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उत्तर प्रदेश : जहां चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

17 सितंबर, दोपहर के दो बज रहे हैं. नोएडा के सूरजपुर में सैकड़ों लोग अपनी परेशानी लेकर एसएसपी वैभव कृष्णा के इंतजार में बैठे हुए हैं. कई जगह से उजड़ी दीवारों वाले इस कार्यालय में हमारी मुलाकात एक सीनियर अधिकारी से होती है. वो एसपी के दफ्तर में ही तैनात हैं. नोएडा और पूरे उत्तर प्रदेश में पत्रकारों की गिरफ्तारी को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में वो ऑफ द रिकॉर्ड बताते हैं, ‘‘पत्रकारों को गिरफ्तार करने की हिम्मत पहले किसी को नहीं होती थी. लेकिन नोएडा पुलिस ने हिम्मत दिखाई. इसके बाद राज्य के अन्य पुलिस वालों को भी हिम्मत मिली है. आज आप देख रहे हैं कि कितने मामले सामने आ रहे हैं. पत्रकारों ने परेशान कर रखा है. जितने मुद्दे नहीं उस से ज्यादा तो यूपी में पत्रकार हैं.’’ उनके इस बयान में गर्व का बोध था.

एक और दृश्य. 16 सितंबर, सुबह के ग्यारह बजे. एसएसपी, बिजनौर के कार्यालय के बाहर फरियादियों की भीड़ जमा थी. एक घंटे के इंतजार के बाद इस रिपोर्टर की बारी आई. यह रिपोर्टर जब एसएसपी से पत्रकारों के खिलाफ दर्ज मामलों के संबंध में बातचीत करके वापस लौट रहा था तब रास्ते में एक आइपीएस अधिकारी कहते हैं, ‘‘दिल्ली से आप आए हैं. यहां के पत्रकारों को आप नहीं जानते हैं. रुतबा जमाने के लिए वो क्या नहीं करते हैं. हमारे यहां जिन पत्रकारों पर कार्रवाई हुई है उन पर सही कार्रवाई हुई है.’’

यूपी पुलिस के इन दो पुलिस अधिकारियों के बयान से आपको एक झलक मिल जाती है कि पुलिस और पत्रकारों के बीच उत्तर प्रदेश में चल क्या रहा है. प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में बीते कुछ महीनों के दरम्यान पत्रकारों के खिलाफ धड़ाधड़ मामले दर्ज हो रहे हैं. ज्यादातर मामलों में पुलिस या स्थानीय प्रशासन सुओ-मोटो कार्रवाई कर रहा है, एफआईआर दर्ज कर रहा है. जिन मामलों में किसी तीसरे व्यक्ति ने एफआईआर दर्ज कराया है उसके पीछे भी किसी न किसी रूप में पुलिस की भूमिका सामने आई है.

बिजनौर केस

बिजनौर जिले का तितरवाला बसी गांव. दलित बाहुल्य इस गांव में प्रवेश करते ही पहला घर लोकेश देवी का है. लोकेश देवी बाल्मीकि समुदाय से आती हैं. उनके घर के गेट पर कुछ दिन पहले ‘यह मकान बिकाऊ है’ लिखा गया था जो अब मिटाया जा चुका है, लेकिन उससे पैदा हुए विवाद के बाद जिले के दो पत्रकारों का सुख-चैन छिन गया है. उनके ऊपर इस मामले में एफआईआर दर्ज हुई है. जिन पत्रकारों पर मामला दर्ज हुआ उसमें से एक दैनिक जागरण से संवाद सूत्र आशीष तोमर और दूसरे हैं न्यूज़ 18 हिंदी से जुड़े शकील अहमद.

आशीष न्यूज़लॉन्ड्री से बताते हैं, ‘‘4 सितंबर को लोकेश देवी के पति गोपाल ने फोन करके हमें बताया कि गांव में उन्हें सरकारी नल से पानी नहीं भरने दिया जा रहा है. वो लोग गांव छोड़ना चाहते हैं. इस जानकारी के बाद मैं और दो और साथी तितरवाला पहुंचे. वहां हमने पाया कि उनके गेट पर ‘घर बिकाऊ है’ लिखा हुआ था. हमने इसका वीडियो बनाया, तस्वीरें ली और लौट आए. दूसरे दिन खबर छपने के बाद प्रशासन में हड़कंप मच गया और अपनी नाकामयाबी छुपाने के लिए पुलिस ने हम पर ही मामला दर्ज करा दिया.’’

लोकेश देवी का घर 

बिजनौर पुलिस ने आशीष और शकील के ऊपर आईपीसी की धारा 153-ए (विद्वेष के बढ़ावा देने), 268 (उपद्रव) और 503 (आपराधिक धमकी) देने के साथ आईटी एक्ट की धारा 66-ए के तहत एफआईआर दर्ज की गई है.

एफआईआर में पुलिस ने लोकेश देवी के हवाले से लिखा है कि- “चार पांच पत्रकार आए और उन्होंने मदद करने का वादा कर घर के अंदर पड़ी जली हुई लकड़ी से मेरे घर के बाहर ‘मकान बिकाऊ है’ लिखकर फोटो लिए और वीडियो बनाकर चले गए.”

सिर्फ एफआईआर में ही नहीं बाद में एसीजीएम कोर्ट में भी लोकेश देवी ने कहा कि घर के बाहर पत्रकारों ने ही ‘मकान बिकाऊ है’ लिखा है. लेकिन न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए लोकेश देवी कहती हैं, ‘‘मेरे घर के बाहर पत्रकारों ने कुछ नहीं लिखा था. मेरे परिवार में कोई पढ़ा लिखा नहीं है. मैं पड़ोसियों से परेशान थी. उनसे परेशान होकर ही हमने किसी से लिखवाया था.’’

अगर पत्रकारों ने वह बात नहीं लिखा तो आपने पुलिस के सामने और कोर्ट में क्यों कहा कि पत्रकारों ने आपके घर पर लिखा है? इस सवाल के जवाब में लोकेश देवी कहती हैं, ‘‘पुलिस के सामने मैं डर गई थी, कोर्ट के सामने मुझे कुछ समझ नहीं आया तो मैंने पत्रकारों पर आरोप लगा दिया. आगे से मैं कहीं भी पत्रकारों पर आरोप नहीं लगाउंगी. उन्होंने तो हमारी मदद की है.’’

इस बातचीत के बीच में ही लोकेश देवी के बगल में खड़ी उनकी बड़ी बेटी बोल पड़ती है, ‘‘पुलिस ने मां को धमकी दी है कि पत्रकारों पर आरोप नहीं लगाओगी तो तुम्हारे पूरे परिवार को जेल में डाल देंगे.’’

अपने बच्चों के साथ लोकेश देवी 

आरोपित पत्रकार आशीष तोमर ने न्यूज़लॉन्ड्री से तीन ऑडियो क्लिप शेयर किए. यह ऑडियो लोकेश देवी और उनके पति गोपाल से हुई बातचीत का है. आशीष तोमर ने जो हमें जो ऑडियो दिया हम उसकी पुष्टि नहीं कर पाए लेकिन उसमें साफ़-साफ़ सुना जा सकता है कि महिला के पति गोपाल, आशीष तोमर को अपनी परेशानी बताते हुए गांव छोड़ने की बात कह रहे हैं. साथ में वो आशीष को गांव में आने का रास्ता भी बताते हैं. इस पर आशीष एक दिन बाद आने की बात करते हैं.

इस ऑडियो की बातचीत के संबंध में हमने गोपाल से सवाल किया तो उन्होंने बताया, “जी, दीवार पर मैंने ही लिखा था. हम अपने पड़ोसियों से परेशान हो गए थे. हमें अभी भी परेशान किया जा रहा है. पुलिस दबाव बना रही है कि पत्रकारों पर ही आरोप लगाओ. मेरी बीवी को जबरदस्ती ले जाकर बयान करा दिया गया. उस दिन मुझे पकड़कर रखा गया था ताकि उस पर दबाव बनाया जा सके. हम परेशान हो गए है.”

आशीष तोमर के साथ पच्चास वर्षीय शकील अहमद पर भी मामला दर्ज हुआ है. शकील की गलती ये थी कि मामला सामने आने के बाद उन्होंने अपने चैनल (न्यूज़-18) पर इसके संबंध में ब्रेकिंग न्यूज़ चलाया था.

एसपी संजीव त्यागी के साथ आशीष तोमर ( सबसे दायें). तस्वीर साभार- फेसबुक 

शकील न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘मुझे जब इस ख़बर की सूचना मिली तो मैंने अपने सूत्रों से कन्फर्म करने के बाद अपने यहां ब्रेकिंग चलवा दिया. जिसके बाद मुझ पर पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करा दिया गया. 15-16 साल के करियर में पहली बार इस तरह के हालात का सामना करना पड़ रहा है.’’

आशीष तोमर दैनिक जागरण के पूर्णकालिक कर्मचारी नहीं है, वे संवाद सूत्र के रूप में काम करते हैं. जागरण में आशीष के एक अन्य सहयोगी बताते हैं, ‘‘यहां तमाम अख़बार संवाद सूत्र और संवाद सहयोगी के भरोसे चल रहे हैं. इन संवाद सूत्रों का महीने भर का मेहनताना 12 सौ से 15 सौ रुपए होता है. इतने कम मेहनताने में ये लोग 24 घंटे संस्थान के लिए उपलब्ध रहते हैं.’’

आखिर इतने कम पैसे में वो क्यों काम कर रहे हैं? इस सवाल के जवाब में आशीष कहते हैं, ‘‘मैं अपने इलाके के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखता हूं. हमारे पास काफी खेत है, अपना व्यवसाय है. मेरा समाज सेवा में मन लगता है. मैं अनाथ बच्चों को लिए काम करता हूं. पत्रकारिता भी मेरे लिए सामाजिक सेवा का ही एक हिस्सा है.’’

शकील अहमद मूल रूप से पत्रकार हैं. बिजनौर में वे न्यूज़-18 के प्रतिनिधि हैं. शकील बताते हैं, ‘‘महीने का तय तो नहीं है लेकिन ठीक-ठाक पैसे मिल जाते है. बाकी मेरी पत्नी सरकारी शिक्षिका हैं. उनकी तय सैलरी से हमारा घर चल जाता है.’’

शकील अहमद ( सबसे बाएं ) पुलिस अधिकारियों के साथ. तस्वीर- फेसबुक 

जिस तितरवाला गांव में विवाद हुआ वहां कोई भी इस मामले पर बोलने को तैयार नहीं है. विवाद सामने आने के बाद लोकेश के पड़ोसी हरिजन समुदाय के 15 लोगों का पुलिस ने चालान कर दिया. जिन्हें बाद में छोड़ दिया गया. पुलिस ने जिनका चालान किया उसमें अस्सी साल के बुजुर्ग से लेकर नौजवान तक शामिल है. हमने गांव के बुजुर्ग दयान सिंह से झगड़े के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ‘‘बच्चों में लड़ाई हुई, लेकिन लोकेश ने मामले को बढ़ा दिया. ये बहुत लड़ाकू महिला है. इसकी किसी से नहीं बनती. हमारे गांव में कोई बाल्मीकि नहीं था. इसके परिवार को आज से 25 साल पहले अपनी बुग्गी में मैं ही लेकर आया था. कई दिनों तक हमारे यहां खाए-पिए और आज हम पर छुआछूत का आरोप लगा रहे हैं.’’

लोकेश के घर पर ‘मकान बिकाऊ है’ किसने लिखा था. इस सवाल पर आसपास खड़े तमाम लोग चुप्पी साध लेते हैं. तभी पास में खड़ी एक महिला कुछ अपशब्द बोलते हुए कहती हैं, ‘‘उसी से पूछो किसने लिखा था. हम क्या बताएं.’’

तितरवाला बसी गांव से निकलते समय हमारी मुलाकात मंडावर थाने के एसएचओ सत्येन्द्र कुमार से होती है. लेकिन वे इस मामले पर कुछ भी बोलने से इनकार कर देते हैं. हम वहां से बिजनौर के लिए निकलते हैं. पीछे से हमें जानकारी मिली कि हमारे लौटने के तुरंत बाद लोकेश देवी के घर पुलिस पहुंची और उनके घर के बाहर दो पुलिसवाले बैठा दिए गए, ताकि वो किसी से बात नहीं कर सके.

इस घटना के बाद बिजनौर के पत्रकारों ने एक संघर्ष समिति बनाई है. संघर्ष समिति से जुड़े वरिष्ट पत्रकार ज्योति लाल शर्मा न्यूज़लॉन्ड्री से बताते हैं, ‘‘प्रदेश और केंद्र में आज पूर्ण बहुमत की सरकार है और ऐसी सरकारें अपनी आलोचना को पचा नहीं पाती हैं. पत्रकार पहले भी वही काम करता था जो अब कर रहा है, लेकिन अब उन पर मामले दर्ज हो रहे हैं. सिस्टम की गलती सुधारने को कोई तैयार नहीं है. पत्रकारों पर ही अंकुश लगाने की कोशिश हो रही है.’’

इस पूरे विवाद पर बिजनौर के पुलिस अधीक्षक संजीव त्यागी न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘हम अपने एफआईआर पर कायम हैं. पुलिस ने जो स्टेप लिया है वो सही है. हम जांच कर रहे हैं.’’

क्या पत्रकारों ने लोकेश देवी के घर के बाहर ‘घर बिकाऊ है’ लिखा था? इस सवाल के जवाब में संजीव त्यागी कहते हैं, ‘‘अभी तक की जांच में पुलिस के आरोप सही है. अभी और जांच कर रहे हैं. अगर पत्रकारों की गलती सामने आती है तो उन्हें गिरफ्तार भी किया जाएगा.’’

क्या दैनिक जागरण ने इस मामले में आशीष तोमर की कोई सहायता की? आशीष तोमर ने इस संबंध में कुछ भी बोलने से इनकार कर दिया. लेकिन जागरण के एक अन्य कर्मचारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘‘संस्थान ने एक हद तक साथ दिया. लखनऊ के सीनियर पुलिस के अधिकारियों से बातचीत हो रही है कि मामला हट जाए. बदले में हम भी उस मामले में फॉलोअप खबरें प्रकाशित नहीं कर रहे हैं.’’

यह उत्तर प्रदेश में पत्रकारिता का कड़वा सच है जिसे नजरअंदाज कर पाना मुश्किल है. प्रशासन और पुलिस अपने मनमाने रवैए से पत्रकारिता को उस मुकाम तक ले आई कि समझौते के तौर पर संस्थान खबरें करना ही बंद कर दे रहे हैं. यह दैनिक जागरण जैसे विश्व के सबसे बड़े अखबार की हैसियत है.

मिर्जापुर केस

‘‘मेरे ऊपर दर्ज एफआईआर को अभी तक हटाया नहीं गया है. हालांकि कई सीनियर अधिकारी कह रहे हैं कि तुम्हारे ऊपर से मामला हटा लिया जाएगा. लेकिन कब तक? अभी तो मामला ताजा है. धीरे-धीरे लोग भूल जाएंगे और फिर पुलिस किसी दिन उठा ले जाएगी,’’ यह कहना है, मिर्जापुर में मिड-डे मील में नमक-रोटी परोसने का मामला उजागर करने वाले पत्रकार पवन कुमार जायसवाल का.

दैनिक जनसंदेश टाइम्स के पत्रकार पवन जायसवाल पर खंड शिक्षा अधिकारी, मिर्जापुर ने भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी, 186, 193 और 420 के तहत मुकदमा दर्ज कराया था. पवन को इस मामले की जानकारी देने वाले राजकुमार पाल (प्रधान प्रतिनधि) को भी गिरफ्तार किया गया था.

राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बनने के कारण पुलिस ने पवन को तो गिरफ्तार नहीं किया, लेकिन राजकुमार पाल को 31 अगस्त को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. पाल 17 दिन जेल में रहने के बाद 17 सितंबर को जमानत पर बाहर रिहा हुए.

इस पूरे विवाद का कारण था मिर्जापुर के सियूर गांव में स्थिति प्राथमिक विद्यालय में मिडडे मिल में बच्चों को रोटी और नमक दिया गया. इस मामले में न्यूज़लॉन्ड्री की एक तफ्तीश  से सामने आया था कि किस तरह प्रशासन ने अपनी नाकामी को छुपाने के लिए पत्रकार को बली का बकरा बनाया.

मिर्जापुर के अहरौरा क्षेत्र में जनसन्देश टाइम्स के प्रतिनधि पवन जयसवाल पिछले पांच साल से पत्रकारिता कर रहे हैं. ढाई साल से वो जनसन्देश टाइम्स के साथ बतौर रिपोर्टर जुड़े हुए है. महीने का मेहनताना कितना मिलता इस सवाल के जवाब में पवन कहते हैं, ‘‘हमें कोई सैलरी वगैर नहीं मिलता है. रोजाना अखबार (जन संदेश टाइम्स) की 25 प्रति मेरे यहां आती है. उसको मैं और मेरे भाई इलाके में बांटते हैं. हर अख़बार पर हमें 2.50 रुपए का कमीशन मिलता है. सभी अख़बार बिक जाने पर मेरे पास 60 से 70 रुपए रोजाना के हो जाते है. उसी से दिन भर इधर-उधर खबरें इकठ्ठा करने के लिए घूमता हूं.’’

परिवार का खर्च और बाकी जरूरतें कैसे पूरा करते हैं. इस सवाल के जवाब में 35 वर्षीय पवन कहते हैं, ‘‘होली, दिवाली, पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के समय नेता, संस्थान या कोई स्कूल विज्ञापन देता हैं. उसमें भी कमीशन मिलता है. दस-पन्द्रह हज़ार रुपए उससे कमाई हो जाती है. मेरा अख़बार कम प्रसार वाला है तो विज्ञापन भी कम ही मिलता है लेकिन मिल जाता है. इसके अलवा परिवार चलाने के लिए मैंने एक मोबाइल शॉप खोल ली है. दुकान से जो आमदनी होती है उसी से घर का खर्च चलता है.’’

नमक-रोटी से जुड़ा वीडियो जैसे वायरल हुआ स्थानीय डीएम ने तत्काल जांच के बाद स्कूल के प्रधानाचार्य मुरारी सिंह और न्याय पंचायत सुपरवाइज़र अरविंद त्रिपाठी को सस्पेंड कर दिया था लेकिन कुछ दिन बाद ही पत्रकार को साजिश रचने और सरकार की छवि धूमिल करने का आरोप लगाकर मामला दर्ज कर दिया गया.

पवन को हमेशा अपनी गिरफ्तारी का डर लगा रहता है. विवाद बढ़ने के बाद ‘प्रिंट का पत्रकार है तो वीडियो क्यों बनाया’ जैसे विदूषकों वाला बयान देने वाले मिर्जापुर के डीएम अनुराग पटेल से हमने बात करने की कोशिश की लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई. कई दफा फोन करने के पर उनके सहयोगी ने बताया कि सर बाढ़ का निरीक्षण कर रहे हैं.

पवन कहते हैं, ‘‘पता नहीं अब स्कूल के बच्चों को समय पर और सही खाना मिल रहा या नहीं लेकिन मेरी नींद ज़रूर गायब है.’’

नोएडा केस

कह सकते हैं कि पत्रकारों पर रपट, मुकदमों की शुरुआत यहीं से हुई थी. यह बात नोएडा के सीनियर पुलिस अधिकारी बड़े गर्व से स्वीकारते भी हैं. नोएडा में पत्रकारों पर कई मामले आ चुके हैं. यहां कई पत्रकारों के ऊपर गैंगेस्टर एक्ट के तहत भी कार्रवाई हुई है. अभी ये तमाम पत्रकार जेल में हैं.

23 अगस्त को पुलिस ने कुछ पत्रकारों पर गिरोह बनाकर साजिश रचने का आरोप लगाया. इनमें सुशील पंडित, उदित गोयल, रमन ठाकुर और दो अन्य लोग शामिल हैं. पुलिस ने उत्तर प्रदेश गिरोहबंद समाज अधिनियम 1986 की धारा 2(b) ( iv), 2(b) (viii), 2(b) (xi) और 3(1) के तहत इन पत्रकारों पर आरोप लगाया कि ये सारे पत्रकार गिरोह बनाकर पुलिस की नकारात्मक छवि प्रस्तुत करने का काम कर रहे थे.

पुलिस ने एफआईआर में दर्ज किया है कि इस गैंग के सदस्य सरकारी सेवकों खासकर पुलिस अधिकारियों को अनुचित लाभ देकर अभियुक्तियों के पक्ष में कार्य करने के लिए कहते थे. अगर कोई पुलिस वाला इनकी बात नहीं मानता था तो उसको बदनाम करने वाली खबरें चलाते थे.

इस गैंग का मास्टमाइंड पुलिस ने सुशील पंडित को बताया हैं. कई संस्थानों में काम कर चुकने के बाद सुशील ‘सनसनीइंडिया.कॉम’ नाम की वेबसाइट और पैनी खबर नाम से अख़बार चला रहे थे. गिरफ्तार नीतीश पाण्डेय का ‘पुलिसन्यूज़यूपी.कॉम’ नाम से वेब पोर्टल था तो चन्दन राय का ‘पुलिसमीडियान्यूज़.कॉम’ नाम से वेब न्यूज़ पोर्टल था. इस मामले में गिरफ्तार रमन ठाकुर और उदित गोयल पर आरोप लगा कि ये लोग सुशील, नीतीश और चन्दन द्वारा चलाई जा रही अनुचित खबरों को वायरल कराने में मदद करते थे.

ये तमाम पत्रकार अभी नोएडा के जिला जेल में बंद है. इन लोगों पर गैंगेस्टर एक्ट की तरह कार्रवाई के पीछे स्थानीय पुलिस के अधिकारियों का कहना है कि इसी साल जनवरी महीने में गिरफ्तार पत्रकारों में से तीन उदित गोयल, रमन ठाकुर और सुशील पंडित को सेक्टर 20 थाने के निरीक्षक मनोज कुमार पंत के साथ एक मामले में आठ लाख रुपए का रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया था. उस मामले में भी इन पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 7, 8, 13, 13 (1) (d) और भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 384 की तहत मामला दर्ज हुआ था. यह रिश्वत एक बंद पड़े कॉल सेंटर खुलवाने और उस मामले के में कुछ अभियुक्तियों को निकालने के लिए दिया गया था.

हमारी रिपोर्टिंग के दौरान इन पत्रकारों के संबंध में ज्यादातर पत्रकारों की राय बेहतर नहीं मिली. लेकिन ज्यादातर पत्रकार इन पर लगे गैंगेस्टर एक्ट के खिलाफ नज़र आए. पत्रकारों का यह मानना है कि गैंगेस्टर एक्ट किसी बड़े अपराध करने वाले या अपराधिक किस्म के व्यक्ति पर लगाई जाती है. ये लोग इस तरह के अपराधी नहीं थे. जनवरी में सेक्टर 20 के थाने में इन्हें रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया था. लेकिन दिसम्बर तक तो जिले के डीएम और एएसपी से इनकी खूब बनती थी. एक पत्रकार नोएडा के जिलाधिकारी का 19 दिसम्बर 2018 का ट्वीट दिखाते हुए कहते हैं कि देखिए डीएम से इनकी कैसी बनती थी. उस ट्वीट में जिलाधिकारी बृजेश नरायण सिंह ने सुशील पंडित को दिए इंटरव्यू की कटिंग शेयर किया था. बृजेश नरायण सिंह के ही आदेश पर इन लोगों के ऊपर गैंगेस्टर एक्ट के तहत कार्रवाई हुई है.

इस मामले रमन ठाकुर के पिता एसके ठाकुर पुलिस पर गलत कार्रवाई का आरोप लगाते हैं. बिहार के मधुबनी जिले के रहने वाले एसके ठाकुर व्यवसाय करते हैं. वे एक प्राइवेट न्यूज़ चैनल द्वारा जारी प्रशस्ति पत्र दिखाते हुए कहते हैं, ‘‘ये देखिए मेरे बेटे को इतनी बड़ी संस्थान ने आठ साल काम करने के बाद क्या लिखकर दिया है. जब इतनी बड़ी संस्थान ने तारीफ की तो अचानक से मेरा बेटा गैंगगेस्टर कैसे बन गया. पुलिस के लोग बदले की भावना से उस पर कार्रवाई कर रहे हैं. मेरे बेटे पर आरोप है की वो सुशील पंडित द्वारा लिखी गई खबरों को शेयर करता था लेकिन खबर शेयर करना किस कानून के तहत अपराध है.’’

एसके ठाकुर कहते हैं कि मेरा बेटा तो जेल में है लेकिन पुलिस से मेरे कुछ सवाल हैं, जो मेरे बेटे से जुड़ा है.

  • किसी खबर को शेयर करने पर गैंगेस्टर कानून के तहत मामला दर्ज करना सही है. हजारों लोग रोज खबरें शेयर करते हैं. बड़े-बड़े लोग फर्जी खबरें शेयर करते हैं और फिर माफ़ी मांगकर डिलीट कर देते हैं.
  • मेरे बेटे पर पुलिस यह भी आरोप लगा रही है कि वो पुलिस वालों का ट्रांसफर करवाता था और ट्रांसफर होने से रुकवाता भी था. इसके बदले पैसे लेता था. तो वो तो कोई सरकारी अधिकारी तो था नहीं जो फैसला रुकवा दे. किसी न किसी सीनियर अधिकारी को पैसे देता होगा. कौन है वो सीनियर अधिकारी और कौन हैं वे लोग जिनका ट्रांसफर रुकवाया गया? पुलिस बताएगी?
  • देश में किसी नेता या किसी के भी खिलाफ कोई फर्जी खबर करता है तो उसपर मानहानि का मामला दर्ज होता है. लेकिन यहां गैंगेस्टर एक्ट लगाया गया. यह क्या जायज है?
  • गैंगेस्टर एक्ट संगीन अपराध करने वाले लोगों पर लगता है. इस साल जनवरी महीने से पहले इन पर कोई गंभीर आरोप नहीं था. अचानक से ये इतने खतरनाक हो गए?

इस मामले के बाकी आरोपियों के परिजनों से भी बात करने की कोशिश की गई लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो पाया.

नोएडा में पत्रकारों के ऊपर लगातार हो रहे हमले और एफआईआर को लेकर हमने जिले के एसएसपी वैभव कृष्ण से सवाल किया तो नाराज़ होते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हमने इसको लेकर प्रेस नोट जारी किया है. आपकी अगर कोई भी टारगेटेड न्यूज़ है तो मैं उसका हिस्सा नहीं बनना चाहता हूं.’’

सवाल पूछने से पहले सवाल का विषय जानकर ही खबर का रुख तय करने वाले एसएसपी वैभव कृष्ण के नोएडा में सिर्फ एक मामला सामने नहीं आया बल्कि कई मामले सामने आए हैं.

वैभव कृष्ण की नाराजगी और पत्रकारों पर हो रहे हमले को वरिष्ठ पत्रकार और इंडियन फ़ेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट के राष्ट्रीय अध्यक्ष के विक्रम राव एक हद तक सही दिशा में समेटते हैं, ‘‘ऐसा नहीं है कि योगी सरकार में ही पत्रकारों पर मामले दर्ज हो रहे है, इससे पहले भी ऐसा होता रहा है, लेकिन इस सरकार के दौरान पत्रकारों पर हमले बहुत तेज हो गए हैं, इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है नौकरशाही का बेलगाम होना.’’ वैभव कृष्णा की नाराजगी हो या मिर्जापुर के जिलाधिकारी अनुराग पटेल का विवादित बयान, दोनों से नौकरशाही की मनमानी झलकती है.

नोएडा केस न. 2

हाल ही में अमर उजाला के वीडियो सेक्शन में कैमरामैन के रूप में काम करने वाले दिनेश कुमार यादव को तो पुलिस ने सिर्फ इस आधार पर गिरफ्तार कर लिया क्योंकि वे पुलिस और कुछ लोगों के बीच हो रही लड़ाई का वीडियो बना रहे थे. इसके बाद उन्हें रात भर पुलिस हिरासत में रखा गया.

दिनेश यादव न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘मैं अमर उजाला के सेक्टर 59 स्थित ऑफिस से अपना काम खत्म करके लौट रहा था. उस वक़्त रात के लगभग आठ बज रहे थे. मैंने देखा कि लेबर चौक के सामने पुलिस और कुछ लोगों के बीच झड़प हो रही है. मैं उतरा और घटना की वीडियो बनाने लगा. पुलिस के लोग काफी संख्या में मौजूद थे. उन्होंने मेरा फोन छीन लिया और जबरदस्ती बैठाकर थाने ले गए. मैं उन्हें बताता रह गया कि मैं अमर उजाला में काम करता हूं. उन्होंने एक नहीं सुनी. थाने पहुंचकर उन्होंने मुझे लॉकअप में बंद कर दिया और मेरा फोन फोर्मेट कर दिया. पूरी रात मेरे घर वाले मुझे तलाशते रहे. उन्होंने मेरे घर वालों से भी बात नहीं करने दी. सुबह के चार-पांच बजे मैं किसी तरह मैं अपने घर वालों को बता पाया कि मेरे साथ क्या हुआ है.’’

11 सितंबर को नोएडा पुलिस ने दिनेश यादव पर एफआईआर दर्ज कर लिया. दिनेश यादव पर सरकारी काम में बाधा पहुंचाने और पुलिस से बदसलूकी का आरोप लगाकर आईपीसी की धारा 147/ 332/ 353/ 504/ 506 और 186 लगाई गई. एफआईआर दर्ज कराने वाले पुलिस कर्मचारी प्रताप सिंह ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, ‘‘हम गाड़ियों की चेकिंग कर रहे थे. एक गाड़ी पकड़ी गई. जिसके पास ना कागज था और ना ही नम्बर प्लेट था. इसको लेकर विवाद चल रहा. जिनकी गाड़ी थी वे खुद को पत्रकार बता रहा था. तभी दिनेश यादव आया और उस गाड़ी वाले का पक्ष लेते हुए हमसे उलझने लगा. जिसके बाद हमने कार्रवाई की.’’

पुलिस के इस आरोप पर दिनेश यादव कहते हैं, ‘‘जिन लोगों से पुलिस का विवाद चल रहा था उनमें से मैं किसी को जानता तक नहीं था. कभी मिला नहीं था.’’ इस मसले पर नोएडा के एसएसपी वैभव ने इस रिपोर्टर को बताया कि उनकी जानकारी ये मामला है. पत्रकार ने पुलिस से दुर्व्यवहार किया था.

दिनेश यादव

हालांकि दिनेश यादव को कोर्ट ने उसी दिन जमानत दे दिया. लेकिन उन्हें डर है कि यूपी पुलिस खुद को सही साबित करने के लिए कुछ भी कर सकती है.

आज़मगढ़ केस

प्रदेश के आजमगढ़ जिले में दो पत्रकारों पर की गई पुलिस की कार्रवाई तो मनमानेपन और बदले की कार्रवाई की मिसाल बन सकती है. ये दो पत्रकार हैं, जनसन्देश टाइम्स से जुड़े संतोष जायसवाल और पीटीआई से जुड़े सुधीर सिंह.

संतोष जायसवाल ने एक स्कूल में बच्चों द्वारा झाड़ू लगाने की तस्वीर शेयर करने के बाद पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. जिले के फूलपुर कोतवाली स्थित ऊदपुर प्राथमिक स्कूल के प्रधानाध्यापक राधे श्याम यादव ने 6 सितंबर को पुलिस से शिकायत की कि संतोष जायसवाल स्कूल में आए और वहां मौजूद पुरुष और महिला अध्यापकों के साथ-साथ छात्रों से भी दुर्व्यवहार किया. संतोष ने अपना अखबार खरीदने का दबाब बनाया. प्रधानाध्यापक की इस शिकायत के बाद पुलिस ने संतोष को गिरफ्तार कर लिया. पांच दिन जेल में रहने के बाद संतोष जमानत पर रिहा हुए.

संतोष इस पूरे प्रकरण पर रोशनी डालते हुए न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘प्रधानाध्यापक के आरोप बेबुनियाद हैं. मैं स्कूल में बच्चों द्वारा झाड़ू-पोछा की तस्वीरें लेने गया था. मुझे पता चला था कि इस स्कूल में बच्चों से ये सब काम करवाया जाता है. लेकिन मेरी गिरफ्तारी के पीछे सिर्फ इतनी सी वजह नहीं है.”

अपनी गिरफ्तारी की असल वजह पर रोशनी डालते हुए वो कहते हैं, “कुछ दिनों पहले ही फूलपुर थाने के एसएचओ शिवशंकर सिंह की काले शीशे वाली बिना नम्बर प्लेट की गाड़ी की तस्वीरें मैंने ट्वीट किया था. इसमें मैंने यूपी पुलिस को भी टैग किया था. यूपी पुलिस के हैंडल से आदेश आने के बाद आजमगढ़ पुलिस ने जवाब दिया. इसमें उनकी गाड़ी का नंबर दिया गया. जो नम्बर आजमगढ़ पुलिस ने दिया, हमने उसे आरटीओ विभाग से चेक किया. वह नंबर एक मोटरसाईकिल का निकला. हमने फिर से यह जानकारी ट्वीट किया और साथ एक डिटेल स्टोरी अपने अख़बार में लिखा. इस कारण यहां के पुलिस वाले भड़के हुए थे. इसके बाद मौका मिलते ही मुझे फंसाने की कोशिश की गई.’’

इंस्पेक्टर शिवशंकर सिंह  न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए पत्रकार संतोष जायसवाल के आरोप को नकराते हैं. वे कहते हैं, ‘‘बदले की भावना से मैंने कार्रवाई नहीं की है. प्रधानाध्यापक ने मामला दर्ज कराया. उनके साथ कई शिक्षक थाने आए थे. मैं इतने शिक्षकों को इकठ्ठा तो कर नहीं सकता. दूसरी बात संतोष को जेल भेजने की मेरी को मंशा होती तो लोकसभा चुनाव के दिन ही उनको मैंने शराब बेचते हुए पकड़ा था. तब ही उन्हें जेल भेज देता. मैं पत्रकारों की इज्जत करता हूं, लेकिन ये पत्रकारिता कम अवैध वसूली ज्यादा करते हैं. इससे पहले भी इन्होने स्कूल शिक्षक से दो हज़ार रुपए लिए थे. फूलपुर में शराब के दूकान वाले से पैसे लेते रहे हैं. अब पत्रकारों का संगठन है तो कुछ भी कह रहे हैं लेकिन मैं किसी भी पूर्वाग्रह के साथ कार्रवाई नहीं किया था. शिक्षकों के साथ इन्होने उस दिन भी मारपीट की थी और पूर्व में भी कर चुके हैं.’’

संतोष जायसवाल शिवशंकर सिंह के आरोपों को ख़ारिज करते हैं और कहते हैं, ‘‘उनका काम ही आरोप लगाना है. मैं क्या करता हूं ये मुझे पता है. फंस गए तो दस बातें कह रहे हैं.’’

इस पूरे मामले के बारे में जानने के लिए हमने जिले के डीएम और एसएसपी को कई बार फोन किया लेकिन बात नहीं हो पाई. विवाद के समय इंडिया टुडे से बातचीत में आजमगढ़ के जिलाधिकारी एनपी सिंह ने कहा था, ‘‘पत्रकार के साथ कोई अन्याय नहीं होगा. हम लोग मामले को देख रहे हैं.’’

पवन जायसवाल की तरह की संतोष जायसवाल को भी संस्थान की तरह से कोई वेतन नहीं दिया जाता है. संतोष बताते हैं, ‘‘क्षेत्रीय पत्रकारों को वेतन कहां मिलता है. विज्ञापन से जो पैसे बन जाते है वहीं मिलता बस. इसके अलावा रोजाना बीस अख़बार संस्थान की तरह से मुफ्त मेरे पास आता है. हर अख़बार पर कमीशन के रूप में हमें 2.50 रुपए मिलते है. यानी हर दिन लगभग 50 रुपए की कमाई होती है. घर परिवार चलाने के लिए भाइयों की कपड़े की दुकान है उस पर ही मैं भी बैठता हूं.’’

इससे पहले आजमगढ़ के पत्रकार सुधीर सिंह पर भी कई मामले दर्ज हुए हैं. ये मामले स्थानीय लोगों द्वारा दर्ज कराए गए, लेकिन सुधीर सिंह का मानना है कि जिले के एसपी त्रिवेणी सिंह के इशारे पर मामले दर्ज किए गए. सुधीर सिंह के ऊपर 8, 9 और 10 अगस्त को जीयनपुर थाने में कुल तीन एफआईआर दर्ज हुई.

सुधीर सिंह

उत्तर प्रदेश सरकार से मान्यता प्राप्त पत्रकार सुधीर सिंह न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘जिला में पुलिस की मिलीभगत से गोतस्कर काम कर रहे थे. उसे लेकर  मैंने रिपोर्ट किया था जिससे स्थानीय एसएपी खफा हो गए और तीन दिनों के अंदर मेरे ऊपर तीन मामले दर्ज कर लिए गए. हैरानी वाली बात ये है कि तीनों मामले में मुझ पर मारपीट का आरोप लगा है. वहीं एक दूसरे मामले में विवेचना के दौरान मेरा नाम शामिल कर लिया गया. उस मामले के एफआईआर में मेरा नाम तक नहीं था. मामला खत्म हो गया था, लेकिन एसपी ने उसे दोबारा शुरू करा दिया है.’’

सुधीर सिंह को डर है कि पुलिस उन्हें कभी भी गिरफ्तार कर सकती है. वे कहते हैं, ‘‘8 से लेकर 10 अगस्त तक मेरे ऊपर मामले दर्ज हुए और तीन दिन बाद यानी 13 अगस्त को पुलिस ने दो मामलों में चार्जशीट कोर्ट को प्रेषित कर दिया गया. तीन दिन में जांच पूरी हो गई और चार्जशीट जमा हो गई. ऐसा कब होता है. मैंने तो अपने करियर में ऐसा होते नहीं देखा. यहां की पुलिस बहुत जल्दबाजी में है. चार्जशीट में ना मेरा बयान लिया गया और ना ही किसी और का बयान लिया गया.’’

‘पत्रकारिता को कुंद करने की कोशिश’

हाल ही में उत्तर प्रदेश में जिन पत्रकारों पर मामले दर्ज हुए उसमें से दो पत्रकार जन सन्देश टाइम्स अख़बार से जुड़े हुए हैं. जनसन्देश टाइम्स ने दोनों ही मामलों में अपने पत्रकारों का पक्ष लिया है. वहीं कई मामलों में देखा गया कि रिपोर्टर को अपने ही स्तर पर इन मामलों से जूझना पड़ रहा है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने जन सन्देश टाइम्स के कार्यकारी संपादक विजय विनीत से बात की और यह जानने की कोशिश की कि संस्थान किस तरह से अपने रिपोर्टरों का साथ दे रहा है. विजय कहते हैं, ‘‘आजमगढ़ वाले मामले में हमने प्रशासन पर दबाव बनाया तो जिस दरोगा की वजह से संतोष पर मामला दर्ज हुआ था उसका डिमोशन करके वहां से हटा दिया गया. उसके खिलाफ जांच भी बैठा दी गई है. हमारे रिपोर्टर पर जो गंभीर धाराएं पुलिस द्वारा लगाई गई थी उसे पुलिस ने खुद ही हटवाया. आजमगढ़ के डीएम ने काफी बेहतर तरीके से मामले को संभाला. हम आजमगढ़ वाले मामले को तूल नहीं दे रहे हैं. हम कितना मुकदमा लड़ेंगे. जब मेरे रिपोर्टर पर से मामला हट जाएगा तब हम मोर्चा खोलेंगे. रही बात मिर्जापुर वाले मामले की वहां पर हम लड़ रहे हैं. वहां के डीएम ने काफी कोशिश की बात करने की लेकिन हमने कहा कि आप पहले मुकदमा हटाइए फिर कोई बात होगी. एक तो आप भ्रष्टाचार कीजिए और फिर मुकदमा हम झेलें. 26 सितंबर को उत्तर प्रदेश जर्नलिस्ट एसोसिएशन लखनऊ में एक बड़ा आंदोलन करने जा रहा है.’’

पत्रकारों पर दर्ज हो रहे मामलों को लेकर विजय बीजेपी और आरएसएस पर सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘‘यह सुनियोजित तरीके से हो रहा है. जिस तरह न्यायपालिका की धार को कमजोर कर दिया गया उसी तरह पत्रकारिता के साथ भी करने की कोशिश की जा रही है. जहां जहां बीजेपी की सरकार है वहां इसी तरह से पत्रकारों को परेशान किया जा रहा है. यूपी में तो काम करना मुश्किल हो गया है.’’

इंडियन फेडेरेशन ऑफ़ वोर्किंग जर्नलिस्ट के नेशनल सेकेट्री सिद्धार्थ कालहंस बताते है, ‘‘पिछले एक महीने में उत्तर प्रदेश में लगभग 12 मामले पत्रकारों पर दर्ज हुए है. ये आंकड़ा उन पत्रकारों का है जिन पर खबर लिखने के कारण मामला दर्ज किया गया है. इसमें नोएडा के उन चार पत्रकारों के नाम शामिल नहीं है जिनपर गैंगगेस्टर एक्ट लगा हुआ है. उनकी गिरफ्तारी किसी खबर के कारण नहीं हुई है. हालांकि नोएडा में पत्रकारों को गिरफ्तार करना, पत्रकारों की गिरफ्तारी के मामले में फ्यूल का काम किया.’’

पत्रकारिता की आज़ादी में भारत की स्थिति पहले से ही बदहाल है. ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ द्वारा जारी वर्ष 2018 के ‘वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स’ में 180 देशों में भारत का 140 वां स्थान मिला है. पिछली सूची से भारत दो स्थान नीचे गया है. अभी जिस तरह से देश के अलग-अलग हिस्सों से पत्रकारों पर हमले और एफआईआर की खबरें आ रही है उससे अगले साल हालात और खराब होने की आशंका है.