं? या ये एक और चुनौती बनने वाले हैं, जब एक गड्ढा भर जाएगा और उसे किसी जलाशय या खेत में खाली कर दिया जाएगा? तब ये शौचालय न केवल संक्रमण का कारण बनेंगे, बल्कि इनसे मिट्टी और पानी भी दूषित होगा, जिससे स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है.
तीसरा, यह जानने के लिए कि हम सही राह पर है, मूल्यांकन की विश्वसनीयता का मुद्दा भी अहम है. वर्तमान में, मंत्रालय या परियोजना को वित्तीय मदद देने वाली संस्था द्वारा जो भी अध्ययन कराए जाते हैं. इन बड़े पैमाने पर किए जाने वाले सर्वेक्षणों के परिणाम या उनकी शोध पद्धति पर संदेह करने का मेरे पास कोई ठोस वजह नहीं है.
लेकिन यह भी सच है कि 99 फीसदी से अधिक सफलता की कहानियां पूरी तरह सही या गलत नहीं होती. ऐसे में, इन संगठनों का अलग-अलग नजरिए से अध्ययन अवश्य करने की जरूरत है. जब हम शौचालय के बारे में अच्छी ख़बर बता रहे हैं तो हमें यह भी बात याद रखनी चाहिए कि अगर हम सब चीयरलीडर्स बन जाएंगे तो तालियां बजाने वाली टीम नहीं बचेगी.
(यह लेख डाउन टू अर्थ पत्रिका की अनुमति से प्रकाशित)
Also Read
-
Delhi’s ‘Thank You Modiji’: Celebration or compulsion?
-
Margins shrunk, farmers forced to switch: Trump tariffs sinking Odisha’s shrimp industry
-
DU polls: Student politics vs student concerns?
-
अडाणी पर मीडिया रिपोर्टिंग रोकने वाले आदेश पर रोक, अदालत ने कहा- आदेश एकतरफा
-
Adani lawyer claims journalists funded ‘by China’, court quashes gag order